उपमन्यु बोले- [ हे कृष्ण!] नित्य नैमित्तिक तथा काम्यव्रतसे जो सिद्धि यहाँ कही गयी है, वह सब लिंग अथवा मूर्तिकी प्रतिष्ठासे शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है। समग्र जगत् लिंगमय है और सब कुछ लिंगमें प्रतिष्ठित है, अतः लिंगकी प्रतिष्ठा कर लेनेपर सबकी प्रतिष्ठा हो जाती है ॥ 1-2 ॥
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र अथवा अन्य किसने लिंग प्रतिष्ठाको छोड़कर अपना पद प्राप्त किया है अर्थात् किसीने भी नहीं। इस प्रतिष्ठाके सम्बन्धमें और अधिक क्या कहा भी जाए, क्योंकि [स्वयं] शिवने भी विश्वेश्वरलिंगकी प्रतिष्ठा की है। अतः इस लोक तथा परलोकमें कल्याणके लिये प्रयत्नपूर्वक परमेश्वरके लिंग अथवा मूर्तिकी स्थापना करनी चाहिये ।। 3-5 ॥
श्रीकृष्ण बोले- यह लिंग क्यों कहा गया, महेश्वर लिंगी कैसे हैं, वे महेश्वर लिंगस्वरूप कैसे हुए और इस [लिंग] में शिव किस कारणसे पूजे जाते हैं ? ॥ 6 ॥उपमन्यु बोले- यह लिंग अव्यक्त, तीनों गुणोंको उत्पन्न तथा विलीन करनेवाला, आदि-अन्तसे रहित और संसारके प्रादुर्भावका उपादान कारण है ॥ 7 ॥
वह लिंग ही मूल प्रकृति तथा आकाशरूपा माया है, यह चराचर जगत् उसीसे उत्पन्न हुआ है। वह [लिंग] अशुद्ध, शुद्ध तथा शुद्धाशुद्ध- इन तीन भेदोंवाला है उसीसे शिव, महेश, रुद्र, विष्णु, पितामह (ब्रह्मा) और इन्द्रियोंसहित [पंच] महाभूतये सब उत्पन्न होते हैं और शिवकी आज्ञासे इसीमें विलीन हो जाते हैं। भगवान् शिवको भलीभाँति शिवलिंग ज्ञापित करता है, अतः वे लिंगी हैं। उनकी आज्ञाके बिना कोई भी स्वयं कार्य नहीं कर सकता है और उनसे उत्पन्न हुए विश्वका विलय भी उन्हींमें हो जाता है। इसीसे उनकी लिंगात्मकता सिद्ध होती है, अन्य किसी [ भी माध्यम ] से नहीं ll 8 - 113 ॥
शिव तथा शिवाका [नित्य] अधिष्ठान होनेके कारण यह लिंग उनका [स्थूल] विग्रह कहा जाता है। अतः उसीमें नित्य अम्बासहित शिवकी पूजा की जाती है। लिंगकी आधारवेदिका साक्षात् महादेवी पार्वती हैं और उसपर अधिष्ठित लिंग स्वयं महेश्वर हैं उन दोनोंके पूजनसे ही वे [शिव] तथा वे [पार्वती] पूजित हो जाते हैं। पारमार्थिक रूपसे तो उन [शिव और शिवाके उपाधिविनिर्मुक्त] विशुद्धरूप होनेसे देहभाव है ही नहीं, अतः उनके लिंगात्मक देहकी कल्पना वस्तुतः औपचारिक है ॥ 12-14॥ वही परमात्मा शिवकी परमा शक्ति है। वह शक्ति परमात्मा की आज्ञाको प्राप्त करके चराचर जगत्की सृष्टि करती हैं। सैकड़ों वर्षोंमें भी उसकी महिमाका वर्णन नहीं किया जा सकता है, जिसने पूर्वकालमें ब्रह्मा तथा
विष्णुको भी मोहित कर दिया था। 15-16 ॥ पूर्वकालमें इस त्रिलोकीका प्रलय हो जानेपर जब [भगवान् विष्णु जलशय्यापर विराजमान होकर निश्चिन्त हो सुखपूर्वक शयन कर रहे थे, तब लोकपितामह ब्रह्मा अपनी इच्छासे वहाँ जा पहुँचे। उन पितामहने सुखपूर्वक सोते हुए विष्णुको देखा और शम्भुकी मायासे मोहित होकर उन लक्ष्मीपति विष्णुको क्रोधपूर्वक मारकर उन्हें उठाया और कहा तुम कौन हो, बताओ। ll 17- 1993 ll हाथके तीव्र प्रहारसे आहत हुए वे विष्णु क्षणभरमें जग गये तथा उन्होंने शयनसे उठकर ब्रह्माजीको देखा और मनमें क्रुद्ध होकर भी स्वयं क्रोधरहितकी भाँति उनसे कहा- हे वत्स! तुम कहाँसे आये हो और [ इतना] व्याकुल किसलिये हो, इसे बताओ ll 20-211/2॥
विष्णुका यह प्रभुत्वगुणसूचक वचन सुनकर रजोगुणसे [चित्तके आक्रान्त होनेके कारण विष्णुके प्रति] शत्रुताकी भावनावाले ब्रह्माने पुनः उनसे कहा जैसे गुरु अपने शिष्यसे कहता है, वैसे ही तुम मुझे 'वत्स'- ऐसा क्यों कह रहे हो? क्या तुम मुझ स्वामीको नहीं जानते हो, यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच जिसकी अपनी रचना है? अपनेको तीन रूपोंमें विभक्त करके मैं इस जगत्का सृजन करके पुनः इसका पालन करता हूँ और [अन्तमें] संहार भी कर देता हूँ, संसारमें मेरी सृष्टि करनेवाला कोई नहीं है ।। 22- 249/2 ।।
उनके ऐसा कहनेपर उन अविनाशी विष्णुने भी ब्रह्मासे कहा मैं ही इस जगत्का आदिकर्ता परिपालक तथा संहारक हैं। आप भी पूर्वकालमें मेरे ही अव्ययस्वरूपसे अवतीर्ण हुए थे। मेरी ही आज्ञासे तुम अपनेको तीन रूपोंमें विभक्त करके तीनों लोकोंका सृजन करते हो, पालन करते हो और फिर अन्तमें संहार भी करते हो ॥ 25 - 27 ॥
क्या तुम मुझ जगत्पति, निर्विकार नारायणको भूल गये हो और अपने ही पिताका ऐसा अपमान कर रहे हो, इसमें तुम्हारा अपराध नहीं है, तुम मेरी मायाके कारण भ्रमित हो गये हो, तुम्हारी यह भ्रान्ति मेरी कृपासे शीघ्र ही दूर हो जायगी। ll 28-29 ।।
हे चतुर्मुख सत्य बात सुनो, मैं निश्चय ही सभी देवताओंका स्वामी हूँ और [जगत्का] सृजन करनेवाला, पालन करनेवाला तथा संहार करनेवाला हूँ, मेरे समान ऐश्वर्यशाली कोई नहीं है ॥ 30 ॥
ब्रह्मा तथा विष्णुका आपसमें इस प्रकारका विवाद हुआ और रजोगुणके कारण बद्धवैरवाले उन दोनों के बीच घूँसोंसे एक दूसरेपर तीव्र प्रहार करते हुए भयानक तथा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। तबउन दोनों देवताओंके अभिमानको नष्ट करनेके लिये तथा उनके प्रबोधनके लिये उनके बीच अद्भुत शिवलिंग प्रकट हुआ, जो हजारों ज्वालासमूहाँसे युक्त, असीम, अनुपम, क्षय वृद्धिसे रहित और आदि मध्य तथा अन्तसे रहित था ॥ 31-333 ॥
तब उसके हजारों ज्वालासमूहोंसे ब्रह्मा तथा विष्णु मोहित हो गये और युद्ध छोड़कर 'यह क्या है' ऐसा सोचने लगे। जब उन दोनोंको उसकी यथार्थता समझमें नहीं आयी, तब वे उसके आरम्भ तथा अन्तकी परीक्षा करनेके लिये उद्यत हुए ।। 34-36 ।।
उस समय ब्रह्माजी पंख धारण किये हुए हंसरूप होकर सभी ओर मन तथा वायुके सदृश वेगवान् होकर प्रयत्नपूर्वक ऊपरकी ओर गये और विश्वात्मा विष्णु भी नील अंजनपर्वतके समान वाराहका रूप धारणकर नीचे की ओर गये ।। 37-38 ।।
इस प्रकार वराहरूपधारी विष्णुजी शीघ्रता करते हुए एक हजार वर्षोंतक नीचे जाते रहे, किंतु वे इस लिंगके मूलदेशको अल्पमात्र भी देख पानेमें समर्थ नहीं हो सके। उसका अन्त जाननेकी इच्छासे उतने ही समयतक ऊपरकी ओर गये हुए ब्रह्मा भी अत्यधिक थक गये और उसका अन्त न देखकर नीचे गिर पड़े ।। 39-40 ।।
उसी प्रकार आकुल नेत्रोंवाले भगवान् विष्णु भी थककर बड़े कष्टसे शीघ्रतापूर्वक नीचेसे ऊपर आ गये । ll41 ll
वे दोनों आकर आश्चर्य तथा मुसकानसे वुत होकर एक-दूसरेको देखने लगे और शिवकी मायासे मोहित होकर अपने कृत्य तथा अकृत्यको नहीं जान सके उस समय वे दोनों उस [लिंग]-के पीछे, बगलमें तथा आगे खड़े होकर उसे प्रणाम करके 'यह क्या है'-ऐसा सोचने लगे ।। 42-43 ।।