ऋषिगण बोले- हे साधुशिरोमणे! अब आप पार्थिव प्रतिमाकी पूजाका वह विधान बताइये, जिस पूजा-विधानसे समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है ॥ 1 ॥सूतजी बोले- हे महर्षियो ! तुमलोगोंने बहुत उत्तम बात पूछी है। पार्थिव प्रतिमाका पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है तथा दुःखका तत्काल निवारण करनेवाला है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, [ ध्यान देकर ] सुनिये ॥ 2 ॥
हे द्विजो! यह पूजा अकाल मृत्युको हरनेवाली तथा काल और मृत्युका भी नाश करनेवाली है। यह शीघ्र ही स्त्री, पुत्र और धन धान्यको प्रदान करनेवाली है। इसलिये पृथ्वी आदिकी बनी हुई देवप्रतिमाओंकी पूजा इस भूतलपर अभीष्टदायक मानी गयी है: निश्चय ही इसमें पुरुषोंका और स्त्रियोंका भी अधिकार है ।। 3-49/2 ॥
नदी, पोखरे अथवा कुएंमें प्रवेश करके पानीके भीतरसे मिट्टी ले आये। तत्पश्चात् गन्ध-चूर्णके द्वारा उसका संशोधन करके शुद्ध मण्डपमें रखकर उसे महीन बनाये तथा हाथसे प्रतिमा बनाये और दूधसे उसका सम्यक् संस्कार करे। उस प्रतिमामें अंग-प्रत्यंग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न बनायी गयी हो। तदनन्तर उसे पद्मासनपर स्थापित करके आदर-पूर्वक उसका पूजन करे। गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिवजीको प्रतिमाका एवं शिवजीके शिवलिंगका द्विजको सदा पूजन करना चाहिये। पूजनजनित फलकी सिद्धिके लिये सोलह उपचारोंद्वारा पूजन करना चाहिये ।। 5 - 81/2 ॥
पुष्पसे प्रोक्षण और मन्त्रपाठपूर्वक अभिषेक करे। अगहनीके चावलसे नैवेद्य तैयार करे। सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पावभर) होना चाहिये। घरमें पार्थिव पूजनके लिये एक कुडव और बाहर किसी मनुष्यद्वारा स्थापित शिवलिंगके पूजनके लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक है-ऐसा जानना चाहिये। देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित है और स्वयं प्रकट हुए लिंगके लिये पाँच सेर। ऐसा करनेसे पूर्ण फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये। इससे दुगुना या तिगुना करनेपर और अधिक फल प्राप्त होता है। इस प्रकार सहस्र बार पूजन करनेसे द्विज सत्यलोकको प्राप्त कर लेता है । 9-11/2 ॥बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अँगुल | अधिक अर्थात् पचीस अंगुल लम्बा तथा पन्द्रह अँगुल ऊँचा जो लोहे या लकड़ीका बना हुआ पात्र होता है. उसे विद्वान् पुरुष शिव कहते हैं। उसका आठवाँ भाग प्रस्थ कहलाता है, जो चार कुडवके बराबर माना गया है। मनुष्यद्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये दस प्रस्थ ऋषियोंद्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये सौ प्रस्थ और स्वयम्भू शिवलिंगके लिये एक सहस्र प्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय तथा जल, तैल आदि एवं गन्ध द्रव्योंकी भी यथायोग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिंगोंकी महापूजा बतायी जाती है ॥ 12-15 ॥
देवताका अभिषेक करनेसे आत्मशुद्धि होती है, गन्धसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, नैवेद्य अर्पण करनेसे आयु बढ़ती है और तृप्ति होती है, धूप निवेदन करनेसे धनकी प्राप्ति होती है, दीप दिखानेसे ज्ञानका उदय होता है और ताम्बूल समर्पण करनेसे भोगकी उपलब्धि होती है। इसलिये स्नान आदि छः उपचारोंको यत्नपूर्वक अर्पित करे ।। 16-17 ।।
- करे। नमस्कार और जप – ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फलको देनेवाले हैं। इसलिये भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको पूजाके अन्तमें सदा ही जप और नमस्कार करना चाहिये। मनुष्यको चाहिये कि वह सदा पहले मनसे पूजा करके फिर उन-उन उपचारों से पूजा देवताओंकी पूजा उन-उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा उनके अवान्तर लोकमें भी यथेष्ट भोगकी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं ॥। 18-191/2 ।।
हे द्विजो अब मैं देवपूजासे प्राप्त होनेवाले विशेष फलोंका वर्णन करता हूँ। आपलोग श्रद्धापूर्वक सुनें। विघ्नराज गणेशको पूजासे भूलोक उत्तम अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। शुक्रवारको, श्रावण और भाद्रपद मासको शुक्लपक्षको चतुर्थीको और पौषमासमें शतभिषा नक्षत्रके आनेपर विधिपूर्वक गणेशजीको पूजा करनी चाहिये। सौ या सहस्र दिनोंमें सौ या सहस्र बार पूजा करे। देवता और अग्निमें श्रद्धा हुए किया जानेवाला उनका नित्य पूजन मनुष्योंको पुत्र एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है। वह समस्त पापोंका शमन तथा भिन्नभिन्न दुष्कर्मोंका विनाश करनेवाला है। विभिन्न वारोंमें की हुई शिव आदिकी पूजाको आत्मशुद्धि प्रदान करनेवाली समझना चाहिये। वार या दिन तिथि, नक्षत्र और योगोंका आधार है। वह समस्त कामनाओंको देनेवाला है। उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता है, इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये। सूर्योदयकालसे लेकर दूसरे सूर्योदयकाल आनेतक एक वारकी स्थिति मानी गयी है, जो ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके कर्मोंका आधार है। विहित तिथिके पूर्वभागमें की हुई देवपूजा मनुष्योंको पूर्ण भोग प्रदान करनेवाली होती है । ll 20-25 1/3 ॥
यदि मध्याह्नके बाद तिथिका आरम्भ होता है, तो रात्रियुक्त तिथिका पूर्वभाग पितरोंके श्राद्ध आदि कर्मके लिये उत्तम बताया जाता है। ऐसी तिथिका परभाग ही दिनसे युक्त होता है, अतः वही देवकर्मके लिये प्रशस्त माना गया है। यदि मध्याह्नकालतक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथिको ही देवकार्यमें ग्रहण करना चाहिये। इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि देवकार्यमें ग्राह्य होते हैं। वार आदिका भलीभाँति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये ।। 26 - 28 ॥
वेदोंमें पूजा-शब्दके अर्थकी इस प्रकार योजना कही गयी है पूर्जायते अनेन इति पूजा।' यह पूजाशब्दकी व्युत्पत्ति है पूः का अर्थ है भोग और फलकी सिद्धि-वह जिस कर्मसे सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है। मनोवांछित वस्तु तथा ज्ञान ये ही अभीष्ट वस्तुएँ हैं; सकाम भाववालेको अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम भाववालेको अर्थ- पारमार्थिक ज्ञान। ये दोनों ही पूजाशब्दके अर्थ हैं; इनकी योजना करनेसे ही पूजा-शब्दकी सार्थकता है। इस प्रकार लोक और वेदमें पूजा-शब्दका अर्थ विख्यात है नित्य और नैमित्तिक कर्म कालान्तरमें फल देते हैं, किंतु काम्य कर्मका यदि भलीभाँति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलदायक होता है प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्षतक लगातार पूजन करनेसे उन-उन कर्मोंके फलकी प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापोंका क्रमशः क्षय होता है ।। 29-312 ॥प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्थी तिथिको की हुई महागणपतिकी पूजा एक पक्षके पापोंका नाश करनेवाली और एक पक्षतक उत्तम भोगरूपी फल | देनेवाली होती है। चैत्रमासमें चतुर्थीको की हुई पूजा एक मासतक किये गये पूजनका फल देनेवाली होती. है और जब सूर्य सिंह राशिपर स्थित हों, उस समय | भाद्रपदमासकी चतुर्थीको की हुई गणेशजीकी पूजाको एक वर्षतक [मनोवांछित] भोग प्रदान करनेवाली जानना चाहिये ॥ 32-33/3 ॥
श्रावणमासके रविवारको, हस्त नक्षत्रसे युक्त सप्तमी तिथिको तथा माघशुक्ला सप्तमीको भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठ तथा भाद्रपदमासके बुधवारको, श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी तिथिको तथा केवल द्वादशीको भी किया गया भगवान् विष्णुका पूजन अभीष्ट सम्पत्तिको देनेवाला माना गया है। श्रावणमासमें की जानेवाली श्रीहरिकी पूजा अभीष्ट मनोरथ और आरोग्य प्रदान करनेवाली होती है। अंगों एवं उपकरणोंसहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओंका दान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको द्वादशी तिथिमें आराधनाद्वारा श्रीविष्णुकी तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जो द्वादशी तिथिको भगवान् विष्णुके बारह नामोंद्वारा बारह ब्राह्मणोंका षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके विभिन्न बारह नामोंद्वारा बारह ब्राह्मणोंका किया हुआ पूजन उन-उन देवताओंको प्रसन्न करनेवाला होता है ॥ 34-39 ॥
ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको कर्ककी संक्रान्तिसे युक्त श्रावणमासमें नवमी तिथिको मृगशिरा नक्षत्रके योगमें सम्पूर्ण मनोवांछित भोगों और फलोंको देनेवाली अम्बिकाका पूजन करना चाहिये। आश्विन मासके शुक्लपक्षकी नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है। उसी मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको यदि रविवार पड़ा हो तो उस दिनका महत्त्व विशेष बढ़ जाता है। उसके साथ ही यदि आर्द्रा और महार्द्रा (सूर्यसंक्रान्तिसे युक्त आर्द्रा) का योग हो तो उक्त अवसरोंपर की हुई शिवपूजाकाविशेष महत्त्व माना गया है। माघ कृष्ण चतुर्दशीको शिवजीकी की हुई पूजा सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है। वह मनुष्योंकी आयु बढ़ाती है, मृत्युको दूर हटाती है और समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति कराती है । ll 40 - 421 / 2 ॥
ज्येष्ठमासमें चतुर्दशीको यदि महार्द्राका योग हो अथवा मार्गशीर्षमासमें किसी भी तिथिको यदि आर्द्रा नक्षत्र हो तो उस अवसरपर विभिन्न वस्तुओंकी बनी हुई मूर्तिके रूपमें शिवजीकी जो सोलह उपचारोंसे पूजा करता है, उस पुण्यात्माके चरणोंका दर्शन करना चाहिये। भगवान् शिवकी पूजा मनुष्योंको भोग और मोक्ष देनेवाली है - ऐसा जानना चाहिये। कार्तिक मासमें प्रत्येक वार और तिथि आदिमें देवपूजाका विशेष महत्त्व है। कार्तिकमास आनेपर विद्वान् पुरुष दान, तप, होम, जप और नियम आदिके द्वारा समस्त देवताओंका षोडशोपचारोंसे पूजन करे। उस पूजनमें देवप्रतिमा, ब्राह्मण तथा मन्त्रों का उपयोग आवश्यक है। ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे वह पूजन कर्म सम्पन्न होता है। पूजकको चाहिये कि वह कामनाओंको त्यागकर पीड़ारहित (शान्त) हो देवाराधनमें तत्पर रहे ।। 43-47 ।।
कार्तिकमासमें देवताओंका यजन-पूजन समस्त भोगोंको देनेवाला होता है; यह व्याधियोंको हर लेनेवाला और भूतों तथा ग्रहोंका विनाश भी करनेवाला है। कार्तिकमासके रविवारोंको भगवान् सूर्यकी पूजा करने और तेल तथा कपासका दान करनेसे मनुष्योंके कोढ़ आदि रोगोंका नाश होता है। हर्रे, काली मिर्च, वस्त्र तथा दूध आदिके दानसे और ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा करनेसे क्षयके रोगका नाश होता है। दीप और सरसोंके दानसे मिरगीका रोग मिट जाता है ।। 48-501 / 2 ॥
कृत्तिका नक्षत्रसे युक्त सोमवारोंको किया हुआ शिवजीका पूजन मनुष्योंके महान् दारिद्र्यको मिटानेवाला और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंको देनेवाला है। घरकी आवश्यक सामग्रियोंके साथ गृह और क्षेत्र आदिका दान करनेसे भी उक्त फलकी प्राप्ति होती है। कृत्तिकायुक्त मंगलवारोंको श्रीस्कन्दका पूजन करनेसे तथा दीपक एवं घण्टा आदिका दान देनेसे मनुष्योंको शीघ्र ही वासिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ 51-53 ॥कृत्तिकायुक्त बुधवारोंको किया हुआ श्रीविष्णुका यजन तथा दही-भातका दान मनुष्योंको उत्तम सन्तानकी प्राप्ति करानेवाला होता है। कृत्तिकायुक्त गुरुवारोंको धनमे ब्रह्माजीका पूजन तथा मधु, सोना और घीका दान करनेसे मनुष्योंके भोग-वैभवकी वृद्धि होती है ॥ 54-55 ॥
कृत्तिकायुक्त शुक्रवारोंको गजानन गणेशजी की पूजा करनेसे तथा गन्ध, पुष्प एवं अन्नका दान देनेसे मानवोंके सुख भोगनेयोग्य पदार्थोंकी वृद्धि होती है। उस दिन सोना, चाँदी आदिका दान करनेसे वन्ध्याको भी उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है। कृतिकायुक्त शनिवारोंको दिक्पालोंकी बन्दना, दिग्गजों नागों सेतुपालोंका पूजन और त्रिनेत्रधारी रुद्र तथा पापहारी विष्णुका पूजन ज्ञानकी प्राप्ति करानेवाला है। ब्रह्मा, धन्वन्तरि एवं दोनों अश्विनीकुमारोंका पूजन करनेसे रोग तथा अपमृत्युका निवारण होता है और तात्कालिक व्याधियोंकी शान्ति हो जाती है। नमक, लोहा, तेल और उड़द आदिका त्रिकटु (सोंठ, पीपल और गोल मिर्च), फल, गन्ध और जल आदिका तथा [घृत आदि] द्रव पदार्थोंका और [सुवर्ण, मोती, धान्य आदि] ठोस वस्तुओंका भी दान देनेसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। इनमेंसे नमक आदिका मान कम-से-कम एक प्रस्थ (सेर) और सुवर्ण आदिका मान कम-से-कम एक पल होना चाहिये। धनुकी संक्रान्तिसे युक्त पौषमासमें उषः कालमें शिव आदि समस्त देवताओंका पूजन क्रमशः समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला होता है। इस पूजनमें अगहनीके चावलसे तैयार किये गये हविष्यका उत्तम बताया जाता है। पौषमासमें नाना प्रकारके अन्नका | नैवेद्य विशेष महत्त्व रखता है । ll 56-629/2 ॥
मार्गशीर्षमासमें केवल अन्नका दान करनेवाले मनुष्यको सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंकी प्राप्ति हो जाती है। मार्गशीर्षमासमें अन्नका दान करनेवाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, वह अभीष्ट सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेदका सम्यक् ज्ञान, उत्तम अनुष्ठानका फल, इहलोक और परलोकमें महान् भोग तथा अन्तमें सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदान्तज्ञानकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो भोगकी इच्छा रखनेवाला है, वहमनुष्य मार्गशीर्षमास आनेपर कम से कम तीन दिन भी उषःकालमें अवश्य देवताओंका पूजन करे और पौषमासको पूजनसे खाली न जाने दे। उषःकालसे लेकर संगवकालतक ही पौषमासमें पूजनका विशेष महत्त्व बताया गया है। पौषमासमें पूरे महीनेभर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर दिन प्रातः कालसे मध्याहनकालतक वेदमाता गायत्रीका जप करे। तत्पश्चात् रातको सोनेके समयतक पंचाक्षर आदि मन्त्रोंका जप करे। ऐसा करनेवाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटनेके बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। द्विजेतर नर-नारियोंको त्रिकाल स्नान और पंचाक्षर मन्त्रके ही निरन्तर जपसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इष्ट मन्त्रोंका सदा जप करनेसे बड़े-से-बड़े पापोंका भी नाश हो जाता है ।। 63-70 ॥
पौषमासमें विशेषरूपसे महानैवेद्य चढ़ाना चाहिये। यहाँ बतायी सभी वस्तुएँ बारहकी संख्यामें समझनी चाहिये चावल (बारह) भार, काली मिर्च (बारह) प्रस्थ, मधु और पत (बारह) कुडव, मूंग (बारह) द्रोण, बारह प्रकारके व्यंजन, घीमें तले हुए पूए, लड्डू और चावलके मिष्टान्न (बारह) प्रस्थ, दही और दूध और बारह नारियल आदि फल, बारह सुपारी, कर्पूर, कत्था और पाँच प्रकारके सुगन्धद्रव्योंसे युक्त छत्तीस पत्ते पानसे महानैवेद्य बनता है ।। 71-75 ।।
इस महानैवेद्यको देवताओंको अर्पण करके वर्णानुसार उस देवताके भक्तोंको दे देना चाहिये। इस प्रकारके ओदन- नैवेद्यसे मनुष्य पृथ्वीपर राष्ट्रका स्वामी होता है। महानैवेद्यके दानसे स्वर्गप्राप्ति होती है। है द्विजश्रेष्ठो! एक हजार महानैवेद्योंके दानसे सत्यलोक प्राप्त होता है और उस लोकमें पूर्णायु प्राप्त होती है एवं तीस हजार महानैवेद्योंके दानसे उसके ऊपरके लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा पुनर्जन्म नहीं होता । ll 76 - 79 ॥छत्तीस हजार महानैवेद्योंको जन्मनैवेद्य कहा गया है। उतने नैवेद्योंका दान महापूर्ण कहलाता है। महापूर्ण नैवेद्य ही जन्मनैवेद्य कहा गया है। जन्मनैवेद्यके दानसे पुनर्जन्म नहीं होता ।। 80-81 ।।
कार्तिक मासमें संक्रान्ति, व्यतीपात, जन्मनक्षत्र, पूर्णिमा आदि किसी पवित्र दिनको जन्मनैवेद्य चढ़ाना चाहिये। संवत्सरके प्रारम्भिक दिनको भी उत्तम जन्मनैवेद्यका अर्पण करना चाहिये। किसी अन्य महीनेमें भी जन्मनक्षत्रके पूर्ण योगके दिन तथा अधिक पुण्ययोगोंके मिलनेपर धीरे-धीरे छत्तीस हजार महानैवेद्य अर्पण करे। जन्मनैवेद्यके दानसे जन्मार्पणका फल प्राप्त होता है। जन्मार्पणसे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर अपना सायुज्य प्रदान करते हैं। इसलिये इस जन्मनैवेद्यको शिवको ही अर्पण करना चाहिये। योनि और लिंगरूपमें विराजमान शिव जन्मको देनेवाले हैं, अतः पुनर्जन्मकी निवृत्तिके लिये जन्मनैवेद्यसे शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ 82 – 86 ॥
सारा चराचर जगत् बिन्दु-नादस्वरूप है। बिन्दु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह जगत् शिव शक्तिस्वरूप ही है। नाद बिन्दुका और बिन्दु इस जगत्का आधार है, ये बिन्दु और नाद (शक्ति और शिव ) सम्पूर्ण जगत् के आधाररूपसे स्थित हैं। बिन्दु और नादसे युक्त सब कुछ शिवस्वरूप है; क्योंकि वही सबका आधार है। आधारमें ही आधेयका समावेश अथवा लय होता है। यही सकलीकरण है। इस सकलीकरणकी स्थितिसे ही सृष्टिकालमें जगत्का प्रादुर्भाव होता है; इसमें संशय नहीं है। शिवलिंग बिन्दुनादस्वरूप है, अतः उसे जगत्का कारण बताया जाता है। बिन्दु देवी है और नाद शिव, इन दोनोंका संयुक्तरूप ही शिवलिंग कहलाता है। अतः जन्मके संकटसे छुटकारा पानेके लिये शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये। बिन्दुरूपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरूप भगवान् शिव पिता। इन माता-पिताके पूजित होनेसे परमानन्दकी ही प्राप्ति होती है। अतः परमानन्दका लाभ लेनेके लिये शिवलिंगका विशेषरूपसे पूजन करे ।। 87-92 ll वे देवी उमा जगत्की माता हैं और भगवान् शिव जगत्के पिता । जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्रपर इन दोनों माता-पिताकी कृपा नित्य अधिकाधिक बढ़ती रहती है। वे पूजकपर कृपा करके उसे अपना आन्तरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अतः हे मुनीश्वरो ! आन्तरिक आनन्दकी प्राप्तिके लिये शिवलिंगको माता-पिताका स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भर्ग (शिव) पुरुषरूप है | और भर्गा (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती है। अव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानरूप गर्भको पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत गर्भको प्रकृति । पुरुष आदिगर्भ है, वह प्रकृतिरूप गर्भसे युक्त होनेके कारण गर्भवान् है; क्योंकि वही प्रकृतिका जनक है। प्रकृतिमें जो पुरुषका संयोग होता है, यही पुरुषसे उसका प्रथम जन्म कहलाता है। अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्वादिके क्रमसे जो जगत्का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका द्वितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुषसे ही बार-बार जन्म और मृत्युको प्राप्त होता है। मायाद्वारा अन्यरूपसे प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है। जीवका शरीर जन्मकालसे ही जीर्ण (छः भावविकारोंसे युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे 'जीव' यह संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविध पाशोंद्वारा बन्धनमें पड़ता है, उसका नाम जीव है, जन्म और बन्धन जीव- शब्दका ही अर्थ है। अतः जन्ममृत्युरूपी बन्धनकी निवृत्तिके लिये जन्मके अधिष्ठानभूत माता- पितृस्वरूप शिवलिंगका भली-भाँति पूजन करना चाहिये ।। 93 - 100 ll
शब्दादि पंचतन्मात्राओं तथा पंचेन्द्रियोंसे विषय ग्रहण करनेसे 'भ' अर्थात् वृद्धिको 'गच्छति' अर्थात् प्राप्त होती है, इसलिये 'भग' शब्दका अर्थ प्रकृति है । भोग ही भगका मुख्य शब्दार्थ है। मुख्य 'भग' प्रकृति है और 'भगवान्' शिव कहे जाते हैं ।। 101-102 ।। भगवान् ही भोग प्रदान करते हैं, दूसरा कोई नहीं दे सकता। भग (प्रकृति) का स्वामी भगवान् ही विद्वानोंद्वारा भर्ग कहा जाता है। भग-प्रकृतिसे संयुक्त परमात्मलिंग | और लिंगसंयुक्त भग-प्रकृति ही इस लोक और परलोकमें नित्य भोग प्रदान करते हैं, अतः भगवान् महादेवके शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये ॥ 103-1049/2 ॥संसारको उत्पन्न करनेवाले सूर्य हैं और उत्पन्न करनेके कारण जगत् ही उनका (प्रत्यक्ष) चिह्न है। [इसलिये उनका एक नाम भग भी है।] पुरुषको | लिंगमें जगत्को उत्पन्न करनेवाले लिंगीको ही पूजा करनी चाहिये। सृष्टिके अर्थको बतानेवाले चिह्नके रूपमें ही उसे लिंग कहा जाता है । ll 105 106 ॥
लिंग परमपुरुष शिवका बोध कराता है। इस प्रकार शिव और शक्तिके मिलनके प्रतीकको ही शिवलिंग कहा गया है। अपने चिह्नके पूजनसे प्रसन्न होकर महादेव उस चिनके कार्यरूप जन्मादिको समाप्त कर देते हैं तथा पूजकको पुनर्जन्मकी प्राप्ति नहीं होती। अतः सभी लोगों को यथाप्राप्त बाह्य और मानसिक षोडशोपचारोंसे शिवलिंगका पूजन करना चाहिये ॥ 107-109 ॥
रविवारको की गयी पूजा पुनर्जन्मका निवारण कर देती है। रविवारको महालिंगकी प्रणव (ॐ) से ही पूजा करनी चाहिये। उस दिन पंचगव्यसे किया गया अभिषेक विशेष महत्त्वका होता है। गोबर, गोमूत्र, गोदुग्ध, उसका दही और गोघृतये पंचगव्य कहे जाते हैं ।। 110-111 ।।
गायका दूध, गायका दही और गायका घी इन तीनोंको पूजनके लिये शहद और शक्करके साथ पृथक-पृथक भी रखे और इन सबको मिलाकर सम्मिलित रूप से पंचामृत भी तैयार कर ले (इनके द्वारा शिवलिंगका अभिषेक एवं स्नान कराये), फिर गायके दूध और अन्नके मेलसे नैवेद्य तैयार करके प्रणय मन्त्रके उच्चारणपूर्वक उसे भगवान् शिवको अर्पित करे। सम्पूर्ण प्रणवको ध्वनिलिंग कहते हैं। स्वयम्भूलिंग नादस्वरूप होनेके कारण नादलिंग कहा गया है। यन्त्र या अर्धा बिन्दुस्वरूप होनेके कारण बिन्दुलिंगके रूपमें विख्यात है। उसमें अचलरूपसे प्रतिष्ठित जो शिवलिंग है, वह मकार-स्वरूप है, | इसलिये मकारलिंग कहलाता है। सवारी निकालने आदिके लिये जो चरलिंग होता है, वह उकारस्वरूप होनेसे उकारलिंग कहा गया है तथा पूजाको दो देनेवाले जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह अकारका प्रतीक होनेसे अकारलिंग माना गया है।इस प्रकार प्रणवमें प्रतिष्ठित अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद और ध्वनिके रूपमें लिंगके छः भेद हैं। इन छहों लिंगोंकी नित्य पूजा करनेसे साधक जीवन्मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 112-114॥
भक्तिपूर्वक की गयी शिवपूजा मनुष्योंको पुनर्जन्मसे छुटकारा दिलाती है । रुद्राक्षधारणसे एक चौथाई, विभूति (भस्म) -धारणसे आधा, मन्त्रजपसे तीन चौथाई और पूजासे पूर्ण फल प्राप्त होता है। शिवलिंग और शिवभक्तकी पूजा करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। हे द्विजो ! जो इस अध्यायको ध्यानपूर्वक पढ़ता-सुनता है, उसकी |शिवभक्ति सुदृढ़ होकर बढ़ती रहती है । ll115 - 117॥