नन्दिकेश्वर बोले- वे दोनों ब्रह्मा और विष्णु भगवान् शंकरको प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनके दायें-बायें भागमें चुपचाप खड़े हो गये। फिर उन्होंने वहाँ [साक्षात् प्रकट) पूजनीय महादेवजीको कुटुम्बसहित श्रेष्ठ आसनपर स्थापित करके पवित्र पुरुष वस्तुओंद्वारा उनका पूजन किया ॥ 1-2 ॥दीर्घकालतक अविकृतभावसे सुस्थित रहनेवाली वस्तुओंको पुरुषवस्तु कहते हैं और अल्पकालतक ही टिकनेवाली वस्तुएँ प्राकृतवस्तु कहलाती हैं- इस तरह वस्तुके ये दो भेद जानने चाहिये। [किन पुरुष वस्तुओंसे उन्होंने भगवान् शिवका पूजन किया, यह बताया जाता है— ] हार, नूपुर, केयूर, किरीट, मणिमय कुण्डल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्प माला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका (अँगूठी), पुष्प, ताम्बूल, कपूर, चन्दन एवं अगुरुका अनुलेप, धूप, दीप, श्वेतछत्र, व्यजन, ध्वजा, चँवर तथा अन्यान्य दिव्य उपहारोंद्वारा उन दोनोंने अपने स्वामी महेश्वरका पूजन किया, जिन महेश्वरका वैभव वाणी और मनकी पहुँचसे परे था, जो केवल पशुपति परमात्माके ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्ध जीव) नहीं पा सकते ll 3–51/2 ॥
हे सनत्कुमार! स्वामीके योग्य जो-जो उत्तम वस्तुएँ थीं, उन सभी वस्तुओंका भगवान् शंकरने भी प्रसन्नतापूर्वक यथोचित रूपसे सभासदोंके बीच वितरण कर दिया, जिससे यह श्रेष्ठ परम्परा बनी रहे कि प्राप्त पदार्थोंका वितरण आश्रितोंमें करना चाहिये। उन वस्तुओंको ग्रहण करनेवाले सभासदोंमें वहाँ कोलाहल मच गया। इस प्रकार वहाँ पहले ही ब्रह्मा तथा विष्णुसे पूजित हुए भक्तिवर्धक भगवान् शिव विनम्र उन दोनों देवताओंसे हँसकर कहने लगे । ll 6-8 1/2 ॥
ईश्वर बोले – हे पुत्रो ! आजका दिन महान् है। इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुमलोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान् से महान् होगा। आजकी यह तिथि शिवरात्रिके नामसे विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी ।। 9-10 ॥
इस समय जो मेरे लिंग (निष्कल-अंग आकृतिसे रहित निराकार स्वरूपके प्रतीक) और वेर (सकल-साकाररूपके प्रतीक विग्रह) की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत् की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता है ॥ 11 ॥जो शिवरात्रिको दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय | रहकर अपनी शक्तिके अनुसार निष्कपट भावसे मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो। एक वर्षतक निरन्तर मेरी पूजा करनेपर जो फल मिलता है, वह सारा फल केवल शिवरात्रिको मेरा पूजन करनेसे मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है ।। 12-13 ॥
जैसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय समुद्रकी वृद्धिका अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे धर्मकी वृद्धिका समय है। इस तिथिमें मेरी स्थापना आदिका मंगलमय उत्सव होना चाहिये ॥ 14 ॥
हे वत्सो! पहले मैं जब ज्योतिर्मय स्तम्भरूपसे | प्रकट हुआ था, उस समय मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्र था। अतः जो पुरुष मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्र होनेपर मुझे उमापतिका दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंगकी ही झाँकीका दर्शन करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेयसे भी अधिक प्रिय है। उस शुभ दिन मेरे दर्शनमात्रसे पूरा फल प्राप्त होता है। यदि [ दर्शनके | साथ-साथ] मेरा पूजन भी किया जाय तो उसका अधिक फल प्राप्त होता है, जिसका वाणीद्वारा वर्णन नहीं हो सकता ।। 15- 17 ॥
इस रणभूमिमें मैं लिंगरूपसे प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था। अतः उस लिंगके कारण यह भूतल लिंगस्थानके नामसे प्रसिद्ध हुआ हे पुत्रो ! जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योति स्तम्भ अत्यन्त छोटा हो जायगा। यह लिंग सब प्रकारके भीगोंको सुलभ करानेवाला और भोग तथा मोक्षका एकमात्र साधन होगा। इसका दर्शन, स्पर्श तथा ध्यान प्राणियोंको जन्म और मृत्युसे छुटकारा दिलानेवाला होगा ।। 18-20 ॥
अग्निके पहाड़ जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नामसे प्रसिद्ध होगा। यहाँ अनेक प्रकारके बड़े बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थानमें निवास करने या मरनेसे जीवोंका मोक्ष हो जायगा ।। 21-22 ।।रथोत्सवादिके आयोजनसे यहाँ सर्वत्र अनेक लोग कल्याणकारी रूपसे निवास करेंगे। इस स्थानपर किया गया दान, हवन तथा जप - यह सब करोड़गुना फल देनेवाला होगा। यह क्षेत्र मेरे सभी क्षेत्रोंमें श्रेष्ठतम होगा। यहाँ मेरा स्मरण करनेमात्रसे प्राणियोंकी मुक्ति हो जायगी। अतः यह परम रमणीय क्षेत्र अति महत्त्वपूर्ण है। यह सभी प्रकारके कल्याणोंसे पूर्ण, शुभ और सबको मुक्ति प्रदान करनेवाला होगा ।। 23 - 25 ॥
इस लिंगमें मुझ लिंगेश्वरकी अर्चना करके मनुष्य सालोक्य सामीप्य, सारूप्य, साष्टि और सायुज्य इन पाँचों प्रकारकी मुक्तियोंका अधिकार प्राप्त कर लेगा। आपलोगोंको भी शीघ्र ही सभी मनोवांछित फल प्राप्त होंगे ll 26-27 ॥
नन्दिकेश्वर बोले- इस प्रकार विनम्र ब्रह्मा तथा विष्णुपर अनुग्रह करके भगवान् शंकरने उनके जो सैन्यदल परस्पर युद्धमें मारे गये थे, उन्हें अपनी अमृतवर्षिणी शक्तिसे जीवित कर दिया। उन दोनों ब्रह्मा और विष्णुकी मूढ़ता और [पारस्परिक] बैरको मिटानेके लिये भगवान् शंकर उन दोनोंसे कहने लगे- ll 28-29 ॥
मेरे दो रूप हैं-'सकल' और 'निष्कल'। दूसरे किसीके ऐसे रूप नहीं है, अतः [मेरे अतिरिक्त ] अन्य सब अनीश्वर हैं। हे पुत्रो ! पहले मैं स्तम्भरूपसे प्रकट हुआ, फिर अपने साक्षात् रूपसे 'ब्रह्मभाव' मेरा 'निष्कल' रूप और 'महेश्वरभाव' सकल रूप है। ये दोनों मेरे ही सिद्धरूप हैं; मेरे अतिरिक्त किसी दूसरेके नहीं हैं। इस कारण तुम दोनोंका अथवा अन्य किसीका भी ईश्वरत्व कभी नहीं है ॥ 30-32 ॥
अज्ञानके कारण तुम दोनोंको जो यह ईशत्वका आश्चर्यजनक अभिमान उत्पन्न हो गया था, उसे दूर करनेके लिये ही मैं इस रणभूमिमें प्रकट हुआ हूँ। उस अपने अभिमानको छोड़ दो और मुझ परमेश्वरमें [अपनी] बुद्धि स्थिर करो। मेरे अनुग्रहसे ही सभी लोकोंमें सब कुछ प्रकाशित होता है। इस गूढ़ ब्रह्मतत्वको तुम्हारे प्रति प्रेम होनेके कारण ही मैं बता रहा हूँ। 33-35 ॥मैं ही परब्रह्म हूँ। कल (सगुण) और अकल (निर्गुण) – ये दोनों मेरे ही स्वरूप हैं। मेरा स्वरूप ब्रह्मरूप होनेके कारण मैं ईश्वर भी हैं। जीवोंपर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है। हे ब्रह्मा और केशव सबसे बृहत् और जगत्की वृद्धि करनेवाला होनेके कारण मैं 'ब्रह्म' हूँ। हे पुत्रो ! सर्वत्र समरूपसे स्थित और व्यापक होनेसे मैं ही सबका आत्मा हूँ ।। 36-37 ।।
अन्य सभी जीव अनात्मरूप हैं; इसमें सन्देह नहीं है। सर्गसे लेकर अनुग्रहतक (आत्मा या ईश्वरसे भिन्न) जो जगत् सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतिरिक्त दूसरे किसीके नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपताका बोध करानेके लिये 'निष्कल' लिंग प्रकट हुआ था, फिर तुम दोनोंको अज्ञात ईश्वरत्वका स्पष्ट साक्षात्कार करानेके लिये मैं साक्षात् जगदीश्वर ही 'सकल' रूपमें तत्काल प्रकट हो गया। अतः मुझमें जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकलरूप जानना चाहिये तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूपका बोध करानेवाला है। हे पुत्रो लिंग-लक्षणयुक्त होनेके कारण यह मेरा ही लिंग (चिह्न) है। तुम दोनोंको प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका पूजन करना चाहिये। यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है। लिंग और लिंगीमें नित्य अभेद होनेके कारण मेरे इस लिंगका महान् पुरुषोंको भी पूजन करना चाहिये ॥ 38-43 ॥
हे वत्सो! जहाँ-जहाँ जिस किसीने मेरे लिंगको स्थापित कर लिया, वहाँ मैं अप्रतिष्ठित होनेपर भी प्रतिष्ठित हो जाता हूँ ॥ 44 ॥
मेरे एक लिंगकी स्थापना करनेका फल मेरी समानताकी प्राप्ति बताया गया है। एकके बाद दूसरे शिवलिंगकी भी स्थापना कर दी गयी, तब फलरूपसे मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है ॥ 45 ॥प्रधानतया शिवलिंगकी ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्तिकी स्थापना उसकी अपेक्षा गौण है । शिवलिंगके अभावमें सब ओरसे मूर्तियुक्त होनेपर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता ॥ 46 ॥