सूतजी बोले [हे महर्षियो] समृद्धिसम्पन्न इक्ष्वाकुवंशमें परम धार्मिक तथा सभी धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ मित्रसह नामक राजा था ॥ 1 ॥उस राजाकी मदयन्ती नामक धर्मनिष्ठ तथा कल्याणमयी पत्नी थी, जो कि राजा नलकी प्रसिद्ध गुणोंवाली साध्वी दमयन्ती के समान सतीत्वसम्पन्न थी ॥ 2 ॥
आखेटमें रुचि रखनेवाला वह राजा मित्रसह एक बार विशाल सेनाको साथ लेकर घने वनमें गया ॥ 3 ॥
वहाँ घूमते हुए उस राजाने साधुओंको दुःख देनेवाले महादुष्ट तथा नीच कमठ नामक राक्षसको मार डाला। तब उस निशाचरका पापी छोटा भाई मैं इस राजाको छलसे जीत लूँगा' ऐसा निश्चय करके कपटरूप धारणकर राजाके पास गया ।। 4-5 ॥
उसे विनम्र आकृतिवाला तथा सेवा करनेके लिये आया हुआ देखकर उस राजाने बिना सोचे समझे ही उसे रसोईका अध्यक्ष बना दिया ॥ 6 ॥
उसके अनन्तर कुछ समयतक उस वनमें विहार करके वह राजा शिकारसे निवृत्त हो उस वनको हे मुनीश्वरो ! उसी समयसे वह राजा उस जलके प्रभावसे इस लोकमें कल्माषपाद नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ 15 ॥
तदनन्तर ऋषिश्रेष्ठ गुरुके शापसे वह राजा मित्रसह वनमें विचरण करनेवाला भयानक हिंसक राक्षस हो गया। कालान्तक यमके समान राक्षसरूप धारणकर वह राजा बनमें घूमता हुआ अनेक प्रकारके जन्तुओं एवं मनुष्योंका भक्षण करने लगा ॥ 16-17 ॥
यमराजके समान रूपवाले उस राक्षसने किसी समय वनमें विहार करते हुए किन्हीं नवविवाहित किशोर मुनिदम्पतीको देखा। तब मनुष्यका आहार करनेवाले उस शापग्रस्त राक्षसने किशोर मुनिपुत्रको खानेके लिये इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार व्याघ्र मृगशावकको पकड़ लेता है ॥ 18- 19 ॥
इसके बाद राक्षसद्वारा काँखमें दबाये गये अपने पतिको देखकर उसकी पत्नी भयभीत होकर करुण वचन बोलती हुई उससे प्रार्थना करने लगी ॥ 20 ॥
किंतु उसके अनेक बार प्रार्थना करनेपर भी नरभक्षी, निर्दयी तथा दूषित अन्तःकरणवाला वह [राक्षस] ब्राह्मणपुत्रका सिर नोचकर खा गया ॥ 21 ॥
तब अत्यन्त दुःखित उस दीन साध्वी स्त्रीने विलापकर पतिकी अस्थिय एकत्रितकर विशाल चिताका निर्माण किया ।। 22 ।।
उसके बाद पतिका अनुगमन करनेवाली उस ब्राह्मण पत्नीने अग्निमें प्रवेश करते समय राक्षसरूपधारी राजाको शाप दिया कि 'आजसे यदि तुम किसी स्त्रीसे संगम करोगे, तो उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जायगी' ऐसा कहकर वह पतिव्रता अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ।। 23-24 ।।
वह राजा भी निर्धारित अवधितक गुरुके शापका अनुभव करके पुनः अपना [वास्तविक] रूप धारणकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया ॥ 25 ॥
ब्राह्मणीके शापको जानकर वैधव्यसे अत्यन्त डरती हुई मदयन्तीने रतिके लिये उत्सुक अपने पतिको रोका ॥ 26 ॥
तब सन्तानविहीन वह राजा राज्यभोगोंसे उदासीन होकर सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर बनमें ही चला गया। 20 ॥छोड़कर आनन्दपूर्वक अपने नगरको लौट आया ॥ 7 ॥ उसके बाद राजाने पिताका श्राद्धदिन आनेपर अपने गुरु वसिष्ठजीको आमन्त्रितकर उन्हें घर बुलाया और भक्तिपूर्वक भोजन कराया ll 8 ॥
रसोइयेका रूप धारण करनेवाले उस राक्षसने वसिष्ठजी के सामने मनुष्यके मांससे मिश्रित शाकामिष परोसा; तब गुरु इसे देखकर कहने लगे-॥ 9 ॥
गुरुजी बोले- हे राजन् तुम्हें धिक्कार है, जो कि कपटी तथा दुष्ट तुमने मुझे मनुष्यका मांस परोस दिया; अत: तुम राक्षस हो जाओगे। पुनः इसे उस राक्षसका कृत्य जानकर उन गुरुने विचार करके उस शापकी अवधि बारह वर्षपर्यन्त कर दी। ll 10-11 ॥
तब वह राजा [गुरुके द्वारा बिना सोचे समझे दिये गये] इस शापको अनुचित जानकर क्रोधसे व्याकुल हो गया और अंजलिमें जल लेकर गुरुको शाप देनेको उद्यत हुआ। तब उसकी धर्मशीला पतिव्रता स्त्री मदयन्तीने उसके चरणोंमें गिरकर उसे गुरुको शाप देनेसे मना किया 12-13 ॥ तब राजा अपनी पत्नीकी बातका आदर करके
शाप देनेसे रुक गया और उसने जलको अपने चरणोंपर
गिरा दिया, जिससे उसके चरण काले पड़ गये ॥ 14 ॥उसने अपने पीछे-पीछे आती हुई तथा बार बार धमकाती हुई विकट आकारवाली दुःखदायिनी ब्रह्महत्याको देखा। उससे पीछा छुड़ानेकी इच्छावाले दुःखितचित्त उस राजाने जप, व्रत, यज्ञ आदि अनेक उपाय किये ॥ 28-29 ॥
हे ब्राह्मणो! जब तीर्थ स्नान आदि अनेक उपायोंसे भी उस राजाकी ब्रह्महत्या दूर नहीं हुई, तब वह राजा मिथिलापुरी चला गया। उस ब्रह्महत्याकी चिन्तासे अत्यन्त दुःखित राजा मिथिलापुरीके बाहर उद्यानमें पहुँचा; वहाँ उसने मुनि गौतमको आते हुए | देखा ॥ 30-31 ॥
राजाने विशुद्ध अन्तःकरणवाले उन महर्षिके | पास जाकर उनके दर्शनसे कुछ शान्ति प्राप्त करके बार बार उन्हें प्रणाम किया ॥ 32 ॥
उसके अनन्तर ऋषिने उसका कुशल मंगल पूछा तब उनकी कृपादृष्टिसे कुछ सुखका अनुभव करके दीर्घ तथा गर्म श्वास लेकर राजाने उनसे कहा- ॥ 33 ॥
राजा बोले- हे मुने हे तात! दूसरोंके द्वारा न देखी जा सकनेवाली यह दुस्तर ब्रह्महत्या पग-पगपर धमकी देती हुई मुझे बहुत दुःख दे रही है ll 34 ॥
शापग्रस्त होनेके कारण जो मैंने ब्राह्मणपुत्रका भक्षण किया था, उस पापकी शान्ति हजारों प्रायश्चित्त करनेपर भी नहीं हो पा रही है ॥ 35 ॥
हे मुने! [इधर-उधर ] घूमते हुए उसकी शान्तिके लिये मेरे द्वारा अनेक उपाय किये गये, फिर भी पापीकी ब्रह्महत्या निवृत्त नहीं हुई ॥ 36 ॥ 'मुझ आज मुझे मालूम पड़ता है कि मेरा जन्म सफल हो गया; क्योंकि आपके दर्शनमात्रसे मुझे विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है ॥ 37 ॥
अतः हे महाभाग ! आपके चरणकमलकी शरणमें आये हुए मुझ पापकर्माको शान्ति प्रदान कीजिये, जिससे मैं सुख प्राप्त कर सकूँ ॥ 38 ॥
सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] राजाके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर करुणासे आर्द्र चित्तवाले गौतमजीने घोर पापोंसे छुटकारा पानेके लिये [राजाको] श्रेष्ठ उपाय बताया ॥ 39 ॥गौतमजी बोले- हे राजेन्द्र तुम धन्य हो, अब तुम महापापोंके भयका त्याग करो; सबपर शासन | करनेवाले शिवके रहनेपर उनके शरणागतोंको भय कहाँ ? ।। 40 ।।
हे राजन्! हे महाभाग ! सुनो; महापातकों को दूर करनेवाला गोकर्ण नामक एक अन्य प्रसिद्ध शिवक्षेत्र है, वहाँपर शिवजी महाबल नामसे स्वयं विराजमान रहते हैं - वहाँ बड़े-से-बड़े पाप भी टिक नहीं सकते ।। 41-42 ॥
महाबलेश्वर लिंग सभी लिंगोंका सार्वभौम सम्राट् है, जो चार युगों में चार प्रकारके वर्ण धारण करता है। और सभी प्रकारके पापोंको विनष्ट करनेवाला है ॥ 43 ॥
पश्चिमी समुद्रके तटपर उत्तम गोकर्णतीर्थ स्थित है; वहाँपर जो शिवलिंग है, वह महापातकोंका नाश करनेवाला है। महापापी भी वहाँ जाकर सभी तीर्थोंमें बारंबार स्नानकर महाबलेश्वरकी पूजाकर शैव पदको प्राप्त हुए हैं ।। 44-45 ।।
हे राजेन्द्र ! उसी प्रकार तुम भी उस गोकर्ण नामक शिवस्थानमें जाकर उस लिंगका पूजनकर अपने मनोरथको प्राप्त करो। तुम वहाँ सभी तीर्थोंमें स्नानकर महाबलेश्वरका भलीभाँति पूजन करके सभी पापोंसे छुटकारा पाकर शिवलोकको प्राप्त करो ll 46-47 ll
सूतजी बोले- [हे महर्षियो!] इस प्रकार महान् आत्मावाले महर्षि गौतम मुनिसे आज्ञा प्राप्तकर वह राजा अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर गोकर्णतीर्थमें गया और वहाँ सभी तीर्थोंमें स्नानकर महाबलेश्वरकी पूजा करके अपने सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर उसने शिवके परम पदको प्राप्त किया ।। 48-49 ।।
जो [मनुष्य] महाबलेश्वरकी इस प्रिय कथाको नित्य सुनता है, वह इक्कीस पौड़ीके वंशजों सहित शिवलोकको जाता है। [हे महर्षियो।] इस प्रकार मैंने आपलोगों से महाबलेश्वर नामक शिवलिंगके सर्वपापनाशक परम अद्भुत माहात्म्यका वर्णन किया ।। 50-51 ॥