नारदजी बोले हे तात! जब देवी दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं और देवगण अपने-अपने धामको चले गये, उसके बाद क्या हुआ ? ॥ 1 ॥
हे तात! मेना तथा हिमाचलने किस प्रकार कठोर तप किया और भगवती किस प्रकार मेनाके गर्भसे उत्पन्न होकर उन हिमाचलकी कन्या हुईं, उसे कहिये ॥ 2 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे विप्रवर्य! हे सुतश्रेष्ठ ! मैं शिवजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उनके भक्तिवर्धक महान् चरित्रको कह रहा हूँ ॥ 3 ॥
उपदेश देकर विष्णु आदि देवसमुदायके चले जानेपर पर्वतराज हिमाचल तथा मेनका कठोर तप करने लगे ll 4 ॥
वे पति पत्नी भक्तियुक्त चित्तसे दिन-रात शम्भु और शिवाका चिन्तन करते हुए उनकी सम्यक् रीति से नित्य आराधना करने लगे। गिरिप्रिया वे मेना प्रसन्नतापूर्वक शिवजीके साथ देवीका पूजन करती थीं और उन्हें प्रसन्न करनेके लिये नित्य ब्राह्मणोंको दान देती थीं ॥ 5-6 ll
सन्तानकी कामनासे मेनाने चैत्रमाससे आरम्भ करके सत्ताईस वर्षोंतक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक शिवाको पूजा की ॥ 7 ॥
वे अष्टमीको उपवास करके नवमी तिथिको लड्डू, पीठी, खीर, गन्ध, पुष्प आदि अर्पण करती थीं ॥ 8 ॥ वे गंगाके औषधिप्रस्थमें उमादेवीकी मिट्टीकी प्रतिमा बनाकर अनेक प्रकारको वस्तुएँ समर्पितकर उनकी पूजा किया करती थीं। वे कभी निराहार रहती थीं, कभी व्रत धारण करती थीं, कभी जल पीकर ही रहतीं थीं और कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं ॥ 9-10 ॥इस प्रकार विशुद्ध तेजसे दीप्तिमती मेनाने प्रेमपूर्वक शिवामें चित्त लगाते हुए सत्ताईस वर्ष व्यतीत किये ॥ 11 ॥ सत्ताईसवें वर्ष की समाप्तिपर जगन्मयी जगज्जननी शंकरकामिनी उमा अत्यन्त प्रसन्न हो गर्यो ॥ 12 ॥ मेनाकी उत्तम भक्तिसे सन्तुष्ट होकर परमेश्वरी देवी उनपर अनुग्रह करनेके लिये उनके सामने प्रकट हुई ।। 13 ।।
तेजोराशिके बीच में विराजमान तथा दिव्य अवयवोंसे संयुक्त उमादेवी प्रत्यक्ष होकर मेनासे हँसती हुई कहने लगी- ॥ 14 ॥
देवी बोलीं- हे महासाध्वि जो तुम्हारे मनमें हो, वह वर माँगो हे गिरिकामिनि! मैं तुम्हारी तपस्यासे बहुत प्रसन्न हूँ ।। 15 ।।
हे मेने ! तुमने तपस्या, व्रत और समाधिके द्वारा जो प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूंगी और जब भी तुम्हारी जो इच्छा होगी, वह भी दूँगी ॥ 16 ॥
तब उन मेनाने प्रत्यक्ष प्रकट हुई कालिका देवीको देखकर प्रणाम किया और यह वचन कहा ॥ 17 ॥
मेना बोलीं- हे देवि इस समय मुझे आपके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है, अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ। हे कालिके आप प्रसन्न हों ॥ 18 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ नारद!] मेनाके ऐसा कहनेपर सर्वमोहिनी कालिकाने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर अपनी दोनों बाँहोंसे मेनाका आलिंगन किया 19 तत्पश्चात् मेनकाको महाज्ञानकी प्राप्ति हो गयी और वे प्रिय वचनोंद्वारा भक्तिभावसे प्रत्यक्ष हुई शिवा कालिकाकी स्तुति करने लगीं ॥20॥ मेना बोलीं- मैं महामाया, जगत्का पालन | करनेवाली, चण्डिका, लोकको धारण करनेवाली तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंको देनेवाली महादेवीको प्रणाम करती हूँ ॥ 21 ॥
नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली, माया, योगनिद्रा, जगज्जननी, सिद्धस्वरूपिणी तथा सुन्दर कमलेको माला धारण करनेवाली देवीको सदा प्रणाम करती हूँ ॥ 22 ॥मातामही, नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली, भक्तोंके शोकको सर्वदा विनष्ट करनेवाली तथा नारियों एवं प्राणियोंकी बुद्धिस्वरूपिणी देवीको मैं प्रणाम करती हूँ ॥ 23 ॥
आप यतियोंके बन्धनके नाशकी हेतुभूत [ब्रह्मविद्या] हैं, तो मुझ जैसी नारियाँ आपके प्रभावका क्या वर्णन कर सकती हैं। अथर्ववेदकी जो हिंसा है, वह आप ही हैं। [हे देखि!] आप मेरे अभीष्ट फलको सदा प्रदान कीजिये ॥ 24 ॥
भावहीन तथा अदृश्य नित्यानित्य तन्मात्राओंसे आप ही पंचभूतोंके समुदायको संयुक्त करती हैं। आप उनकी शक्ति हैं और सदा नित्यरूपा हैं। आप समय-समयपर योगयुक्त एवं समर्थ नारीके रूपमें प्रकट होती हैं ।। 25 ।।
आप ही जगत्की उत्पादिका और आधारशक्ति हैं, आप ही सबसे परे नित्या प्रकृति हैं। जिसके द्वारा ब्रह्मके स्वरूपको वशमें किया जाता है, वह नित्या [विद्या] आप ही हैं। हे मातः ! आज मुझपर प्रसन्न होइये ॥ 26 ॥
आप ही अग्निके भीतर व्याप्त उम्र शक्ति हैं। आप ही सूर्यकिरणोंकी प्रकाशिका शक्ति हैं। चन्द्रमामें जो आह्नादिका शक्ति है, वह भी आप ही हैं, उन आप चण्डी देवीका मैं स्तवन और वन्दन करती हूँ॥ 27 ॥ आप स्त्रियोंको बहुत प्रिय हैं। ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियोंकी नित्या ब्रह्मशक्ति भी आप ही हैं। आप सम्पूर्ण जगत्की वांछा हैं तथा श्रीहरिकी माया भी आप ही हैं ॥ 28 ॥
जो देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि, स्थिति, पालन तथा संहारमयी होकर उन कार्योंका सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रके शरीरकी भी हेतुभूता हैं, वे आप ही हैं। आप मुझपर प्रसन्न हों। आपको पुनः मेरा नमस्कार है ।। 29 ।।
ब्रह्माजी बोले [हे नारद!] मेनाके इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गा कालिकाने पुनः मेना देवीसे कहा- तुम अपना मनोवांछित वर माँग लो ॥ 30 ॥
उमा बोलीं- हे हिमाचलप्रिये तुम मुझे प्राणोंसे अधिक प्रिय हो, तुम जो भी चाहती हो, उसे मैं निश्चय ही दूँगी, तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ।। 31 ।।महेश्वरीका अमृतके समान यह मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मेना अत्यधिक सन्तुष्ट होकर कहने लगीं- ॥ 32 ॥
मेना बोली- हे शिवे! आपकी जय हो, जय हो हे प्राजे हे महेश्वरि हे भवाम्बिके। यदि मैं कर पानेके योग्य हूँ, तो आपसे पुनः श्रेष्ठ वर माँगती हूँ ॥ 33 ॥ हे जगदम्बिके! पहले तो मुझे सौ पुत्र हों, वे दीर्घ आयुवाले, पराक्रमसे युक्त तथा ऋद्धि सिद्धिसे सम्पन्न हों ॥ 34 ॥
उन पुत्रोंके पश्चात् मेरी एक पुत्री हो, जो स्वरूप और गुणोंसे युक्त, दोनों कुलोंको आनन्द देनेवाली तथा तीनों लोकोंमें पूजित हो ॥ 35 ॥
हे शिवे आप ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरी पुत्री हों। हे भवाम्बिके! आप रुद्रदेवकी पत्नी हों और लीला करें ॥ 36 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] मेनकाकी वह बात | सुनकर प्रसन्नहृदया देवी उमा उनके मनोरथको पूर्ण करती हुई मुसकराकर यह वचन कहने लगीं- ॥ 37 ॥
देवी बोलीं- तुम्हें सौ बलवान् पुत्र होंगे। उनमें एक बलवान् और प्रधान होगा, जो सबसे पहले उत्पन्न होगा ॥ 38 ॥
तुम्हारी भक्तिसे सन्तुष्ट मैं [स्वयं] पुत्रीके रूपमें अवतीर्ण होऊँगी और समस्त देवताओंसे सेवित होकर उनका कार्य सिद्ध करूँगी ।। 39 ।।
ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर जगद्धात्री परमेश्वरी कालिका शिवा मेनकाके देखते-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गयीं ॥ 40 ॥ हे तात! महेश्वरीसे अभीष्ट वर पाकर मेनकाको भी अपार हर्ष हुआ और उनका तपस्याजनित क्लेश नष्ट हो गया ।। 41 ll
अत्यन्त प्रसन्नचित्त साध्वी मेना उस दिशामें नमस्कारकर जय शब्दका उच्चारण करती हुई अपने स्थानको चली गयीं ॥। 42 ।।
ऐसे तो मेनाके प्रसन्न मुखमण्डलसे हो हिमवान्को सारी बातोंकी जानकारी हो गयी, फिर भी मेनाने अपने मुखसे वरदानकी सारी बात पुनरुक्त वचनोंके समान हिमालयसे पुनः कह दी। ll 43 llमेनाका वचन सुनकर पर्वतराज [ हिमालय ] प्रसन्न हुए और उन्होंने शिवामें भक्ति रखनेवाली [अपनी] उन प्रियाकी प्रेमपूर्वक प्रशंसा की ॥ 44 ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् कालक्रमसे उन दोनोंके सहवासमें प्रवृत्त होनेपर मेनाको गर्भ रह गया और वह प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥ 45 ॥
समयानुसार उन्होंने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम मैनाक था। उसने समुद्रके साथ उत्तम मैत्री की। वह अद्भुत पर्वत नागवधुओंके विहारका स्थल है ॥ 46 ॥
हे देवर्षे ! जिस समय इन्द्रने पर्वतोंपर क्रोधित होकर उनके पंख काटना प्रारम्भ किया, उस समय वज्रद्वारा कटे हुए पर्वतोंके पंखोंको देखकर वह मैनाक वेदनासे अनभिज्ञ ही रहा और पंखयुक्त ही रहा ॥ 47 ॥
हिमालयके सौ पुत्रोंमें मैनाक सबसे श्रेष्ठ और महाबल तथा पराक्रमसे युक्त था । अपने आप प्रकट हुए समस्त पर्वतोंमें एकमात्र मैनाक ही पर्वतराजके पदपर अधिष्ठित हुआ ॥ 48 ॥
उस समय हिमालयके नगरमें महान् उत्सव हुआ। दोनों पति-पत्नी अत्यधिक प्रसन्नताको प्राप्त हुए और उनका क्लेश नष्ट हो गया ॥ 49 ॥ उन्होंने ब्राह्मणोंको दान दिया तथा अन्य लोगोंको भी धन प्रदान किया। शिवाशिवके चरणयुगलमें उन दोनोंका अत्यधिक स्नेह हो गया ॥ 50 ॥