सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी ! शिवजीके [उस] चरित्रको अत्यन्त प्रेमसे सुनिये, जिस प्रकार महादेवने दानवेन्द्र गजासुरको त्रिशूलसे मारा पूर्वकालमें देवगणोंक हितके लिये युद्धमें देवीके द्वारा दानव महिषासुरका वध कर दिये जानेपर देवता सुखी हो गये ॥ 1-2 ॥
हे मुनीश्वर देवताओंकी प्रार्थनासे देवीद्वारा किये गये अपने पिताके वधका स्मरण करके महावीर गजासुर, उस वैरका स्मरणकर तप करनेहेतु वनमें गया और ब्रह्माजीको उद्देश्य करके प्रीतिपूर्वक कठोर तप करने लगा ।। 3-4 ॥
'मैं कामके वशीभूत स्त्री तथा पुरुषोंसे अवध्य होऊँ' - इस प्रकार मनमें विचारकर वह तपमें दत्तचित्त हो गया। वह हिमालय पर्वतकी गुफामें भुजाओंको उठाकर आकाशमें दृष्टि लगाये हुए पैरके अँगूठेसे पृथ्वीको टेककर परम दारुण तप करने लगा ॥ 5-6 ॥ वह उदार बुद्धिवाला महिषासुरपुत्र गजासुर जटाओंके भारको कान्तिसे प्रलयके सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था उसके मस्तकसे उत्पन्न हुईतपोमय धूमाग्नि तिरछे, ऊपर तथा नीचेके लोकोंको तप्त करती हुई चारों ओर फैल गयी। उसके मस्तकसे प्रकट हुई अग्निसे नदी तथा समुद्र सूख गये, ग्रहसहित तारे गिरने लगे तथा दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो गयीं ।। 7-9 ॥
उस अग्निसे तप्त हुए इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोकको त्यागकर ब्रह्मलोकको गये और ब्रह्माजीसे बोले कि पृथ्वी चलायमान हो रही है ll 10 ll
देवगण बोले- हे विधे! गजासुरके तपसे हमलोग सन्तप्त तथा व्याकुल हैं और स्वर्गमें स्थित रहनेमें समर्थ नहीं हैं, इसलिये आपकी शरणमें आये हैं हे ब्रह्मन्। आप कृपाकर अन्य लोगोंको जीवित रखनेके लिये उस दैत्यको शान्त कीजिये, अन्यथा सभी लोग नष्ट हो जायेंगे। हमलोग सत्य-सत्य कह रहे हैं। इस प्रकार इन्द्र आदि देवों तथा भृगु, दक्ष आदिसे प्रार्थित हुए ब्रह्माजी उस दैत्येन्द्रके आश्रमपर गये। आकाशमें मेघोंसे ढँके हुए सूर्यके समान लोकोंको तपाते हुए उसको देखकर विस्मित हो ब्रह्माजीने हँसते हुए कहा- ॥ 11-14 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे दैत्येन्द्र ! हे महिषपुत्र ! हे तात! उठो, उठो, तुम्हारा तप सिद्ध हुआ, मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ, अपनी इच्छाके अनुकूल वर माँगो ॥ 15 ॥
सनत्कुमार बोले- उस दैत्येन्द्र गजासुरने उठकर अपने नेत्रोंसे विभु ब्रह्माजीको देखते हुए प्रसन्न होकर वर माँगनेके लिये गद्गद वाणीसे कहा- ll 16 ॥
गजासुर बोला- हे देवदेवेश! आपको नमस्कार है, यदि आप मुझे वर दे रहे हैं, तो मैं कामके वशीभूत स्त्री-पुरुषोंसे अवध्य हो जाऊँ। हे विभो ! मैं महाबलवान्, वीर्यवान् तथा देवता आदिसे सदा अजेय और सम्पूर्ण लोकपालोंकी समस्त सम्पत्तिको भोगनेवाला होऊँ ॥ 17-18 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार उस दैत्यके वर माँगनेपर उसके तपसे प्रसन्न हुए ब्रह्माजीने उसे अति | दुर्लभ वरदान दिया ll 19 ॥
इस प्रकार वह महिषासुरपुत्र गजासुर वर पाकर अति प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थानको चला गया ll 20 ॥तदुपरान्त सम्पूर्ण दिशाओं तथा तीनों लोकोंको जीतकर एवं देवता, असुर, मनुष्य, इन्द्र, गन्धर्व, गरुड और सर्प आदिको भी जीतकर उन्हें अपने वशमें करके संसारको जीतनेवाले उस दैत्यने तेजसहित लोकपालोंके स्थानोंका हरण कर लिया। देवोद्यानकी शोभासे युक्त साक्षात् विश्वकर्माद्वारा निर्मित किये गये स्वर्गस्थित महेन्द्रगृहमें वह निवास करने लगा । ll 21 - 23 ॥
महाबली, महामना तथा लोकोंको जीतनेवाला और कठोर शासनवाला वह दैत्य पीड़ित हुए देवताओंसे अपने दोनों चरणोंमें प्रणाम कराते हुए महेन्द्रके उस घरमें विहार करने लगा। इस प्रकार जीती हुई दिशाओंका एकमात्र स्वामी अजितेन्द्रिय वह दैत्य प्रिय विषयोंको लोलुपतासे भोगता हुआ तृप्त न हुआ । ll 24-25 ।।
इस प्रकार ऐश्वर्यसे उन्मत्त, अहंकारी तथा शास्त्रोंका उल्लंघन करनेवाले उस दैत्यको बहुत समय बीत जानेपर पापबुद्धि उदित हुई। देवगणोंको पीड़ा देनेवाला महिषासुरका वह पुत्र पृथ्वीपर श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा तपस्वियोंको अत्यधिक क्लेश देने लगा ॥ 26-27 ll
वह दुष्टबुद्धि दैत्य पहलेके वैरभावका स्मरण करता हुआ देवताओं तथा सभी प्रमधोंको और विशेषकर धर्मात्माओंको अति कष्ट देने लगा। हे तात! एक समय वह महाबली दैत्य गजासुर शिवजीकी राजधानी काशीको गया। हे मुने! उस समय दैत्येन्द्रके आनेपर आनन्दवनमें निवास करनेवालोंका 'रक्षा करो, रक्षा करो' इस प्रकारका महाशब्द होने लगा ॥ 28-30 ॥
जिस समय अपने वीर्य और मदसे उन्मत्त हुआ महिषासुरका पुत्र सभी प्रमथोंको पीड़ित करता हुआ नगरीमें आया, उसी समय गजासुरसे पराजित हुए इन्द्रादि सब देवता शिवजीकी शरणमें गये और आदरसे प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे। उन्होंने काशीमें उस दैत्यके आगमन तथा विशेषकर वहाँ रहनेवाले शिवभक्तोंका अति दुःख भी निवेदन किया ll 31-33 ॥
देवगण बोले- हे देवदेव! हे महादेव! आपकी नगरीमें आया हुआ दैत्य गजासुर आपके भक्तजनोंको कष्ट | दे रहा है, अतः हे कृपानिधे! आप उसका वध करें 34 ॥ ॐ वह भूमिपर जहाँ-जहाँ चरण रखता है, वहाँ | उसके भारसे अचल पृथ्वी भी चलायमान हो जाती है उसकी जंघाके वेगसे डालियों सहित वृक्ष गिरनेलगते हैं। उसके भुजदण्डके आघातसे शिखरों सहित पर्वत चूर्ण हो जाते हैं, उसके मुकुटके संघर्षसे मेघ आकाशका त्याग करते हैं और उसके बालोंके सम्पर्क से उत्पन्न हुए नीलेपनको वे अबतक भी नहीं छोड़ते। जिसके निःश्वासके भारोंसे ऊँची तरंगोंवाले महासागर तथा नदियाँ भी जलजन्तुओंके सहित बड़ा कल्लोल करती हैं, जिसके शरीरकी ऊँचाई उसकी मायासे नौ सहस्र योजन हो जाती है तथा मायावी उस दैत्यका विस्तार (चौड़ाईका घेरा) भी उतना ही हो जाता है, जिसके नेत्रोंके पीलेपन और चांचल्यको बिजली आज भी नहीं धारण कर सकती है, वही बड़े वेगसे यहाँ आ गया है ।। 35-40 ।।
वह असहा दैत्य जिस-जिस दिशामें जाता है, 'कामसे जीते हुए स्त्री-पुरुषोंसे मैं अवध्य हूँ, इस प्रकार वहाँ कहता है। काशीकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले हे देवेश! इस प्रकार हम लोगोंने उस दैत्यकी चेष्टाका आपसे निवेदन किया, आप भक्तोंकी रक्षा कीजिये ॥ 41-42 ।।
सनत्कुमार बोले- देवताओं द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर भक्तोंकी रक्षामें तत्पर वे शिवजी उसके वधकी कामनासे बड़ी शीघ्रतासे वहाँ आये ।। 43 ।।
त्रिशूल हाथमें धारण किये हुए उन भक्तवत्सल शिवजीको गरजते हुए आया देखकर गजासुर गरजने लगा। तब वीरगर्जन करते हुए उन दोनोंका अनेक अस्त्रों तथा शस्त्रोंके प्रहारसे दारुण तथा अद्भुत युद्ध हुआ ।। 44-45 ।।
अति तेजस्वी तथा महाबली गजासुरने दैत्योंका विनाश करनेवाले शिवजीपर तीव्र बाणोंसे प्रहार किया ।। 46 ।।
हे मुने। उस समय भयंकर शरीरवाले शिवजीने अपने अति दारुण बाणोंसे अपने समीप न पहुँचे हुए उसके बाणोंको शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर दिया ॥ 47 ॥
तब हाथमें खड्ग लेकर 'अब तुम मेरे द्वारा मारे गये'- इस प्रकार ऊँचे स्वरसे गर्जनकर क्रोधित होकर गजासुर शिवजीकी ओर दौड़ा। तब त्रिशूलधारी भगवान् | शिवने उस दैत्य श्रेष्ठको आता हुआ देखकर तथा अन्यके द्वारा अवध्य जानकर उसे त्रिशूलसे मारा। उस त्रिशूलसे विद्ध हुआ वह गजासुर दैत्य अपनेको शिवका छत्ररूप मानता हुआ शिवजीकी स्तुति करने लगा ॥ 48- 50॥गजासुर बोला- हे देवदेव ! हे महादेव! मैं सब प्रकारसे आपका भक्त हूँ। हे त्रिशूलिन् ! मैं कामदेवका नाश करनेवाले आप देवेशको जानता हूँ ॥ 51 ॥ हे अन्धकारे! हे महेशान! हे त्रिपुरान्तक! हे सर्वग! आपके हाथसे मेरा वध परम कल्याणकारी हुआ ।। 52 ।। हे कृपालो ! हे मृत्युंजय! मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ, उसे सुनिये, सत्य ही कहूँगा, असत्य नहीं, आप विचार कीजिये। एकमात्र आप संसारके वन्दनीय हैं तथा संसारके ऊपर स्थित हैं। समयसे सभीको मरना है, परंतु ऐसी मृत्यु कल्याणके निमित्त होती है ।। 53-54 ll
सनत्कुमार बोले- उसका यह वचन सुनकर दयानिधि शिवजीने हँसकर महिषासुरके पुत्र गजासुरसे कहा- ॥ 55 ॥
ईश्वर बोले - हे महापराक्रमनिधे! हे दानवोत्तम ! हे श्रेष्ठ मतिवाले! हे गजासुर! मैं प्रसन्न हूँ, अपने अनुकूल वर माँगो ॥ 56 ॥
सनत्कुमार बोले- वर देनेवाले शिवजीका यह वचन सुनकर दानवेन्द्र गजासुरने प्रसन्नचित्त होकर कहा- ॥ 57 ॥
गजासुर बोला- हे महेशान! हे दिगम्बर! यदि आप प्रसन्न हैं, तो अपने त्रिशूलकी अग्निसे पवित्र किये | हुए मेरे इस देहचर्मको नित्य धारण कीजिये। अपने प्रमाणवाले, कोमल स्पर्शवाले, युद्धक्षेत्रमें समर्पित किये गये, देखनेयोग्य, महादिव्य, निरन्तर सुखदायक मेरे चर्मको धारण कीजिये। यह चर्म सदा सुगन्धयुक्त, अतिकोमल, निर्मल तथा अति शोभायमान हो । ll 58- 60 ॥
हे विभो तेज धूप तथा अग्निकी लपटको बहुत देरतक प्राप्त करके भी पवित्र सुगन्धनिधिके कारण मेरा यह देहचर्म भस्म न हो ॥ 61 ॥
हे दिगम्बर! यदि मेरा यह चर्म पुण्यमय नहीं | होता, तो युद्धस्थलमें आपके अंगके साथ इसका संग कैसे होता । हे शिवजी ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे दूसरा वर दीजिये कि आजसे प्रारम्भकर आपका नाम कृत्तिवासा हो ।। 62-63 ।।
सनत्कुमार बोले- उसका यह वचन सुनकर भक्तप्रिय भक्तवत्सल महेशान शिवजी प्रसन्न होकर | भक्तिसे निर्मल मनवाले उस गजासुर नामक दानवसे पुनः कहने लगे ॥ 64-65 ।।ईश्वर बोले- मुक्तिके साधन इस क्षेत्रमें तुम्हारा यह पवित्र शरीर सभीके लिये मुक्तिदायक मेरा लिंग होगा। यह महापापों का नाश करनेवाला, समस्त श्रेष्ठ लिंगोंमें प्रधान एवं मुक्तिको देनेवाला कृत्तिवासेश्वर नामक लिंग होगा ॥ 66-67 ।।
इस प्रकार कहकर उन दिगम्बर देवेशने गजासुरके उस विस्तृत चर्मको लेकर उसे धारण कर लिया ॥ 68 ॥
हे मुनीश्वर ! उस दिन बहुत बड़ा महोत्सव हुआ, काशीनिवासी सभी लोग तथा प्रमथगण प्रसन्न हो गये। उस समय हर्षपूर्ण मनवाले विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओंने हाथ जोड़कर शिवजीको नमस्कार करके उनकी स्तुति की। दानवोंके स्वामी महिषासुरपुत्र गजासुरके मार दिये जानेपर देवगणोंने अपने स्थानको प्राप्त कर लिया और संसार सुखी हो गया ॥ 69-71 ॥
इस प्रकार भक्तोंके प्रति दयासूचक, स्वर्ग-कीर्ति एवं आयुको देनेवाले और धनधान्यको बढ़ानेवाले शिवचरित्रका वर्णन कर दिया गया। उत्तम व्रतवाला जो मनुष्य प्रीतिसे इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह महान् सुख पाकर अन्तमें मोक्षको प्राप्त करता है ।। 72-73 ।।