मुनि बोले - [ हे देव !] आपने पूर्वमें पशु तथा पाशके विषय में बताया है, अब इन दोनोंसे विलक्षण तथा इनपर शासन करनेवाले किसी [तत्त्व] अर्थात् पशुपतिके विषयमें बताइये ॥ 1 ॥
वायुदेवता कहते हैं- महर्षियो! इस विश्वका निर्माण करनेवाला कोई पति है, जो अनन्त रमणीय गुणोंका आश्रय कहा गया है। वही पशुओंको पाशसे मुक्त करनेवाला है उसके बिना संसारकी सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है। प्रधान परमाणु आदि जितने भी जड़ तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही है यह बात स्वयं समझमें आ जाती है। किसी बुद्धिमान् या चेतन कारणके बिना इन जड़ तत्वोंका निर्माण कैसे सम्भव है ॥ 2-4 ॥
यह जगत् कर्तृसापेक्ष है; क्योंकि [ घटादिके समान] कार्य सावयव है। अतः कार्यका कर्ता ईश्वर ही हो सकता है, पशु और पाश नहीं 5पशु भी कर्ता होता है, किंतु वह ईश्वरकी प्रेरणासे ही होता है, उसका यह कर्तृत्व [दूसरेके आश्रयसे] अन्धेके चलनेके समान भ्रमात्मक होता है। यह जीव जब अपनेको प्रेरक ईश्वरसे भिन्न मानकर उसकी उपासना करता है, तब ईश्वरसे उपकृत हो जानेके कारण, वह अमृतत्वको प्राप्त कर लेता है ॥ 6-7 ॥
पशु, पाश और पतिका जो वास्तवमें पृथकृ पृथक स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनिसे मुक्त होता है। क्षर और अक्षर-ये दोनों एक दूसरेसे संयुक्त होते हैं। पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत्का भरण-पोषण करते हैं। वे ही जगत्को बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं ॥ 8-9 ॥
भोक्ता, भोग्य और प्रेरक-ये तीन ही तत्त्व जाननेयोग्य हैं। विज्ञ पुरुषोंके लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु जाननेयोग्य नहीं है ॥ 10 ll
जिस प्रकार तिलमें तेल, दहीमें घृत, स्त्रोतमें जल तथा अरणिमें अग्नि व्याप्त रहती है, उसी प्रकार विलक्षण महान् आत्माको सत्य एवं तपसे नित्ययुक्त व्यक्ति अपनेमें सतत देखता है ll 11-12 ॥
इन्द्रजालके समान एक ही ईश्वर वशमें करनेवाली अपनी माया शक्तियोंसे इन सभी लोकोंको वशमें | करके अपना ऐश्वर्य विस्तार करता है ॥ 13 ॥
सृष्टिके आरम्भमें एक ही रुद्रदेव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत्की सृष्टि करके इसकी रक्षा करते हैं और अन्तमें सबका संहार कर डालते हैं। उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं ।। 14-15 ।। वे ही एक महेश्वर देव द्यौ तथा पृथ्वीको | उत्पन्न करते हैं और वे ही सम्पूर्ण देवगणोंको उत्पन्न करते हैं तथा उनकी अभिवृद्धि करते हैं॥ 16 ॥
ये ही सबसे पहले देवताओंमें ब्रह्माजीको उत्पन्न करते हैं। श्रुति कहती है कि 'रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ महान् ऋषि हैं। मैं इन महान् अमृतस्वरूप अविनाशी पुरुष परमेश्वरको जानता हूँ। इनकीअंगकान्ति सूर्यके समान है। ये प्रभु अज्ञानान्धकारसे परे विराजमान हैं। इन परमात्मासे परे दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इनसे अत्यन्त सूक्ष्म और इनसे अधिक महान् भी कुछ नहीं है। इनसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है ॥ 17-19 ॥
उन परमात्मा रुद्रके मुख, सिर और ग्रीवा सर्वत्र व्याप्त हैं, सभी प्राणियोंके हृदयस्थलमें वे स्थित हैं, वे सर्वव्यापी, सर्वगत, ऐश्वर्यशाली एवं शिवस्वरूप हैं ॥ 20 ॥
इनके सब ओर हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक, मुख और कान हैं। ये लोकमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं ये सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाले हैं, परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित हैं। सबके स्वामी, शासक, शरणदाता और सुहृद् हैं ।। 21-22 ॥
ये नेत्रके बिना भी देखते हैं और कानके बिना भी सुनते हैं। ये सबको जानते हैं, किंतु इनको पूर्णरूपसे जाननेवाला कोई नहीं है। इन्हें परम पुरुष | कहते हैं। ये अणुसे भी अत्यन्त अणु और महान्से भी परम महान् हैं। ये अविनाशी महेश्वर इस जीवकी हृदय-गुफामें निवास करते हैं ॥ 23-24 ॥
उस यज्ञरहित, यज्ञस्वरूप, अतिशय महिमावाले जगन्नियन्ता [परमात्मा] को उसी परमात्माकी कृपासे शोकरहित हुआ पुरुष देख पाता है ॥ 25 ॥
मैं उस जरारहित, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ पुराण पुरुषको जानता हूँ, जिसके ध्यानसे जन्म, मरणादिका निरोध हो जाता है-ऐसा ब्रह्मवेत्ता लोग कहते हैं ॥ 26 ॥
वे अकेले महेश्वर ही सर्वप्रथम अपनी शक्तिके साथ मिलकर बहुत प्रकारसे इन तीनों लोकोंकी सृष्टि करते हैं और अन्तमें उसका संहार भी करते हैं ॥ 27 ॥
विश्वको धारण करनेवाली वह शैवी शक्ति अजा, चित्राकृति (अद्भुत स्वरूपा) एवं परा आदि नामोंसे पुकारी जाती है। जन्मरहिता उस रक्त-श्वेत कृष्णवर्णा (सत्त्वरजस्तमोमयी) समष्टिरूपा, तथा प्रजाओंको उत्पन्न करनेवाली [मूल प्रकृति ] कासेवन वह अजन्मा ( जीवात्मा) करता है और आत्मस्वरूपमें स्थिता भुक्तभोगा उस प्रकृतिका दुस्सा पुरुष (परमात्मा) त्याग कर देता है ।। 28-29 ॥
एक साथ रहनेवाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमेंसे एक तो उस वृक्षके कर्मरूप फलोंका स्वाद ले लेकर उपभोग करता है, किंतु दूसरा उस वृक्षके फलका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है। जीवात्मा इस वृक्षके प्रति आसक्तिमें डूबा हुआ है, अतः मोहित होकर शोक करता रहता है। वह जब कभी भगवत्कृपासे भक्तसेवित परम कारणरूप परमेश्वरका और उनकी महिमाका साक्षात्कार कर लेता है, तब शोकरहित हो सुखी हो जाता है। ll 30-311/2 ।।
छन्द, यज्ञ, ऋतु तथा भूत, वर्तमान और भविष्य सम्पूर्ण विश्वको वह मायावी रचता है और मायासे ही उसमें प्रविष्ट होकर रहता है। प्रकृतिको ही माया समझना चाहिये और महेश्वर ही वह मायावी है ।। 32-33 ।।
उस प्रकृतिके अवयवोंसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है (गर्भाशयके] मध्यमें स्थित कललमें विद्यमान बीजसे भी अधिक परमात्मा सूक्ष्म है। उस मंगलमय परमेश्वरको इस विश्वका स्रष्टा एवं परिचालक जानकर [साधक] परमशक्ति प्राप्त कर लेता है ।। 34-35 ।। वह परमेश्वर ही कालस्वरूप, रक्षक एवं विश्वका अधिपति है। उस विश्वाधिपतिको जानकर जीव कालपाशसे छुटकारा पा जाता है। घृतमें मण्डकी भाँति सूक्ष्म एवं सारे प्राणियों के भीतर निगृदभावसे विद्यमान प्रभुको जानकर मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है । ll 36-37 ।। ये विश्वकर्मा महेश्वर ही परम देवता परमात्मा हैं, जो सबके हृदयमें विराजमान हैं। उन्हें जानकर ही | पुरुष परमानन्दमय अमृतका अनुभव करता है ॥ 38 ॥
जब दिन-रात, सत्-असत् कुछ भी यह समस्त [[जगत्प्रपंच] नहीं था, तब केवल एकमात्र शिव ही विद्यमान थे, उन्हींसे यह शाश्वती प्रज्ञा उत्पन्न होतीहै ऊँचे नीचे, तिरछे तथा मध्यमें कोई भी उन्हें पकड़ नहीं सकता। वे महान यशवाले हैं तथा उनकी कोई तुलना नहीं है। जन्म [मृत्यु] -के भयसे आक्रान्त पुरुष उन अजन्मा तथा अद्वितीय भगवान् रुद्रको [ तत्त्वतः ] जानकर रक्षाके लिये उनके कल्याणमय स्वरूपकी शरण ग्रहण कर लेते हैं ।। 39-41 ॥
ब्रह्मासे भी श्रेष्ठ, असीम एवं अविनाशी परमात्मामें विद्या और अविद्या दोनों गूढभावसे स्थित हैं। विनाशशील जडवर्गको ही यहाँ अविद्या कहा गया है और अविनाशी जीवको विद्या नाम दिया गया है; जो उन दोनों विद्या और अविद्यापर शासन करते हैं, वे महेश्वर उनसे सर्वथा भिन्न-विलक्षण हैं ।। 42-43 ।।
ये प्रतापी महेश्वर इस जगत् में समष्टिभूत और इन्द्रिय-वर्गरूप एक-एक जालको अनेक प्रकारसे रचकर इसका विस्तार करते हैं। फिर अन्तमें संहार करके सबको अनेकसे एकमें परिणत कर देते हैं तथा पुनः सृष्टिकालमें सबकी पूर्ववत् रचना करके सबपर आधिपत्य करते हैं। जैसे सूर्य अकेला ही ऊपर-नीचे तथा अगल-बगलकी दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ स्वयं भी देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार ये भजनीय परमेश्वर अकेले ही समस्त कारणरूप पृथ्वी आदि तत्त्वोंका नियमन करते हैं।। 44-45 ।।
वे ही वस्तुस्वरूप वाच्य एवं वाचकको [ जगद्रूपमें परिणमित करते हुए] और गुणोंको भोक्ता तथा भोग्यके रूपमें परिणमित करते हुए संसारमें अधिष्ठित हैं ॥ 46 ll
गुह्य उपनिषदोंमें गूढ़ रूपसे प्रतिपाद्य जगत्कर्ता तथा ब्रह्माजीको भी उत्पन्न करनेवाले उस परात्पर ब्रह्मको पहले देवगणों एवं महर्षियोंने जाना था ॥ 47 ॥
श्रद्धा और भक्तिभावसे प्राप्त होनेयोग्य, आश्रयरहित कहे जानेवाले, जगत्की उत्पत्ति और संहार करनेवाले, कल्याण स्वरूप एवं सोलह कलाओंकी रचना करनेवाले उन महादेवको जो जानते हैं, वे शरीरके बन्धनको सदाके लिये त्याग देते हैं अर्थात् जन्म-मृत्यु के चक्करसे छूट जाते हैं। मोहमें पड़े हुए| कुछ लोग उन्हें स्वभाव और कुछ लोग काल मानते हैं, यह उन परमात्माकी महिमा ही है, जिससे यह संसार भ्रमित है ।। 48-49 ।।
कालके भी कालस्वरूप जिन परमात्माने सारे जगत्को आवृत कर रखा है, उन्हींसे प्रेरित यह कर्म प्राणियोंके साथ प्रवृत्त होता है ॥ 50 ॥
वे परमात्मा [कला आदि) तत्त्वोंका सत्व [आदि गुणों] के साथ योग करके बारम्बार नानाविध कर्मोंको सम्पन्नकर उनसे विनिवृत्त हो जाते हैं। [आकाश आदि] आठ मूर्तियों, [सत्त्वादि] तीनों गुणों, [विद्या अविद्या] दोनों शक्तियों अथवा एकमात्र [मूल प्रकृति] काल तथा [इच्छा आदि] आत्मगुणोंके द्वारा यह समस्त विश्व अभिव्याप्त है। [ वह परमात्मा सत्यादि) गुणोंके द्वारा कर्मोंकी परिकल्पनाकर उनसे स्वभाव आदिका योग करता है। उन [गुण एवं स्वाभावादिका] का अभाव होनेपर किये गये कर्मका भी नाश हो जाता है। [प्राणियोंके] कर्मका क्षय होनेपर [परमेश्वर] पुन: अन्य [कर्म, स्वभावादि] की प्राप्ति कराता है। वह आदिपुरुष परमात्मा ही भोक्ता और भोगके [पारस्परिक] संयोगमें निमित्त बनता है ।। 51-54 ॥
वे ही परमेश्वर तीनों कालोंसे परे, निष्कल, सर्वज्ञ, त्रिगुणाधीश्वर एवं साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं। सम्पूर्ण विश्व उन्हींका रूप है। वे सबकी उत्पत्तिके कारण होकर भी स्वयं अजन्मा हैं, स्तुतिके योग्य हैं, प्रजाओंके पालक, देवताओंके भी देवता और सम्पूर्ण जगत्के लिये पूजनीय हैं। अपने हृदयमें विराजमान उन परमेश्वरकी हम उपासना करते हैं । ll 55-56 ॥
जो काल आदिसे परे हैं, जिनसे यह समस्त प्रपंच प्रकट होता है, जो धर्मके पालक, पापके नाशक, भोगोंके स्वामी तथा सम्पूर्ण विश्वके धाम हैं, जो ईश्वरोंके भी परम महेश्वर, देवताओंके भी परम देवता तथा पतियोंके भी परम पति हैं, उन भुवनेश्योंकि भी ईश्वर महादेवको हम सबसे परे जानते हैं ।। 57-58 ।उनके शरीररूप कार्य और इन्द्रिय तथा मनरूपी करण नहीं हैं, उनके समान और उनसे अधिक भी इस जगत् में कोई नहीं दिखायी देता। ज्ञान, बल और | क्रियारूप उनकी स्वाभाविक पराशक्ति वेदोंमें नाना प्रकारकी सुनी गयी है। उन्हीं शक्तियोंसे इस सम्पूर्ण विश्वकी रचना हुई है ।। 59-60 ।।
उसका न कोई स्वामी है, न कोई निश्चित चिह्न है, न उसपर किसीका शासन है। वह समस्त कारणोंका कारण होता हुआ ही उनका अधीश्वर भी है। उनका न कोई जन्मदाता है, न जन्म है, न जन्मके माया मलादि हेतु ही हैं। वह एक ही सम्पूर्ण विश्वमें, समस्त भूतों में गुह्यरूपसे व्याप्त है। वही सब भूतोंका अन्तरात्मा और धर्माध्यक्ष कहलाता है । ll 61-63 ॥
वह सब भूतोंके अंदर बसा हुआ, [सबका द्रष्टा] साक्षी, चेतन और निर्गुण है। वह एक है, वशी है अनेकों विवशात्मा निष्क्रिय पुरुषोंको वशमें रखनेवाला है। वह नित्योंका नित्य, चेतनोंका चेतन है। वह एक है, कामनारहित है और बहुतोंकी कामना पूर्ण करनेवाला ईश्वर है ।। 64-65 ।।
सांख्य और योग अर्थात् ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगसे प्राप्त करनेयोग्य सबके कारणरूप उन जगदीश्वर परमदेवको जानकर जीव सम्पूर्ण पाशों (बन्धनों से मुक्त हो जाता है। वे सम्पूर्ण विश्वके स्रष्टा, सर्वज्ञ, स्वयं ही अपने प्राकट्यके हेतु ज्ञानस्वरूप, कालके भी सष्टा, सम्पूर्ण दिव्य गुणोंसे सम्पन्न, प्रकृति और जीवात्माके स्वामी, समस्त गुणोंके शासक तथा संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं ll 66-67 ॥
जिन परमदेवने सबसे पहले ब्रह्माजीको उत्पन्न किया और स्वयं उन्हें वेदोंका ज्ञान दिया, अपने स्वरूपविषयक बुद्धिको प्रसन्न (निर्मल) करनेवाले उन परमेश्वर शिवको जानकर मैं इस संसारबन्धनसे छूटनेके लिये उनकी शरणमें जाता हूँ ॥ 689 / 2 ll
निष्कल, निष्क्रिय, शान्त, निष्कलंक, निरंजन, अमृत-स्वरूप मोक्षके परमसेतु तथा काष्ठके दग्ध हो जानेपर देदीप्यमान होनेवाली अग्निके समान निर्विकार [परमेश्वर शिवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ] ।। 69-70 ॥यदि कोई आकाशको चमड़ेके समान [ अपने शरीरमें] लपेट ले, तब वह शिवको बिना जाने अपना दुःख दूर कर सकता है अर्थात् शिवके ज्ञानके बिना दुःखका अन्त असम्भव है ॥ 71 ॥
हे महर्षियो! अपनी तपस्याके प्रभाव और शिवके अनुग्रहसे संन्यासाश्रमोचित, पापनाशक, पवित्र, वेदान्तमें परम गुप्त और पूर्वकल्पमें कहे गये इस ज्ञानको मैंने अपने भाग्यके प्रभावसे ब्रह्माजीके मुखसे प्राप्त किया है ।। 72-73 ।।
यह श्रेष्ठ ज्ञान न अस्थिर चित्तवाले व्यक्तिको, न सदाचारविहीन पुत्रको तथा न तो अयोग्य शिष्यको ही देना चाहिये ॥ 74 ॥
जिनकी परमदेव परमेश्वरमें परम भक्ति है, जैसे परमेश्वरमें है, वैसे ही गुरुमें भी है, उस महात्मा पुरुषके हृदयमें ही ये बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं। अतः संक्षेपसे यह सिद्धान्तकी बात | सुनो। भगवान् शिव प्रकृति और पुरुषसे परे हैं। वे ही सृष्टिकालमें जगत्को रचते और संहारकालमें पुनः | सबको आत्मसात् कर लेते हैं ॥ 75-76 ॥