सूतजी बोले- हे बुद्धिमान् महर्षियो। मोक्षदायक शिवक्षेत्रोंका वर्णन सुनिये। तत्पश्चात् मैं लोकरक्षाके लिये शिवसम्बन्धी आगमोंका वर्णन करूँगा पर्वत वन और काननों सहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास करोड़ योजन है। भगवान् शिवकी से पृथ्वी सम्पूर्ण जगत्को धारण करके स्थित है। भगवान् शिवने भूतलपर विभिन्न स्थानोंमें वहाँकै निवासियोंको कृपापूर्वक मोक्ष देनेके लिये शिवक्षेत्रका निर्माण किया है ॥ 1-3 ॥
कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियो अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहीत किया है। इसीलिये उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत-से तीर्थक्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकोंकी रक्षाके लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं। तीर्थ और क्षेत्रमें जानेपर मनुष्यको सदा स्नान, दान और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता है। जो मनुष्य इस भारतवर्षके भीतरस्वयम्भू तीर्थोंमें वास करके मरता है, उसे पुनः मनुष्ययोनि ही प्राप्त होती है। हे ब्राह्मणो! पुण्यक्षेत्रमें पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है। अतः पुण्यक्षेत्रमें निवास करते समय थोड़ा-सा भी पाप न करे। जिस किसी भी उपायसे मनुष्यको पुण्यक्षेत्रमें वास करना चाहिये ॥ 4-7 1 / 2 ॥
सिन्धु और गंगा नदीके तटपर बहुत से पुण्यक्षेत्र हैं। सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुखवाली कही गयी है अर्थात् उसकी साठ धाराएँ हैं। जो विद्वान् पुरुष सरस्वतीकी उन उन धाराओंके तटपर निवास करता है, वह क्रमशः ब्रह्मपदको पा लेता है। हिमालय पर्वतसे निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तटपर काशी आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं। वहाँ मकरराशिके सूर्य होनेपर गंगाकी तटभूमि पहले से भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है। शोणभद्र नदकी दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पतिके मकरराशिमें आनेपर अत्यन्त पवित्र तथा अभीष्ट फल देनेवाला हो जाता है। उस समय वहाँ स्नान और उपवास करनेसे विनायकपदकी प्राप्ति होती है। पुण्यसलिला महानदी नर्मदाके चौबीस मुख (स्रोत) हैं। उसमें स्नान तथा उसके तटपर निवास करनेसे मनुष्यको वैष्णवपदकी प्राप्ति होती है। तमसा नदीके बारह तथा रेवाके दस मुख हैं। परम पुण्यमयी | गोदावरीके इक्कीस मुख बताये गये हैं। वह ब्रह्महत्या तथा गोवधके पापका भी नाश करनेवाली एवं रुद्रलोक देनेवाली है। कृष्णवेणी नदीका जल बड़ा पवित्र है। वह नदी समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। उसके अठारह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है। तुंगभद्राके दस मुख हैं, वह ब्रह्मलोक देनेवाली है। पुण्यसलिला सुवर्णमुखरीके नौ मुख कहे गये हैं। ब्रह्मलोकसे लौटे हुए जीव उसीके तटपर जन्म लेते हैं। सरस्वती, पम्पा, कन्याकुमारी तथा शुभकारक श्वेत नदी- ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं। इनके तटपर निवास करनेसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। सह्य पर्वतसे निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है। उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैं। वहसम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है। उसके तट स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले तथा ब्रह्मा और विष्णुका पद देनेवाले हैं। कावेरीके जो तट शैक्षेत्रअन्तर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देनेके साथ ही शिवलोक प्रदान करनेवाले भी है। ll8-19॥
तथा बदरिकाश्रममें सूर्य और बृहस्पतिके मेषराशिमें आनेपर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान-पूजन आदिको ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला जानना चाहिये। सिंह और कर्कराशिमें सूर्यकी संक्रान्ति होनेपर सिन्धुनदीमें किया हुआ स्नान तथा केदारतीर्थके जलका पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है । ll 20-21/2 ॥
जब बृहस्पति सिंहराशिमें स्थित हों, उस समय सिंहकी संक्रान्तिसे युक्त भाद्रपदमासमें यदि गोदावरीके जलमें स्नान किया जाय, तो वह शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है ऐसा पूर्वकालमें स्वयं भगवान् शिवने कहा था। जब सूर्य और बृहस्पति कन्याराशिमें स्थित हों, तब यमुना और शोणभद्रमें स्नान करे। वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजीके लोकमें महान् भोग प्रदान करानेवाला होता है—यह महर्षियोंकी मान्यता है जब सूर्य और बृहस्पति तुलाराशिमें स्थित हों, उस समय कावेरी नदीमें स्नान करे। वह स्नान भगवान् विष्णुके वचनकी महिमासे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला माना गया है। जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशिपर आ जायें, तब मार्गशीर्षके महीनेमें नर्मदामें स्नान करनेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती है। सूर्य और बृहस्पतिके धनुराशिमें स्थित होनेपर सुवर्णमुखरी नदीमें किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करानेवाला होता है, यह ब्रह्माजीका वचन है। जब सूर्य और बृहस्पति मकरराशिमें स्थित हों, उस समय माघमासमें गंगाजी के जलमें स्नान करना चाहिये। ब्रह्माजीका कथन है कि वह स्नान शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है। शिवलोकके पश्चात् ब्रह्मा और विष्णुके स्थानोंमें सुख भोगकर अन्तमें मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है। ll 22-28 ॥माघमासमें तथा सूर्यके कुम्भराशिमें स्थित होनेपर | फाल्गुनमासमें गंगाजी के तटपर किया हुआ श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदकदान पिता और नाना दोनों कुलोंके पितरोंकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार करनेवाला माना गया है। सूर्य और बृहस्पति जब मीनराशिमें स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदीमें किये गये स्नानकी ऋषियोंने प्रशंसा की है। उन उन महीनोंमें पूर्वोक्त तीर्थोंमें किया हुआ स्नान इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला होता है। विद्वान् पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदीका आश्रय लेकर तीर्थवास करे। ऐसा करनेसे उस समयमें किये हुए पापका निश्चय ही नाश हो जाता है ।। 29 - 311/3 ।।
रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं। ताम्रपर्णी और वेगवती- ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोककी प्राप्तिरूप फल देनेवाली हैं। उन दोनोंके तटपर अनेक स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। उन दोनोंके मध्यमें बहुत से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं। वहाँ निवास करनेवाला विद्वान् पुरुष वैसे फलका भागी होता है सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावनाके साथ मनमें दयाभाव रखते हुए विद्वान् पुरुषको तीर्थमें निवास करना चाहिये, अन्यथा उसका फल नहीं मिलता। पुण्यक्षेत्रमें किया हुआ थोड़ा-सा पुण्य भी अनेक प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त होता है तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान् हो जाता है। यदि पुण्यक्षेत्रमें रहकर ही जीवन वितानेका निश्चय हो, तो उस पुण्यसंकल्पसे उसका पहलेका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्यको ऐश्वर्यदायक कहा गया है। हे ब्राह्मणो ! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापोंका नाश कर देता है। तीर्थमें किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है। वह कई कल्पोंतक पीछा नहीं छोड़ता है ॥ 32-38 ॥
वैसा पाप केवल ध्यानसे ही नष्ट होता है, अन्यथा नष्ट नहीं होता। वाचिक पाप जपसे तथा कायिक पाप शरीरको सुखाने जैसे कठोर तपसे नष्ट होता है। धनोपार्जनमें हुए पाप दानसे नष्ट होते हैं अन्यथा करोड़ों कल्पोंमें भी उनका नाश नहीं होता। | कभी-कभी अतिशय मात्रामें बढ़े पापोंसे पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं। पुण्य और पाप दोनोंका बीजांश, वृद्धयंशऔर भोगांश होता है। बीजांशका नाश ज्ञानसे, वृद्धयंशका ऊपर लिखे प्रकारसे तथा भोगांशका नाश भोगनेसे होता है। अन्य किसी प्रकारसे करोड़ों पुण्य करके भी पापके भोगांश नहीं मिट सकते। पाप बीजके अंकुरित हो जानेपर उसका अंश नष्ट होनेपर भी शेष पाप भोगना ही पड़ता है। देवताओंकी पूजा, ब्राह्मणोंको दान तथा अधिक तप करनेसे समय पाकर पापभोग मनुष्योंके सहनेयोग्य हो जाते हैं। इसलिये सुख चाहनेवाले व्यक्तिको पापोंसे बचकर ही तीर्थवास करना चाहिये ॥ 39-43 ॥