सूतजी कहते हैं - वहाँ [मेरुपर्वतपर] सागरके समान एक विशाल सरोवर है, जिसका नाम स्कन्द- सर है। उसका जल अमृतके समान स्वादिष्ठ, शीतल, स्वच्छ, अगाध और हलका है। वह सरोवर सब ओरसे स्फटिकमणिके शिलाखण्डोंद्वारा संघटित हुआ है। उसके चारों ओर सभी ऋतुओंमें खिलनेवाले फूलोंसे भरे हुए वृक्ष उसे आच्छादित किये रहते हैं ॥ 1-2 ॥
उस सरोवरमें सेवार, उत्पल, कमल और कुमुदके पुष्प तारोंके समान शोभा पाते हैं और तरंगें बादलोंके समान उठती रहती हैं, जिससे जान पड़ता है कि आकाश ही भूमिपर उतर आया है। वहाँ सुखपूर्वक उतरने चढ़नेके लिये सुन्दर घाट और सीढ़ियाँ हैं । वहाँकी भूमि नीली शिलाओंसे आबद्ध है। आठों दिशाओंकी ओरसे वह सरोवर बड़ी शोभा पाता है ।। 3-4 ।।
वहाँ बहुत से लोग नहानेके लिये उतरते हैं और कितने ही नहाकर निकलते रहते हैं। स्नान करके श्वेत यज्ञोपवीत और उज्ज्वल कौपीन धारण किये, वल्कल पहने, सिरपर जटा अथवा शिखा रखाये या मूँह मुड़ाये, ललाटमें त्रिपुण्ड्र लगाये, वैराग्यसे विमल एवं मुसकराते मुखवाले बहुत से मुनिकुमार घोंमें कमलिनीके पत्तोंके दोनोंमें, सुन्दर कलशोंमें, कमण्डलुओंमें तथा वैसे ही करकों (करवों) आदिमें अपने लिये, दूसरोंके लिये, विशेषतः देवपूजाके लिये वहाँसे नित्य जल और फूल ले जाते हैं॥ 5-8 ॥आचारसम्पन्न, भस्मोद्धूलित शरीरवाले, सम्मान्य शिष्ट मुनिजन अपवित्र पुरुष आदिके स्पर्शसे शंकित रहते हुए उस सरोवरमें जहाँ-तहाँ जलमें डूबी हुई शिलाओं पर स्थित हो स्नानकृत्य सम्पन्न करते हैं। देवर्षि मनुष्य पितृतर्पण करनेके उपरान्त छोड़े गये कुश, तिल, अक्षत, पुष्प तथा पवित्रक आदिसे युक्त वह सरोवर स्नानादि धर्मकृत्योंके सम्पादनार्थ आये हुए द्विजोंका मानो परिचय-सा देता रहता है । ll 9-11 ॥
स्थान-स्थानपर अनेक प्रकारकी पुष्पबलि आदि [मन्त्रोंके] उच्चारणपूर्वक दी जाती है, कुछ लोग सूर्यदेवको अर्घ्य देते हैं और कुछ लोग वेदिकाओंपर देवताओंकी अर्चनामें निरत रहते हैं। उस सरोवरमें कहीं [ श्रमके कारण] शिथिल शरीरवाले श्रेष्ठ गज डूबते-उतराते हुए जलक्रीडा करते हैं तो कहीं प्यास बुझानेके लिये हरिण, हरिणियाँ और घोड़े आते दीखते हैं वहाँपर कहीं तो जल पीकर उड़ते हुए मयूर परस्पर स्पर्धा-सी करते हैं तो कहींपर तटोंको आहत करते हुए वृषभ अपने प्रतिद्वन्द्वी वृषभोंसे लड़ते हुए शोभित होते हैं ॥ 12-14 ॥
कहीं कारण्डव पक्षियोंकी ध्वनि हो रही है, कहीं सारसोंका कूजन सुनायी दे रहा है, कहीं कोकपक्षी (चक्रवाक) शब्द कर रहे हैं और कहीं भरे गुंजन करते हुए मानो गीत-सा गा रहे हैं। वह सरोवर जलमें स्नान-पानादि करते हुए अपने समीपवर्ती वृक्षोंका आश्रय लेकर रहनेवाले जीव-जन्तुओंसे मानो प्रेमपूर्वक बार-बार वार्तालाप कर रहा है। वह सरोवर अपने तटवर्ती वृक्षोंकी चोटियोंपर बैठकर कूजन करती हुई कोयलोंकी [कुहू कुहू] ध्वनिके बहानेसे मानो आतपसे सन्तप्त सभी जीवोंको निरन्तर आमन्त्रित-सा करता है । ll 15 - 17 ॥
उस सरोवरके उत्तर तटपर एक कल्पवृक्षके नीचे हीरेकी शिलासे बनी हुई वेदीपर कोमल मृगचर्म बिछाकर सदा बालरूपधारी सनत्कुमारजी बैठे थे। वे अपनी अविचल | समाधिसे उसी समय उपरत हुए थे। उस समय बहुत से ऋषि-मुनि उनकी सेवामें बैठे थे और योगीश्वर भी उनकी पूजा कर रहे थे। नैमिषारण्यके मुनियोंने वहाँ सनत्कुमारजीका दर्शन किया। उनके चरणों में मस्तक झुकाया और उनके आस- पास बैठ गये ॥ 18-20 ॥सनत्कुमारजीके पूछनेपर उन ऋषियोंने उनसे ज्यों ही अपने आगमनका कारण बताना आरम्भ किया, त्यों ही आकाशमें दुन्दुभियोंका तुमुल नाद सुनायी दिया। उसी समय सूर्यके समान तेजस्वी एक विमान दृष्टिगोचर हुआ, जो असंख्य गणेश्वरोंद्वारा चारों ओरसे घिरा हुआ था। उसमें अप्सराएँ तथा रुद्रकन्याएँ भी थीं। वहाँ मृदंग, ढोल और वीणाकी ध्वनि गूँज रही थी ॥ 21 - 23 ॥
उस विमानमें विचित्र रत्नजटित चंदोवा तना था और मोतियोंकी लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। बहुत-से मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष, चारण और किन्नर नाचते, गाते और बाजे बजाते हुए उस विमानको सब ओरसे घेरकर चल रहे थे, उसमें वृषभचिह्नसे युक्त और मूँगेके दण्डसे विभूषित ध्वजा पताका फहरा रही थी, जो उसके गोपुरकी शोभा बढ़ाती थी। उस विमानके मध्यभागमें दो चँवरोंके बीच चन्द्रमाके समान उज्ज्वल मणिमय दण्डवाले शुभ्र छत्रके नीचे दिव्य सिंहासनपर शिलादपुत्र नन्दी देवी सुयशाके साथ बैठे थे। वे अपनी कान्तिसे, शरीरसे तथा तीनों नेत्रोंसे बड़ी शोभा पा रहे थे। भगवान् शंकरको आवश्यक कार्योंकी सूचना देनेवाले वे नन्दी मानो जगत्स्रष्टा शिवके अलंघनीय आदेशका मूर्तिमान् स्वरूप होकर वहाँ आये थे, अथवा उनके रूपमें मानो साक्षात् शम्भुका सम्पूर्ण अनुग्रह ही साकाररूप धारण करके वहाँ सबके सामने उपस्थित हुआ था ।। 24- 29 ॥
शोभाशाली श्रेष्ठ त्रिशूल ही उनका आयुध है। वे विश्वेश्वरके गणोंके अध्यक्ष हैं और दूसरे विश्वनाथकी भाँति शक्तिशाली हैं। उनमें विश्व स्रष्टा विधाताओंका भी निग्रह और अनुग्रह करनेकी शक्ति है। उनके चार भुजाएँ हैं। अंग अंगसे उदारता सूचित होती है, वे चन्द्रलेखासे विभूषित हैं। कण्ठमें नाग और मस्तकपर चन्द्रमा उनके अलंकार हैं। वे साकार ऐश्वर्य और सक्रिय सामर्थ्यंके स्वरूप से जान पड़ते हैं ॥ 30-32 ॥भलीभाँति प्राप्त हुए मोक्ष अथवा निकट उपस्थित हुए सर्वज्ञ परमात्माके समान प्रतीत होनेवाले उन्हें देखकर ऋषियोंसहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। वे दोनों हाथ जोड़कर उठे और उन्हें आत्मसमर्पण-सा करते हुए खड़े हो गये। इतनेमें ही वह विमान धरतीपर आ गया, सनत्कुमारने | देव नन्दीको साष्टांग प्रणाम करके उनकी स्तुति की और मुनियोंका परिचय देते हुए कहा - 'ये छ: कुलोंमें उत्पन्न ऋषि हैं, जो नैमिषारण्यमें दीर्घकालसे सत्रका अनुष्ठान करते थे। ब्रह्माजीके आदेशसे आपका दर्शन करनेके लिये ये लोग पहलेसे ही यहाँ आये हुए हैं' ।। 33–35 ll
ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारका यह कथन सुनकर नन्दीने दृष्टिपातमात्रसे उन सबके पाशको तत्काल काट डाला और ईश्वरीय शैवधर्म एवं ज्ञानयोगका उपदेश देकर वे फिर महादेवजीके पास चले गये॥ 36 ॥
सनत्कुमारने वह समस्त ज्ञान साक्षात् मेरे गुरु व्यासको दिया, पूजनीय व्यासजीने मुझे संक्षेपसे वह सब कुछ बताया और उस ज्ञानको मैंने संक्षेपमें आप लोगोंको बताया ॥ 37 ॥
त्रिपुरारि शिवके इस पुराणरत्नका उपदेश वेदके न जाननेवाले लोगोंको नहीं देना चाहिये। जिस शिष्यकी गुरुमें भक्ति न हो, उसको तथा नास्तिकॉको भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यदि मोहवश इन अनधिकारियोंको इसका उपदेश दिया गया तो यह नरक प्रदान करता है ॥ 38 ॥
जिन लोगोंने सेवानुगत मार्गसे इस पुराणका उपदेश दिया, लिया, पढ़ा अथवा सुना है, उनको यह सुख तथा धर्म आदि त्रिवर्ग प्रदान करता है और अन्तमें निश्चय ही मोक्ष देता है ॥ 39 ॥
इस पौराणिक मार्गके सम्बन्धसे आपलोगोंने और मैंने एक-दूसरेका उपकार किया है; अतः सफल- मनोरथ होकर जा रहा हूँ। हमलोगोंका सदा सब प्रकारसे मंगल ही हो ॥ 40 ॥ सूतजीके आशीर्वाद देकर चले जाने और [ नैमिषारण्यके अन्तर्गत स्थित] प्रयागतीर्थमें उस महायज्ञके पूर्ण हो जानेपर वे सदाचारी मुनि विषयकलुषित कलिकालके आनेसे काशीके आसपास निवास करने लगे। तदनन्तर पशु -पाशसे छूटनेकी इच्छासे उन सबने पूर्णतया पाशुपत व्रतका अनुष्ठान किया और सम्पूर्ण बोध एवं समाधिपर अधिकार करके वे अनिन्द्य महर्षि परमानन्दको प्राप्त हो गये ।। 41-42 ॥
व्यासजी कहते हैं- यह शिवपुराण पूरा हुआ, इस हितकर पुराणको बड़े आदर एवं प्रयत्नसे पढ़ना तथा सुनना चाहिये। नास्तिक, श्रद्धाहीन, शठ, महेश्वरके प्रति भक्तिसे रहित तथा धर्मध्वजी (पाखण्डी)-को इसका उपदेश नहीं देना चाहिये ।। 43-44 ॥
इसका एक बार श्रवण करनेसे ही सारा पाप भस्म हो जाता है। भक्तिहीन भक्ति पाता है और भक्त भक्तिकी समृद्धिका भागी होता है। दोबारा श्रवण करनेपर उत्तम भक्ति और तीसरी बार सुननेपर मुक्ति सुलभ हो जाती है, इसलिये मुमुक्षु पुरुषोंको बारंबार इसका श्रवण करना चाहिये ॥ 45-46 ॥
किसी भी उत्तम फलको पानेके लिये शुद्ध बुद्धिसे इस पुराणकी पाँच आवृत्ति करनी चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य उस फलको प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। प्राचीन कालके राजाओं, ब्राह्मणों तथा श्रेष्ठ वैश्योंने इसकी सात आवृत्ति करके शिवका साक्षात् दर्शन प्राप्त किया है ॥ 47-48 ॥
जो मनुष्य भक्तिपरायण हो इसका श्रवण करेगा, वह भी इहलोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यह श्रेष्ठ शिवपुराण भगवान् शिवको अत्यन्त प्रिय है। यह वेदके तुल्य माननीय, भोग और मोक्ष देनेवाला तथा भक्तिभावको बढ़ानेवाला है। अपने प्रमथगणों, दोनों पुत्रों तथा देवी पार्वतीजीके साथ भगवान् शंकर इस पुराणके वक्ता और श्रोताका सदा कल्याण करें ॥ 49-51॥