व्यासजी बोले- उस मायावीके द्वारा मोहित दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर उस मायावीने क्या कहा और दैत्यराजने क्या किया ? ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- उसे दीक्षा देकर नारदादि शिष्योंके द्वारा सेवित चरणकमलोंवाले अरिहन् यतिने दैत्यराजसे कहा- ॥2॥
अरिहन् बोले हे दैत्यराज मेरे वचनको सुनो, जो वेदान्तका सार-सर्वस्व, परमोत्तम तथा रहस्यमय है। यह संसार कर्ता तथा कर्मसे रहित और अनादिकालसे स्वयंसिद्ध है। यह स्वयं उत्पन्न होता है तथा स्वयं विनष्ट भी हो जाता है। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी शरीरधारी हैं, उनका एक आत्मा ही ईश्वर है, कोई दूसरा उनका शासक नहीं है। जिस प्रकार हम शरीरधारियोंके नाम हैं, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि ये नाम उन नामधारियोंके हैं, अनादि तो एक अरिहन् ही है ।। 36 ।।
जिस प्रकार हमलोगोंका शरीर समय आनेपर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर मच्छरतकका शरीर अपने समयसे नष्ट हो जाया करता है ॥ 7 ॥ विचार करनेपर ज्ञात होता है कि शरीरमें कहीं भी कोई विशेषता नहीं है; क्योंकि सभी जीवधारियोंमें आहार, मैथुन, निद्रा तथा भय समान हैं ॥ 8 ॥
सभी शरीरधारी निराहार रहनेके उपरान्त भोजन प्राप्त करनेपर समान रूपसे तृप्त होते हैं, कम या अधिक नहीं। जैसे जब हम प्यासे होते हैं, तब प्रसन्नतापूर्वक जल पीकर तृप्त होते हैं, उसी प्रकारअन्य प्राणी भी तृप्त होते हैं, किसीमें न्यूनाधिक्य नहीं होता रूप लावण्यसे युक्त चाहे सहस्रों स्त्रियाँ क्यों न हो, किंतु सहवासकालमें एक ही स्त्रीका उपभोग सम्भव है । ll 9-11 ॥
अनेक प्रकारके घोड़े चाहे सौ हों, चाहे | हजार हों, किंतु अपने अधिरोहणके समय एकका ही उपयोग सम्भव है, दूसरेका नहीं। निद्राकालमें पलंगपर | सोनेवालेको जो सुख प्राप्त होता है, वही मुख निद्रासे व्याकुल हो पृथ्वीपर सोनेवालेको भी प्राप्त होता है जैसे हम शरीरधारियोंको मरनेका भय है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सभीको मृत्युसे भय होता है ll 12 - 14 ॥
यदि बुद्धिसे विचार किया जाय, तो सभी शरीरधारी समान हैं—ऐसा निश्चय करके किसीको भी कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये। पृथ्वीतलपर जीवोंपर दया करनेके समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, अतः ऐसा जानकर सभी प्रकारके प्रयत्नोंद्वारा मनुष्योंको जीवोंपर दया करनी चाहिये। एक जीवकी भी रक्षा करनेसे जैसे तीनों लोकोंकी रक्षा हो जाती है, उसी प्रकार एक जीवके मारनेसे त्रैलोक्यवधका पाप लगता है, इसलिये जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये, हिंसा नहीं अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा आत्माको पीड़ा पहुँचाना पाप है, दूसरोंके अधीन न रहना ही मुक्ति है और अभिलषित भोजनकी प्राप्ति ही स्वर्ग है। प्राचीन विद्वानोंने उत्तम प्रमाणके साथ ऐसा कहा है, इसलिये नरकसे डरनेवाले मनुष्योंको हिंसा नहीं करनी चाहिये। इस चराचर जगत् में हिंसाके समान कोई पाप नहीं है। हिंसक नरकमें जाता है तथा अहिंसक स्वर्गको जाता है । ll 15 - 20 ॥
संसारमें अनेक प्रकारके दान हैं, परंतु तुच्छ फल देनेवाले उन दानोंसे क्या लाभ? अभयदानके सदृश कोई दूसरा दान नहीं है। मनीषियोंने अनेक शास्त्रोंका विचारकर इस लोक तथा परलोकमें कल्याणके लिये चार दानोंका वर्णन किया है। ll 21-22 ।।भयभीत लोगोंको अभय प्रदान करना चाहिये, रोगियोंको औषधि देनी चाहिये, विद्यार्थियोंको विद्या देनी चाहिये तथा भूखोंको अन्न प्रदान करना चाहिये। अनेक मुनियोंने जो-जो दान कहे हैं, वे अभयदानकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते ।। 23-24 ।।
मणि, मन्त्र एवं औषधिके प्रभाव तथा बलको अविचिन्त्य समझकर केवल यश तथा अर्थके उपार्जनके लिये ही उसका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये ।। 25 ।।
बहुत धन उपार्जितकर द्वादशायतनोंका ही चारों ओरसे पूजन करना चाहिये, दूसरोंके पूजनसे क्या लाभ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि-यही शुभ द्वादशायतन कहा गया है ॥ 26-27 ॥
प्राणियोंके लिये यहींपर स्वर्ग तथा नरक है, अन्यत्र कहीं नहीं सुखका ही नाम स्वर्ग है तथा दुःखको नरक कहा गया है। सुखोंका भोग कर लेनेपर जो इस देहका परित्याग होता है, तत्त्वचिन्तकोंको इसे ही परम मोक्ष जानना चाहिये। वासनासहित समस्त क्लेशोंके नष्ट हो जानेपर अज्ञानके नाशको तत्त्वचिन्तकोंको मोक्ष जानना चाहिये ॥ 28-30 ॥
वेदवेत्ता इस श्रुतिको प्रामाणिक कहते हैं कि किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे। हिंसामें प्रवर्तन करनेवाली अन्य कोई श्रुति उपलब्ध नहीं है। अग्निष्टोमादि यज्ञोंसे सम्बद्ध जो पश्वालम्भन श्रुति है, वह तो भ्रम उत्पन्न करनेवाली है और असज्जनोंके लिये है। पशुवधसे सम्बन्धित श्रुति तो ज्ञानियोंके लिये प्रमाण नहीं है। यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है कि वृक्षोंको काटकर, पशुओंका वधकर, उनके रुधिरका कीच बनाकर तथा आगमें तिल-घी आदिको जलाकर लोग स्वर्गकी अभिलाषा करते हैं ।॥ 31-33॥
इस प्रकार उस त्रिपुराधिपतिसे अपना विचार कहकर समस्त त्रिपुरवासियोंको सुनाकर वह यति आदरसे वेदोंके विपरीत, देहमात्रको सुख देनेवाले और प्रत्यक्षपर ही विश्वास करनेवाले धर्मोका पुनः वर्णन करने लगा- ॥ 34-35 ॥श्रुति जो ऐसा कहती है कि आनन्द ही ब्रह्मका रूप है, उसे सही मानना चाहिये, अनेक धर्मोकी कल्पना मिथ्या है। जबतक यह शरीर स्वस्थ है, | जबतक इन्द्रियाँ निर्बल नहीं होतीं और जबतक वृद्धावस्था दूर है, तबतक सुखका उपभोग करते रहना चाहिये ।। 36-37 ।।
अस्वस्थ हो जानेपर, इन्द्रियोंके विकल हो जानेपर एवं वृद्धावस्था आ जानेपर सुखकी प्राप्ति किस प्रकारसे हो सकती है? इसलिये सुख चाहने वालोंको अपना शरीर भी याचना करनेवालोंको प्रदान कर देना चाहिये ॥ 38 ॥
जिसका जन्म माँगनेवालोंकी मनोवृत्तिको प्रसन्न करनेके लिये नहीं हुआ, उसीसे यह पृथ्वी भारयुक्त है, समुद्रों, पर्वतों तथा वृक्षोंसे नहीं ॥ 39 ॥
यह शरीर शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है तथा संचित धन विनष्ट हो जानेवाले हैं—ऐसा जानकर ज्ञानवान्को देहसुखका उपाय करते रहना चाहिये ।। 40 ।।
यह शरीर कुत्तों, कौवों तथा कीटोंका प्रातः कालीन भोजन है और शरीर अन्तमें भस्म होनेवाला है - ऐसा वेदमें ठीक ही कहा गया है। लोकोंमें जाति- कल्पना व्यर्थ ही की गयी है, सभी मनुष्य समान हैं तो कौन उच्च है और कौन नीच है ! ।। 41-42 ll
प्राचीन पुरुष कहते हैं कि इस सृष्टिके आदिमें ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उनके विख्यात दक्ष तथा मरीचि दो पुत्र उत्पन्न हुए ll 43 ll
जब मरीचिपुत्र कश्यपने दक्षकी सुन्दर नेत्रवाली तेरह कन्याओंसे धर्मपूर्वक विवाह किया तो फिर इस समयके अल्पबुद्धि तथा अल्प पराक्रमवाले लोगोंके द्वारा यह गम्य है, यह अगम्य है-ऐसा विचार व्यर्थ ही किया जाता है। मुख, बाहु, जंघा एवं चरणसे चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं- पूर्व पुरुषोंने यह कल्पना की है, जो कि विचार करनेपर ठीक नहीं लगती है । ll 44–46 ॥
एक ही पुरुषसे एक ही शरीरसे यदि चार पुत्र उत्पन्न हुए तो वे भिन्न-भिन्न वर्णोंके किस प्रकार हो सकते हैं। अतः वर्ण एवं अवर्णका यह विभाग उचित नहीं प्रतीत होता है और इसलिये किसीको भी मनुष्यमें कोई भेद नहीं मानना चाहिये ll 47-48 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! दैत्यपति तथा पुरवासियोंसे आदरपूर्वक ऐसा कहकर शिष्यों सहित उस यतिने वेदधर्मोका नाश कर दिया। पातिव्रत्यरूपी महान् स्त्रीधर्मको तथा समस्त पुरुषोंके जितेन्द्रियत्वधर्मको खण्डित कर दिया। देवधर्म, श्राद्धधर्म, यज्ञधर्म, व्रत-तीर्थ विशेषरूपसे श्राद्ध, शिवपूजा, लिंगार्चन, विष्णु-सूर्य-गणेश आदिका विधिपूर्वक पूजन और विशेष रूपसे पर्वकालमें किये जानेवाले स्नान-दान आदि इन सबका खण्डन किया। हे विप्रेन्द्र! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! मायावियोंमें श्रेष्ठ उस मायावी यतिने त्रिपुरमें जो कुछ भी धर्म थे, उन सबको दूर कर दिया ॥ 49-54 ॥
त्रिपुरकी सभी स्त्रियाँ उस यतिके धर्मका आश्रय लेकर मोहमें पड़ गयीं और उन्होंने पतिकी सेवाके उत्तम विचारका त्याग कर दिया। आकर्षण एवं वशीकरण विद्याका अभ्यासकर मोहित हुए पुरुष दूसरोंकी स्त्रियोंमें अपने मनोरथ सफल करने लगे ॥ 55-56 ॥
अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, राजकुमार, पुरवासी, पुरकी स्त्रियाँ आदि सभी मोहित हो गये ॥ 57 ॥ इस प्रकार सभी पुरवासियोंके अपने धर्मोसे सर्वथा विमुख हो जानेपर अधर्मकी वृद्धि होने लगी ॥ 58 ॥ हे प्रभो ! उन देवाधिदेव विष्णुजीकी मायासे और उनकी आज्ञासे स्वयं दरिद्रताने त्रिपुरमें प्रवेश किया ॥ 59 ॥
उन लोगोंने जिस महालक्ष्मीको तपस्याके द्वारा श्रेष्ठ देवेश्वरसे प्राप्त किया था, प्रभु ब्रह्मदेवकी आज्ञासे उन्हें छोड़कर वह बाहर चली गयी ॥ 60 ॥
इस प्रकार विष्णुकी मायासे निर्मित उस प्रकारके बुद्धिमोहको उन्हें क्षणभरमें देकर वे नारदजी कृतार्थ हो गये। उन नारदने भी उस मायावी जैसा रूप धारण कर लिया था, फिर भी परमेश्वरके अनुग्रहसे वे विकारयुक्त नहीं हुए। हे मुने! दोनों भाइयों तथा मयसहित वह दैत्यराज भी शिवजीकी इच्छासे पराक्रमहीन हो गया ॥ 61-63 ॥