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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 54 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 54

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मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना

ब्रह्माजी बोले- उसके बाद सप्तर्षियोंने हिमालयसे कहा- आज गिरिजाकी विदाईके लिये उत्तम मुहूर्त हैं, अतः आप अपनी पुत्री पार्वतीकी विदाई कर दीजिये ll 1 ॥

हे मुनीश्वर ! यह बात सुनकर वे हिमालय पार्वतीवियोगजन्य दुःखका स्मरणकर कुछ देरके लिये व्याकुल हो गये ॥ 2 ॥

फिर कुछ कालके अनन्तर चेतना प्राप्त होनेपर 'ऐसा ही होगा'- यह कहकर उन्होंने मेनाको सन्देश भेजा ॥ 3 ॥ हे मुने! शैलका सन्देश सुनकर मेना हर्ष तथा शोकसे युक्त हो गयीं और गिरिजाको विदा करानेके लिये उद्यत हो गयीं ॥ 4 ॥हे मुने! हिमाचलप्रिया उन मेनाने प्रथम वेद तथा अपने कुलकी रीति सम्पन्न की, फिर पार्वतीकी यात्राके निमित्त वे नाना प्रकारके मंगलविधान करने लगीं ॥ 5 ॥

उन्होंने पार्वतीको अनेक रत्नों तथा श्रेष्ठ वस्त्रोंसे और राजकुलोचित शृंगारों तथा उत्तमोत्तम द्वादश आभरणोंसे अलंकृत किया। तदनन्तर मेनाके मनकी बात जानकर एक पतिव्रता ब्राह्मणपत्नी गिरिजाको श्रेष्ठ पातिव्रत धर्मका उपदेश देने लगी- ॥ 6-7 ॥

ब्राह्मणपत्नी बोली- हे गिरिजे! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो। मेरे ये वचन स्त्रियोंको इस लोक तथा परलोकमें सुख देनेवाले हैं तथा इनके सुननेसे भी स्त्रियोंका कल्याण हो जाता है ॥ 8 ॥

इस जगत् में पतिव्रता नारी ही धन्य है, इसके अतिरिक्त और कोई नारी पूजाके योग्य नहीं है। वह सब लोगोंको पवित्र करनेवाली तथा समस्त पापको दूर करनेवाली है ॥ 9

हे शिवे! जो स्त्री अपने स्वामीकी परमेश्वरके समान सेवा करती है, वह यहाँ अनेक भोगोंको भोगकर अन्तमें पतिके साथ उत्तम गतिको प्राप्त होती है ॥ 10 ॥

सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिल्या, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा आदि बहुत-सी पतिव्रताएँ हैं, जिन्हें विस्तारके भयसे यहाँ नहीं कह रही हूँ । ll 11-12 ।।

ये सभी पातिव्रत्यधर्मके प्रभावसे ही जगत्में मान्य तथा पूज्य हुई। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर एवं अन्य मुनीश्वरोंने भी इनका सम्मान किया है ॥ 13 ॥

इसलिये तुम्हें अपने पति शंकरकी विशेष रूपसे सेवा करनी चाहिये; क्योंकि ये दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले एवं पूज्य होनेके कारण सबके सेव्य हैं और सज्जनोंके गतिदाता हैं ॥ 14 ॥

पतिव्रताओंका धर्म महान् है, जिसका वर्णन श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें भरा हुआ है। निश्चय ही पातिव्रत्यधर्म जितना श्रेष्ठ है, उतना अन्य धर्म श्रेष्ठ नहीं है ॥ 15 ॥स्त्रीको चाहिये कि जब अपना प्रिय पति भोजन कर ले, तब स्वयं पतिभक्तिमें परायण होकर भोजन करे। हे शिव! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्रीको भी खड़ा ही रहना चाहिये ॥ 16 ॥ पतिके सो जानेपर स्वयं शयन करे और उसके उठनेसे पहले स्वयं जाग जाय पतिका सर्वदा छलरहित हो हित करे। हे शिवे! कभी अलंकारसे रहित हो अपने स्वामीके सम्मुख न जाय। जब स्वामी कार्यवश परदेश चला जाय, तो कभी शरीरका संस्कार एवं शृंगार न करे ।। 17-18 ।।

पतिव्रता स्त्रीको चाहिये कि वह पतिका नाम कभी नले, पतिके द्वारा क्रुद्ध होकर कठोर वचन कहनेपर भी उसे बुरा वचन न कहे और पतिके शासित करनेपर भी प्रसन्न रहे। उस समय भी यही कहे कि स्वामिन्! और अधिक दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिये ॥ 19 ॥

पतिके बुलानेपर घरका सारा कामकाज छोड़कर उनके समीप जाय और शीघ्रतासे प्रणामकर हाथ जोड़कर उनसे प्रेमपूर्वक कहे हे स्वामिन् । आपने किसलिये बुलाया है, कृपाकर आज्ञा दीजिये, इसके बाद उस आज्ञाको प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिये ll 20-21 ॥

दरवाजेपर खड़ी होकर बहुत कालतक इधर-उधर न देखे और न तो दूसरेके घर जाय। किसीका भेद लेकर किसी अन्यके सामने उसको प्रकाशित न करे ।। 22 ।।

बिना कहे ही पतिके लिये पूजनकी सामग्री प्रस्तुत करे और पतिके हितके लिये निरन्तर अवसरकी प्रतीक्षा करती रहे। पतिकी आज्ञाके बिना कभी भी तीर्थयात्राके लिये न जाय और किसी समाज तथा उत्सवको देखनेके लिये भी न जाय। जिस स्त्रीको तीर्थयात्राकी इच्छा हो, वह अपने स्वामीका चरणामृत लेकर सन्तुष्ट हो जाय; क्योंकि पतिके चरणोदकमें सभी तीर्थ एवं क्षेत्र निवास करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।। 23-25 ।।

पतिके भोजन करनेके पश्चात् उसका उच्छिष्ट जो भी इष्ट अन्नादि हो, उसे पतिप्रदत्त महाप्रसाद समझकर पतिव्रता स्त्री भोजन करे। देवता, पितर, अतिथि, सेवक, गौ एवं भिक्षुकको बिना दिये अन्नका भोजन न करे ।। 26-27 ।।घरकी समग्र सामग्री ठीक तरहसे रखे, नित्य उत्साहयुक्त तथा सावधान रहे और अधिक व्यय न करे, इस प्रकार सर्वदा पातिव्रत्यधर्मका पालन करे ॥ 28 ॥ पतिकी आज्ञाके बिना कोई उपवास तथा व्रत न करे, अन्यथा उसका फल नहीं होता और उसे नरककी प्राप्ति होती है। सुखपूर्वक आनन्दसे बैठे हुए तथा अपनी इच्छासे रमण करते हुए पतिको आवश्यक कार्य आ पड़नेपर भी न उठाये। पति क्लीब, दुर्गतिमें पड़ा हुआ, वृद्ध, रोगी, सुखी अथवा दुखी चाहे जैसा ही क्यों न हो, उसका अपमान न करे॥ 29-31 ॥

मासिक धर्म प्राप्त हो जानेपर आरम्भसे तीन रात्रिपर्यन्त अपना मुख पतिको न दिखाये और जबतक चौथे दिन स्नानसे शुद्ध न हो, अपना शब्द भी न सुनाये ॥ 32 ॥

ऋतुस्नान करनेके पश्चात् पतिका ही मुख देखे, कभी अन्यका मुख न देखे अथवा पतिके न होनेपर पतिका ध्यानकर सूर्यका दर्शन करे ॥ 33 ॥ पतिके आयुष्यकी इच्छा करनेवाली पतिव्रता स्त्रीको हरिद्रा, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूर्पासक, ताम्बूल, मांगलिक आभूषण, केशोंका संस्कार, केशपाश बनाना, हाथमें कंगन एवं कानोंमें कर्णफूल नित्य धारण करना चाहिये, इसका परित्याग कभी किसी भी अवस्थामें न करे ।। 34-35 ।।

धोबिन, वन्ध्या, व्यभिचारिणी, संन्यासिनी अथवा दुर्भाग्ययुक्त स्त्रीसे कभी मित्रता न करे। जो स्त्री अपने पतिसे द्वेष करती हो, उससे बातचीत न करे, कभी अकेली न रहे और न नग्न होकर कभी स्नान करे ।। 36-37 ॥ ओखली, मूसल, बुहारी (झाड़ू), सिल, लोढ़ा
तथा देहलीपर सती स्त्री कभी न बैठे 38 सहवासके अतिरिक्त और किसी समय पतिसे धृष्टता न करे अपना पति जिससे प्रेम करे, उसीसे प्रेम करे ॥ 39 ॥

पतिके प्रसन्न होनेपर प्रसन्न रहे, पतिके दुखी होनेपर दुखी रहे तथा पतिके प्रियमें ही अपना प्रिय समझे। इस प्रकार पतिव्रता स्त्री सदैव पतिके हितकी इच्छा करे ll 40 ॥पतिव्रता स्त्री सदैव सम्पत्ति तथा विपत्ति दोनों | अवस्थाओंमें एकरूप रहे। विकार उपस्थित होनेपर | कभी विकृत न हो और सदैव धैर्य धारण करे ।। 41 ।।

घी, नमक, तेल आदिके न होनेपर भी पतिव्रता स्त्री पतिसे 'नहीं है'- ऐसा न कहे और पतिको किसी असाध्य कार्यमें नियुक्त न करे। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवसे भी अधिक पतिका महत्त्व है। अतः हे देवेशि ! पतिव्रता अपने पतिको साक्षात् शिवस्वरूप ही समझे ॥ 42-43 ।।

पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करके जो स्त्री व्रत, उपवास तथा नियमादिका आचरण करती है, वह अपने पतिकी आयुका हरण करती है और मरनेपर नरक प्राप्त करती है। जो स्त्री क्रुद्ध होकर पतिके कुछ कहनेपर उसका प्रत्युत्तर करती है, वह ग्रामकी कुतिया अथवा निर्जन वनमें श्रृंगाली होती है ।। 44-45 ।।

स्त्रीको चाहिये कि वह पतिसे ऊँचे स्थानपर न बैठे, दुष्टोंके समीप न जाय और कभी भी पतिसे कातर वाक्य न कहे। किसीकी निन्दा या आक्षेपयुक्त बात न कहे, दूरसे ही कलहका परित्याग करे, गुरुजनोंके समीप कभी जोरसे न बोले और न जोरसे हँसे ॥ 46-47 ।।

पतिको बाहरसे आया हुआ देखकर शीघ्रतासे अन्न, जल, भोजन, ताम्बूल, वस्त्र, पादसंवाहन, खेद दूर करनेवाले मीठे वचनके द्वारा जो स्त्री अपने स्वामीको प्रसन्न रखती है, मानो उसने त्रैलोक्यको प्रसन्न कर लिया ।। 48-49 ।।

माता, पिता, पुत्र, भाई तो स्त्रीको बहुत थोड़ा ही सुख देते हैं, परंतु पति तो अपरिमित सुख देता है। इसलिये स्त्रीको चाहिये कि वह पतिका सदैव पूजन करे ॥ 50 ॥

पति ही देवता, गुरु, भर्ता, धर्म, तीर्थ एवं व्रतादि सब कुछ है इसलिये सब कुछ छोड़कर एकमात्र पतिका ही पूजन करे जो दुष्ट स्त्री अपने पतिको छोड़कर एकान्तमें दूसरेके पास जाती है, वह वृक्षके कोटरमें रहनेवाली उलूकी होती है ।। 51-52 ॥

जो स्वामीके द्वारा ताड़न करनेपर स्वयं भी ताड़न करना चाहती है, वह वृषभभक्षिणी व्याघ्री होती है। जो अपने पतिको छोड़कर अन्यसे कटाक्ष करती है, वह केकराक्षी होती है। जो अपने पतिको बिना दिये मिष्टान्न खा लेती है, वह ग्रामसूकरी अथवा अपनी विष्ठा खानेवाली वल्गु (बकरी) होती है ॥ 53-54 ॥जो अपने पतिको 'तू' कहकर बोलती है, वह जन्मान्तरमें गूँगी होती है और जो अपनी सपत्नी (सौत)-से डाह करती है, वह बारंबार विधवा होती है ॥ 55 ॥

जो अपने स्वामीकी दृष्टि बचाकर किसी अन्य पुरुषको देखती है, वह काणी, कुमुखी तथा कुरूपा होती है ॥ 56 ॥ जैसे जीवके बिना देह क्षणमात्रमें अशुचि हो जाता है, उसी प्रकार अपने स्वामीके बिना स्त्री अच्छी तरह स्नान करनेपर भी अपवित्र ही रहती है ॥ 57 ॥

इस लोकमें उसकी माता धन्य है और उसके पिता भी धन्य हैं तथा उसका वह पति भी धन्य है, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्रीका निवास होता है ॥ 58 ॥

पतिव्रता स्त्रीके पुण्यसे उसके पितृवंश, मातृवंश तथा पतिवंशके तीन-तीन पूर्वज स्वर्गमें सुख भोगते हैं ।। 59 ।।

दुराचारिणी स्त्रियाँ अपने दुराचरणके द्वारा माता-पिता तथा पति – इन तीनों कुलोंको नरकमें गिराती हैं और वे इस लोक तथा परलोकमें सदैव दुखी रहती हैं ॥ 60 ॥

पतिव्रताके चरण जहाँ-जहाँ पड़ते हैं, वहाँ वहाँकी पृथिवी सदा पापका हरण करनेवाली तथा अत्यन्त पवित्र हो जाती है। सर्वव्यापक सूर्य, चन्द्रमा तथा वायु भी अपनी पवित्रताके लिये ही पतिव्रताका स्पर्श करते हैं, अन्य किसी कारणसे नहीं ॥ 61-62 ॥ जल तो सदैव पतिव्रताका स्पर्श चाहते हैं, वे कहते हैं कि आज इस पतिव्रताके स्पर्शसे हमारी जड़ता नष्ट हो गयी और हमें दूसरेको पवित्र करनेकी योग्यता प्राप्त हुई। भार्या गृहस्थका मूल है, भार्या ही सुखका मूल है, धर्मफलकी प्राप्ति एवं सन्तानवृद्धिके लिये भार्याकी अत्यन्त आवश्यकता है। क्या अपने रूप, लावण्यका गर्व करनेवाली स्त्रियाँ प्रत्येक घरोंमें नहीं हैं, किंतु विश्वेश्वरमें भक्ति करनेसे ही पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥ 63-65 ॥भार्याके द्वारा ही इस लोक तथा परलोक दोनों लोकोंपर विजय प्राप्त की जा सकती है। देवकर्म, पितृकर्म, अतिथिकर्म तथा यज्ञकर्म बिना भार्याके फलवान् नहीं होता। गृहस्थ उसीको कहते हैं, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्रीका निवास है, अन्य स्त्रियाँ तो प्रतिदिन जरा राक्षसीके समान पुरुषको ग्रसती रहती हैं ।। 66-67 ।।

जिस प्रकार गंगास्नानसे शरीर पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रीके दर्शनमात्रसे सब कुछ पवित्र हो जाता है ॥ 68 ॥

गंगा तथा पतिव्रता स्त्रीमें कोई भेद नहीं है। वे दोनों स्त्री-पुरुष शिव तथा पार्वतीके तुल्य हैं, अतः बुद्धिमान् पुरुषको उनका पूजन करना चाहिये ।। 69 ।।

पति ॐ कार है, तो स्त्री श्रुति वेद है, पति तप है, तो स्त्री क्षमा है, स्त्री सत्क्रिया है, तो पति उसका फल है। हे शिवे ! इस प्रकारके दम्पती धन्य हैं ॥ 70 ॥

हे पार्वति ! इस प्रकारसे मैंने तुमसे पातिव्रत्य धर्मका निरूपण किया। अब उन पतिव्रताओंके भेद सावधानी के साथ प्रेमपूर्वक सुनो ॥ 71 ll

उत्तम आदिके भेदसे पतिव्रता स्त्रियाँ चार प्रकारकी कही गयी हैं। जिनके स्मरणसे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ 72 ॥

उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तथा अतिनिकृष्ट - [ये चार भेद पतिव्रताओंके होते हैं।] अब मैं उनका लक्षण कह रहा हूँ, सावधान होकर उसका श्रवण करो ॥ 73 ॥

जिसका मन स्वप्नमें भी अपने पतिको ही देखता है और कभी परपतिमें नहीं जाता; हे भद्रे ! वह उत्तम पतिव्रता कही गयी है जो दूसरोंके पतियोंको पिता, भ्राता तथा पुत्रके समान सद्बुद्धिसे देखती है, हे पार्वति वह मध्यम पतिव्रता कही गयी है ।। 74-75 ।। हे पार्वति! जो स्त्री मनमें अपना धर्म समझकर व्यभिचार नहीं करती, वह सुन्दर चरित्रवाली स्त्री निकृष्ट पतिव्रता (अधमा) कही गयी है ॥ 76 ॥जो मनमें इच्छा रहते हुए भी पति एवं कुलके भयसे व्यभिचार नहीं करती, उसको पुरातन लोगोंने अति- निकृष्ट पतिव्रता कहा है ॥ 77 ॥ हे शिवे ! ये चारों प्रकारकी पतिव्रताएँ पापहरण करनेवाली हैं, सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाली हैं और इस लोक एवं परलोकमें आनन्द प्रदान करनेवाली हैं ॥ 78 ॥

पातिव्रत्यके प्रभावसे ही अत्रिप्रिया अनसूयाने तीनों देवताओंकी प्रार्थनापर वाराहके शापसे मरे हुए ब्राह्मणको जीवनदान दिया था ।। 79 ।।

हे शिवे ! ऐसा जानकर तुमको नित्य प्रेमपूर्वक अपने पतिकी सेवा करनी चाहिये; क्योंकि हे शैलपुत्रि ! ऐसा करनेसे तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे ॥ 80 ॥ तुम तो साक्षात् जगत्की माता तथा महेश्वरी हो और जगत्पिता महेश्वर तुम्हारे साक्षात् पति हैं। तुम्हारे नामके स्मरणमात्रसे स्त्रियाँ पतिव्रता होंगी ॥ 81 ॥

हे देवि! तुम्हारे आगे इस कथनसे क्या प्रयोजन ! फिर भी हे शिवे! संसारके आचरणके अनुसार मैंने तुम्हें यह सब कहा है ॥ 82 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर वह
द्विजपत्नी भगवतीको प्रणामकर मौन हो गयी और उस उपदेशके श्रवणसे शंकरप्रिया शिवा अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गयीं ॥ 83 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा