नन्दीश्वर बोले- हे मुनीश्वर ! अब आप [भगवान्] शम्भुके यक्षेश्वरावतारको सुनिये, जो | अहंकारसे युक्त जनोंके गर्वको नष्ट करनेवाला तथा सज्जनोंकी भक्तिका संवर्धन करनेवाला है ॥ 1 ॥
पूर्वकालमें महाबलवान् देवता एवं दैत्योंने अपने अपने स्वार्थके लिये आपसमें भलीभाँति सन्धिकर अमृत प्राप्त करनेके लिये क्षीरसागरका मन्थन किया था ॥ 2 ॥ जब देवता एवं दानव अमृतके लिये क्षीरसागरका मन्थन कर रहे थे तो सर्वप्रथम [ समुद्रमें विद्यमान ] अग्निसे कालाग्निके समान विष निकला ॥ 3 ॥
हे तात! उस विषको देखते ही समस्त देवता और दानव भयसे व्याकुल हो गये और वे भागकर शीघ्र ही शिवजीकी शरणमें गये ॥ 4 ॥विष्णुसहित सभी देवता समस्त देवताओंके शिखामणिस्वरूप उन शिवजीको देखकर सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे। उससे प्रसन्न होकर भक्तवत्सल भगवान् सदाशिवने देवता एवं दानवोंको पीड़ित करनेवाले उस महाघोर विषका पान कर लिया ।। 5-6 ।।
पीये गये उस महाभयानक विषको उन्होंने अपने कण्ठमें ही धारण कर लिया, उससे वे प्रभु अत्यन्त सुशोभित हुए और नीलकण्ठ नामवाले हो गये ॥ 7 ॥
उसके पश्चात् शिवजीके अनुग्रहसे विषके दाहसे मुक्त हुए देवताओं एवं असुरोंने पुनः समुद्रका मन्थन किया ॥ 8 ॥
हे मुने। इसके बाद देवता तथा दानवोंके [प्रयत्नोंसे मधे गये) समुद्रसे अनेक रत्न निकले और अमृत जैसा - यह उत्तम पदार्थ भी उसीसे निकला, किंतु विष्णुकी कृपासे देवताओं तथा असुरोंमेंसे केवल देवता ही उसे पी गये, असुर नहीं तब यह महान् रत्न उनके बीच द्वेषका कारण बन गया ।। 9-10 ।।
हेमुने! देवों और दानवोंमें [ भीषण] द्वन्द्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ, तब राहुसे पीड़ित हुए चन्द्रमा उसके भयसे सन्तप्त होकर भाग खड़े हुए और भयसे व्याकुल होकर शिवजीको शरणमें उनके भवन गये एवं प्रणाम करके 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ' - इस प्रकार कहते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ 11-12 ॥
तब सत्पुरुषोंको अभय प्रदान करनेवाले भक्तवत्सल तथा सर्वव्यापक शिवजीने शरणमें आये हुए चन्द्रमाको अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ 13 ॥ तदनन्तर [ चन्द्रमाका पीछा करता हुआ ] राहु भी वहाँ आया और उसने सर्वेश्वर शिवजीको भलीभाँति प्रणामकर आदरपूर्वक प्रिय वाणीमें उनकी स्तुति की ॥ 14 ॥
शिवजीने उसका अभिप्राय जानकर पूर्वमें विष्णुके द्वारा काटे गये उसके केतुसंज्ञक सिरोंको [अपनी मुण्डमालामें पिरोकर ] गलेमें धारण कर लिया ।। 15 ।।
इसके बाद उस युद्धमें सभी असुर देवताओंसे पराजित हो गये। अमृतका पान करके सभी महाबली देवगणोंने विजय प्राप्त की ॥ 16 ॥[विजय प्राप्त कर लेनेपर] शिवजीकी मायासे मोहित हुए विष्णु आदि देवताओंको अत्यन्त अहंकार हो गया और वे अपने-अपने बालोंकी प्रशंसा करने लगे ॥ 17 ॥
हे मुने! इसके बाद गर्वको चूर करनेवाले सर्वाधीश वे भगवान् शंकर यक्षका रूप धारणकर जहाँ देवगण स्थित थे, वहाँ शीघ्र गये ॥ 18 ॥
गर्वका नाश करनेवाले यक्षपतिरूपी महेशने विष्णु आदि देवगणोंको देखकर अत्यन्त गर्वयुक्त मनसे उनसे कहा- ॥ 19 ॥
यक्षेश्वर बोले- हे देवताओ! आप सभी यहाँ एकत्र होकर किसलिये खड़े हैं? मैं इसका कारण पूछ रहा हूँ, आपलोग बतायें ॥ 20 ॥
देवता बोले- हे देव! यहाँ [ देव-दानवोंमें] भयंकर विकट संग्राम छिड़ा हुआ था, जिसमें समस्त असुर विनष्ट हो गये और जो बचे थे, वे भागकर चले गये ॥ 21 ॥
हम सब बड़े पराक्रमी, दैत्योंको मारनेवाले तथा बड़े बलशाली हैं। हमारे समक्ष तुच्छ बलवाले वे क्षुद्र दैत्य भला किस प्रकार टिक सकते हैं ? ॥ 22 ॥
नन्दीश्वर बोले- देवताओंकी गर्वभरी यह बात सुनकर गर्वका नाश करनेवाले यक्षरूपी महादेवने यह वचन कहा- ॥ 23 ॥
यक्षेश्वर बोले- हे देवगणो! आप सभी लोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये, मैं [ आप] सबके गर्वका नाश करनेवाला यथार्थ वचन कह रहा हूँ, असत्य नहीं। आपलोग इस प्रकारका अहंकार मत कीजिये, सबका रचयिता और संहारकर्ता स्वामी तो कोई दूसरा ही है। आपलोग उन महादेवको भूल गये और निर्बल होकर भी अपने बलका वृथा घमण्ड करते हैं ।। 24-25 ।।
हे देवगण! अपने महान् बलको जानते हुए आपलोगोंको यदि घमण्ड है, तो आपलोग मेरे द्वारा रखे गये इस तिनकेको अपने उन शस्त्रोंसे काटें ॥ 26 ॥ नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर सत्पुरुषोंको गति देनेवाले यक्षरूपी महादेवजीने उन देवताओंके | आगे एक तिनका फेंक दिया, जिसके द्वारा उन्होंने सभी देवताओंका मद दूर कर दिया ॥ 27 ॥[ इस तिनकेको काटनेके लिये] अपनेको वीर माननेवाले विष्णु आदि सभी देवताओंने अपने पुरुषार्थका प्रयोग करके उसके ऊपर अपने-अपने अस्त्रको चलाया। किंतु मूढ़ोंके गर्वका नाश करनेवाले [भगवान्] शिवके प्रभावसे उन देवताओंके वे अस्त्र
शीघ्र ही बेकार हो गये ।। 28-29 ।। तब देवताओंके आश्चर्यको दूर करनेवाली आकाश वाणी हुई कि हे देवताओ! ये यक्ष [ रूपमें] सबके अहंकारका अपहरण करनेवाले सदाशिव ही हैं ॥ 30 ॥
ये परमेश्वर ही सबके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं। इन्हींके बलसे सभी जीव बलवान् हैं, अन्यथा नहीं ll 31 ॥
हे देवताओ! इनकी मायाके प्रभावसे मोहित होकर तथा अहंकारवश आपलोग अपने ज्ञानमूर्ति स्वामी भगवान् शिवको अभीतक पहचान नहीं सके ! ॥ 32 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकारकी आकाशवाणीको सुनकर देवताओंका सारा गर्व दूर हो गया और वे अपने ईश्वरको पहचान गये। उन्होंने यक्षेश्वरको प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ।। 33 ।।
देवता बोले- हे देवदेव! हे महादेव! सबके अभिमानको दूर करनेवाले हे यक्षेश्वर! महालीला करनेवाले हे प्रभो! आपकी माया अत्यन्त अद्भुत है ॥ 34 ॥
हे प्रभो! यक्षरूप धारण करनेवाले आपकी मायासे मोहित हुए हमलोग इस समय अपनेको [आपसे ] पृथक् समझकर आपके सामने ही गर्वपूर्वक बोल रहे हैं ।। 35 ।।
हे प्रभो! हे शंकर! अब आपकी ही कृपासे हमें इस समय ज्ञान हो गया कि आप ही कर्ता, हर्ता एवं भर्ता हैं, दूसरा नहीं। आप ही सभी जीवोंकी समस्त शक्तियोंके प्रवर्तक एवं निवर्तक हैं, आप ही सर्वेश, परमात्मा, अव्यय एवं अद्वितीय हैं ।। 36-37 ॥
आपने यक्षेश्वरका रूप धारणकर जो हमलोगोंके मदको दूर कर दिया है, उसे हमलोग आप कृपालुके द्वारा किया गया परम अनुग्रह मानते हैं ॥ 38 ॥
उसके पश्चात् वे यक्षेश्वर सम्पूर्ण देवताओंपर कृपा करते हुए उन्हें अनेक वचनोंसे समझाकर वहीं अन्तर्धान हो गये । ll39 ॥[ हे मुनीश्वर !] इस प्रकार शिवजीके यक्षेश्वर नामक अवतारका वर्णन कर दिया गया, जो सबको | आनन्द देनेवाला तथा सुख प्रदान करनेवाला है। यह यक्षरूप प्रसन्न होनेपर सज्जनोंको अभय प्रदान करनेवाला है ॥ 40 ॥
यह आख्यान अत्यन्त निर्मल तथा सबके अभिमानको नष्ट करनेवाला है। यह सत्पुरुषोंको सर्वदा शान्तिदायक एवं मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। जो बुद्धिमान् मनुष्य भक्तिसे युक्त हो इसको सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और इसके बाद परमगतिको प्राप्त करता है ॥ 41-42॥