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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 5 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 5

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मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति

व्यासजी बोले- उस मायावीके द्वारा मोहित दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर उस मायावीने क्या कहा और दैत्यराजने क्या किया ? ॥ 1 ॥

सनत्कुमार बोले- उसे दीक्षा देकर नारदादि शिष्योंके द्वारा सेवित चरणकमलोंवाले अरिहन् यतिने दैत्यराजसे कहा- ॥2॥

अरिहन् बोले हे दैत्यराज मेरे वचनको सुनो, जो वेदान्तका सार-सर्वस्व, परमोत्तम तथा रहस्यमय है। यह संसार कर्ता तथा कर्मसे रहित और अनादिकालसे स्वयंसिद्ध है। यह स्वयं उत्पन्न होता है तथा स्वयं विनष्ट भी हो जाता है। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी शरीरधारी हैं, उनका एक आत्मा ही ईश्वर है, कोई दूसरा उनका शासक नहीं है। जिस प्रकार हम शरीरधारियोंके नाम हैं, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि ये नाम उन नामधारियोंके हैं, अनादि तो एक अरिहन् ही है ।। 36 ।।

जिस प्रकार हमलोगोंका शरीर समय आनेपर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर मच्छरतकका शरीर अपने समयसे नष्ट हो जाया करता है ॥ 7 ॥ विचार करनेपर ज्ञात होता है कि शरीरमें कहीं भी कोई विशेषता नहीं है; क्योंकि सभी जीवधारियोंमें आहार, मैथुन, निद्रा तथा भय समान हैं ॥ 8 ॥

सभी शरीरधारी निराहार रहनेके उपरान्त भोजन प्राप्त करनेपर समान रूपसे तृप्त होते हैं, कम या अधिक नहीं। जैसे जब हम प्यासे होते हैं, तब प्रसन्नतापूर्वक जल पीकर तृप्त होते हैं, उसी प्रकारअन्य प्राणी भी तृप्त होते हैं, किसीमें न्यूनाधिक्य नहीं होता रूप लावण्यसे युक्त चाहे सहस्रों स्त्रियाँ क्यों न हो, किंतु सहवासकालमें एक ही स्त्रीका उपभोग सम्भव है । ll 9-11 ॥

अनेक प्रकारके घोड़े चाहे सौ हों, चाहे | हजार हों, किंतु अपने अधिरोहणके समय एकका ही उपयोग सम्भव है, दूसरेका नहीं। निद्राकालमें पलंगपर | सोनेवालेको जो सुख प्राप्त होता है, वही मुख निद्रासे व्याकुल हो पृथ्वीपर सोनेवालेको भी प्राप्त होता है जैसे हम शरीरधारियोंको मरनेका भय है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सभीको मृत्युसे भय होता है ll 12 - 14 ॥

यदि बुद्धिसे विचार किया जाय, तो सभी शरीरधारी समान हैं—ऐसा निश्चय करके किसीको भी कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये। पृथ्वीतलपर जीवोंपर दया करनेके समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, अतः ऐसा जानकर सभी प्रकारके प्रयत्नोंद्वारा मनुष्योंको जीवोंपर दया करनी चाहिये। एक जीवकी भी रक्षा करनेसे जैसे तीनों लोकोंकी रक्षा हो जाती है, उसी प्रकार एक जीवके मारनेसे त्रैलोक्यवधका पाप लगता है, इसलिये जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये, हिंसा नहीं अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा आत्माको पीड़ा पहुँचाना पाप है, दूसरोंके अधीन न रहना ही मुक्ति है और अभिलषित भोजनकी प्राप्ति ही स्वर्ग है। प्राचीन विद्वानोंने उत्तम प्रमाणके साथ ऐसा कहा है, इसलिये नरकसे डरनेवाले मनुष्योंको हिंसा नहीं करनी चाहिये। इस चराचर जगत् में हिंसाके समान कोई पाप नहीं है। हिंसक नरकमें जाता है तथा अहिंसक स्वर्गको जाता है । ll 15 - 20 ॥

संसारमें अनेक प्रकारके दान हैं, परंतु तुच्छ फल देनेवाले उन दानोंसे क्या लाभ? अभयदानके सदृश कोई दूसरा दान नहीं है। मनीषियोंने अनेक शास्त्रोंका विचारकर इस लोक तथा परलोकमें कल्याणके लिये चार दानोंका वर्णन किया है। ll 21-22 ।।भयभीत लोगोंको अभय प्रदान करना चाहिये, रोगियोंको औषधि देनी चाहिये, विद्यार्थियोंको विद्या देनी चाहिये तथा भूखोंको अन्न प्रदान करना चाहिये। अनेक मुनियोंने जो-जो दान कहे हैं, वे अभयदानकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते ।। 23-24 ।।

मणि, मन्त्र एवं औषधिके प्रभाव तथा बलको अविचिन्त्य समझकर केवल यश तथा अर्थके उपार्जनके लिये ही उसका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये ।। 25 ।।

बहुत धन उपार्जितकर द्वादशायतनोंका ही चारों ओरसे पूजन करना चाहिये, दूसरोंके पूजनसे क्या लाभ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि-यही शुभ द्वादशायतन कहा गया है ॥ 26-27 ॥

प्राणियोंके लिये यहींपर स्वर्ग तथा नरक है, अन्यत्र कहीं नहीं सुखका ही नाम स्वर्ग है तथा दुःखको नरक कहा गया है। सुखोंका भोग कर लेनेपर जो इस देहका परित्याग होता है, तत्त्वचिन्तकोंको इसे ही परम मोक्ष जानना चाहिये। वासनासहित समस्त क्लेशोंके नष्ट हो जानेपर अज्ञानके नाशको तत्त्वचिन्तकोंको मोक्ष जानना चाहिये ॥ 28-30 ॥

वेदवेत्ता इस श्रुतिको प्रामाणिक कहते हैं कि किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे। हिंसामें प्रवर्तन करनेवाली अन्य कोई श्रुति उपलब्ध नहीं है। अग्निष्टोमादि यज्ञोंसे सम्बद्ध जो पश्वालम्भन श्रुति है, वह तो भ्रम उत्पन्न करनेवाली है और असज्जनोंके लिये है। पशुवधसे सम्बन्धित श्रुति तो ज्ञानियोंके लिये प्रमाण नहीं है। यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है कि वृक्षोंको काटकर, पशुओंका वधकर, उनके रुधिरका कीच बनाकर तथा आगमें तिल-घी आदिको जलाकर लोग स्वर्गकी अभिलाषा करते हैं ।॥ 31-33॥

इस प्रकार उस त्रिपुराधिपतिसे अपना विचार कहकर समस्त त्रिपुरवासियोंको सुनाकर वह यति आदरसे वेदोंके विपरीत, देहमात्रको सुख देनेवाले और प्रत्यक्षपर ही विश्वास करनेवाले धर्मोका पुनः वर्णन करने लगा- ॥ 34-35 ॥श्रुति जो ऐसा कहती है कि आनन्द ही ब्रह्मका रूप है, उसे सही मानना चाहिये, अनेक धर्मोकी कल्पना मिथ्या है। जबतक यह शरीर स्वस्थ है, | जबतक इन्द्रियाँ निर्बल नहीं होतीं और जबतक वृद्धावस्था दूर है, तबतक सुखका उपभोग करते रहना चाहिये ।। 36-37 ।।

अस्वस्थ हो जानेपर, इन्द्रियोंके विकल हो जानेपर एवं वृद्धावस्था आ जानेपर सुखकी प्राप्ति किस प्रकारसे हो सकती है? इसलिये सुख चाहने वालोंको अपना शरीर भी याचना करनेवालोंको प्रदान कर देना चाहिये ॥ 38 ॥

जिसका जन्म माँगनेवालोंकी मनोवृत्तिको प्रसन्न करनेके लिये नहीं हुआ, उसीसे यह पृथ्वी भारयुक्त है, समुद्रों, पर्वतों तथा वृक्षोंसे नहीं ॥ 39 ॥

यह शरीर शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है तथा संचित धन विनष्ट हो जानेवाले हैं—ऐसा जानकर ज्ञानवान्‌को देहसुखका उपाय करते रहना चाहिये ।। 40 ।।

यह शरीर कुत्तों, कौवों तथा कीटोंका प्रातः कालीन भोजन है और शरीर अन्तमें भस्म होनेवाला है - ऐसा वेदमें ठीक ही कहा गया है। लोकोंमें जाति- कल्पना व्यर्थ ही की गयी है, सभी मनुष्य समान हैं तो कौन उच्च है और कौन नीच है ! ।। 41-42 ll

प्राचीन पुरुष कहते हैं कि इस सृष्टिके आदिमें ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उनके विख्यात दक्ष तथा मरीचि दो पुत्र उत्पन्न हुए ll 43 ll

जब मरीचिपुत्र कश्यपने दक्षकी सुन्दर नेत्रवाली तेरह कन्याओंसे धर्मपूर्वक विवाह किया तो फिर इस समयके अल्पबुद्धि तथा अल्प पराक्रमवाले लोगोंके द्वारा यह गम्य है, यह अगम्य है-ऐसा विचार व्यर्थ ही किया जाता है। मुख, बाहु, जंघा एवं चरणसे चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं- पूर्व पुरुषोंने यह कल्पना की है, जो कि विचार करनेपर ठीक नहीं लगती है । ll 44–46 ॥

एक ही पुरुषसे एक ही शरीरसे यदि चार पुत्र उत्पन्न हुए तो वे भिन्न-भिन्न वर्णोंके किस प्रकार हो सकते हैं। अतः वर्ण एवं अवर्णका यह विभाग उचित नहीं प्रतीत होता है और इसलिये किसीको भी मनुष्यमें कोई भेद नहीं मानना चाहिये ll 47-48 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! दैत्यपति तथा पुरवासियोंसे आदरपूर्वक ऐसा कहकर शिष्यों सहित उस यतिने वेदधर्मोका नाश कर दिया। पातिव्रत्यरूपी महान् स्त्रीधर्मको तथा समस्त पुरुषोंके जितेन्द्रियत्वधर्मको खण्डित कर दिया। देवधर्म, श्राद्धधर्म, यज्ञधर्म, व्रत-तीर्थ विशेषरूपसे श्राद्ध, शिवपूजा, लिंगार्चन, विष्णु-सूर्य-गणेश आदिका विधिपूर्वक पूजन और विशेष रूपसे पर्वकालमें किये जानेवाले स्नान-दान आदि इन सबका खण्डन किया। हे विप्रेन्द्र! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! मायावियोंमें श्रेष्ठ उस मायावी यतिने त्रिपुरमें जो कुछ भी धर्म थे, उन सबको दूर कर दिया ॥ 49-54 ॥

त्रिपुरकी सभी स्त्रियाँ उस यतिके धर्मका आश्रय लेकर मोहमें पड़ गयीं और उन्होंने पतिकी सेवाके उत्तम विचारका त्याग कर दिया। आकर्षण एवं वशीकरण विद्याका अभ्यासकर मोहित हुए पुरुष दूसरोंकी स्त्रियोंमें अपने मनोरथ सफल करने लगे ॥ 55-56 ॥

अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, राजकुमार, पुरवासी, पुरकी स्त्रियाँ आदि सभी मोहित हो गये ॥ 57 ॥ इस प्रकार सभी पुरवासियोंके अपने धर्मोसे सर्वथा विमुख हो जानेपर अधर्मकी वृद्धि होने लगी ॥ 58 ॥ हे प्रभो ! उन देवाधिदेव विष्णुजीकी मायासे और उनकी आज्ञासे स्वयं दरिद्रताने त्रिपुरमें प्रवेश किया ॥ 59 ॥

उन लोगोंने जिस महालक्ष्मीको तपस्याके द्वारा श्रेष्ठ देवेश्वरसे प्राप्त किया था, प्रभु ब्रह्मदेवकी आज्ञासे उन्हें छोड़कर वह बाहर चली गयी ॥ 60 ॥

इस प्रकार विष्णुकी मायासे निर्मित उस प्रकारके बुद्धिमोहको उन्हें क्षणभरमें देकर वे नारदजी कृतार्थ हो गये। उन नारदने भी उस मायावी जैसा रूप धारण कर लिया था, फिर भी परमेश्वरके अनुग्रहसे वे विकारयुक्त नहीं हुए। हे मुने! दोनों भाइयों तथा मयसहित वह दैत्यराज भी शिवजीकी इच्छासे पराक्रमहीन हो गया ॥ 61-63 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य