ऋषिगण बोले- हे सूत! हे सूत! हे महाभाग ! हे व्यासशिष्य! आपको नमस्कार है। हे तात! कृपापूर्वक आपने हम सभीको जो कथा सुनायी है, यह निश्चित ही आश्चर्यजनक है ॥ 1 ॥
हे तात! मुनिके चले जानेके पश्चात् भगवान् विष्णुने क्या किया और नारदजी कहाँ गये ? वह सब आप हमलोगोंको बतायें ॥ 2 ॥
व्यासजी बोले- उन ऋषियोंकी बात सुनकर पौराणिकोंमें श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान् सूतजी नाना प्रकारकी सृष्टि करनेवाले शिवका स्मरण करके कहने लगे- ॥ 3 ॥
सूतजी बोले- [हे महर्षियों!] उन नारदमुनिके इच्छानुसार वहाँसे चले जानेपर भगवान् शिवको इच्छासे मायाविशारद श्रीहरिने तत्काल अपनी माया प्रकट की ॥ 4 ॥ उन्होंने मुनिके मार्गमें एक विशाल, सौ योजन विस्तारवाले, अद्भुत तथा अत्यन्त मनोहर नगरको रचना की ।। 5 ।।भगवान्ने उसे अपने वैकुण्ठलोकसे भी अधिक रमणीय बनाया था। नाना प्रकारकी वस्तुएँ उस नगरकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ स्त्रियों और पुरुषोंके लिये बहुत से विहारस्थल थे। वह नगर चारों वर्णोंके लोगोंसे युक्त था ॥ 6 ॥
वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्रीका स्वयंवर करनेके लिये उद्यत थे । अतः उन्होंने महान् उत्सवका आयोजन किया था। उनकी कन्याका वरण करनेके लिये उत्सुक हो चारों दिशाओंसे बहुत-से राजकुमार आये थे, जो नाना प्रकारकी वेशभूषा तथा सुन्दर शोभासे प्रकाशित हो रहे थे। उन राजकुमारोंसे वह नगर भरा पूरा दिखायी देता था ॥ 7-8 ।। ऐसे राजनगरको देख नारदजी मोहित हो गये।
वे कौतुकी कामासक्त नारद राजा शीलनिधिके द्वारपर गये ॥ 9 ॥
मुनिश्रेष्ठ नारदको आया देखकर राजा शीलनिधिने उन्हें श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासनपर बिठाकर उनका पूजन किया ॥ 10 ॥
तत्पश्चात् राजाने श्रीमती नामक अपनी सुन्दरी कन्याको बुलवाकर उससे नारदजीके चरणोंमें प्रणाम करवाया ॥ 11 ॥
उस कन्याको देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले—हे राजन् ! यह देवकन्याके समान सुन्दरी तथा महाभाग्यशालिनी कन्या कौन है ? ॥ 12 ॥
उनकी यह बात सुनकर राजाने हाथ जोड़कर कहा- हे मुने! यह मेरी पुत्री है, इसका नाम श्रीमती है ॥ 13 ॥
अब इसके विवाहका समय आ गया है। यह अपने लिये सुन्दर वर चुननेके निमित्त स्वयंवरमें जानेवाली है। इसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण लक्षित होते हैं ॥ 14 ॥
हे महर्षे! आप जन्मस्थ जातक ग्रहोंके अनुसार इसका सम्पूर्ण भाग्य बतायें और यह मेरी पुत्री कैसा वर प्राप्त करेगी, यह भी कहें ।। 15 ।।
राजाके इस प्रकार पूछनेपर कामसे विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छा लिये राजाको सम्बोधित करके यह वाक्य बोले- ॥ 16 ॥हे भूपाल! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, परम सौभाग्यवती, धन्य और साक्षात लक्ष्मीकी भाँति समस्त गुणोंकी आगार है। इसका पति निश्चय ही भगवान् शंकरके समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसीसे पराजित न होनेवाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ होगा ।। 17-18 ।।
ऐसा कहकर राजासे विदा लेकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चल दिये। वे कामके वशीभूत हो गये थे। शिवकी मायाने उन्हें विशेष मोहमें डाल दिया था ।। 19 ।।
ये मुनि मन ही मन सोचने लगे कि मैं इस | राजकुमारीको कैसे प्राप्त करूँ ! स्वयंवरमें आये हुए नरेशोंमेंसे सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण कैसे करे ! ।। 20 ।।
समस्त नारियोंको सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है। सौन्दर्यको देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है। ऐसा विचारकर कामसे विठ्ठल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णुका रूप ग्रहण करनेके लिये तत्काल उनके लोकमें जा पहुँचे ॥ 21-22 ॥
वहाँ भगवान् विष्णुको प्रणाम करके वे यह वचन बोले [हे भगवन्!] मैं एकान्तमें आपसे - अपना सारा वृत्तान्त कहूँगा ll 23 ॥
तब 'बहुत अच्छा'- यह कहकर शिव इच्छित कर्म करनेवाले लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजीके साथ एकान्तमें जा बैठे और बोले—हे मुने! अब आप अपनी बात कहिये, तब केशवसे मुनि नारदजीने कहा ॥ 24 ॥
नारदजी बोले - हे भगवन्! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्मपालनमें तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है। उसका नाम श्रीमती है ॥ 25 ॥
वह जगन्मोहिनी के रूपमें विख्यात है और तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी है। हे विष्णो! आज मैं | शीघ्र ही उस कन्यासे विवाह करना चाहता हूँ ॥ 26 ॥
राजा शीलनिधिने अपनी पुत्रीकी इच्छासे स्वयंवर रचाया है, इसलिये चारों दिशाओंसे वहाँ हजारों राजकुमार आये हुए हैं। यदि आप अपना रूप मुझे दे दें, तो मैं उसे निश्चित ही प्राप्त कर लूँगा। आपके रूपके बिना वह मेरे कण्ठमें जयमाला नहीं डालेगी ।। 27-28 ॥हे नाथ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ, अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे वह राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वरण कर ले ॥ 29 ॥
सूतजी बोले- हे महर्षियो। नारदमुनिकी ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हंस पड़े और शंकरके प्रभावका अनुभव करके उन दयालु प्रभुने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ॥ 30 ॥
विष्णु बोले- हे मुने! आप अपने अभीष्ट स्थानको जाइये, मैं उसी तरह आपका हितसाधन करूंगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य [अत्यन्त] पीड़ित रोगीका हित करता है; | क्योंकि आप मुझे विशेष प्रिय हैं ।। 31 ll
ऐसा कहकर भगवान् विष्णुने नारदमुनिको मुख तो वानरका दे दिया और शेष अंगोंमें अपने जैसा स्वरूप देकर वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ 32 ॥
भगवान्की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका | मनोहर रूप प्राप्त हो गया-समझकर नारद मुनिको बड़ा हर्ष हुआ। वे अपनेको कृतकृत्य मानने लगे, किंतु भगवान्के प्रयत्नको वे समझ न सके॥ 33 ॥ तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधिने राजकुमारोंसे भरी हुई स्वयंवरसभाका आयोजन किया था ॥ 34 ॥
हे विप्रवरो राजपुत्रोंसे घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवरसभा दूसरी इन्द्रसभाके समान अत्यन्त शोभा पा रही थी ।। 35 ।।
नारदजी उस राजसभामें जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मनसे बार-बार यही सोचने लगे। मैं भगवान् विष्णुके समान रूप धारण किये हूँ, अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरेका नहीं। मुनिश्रेष्ठ नारदको यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कुरूप है ॥ 36-37 ll
हे विप्रो उस सभायें बैठे हुए सभी मनुष्योंने मुनिको उनके पूर्वरूपमें ही देखा राजकुमार आदि कोई भी उनके रूपपरिवर्तन के रहस्यको न जान सके ॥ 38 ॥
वहाँ नारदजीकी रक्षा के लिये भगवान् रुद्रके दो गण आये थे, जो ब्राह्मणका रूप धारण करके गूढ़भावसे वहाँ बैठे थे। वे ही नारदजीके रूपपरिवर्तनके उत्तम भेदको जानते थे। मुनिको कामावेशसे मूद हुआ जानकर वे दोनों गण उनके निकट गये और आपसमें बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे ॥ 39-40 ॥देखो, नारदका रूप तो निश्चित ही भगवान् विष्णुके समान श्रेष्ठ है, किंतु मुख वानरके समान विकट और | महाभयंकर । काममोहित ये व्यर्थमें ही राजपुत्रीको प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहे हैं। इस प्रकारकी कपटपूर्ण बातें कहकर वे नारदका उपहास करने लगे । ll 41-42 ।।
मुनि तो कामसे विह्वल थे, अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो उस 'श्रीमती' को प्राप्त करनेकी इच्च्छासे उसके आगमनकी 4 प्रतीक्षा करने लगे ॥ 43 ॥
इसी बीच स्त्रियोंसे घिरी हुई वह सुन्दरी राजकन्या अन्तःपुरसे वहाँ आयी। अपने हाथमें सोनेकी सुन्दर
माला लिये हुए वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवरके
मध्यभागमें लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा
रही थी ।। 44-45 ।।
उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह भूपकन्या हाथमें माला लेकर अपने मनके अनुरूप वरका अन्वेषण करती हुई सारी सभामें भ्रमण करने लगी ॥ 46 ॥
नारदमुनिका भगवान् विष्णुके समान शरीर और वानर जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओरसे दृष्टि हटाकर प्रसन्न मनसे दूसरी ओर चली गयी ॥ 47 ॥
स्वयंवरसभामें अपने मनोवांछित वरको न देखकर यह दुःखित हो गयी। राजकुमारी उस सभाके भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी और उसने किसीके गलेमें जयमाला नहीं डाली ॥ 48 ॥
इतनेमें राजाके समान वेशभूषा धारण किये हुए भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे। किन्हीं दूसरे लोगोंने उनको वहाँ नहीं देखा, केवल उस कन्याने ही उन्हें देखा ।। 49 ।।
भगवान्को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारीका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कण्ठमें वह माला पहना दी ॥ 50 ॥
राजाका रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारीको साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये। और अपने धाममें जा पहुँचे ll 51 ॥
इधर, सब राजकुमार श्रीमतीकी ओरसे निराश हो गये। नारदमुनि तो कामवेदनासे आतुर हो रहे थे, इसलिये वे अत्यन्त विठ्ठल हो उठे ॥ 52 llतब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण कामविहल नारदजीसे कहने लगे- ॥ 53 ॥
गण बोले- हे नारद! हे मुने! आप व्यर्थ ही कामसे मोहित हो रहे हैं और [ सौन्दर्यके बलसे ] राजकुमारीको पाना चाहते हैं। वानरके समान अपना घृणित मुँह तो देख लीजिये ॥ 54 ॥
सूतजी बोले- हे महर्षियो ! उन रुद्रगणोंका यह वचन सुनकर नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ । वे | शिवकी मायासे मोहित थे। उन्होंने दर्पणमें अपना मुँह देखा ॥ 55 ॥
वानरके समान अपना मुँह देखकर वे तुरंत ही कुपित हो उठे और मायासे मोहित होनेके कारण उन दोनों शिवगणोंको वहाँ यह शाप दे दिया - तुम दोनोंने मुझ ब्राह्मणका उपहास किया है, अतः तुम दोनों ब्राह्मणके वीर्यसे उत्पन्न राक्षस हो जाओ। [ब्राह्मणकी सन्तान होनेपर भी] तुम्हारे आकार राक्षसके समान ही होंगे ॥ 56-57 ॥
इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ वे दोनों शिवगण मुनिको मोहित जानकर कुछ नहीं बोले ॥ 58 ॥
हे ब्राह्मणो! वे सदा सब घटनाओंमें भगवान् शिवकी इच्छा मानते थे, अतः उदासीन भावसे अपने स्थानको चले गये और भगवान् शिवकी स्तुति करने लगे ॥ 59 ॥