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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 1 (सृष्टि खण्ड) , अध्याय 17 - Sanhita 2, Khand 1 (सृष्टि खण्ड) , Adhyaya 17

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यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिका चरित्र

सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम करके पुनः पूछा- ॥ 1 ॥

नारदजी बोले – भक्तवत्सल भगवान् शंकर कैलासपर्वतपर कब गये और महात्मा कुबेरके साथ उनकी मैत्री कब हुई ॥ 2 ॥

परिपूर्ण मंगलविग्रह महादेवजीने वहाँ क्या किया? यह सब मुझे बताइये। [इसे सुननेके लिये ] मुझे बड़ी उत्सुकता है ॥ 3 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैं चन्द्रमौलि भगवान् शंकरके चरित्रका वर्णन करता हूँ। वे जिस प्रकार कैलास पर्वतपर गये और कुबेरकी उनके साथ मैत्री हुई, यह सब सुनिये ॥ 4 ॥काम्पिल्यनगरमें सोमयाग करनेवाले कुलमें उत्पन्न यज्ञविद्याविशारद यज्ञदत्त नामका एक दीक्षित ब्राह्मण था। वह वेदवेदांगका ज्ञाता, प्रबुद्ध, वेदान्तादिमें दक्ष, अनेक राजाओंसे सम्मानित, परम उदार और यशस्वी था ॥ 5-6 ॥

वह अग्निहोत्र आदि कर्मोंमें सदैव संलग्न रहनेवाला, वेदाध्ययनपरायण, सुन्दर, रमणीय अंगोंवाला तथा चन्द्रबिम्बके समान आकृतिवाला था ॥ 7 ॥

इस दीक्षित ब्राह्मणके गुणनिधि नामक एक पुत्र था, उपनयन संस्कार हो जानेके बाद उसने आठ विद्याओंका भलीभाँति अध्ययन किया, किंतु पिताके अनजानमें वह द्यूतकर्ममें प्रवृत्त हो गया ॥ 8 ॥ उसने अपनी माताके पाससे बहुत सा धन ले लेकर जुआरियोंको सौंप दिया और उनसे मित्रता कर ली ॥ 9 ॥

वह ब्राह्मणके लिये अपेक्षित आचार-विचारसे रहित, सन्ध्या स्नान आदि कर्मोंसे पराङ्मुख, वेदशास्त्र आदिका निन्दक, देवताओं और ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला और स्मार्ताचार-विचारसे रहित होकर गाने-बजाने में आनन्द लेने लगा। उसने नटों, पाखण्डियों तथा भाण्डोंसे प्रेमसम्बन्ध स्थापित कर लिया ।। 10-11 ॥

माताके द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी वह पिता के समीप कभी भी नहीं गया। घरके अन्य कर्मोंमें व्यस्त वह दीक्षित ब्राह्मण जब-जब अपनी दीक्षित पत्नीसे पूछता कि हे कल्याणि घरमें मुझे पुत्र गुणनिधि नहीं दिखायी पड़ रहा है, वह क्या कर रहा है ? ।। 12-13 ।।

वह तब-तब यही कहती कि वह इस समय | स्नान करके तथा देवताओंकी पूजा करके बाहर गया है अभीतक पढ़कर वह अपने दो-तीन मित्रोंके साथ पढ़नेके लिये गया हुआ है। इस प्रकार उस गुणनिधिकी एकपुत्रा माता सदैव दीक्षितको धोखा देती रही ।। 14-15 ll

वह दीक्षित ब्राह्मण उस पुत्रके कर्म और आचरणको कुछ भी नहीं जान पाता था, सोलहवें वर्षमें उसने उसके केशान्त कर्म आदि सब संस्कार भी कर दिये ।। 16 ।।इसके पश्चात् उस दीक्षित यज्ञदत्तने गृह्यसूत्र | कहे गये विधानके अनुसार अपने उस पुत्रका पाणिग्रहण संस्कार भी कर दिया ॥ 17 ॥

हे नारद! स्नेहसे आर्द्र हृदयवाली उसकी माता | पासमें बैठाकर मृदु भाषामें उस पुत्र गुणनिधिको प्रतिदिन | समझाती थी कि हे पुत्र! तुम्हारे महात्मा पिता अत्यन्त क्रोधी स्वभाववाले हैं। यदि वे तुम्हारे आचरणको जान जायेंगे, तो तुमको और मुझको भी मारेंगे ।। 18-193 ll

तुम्हारे पिताके सामने मैं तुम्हारी इस बुराईको नित्य | छिपा देती हूँ। तुम्हारे पिताकी समाजमें प्रतिष्ठा सदाचारये ही है, धनसे नहीं हे पुत्र ब्राह्मणोंका धन तो उत्तम विद्या और सज्जनोंका संसर्ग है। तुम प्रसन्नमन होकर अपनी रुचि उनमें क्यों नहीं लगा रहे हो । 20-21 ॥

तुम्हारे पितामह आदि पूर्वज सुयोग्य, श्रोत्रिय, वेदविद्यामें पारंगत विद्वान् दीक्षित, सोमयाज्ञिक ब्राह्मण हैं ऐसी लोकप्रसिद्धिको प्राप्त किये थे॥ 22 ॥

अतः तुम दुष्टोंकी संगति छोड़कर साधुओंकी संगतिमें तत्पर होओ, सद्विद्याओंमें मन लगाओ और ब्राह्मणोचित सदाचारका पालन करो ॥ 23 ॥

तुम रूपसे पिताके अनुरूप ही हो। यश, कुल और शीलसे भी उनके अनुरूप बनो। इन कर्मोंसे तुम लखित क्यों नहीं होते हो? अपने बुरे आचरणोंको छोड़ दो ॥ 24 ॥

तुम उन्नीस वर्षके हो गये हो और यह [तुम्हारी पत्नी] सोलह वर्षकी है। इस सदाचारिणीका वरण करो अर्थात् इससे मधुर सम्बन्ध स्थापित करो और पिताकी भक्तिमें तत्पर हो जाओ ॥ 25 ॥

तुम्हारे श्वसुर भी अपने गुण और शोलके कारण सर्वत्र पूजे जाते हैं। हे पुत्र [उन्हें देखकर और उनकी प्रशस्तिको सुनकर भी] तुम्हें लज्जा नहीं आती है, अपनी बुरी आदतोंको छोड़ दो ॥ 26 ॥ हे पुत्र! तुम्हारे सभी मामा भी विद्या, शील तथा कुल आदिसे अतुलनीय हैं। तुम उनसे भी नहीं डरते। तुम तो दोनों वंशोंसे शुद्ध हो ॥ 27 ॥ तुम इन पड़ोसी ब्राह्मणकुमारोंको देखो और | अपने घरमें ही अपने पिताके इन विनयशील शिष्यों को ही देखो ॥ 28 ॥हे पुत्र! राजा भी जब तुम्हारे इस दुष्टाचरणको सुनेंगे, तो तुम्हारे पिताके प्रति अपनी श्रद्धा त्यागकर उनकी वृत्ति भी समाप्त कर देंगे ।। 29 ।।

अभी तो लोग यह कह रहे हैं कि यह लड़कपनको दुश्चेष्टा है। इसके पश्चात् वे प्राप्त हुई प्रतिष्ठित दीक्षितकी उपाधि भी छीन लेंगे ॥ 30 ॥ सभी लोग तुम्हारे पिताको और मुझको भी दुष्ट वचनोंसे धिक्कारेंगे और कहेंगे कि इसकी माता दुश्चरित्रा है; क्योंकि माताके चरित्रको ही पुत्र धारण करता है ॥ 31 ॥ तुम्हारे पिता पापी नहीं हैं, वे तो श्रुति स्मृतियोंके पथपर अनुगमन करनेवाले हैं। उन्होंके चरणोंमें मेरा मन लगा रहता है, जिसके साक्षी भगवान् सदाशिव हैं ॥ 32 ॥ मैंने ऋतुसमयमें किसी दुष्टका मुख भी नहीं देखा [जिसका तुम्हारे ऊपर प्रभाव पड़ गया हो ] । अरे वह विधाता ही बलवान् है, जिसके कारण है। तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ है ॥ 33 ॥

माताके द्वारा इस प्रकार हर समय समझाये जानेपर भी उस अत्यन्त दुष्ट बुद्धिवालेने अपने उस दुष्कर्मका परित्याग नहीं किया; क्योंकि व्यसन प्राप्त प्राणी दुर्बोध होता है। मृगया (शिकार), मद्य, पैशुन्य (चुगली), असत्यभाषण, चोरी, द्यूत और वेश्यागमन आदि–इन व्यसनोंसे कौन खण्डित नहीं हो जाता है ll 34-35 ।।

वह दुष्ट जो-जो सन्दूक, वस्त्र आदि वस्तुओंको घरमें देखता, उन उन वस्तुओंको ले जाकर जुआरियोंको सौंप देता था। एक बार घरमें पिताके हाथकी एक रत्नजटित अंगूठी रखी थी, उसे चुरा करके उसने किसी जुआरीके हाथमें दे दिया ।। 36-37 ll

संयोगसे दीक्षितने किसी जुआरीके हाथमें उस अँगूठीको देख लिया और उससे पूछा कि तुम्हें यह अंगूठी कहाँसे प्राप्त हुई है ? ।। 38 ।।

उस दीक्षितके द्वारा बार-बार कठोरतासे पूछे जानेपर उस जुआरीने कहा- हे ब्राह्मण! आप जोर जोरसे मुझपर क्यों आक्षेप कर रहे हैं? क्या मैंने इसे चोरीसे प्राप्त किया है? आपके पुत्रने ही मुद्रा लेकर इसको मुझे दिया है। इसके पहले भी मेरे द्वारा जुए में जीत लिये जानेपर उसने अपनी माताकी साड़ी भी चुराकर मुझे दी है।। 39-40 ।।उसने मात्र मुझको ही यह अंगूठी नहीं दी है, अपितु अन्य जुआरियोंको भी उसने बहुत सा धन दिया है ॥ 41 ॥

रत्नोंकी सन्दूक, रेशमी वस्त्र, सोनेकी झारो आदि वस्तुएँ, अच्छे-अच्छे काँसे और ताँबेके पात्र भी उसने दिये हैं ॥ 42 ॥

जुआरी लोग उसे प्रतिदिन नग्न करके बाँधते रहते हैं। इस भूमण्डलपर उसके समान कोई दूसरा जुआरी नहीं है। हे विप्र ! आजतक आप जुआरियोंमें अग्रणी और अविनय तथा अनीतिमें प्रवीण अपने पुत्रको क्यों जान नहीं सके ? ।। 43-44 ।।

ऐसा सुनकर लज्जाके भारसे उस ब्राह्मणका सिर शुक गया और अपने सिरको वस्त्रसे ढँककर वह अपने घर चला आया ।। 45 ।।

तदनन्तर वह श्रौतकर्मपरायण दीक्षित यज्ञदत्त अपनी महान् पतिव्रता पत्नीसे कहने लगा- ॥ 46 ॥

यज्ञदत्त बोला- हे दीक्षितायनि धूर्त पुत्र गुणनिधि कहाँ है, कहीं भी बैठा हो, उससे क्या लाभ है ? वह मेरी सुन्दर सी अँगूठी कहाँ है ? ॥ 47 ॥ तुमने मेरे शरीरमें तैल, उबटन आदि लगानेके समय मेरी अँगुलीसे जिसको निकाल लिया था, उस रत्नजटित अँगूठीको लाकर शीघ्र ही मुझे दो ॥ 48 ॥ उसके इस वचनको सुनकर वह दीक्षितायनी भयभीत हो उठी और बोली- इस समय मैं मध्याहनकालकी स्नान-क्रियाओंको सम्पन्न कर रही हूँ ॥ 49 ॥ देवपूजाके लिये अर्पित की जानेवाली सामग्रियोंको
एकत्रित करनेमें मैं व्याकुल हूँ। हे अतिथिप्रिय ! यह
अतिथियोंका समय कहीं अतिक्रमण न कर जाय। इसलिये मैं भोजन बनाने में व्यस्त हूँ। मैंने किसी पात्रमें अँगूठीको रख दिया है। अभी याद नहीं आ रहा है ॥ 50-51 ॥ दीक्षित बोला- अरे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाली! हे सदा सच बोलनेवाली! मैंने जब-जब तुझसे | यह पूछा कि पुत्र कहाँ गया है? तब-तब तूने यही कहा हे नाथ! अभी पढ़कर वह अपने दो तीन मित्रोंके साथ पुनः पढ्नेके लिये बाहर चला गया है। ll52-53 ॥

हे पत्नि तुम्हारी वह मंजीठो रंगको साड़ी कहाँ है? जिसको मैंने तुम्हें दिया था, जो घरमें रोज टैगी रहती थी। सच-सच बताओ, डरो मत ॥ 54 ॥मणिजटित वह सोनेकी झारी भी इस समय नहीं दिखायी दे रही है और न तो वह रेशमी-त्रिपटी (दुपट्टा) ही दिखायी दे रही है, जिसको रखनेके लिये तुम्हें मैंने दिया था ।। 55 ।।

दक्षिण देशमें बननेवाला वह कांसेका पात्र और गौड़ देशमें बननेवाली वह ताँबेकी घटी कहाँ है? हाथी दाँतसे बनी हुई वह सुख देनेवाली मचियाँ कहाँ है ॥ 56 ॥
पर्वतीय क्षेत्रोंमें पायी जानेवाली, चन्द्रकान्त मणिके समान अद्भुत, हाथमें दीपक लिये वह श्रृंगारयुक्त शालभंजिका कहाँ है ॥ 57 ॥ अधिक कहनेसे लाभ ही क्या ? हे कुलजे! मैं तुझपर व्यर्थ ही क्रोध कर रहा हूँ। अब तो मेरा भोजन तभी होगा, जब मैं दूसरा विवाह कर लूँगा ॥ 58 ॥ कुलको दूषित करनेवाले उस दुष्टके रहते हुए भी अब मैं निःसन्तान हूँ। उठो और जल लाओ। मैं उसे तिलांजलि देता हूँ ॥ 59 ॥

कुलको कलंकित करनेवाले कुपुत्रकी अपेक्षा मनुष्यका पुत्रहीन होना श्रेयस्कर है। कुलकी भलाईके लिये एकका परित्याग कर देना चाहिये- यह सनातन नियम है ॥ 60 ॥

तदनन्तर उस दीक्षित ब्राह्मणने स्नान करके, अपनी नित्य क्रिया सम्पन्न करके उसी दिन किसी श्रोत्रिय ब्राह्मणकी कन्याको प्राप्त करके उसके साथ विवाह कर लिया ॥ 61 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके प्रश्नके उत्तरमें श्रीसूतजीद्वारा नारद -ब्रह्म -संवादकी अवतारणा
  2. [अध्याय 2] नारद मुनिकी तपस्या, इन्द्रद्वारा तपस्यामें विघ्न उपस्थित करना, नारदका कामपर विजय पाना और अहंकारसे युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रसे अपने तपका कथन
  3. [अध्याय 3] मायानिर्मित नगरमें शीलनिधिकी कन्यापर मोहित हुए नारदजीका भगवान् विष्णुसे उनका रूप माँगना, भगवान्‌का अपने रूपके साथ वानरका सा मुँह देना, कन्याका भगवान्‌को वरण करना और कुपित हुए नारदका शिवगणोंको शाप देना
  4. [अध्याय 4] नारदजीका भगवान् विष्णुको क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना, फिर मायाके दूर हो जानेपर पश्चात्तापपूर्वक भगवान्‌के चरणोंमें गिरना और शुद्धिका उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णुका उन्हें समझा-बुझाकर शिवका माहात्म्य जाननेके लिये ब्रह्माजीके पास जानेका आदेश और शिवके भजनका उपदेश देना
  5. [अध्याय 5] नारदजीका शिवतीर्थोंमें भ्रमण, शिवगणोंको शापोद्धारकी बात बताना तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे शिवतत्त्वके विषयमें प्रश्न करना
  6. [अध्याय 6] महाप्रलयकालमें केवल सबाकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूत शक्ति (अम्बिका ) - का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन ) का प्रादुर्भाव, शिवके वामांगसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छासे ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीचमें अग्निस्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना
  8. [अध्याय 8] ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन
  9. [अध्याय 9] उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन
  10. [अध्याय 10] श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार देकर भगवान् शिवका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवपूजनकी विधि तथा उसका फल
  12. [अध्याय 12] भगवान् शिवकी श्रेष्ठता तथा उनके पूजनकी अनिवार्य आवश्यकताका प्रतिपादन
  13. [अध्याय 13] शिवपूजनकी सर्वोत्तम विधिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] विभिन्न पुष्पों, अन्नों तथा जलादिकी धाराओंसे शिवजीकी पूजाका माहात्म्य
  15. [अध्याय 15] सृष्टिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] ब्रह्माजीकी सन्तानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन
  17. [अध्याय 17] यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिका चरित्र
  18. [अध्याय 18] शिवमन्दिरमें दीपदानके प्रभावसे पापमुक्त होकर गुणनिधिका दूसरे जन्ममें कलिंगदेशका राजा बनना और फिर शिवभक्तिके कारण कुबेर पदकी प्राप्ति
  19. [अध्याय 19] कुबेरका काशीपुरीमें आकर तप करना, तपस्यासे प्रसन्न उमासहित भगवान् विश्वनाथका प्रकट हो उसे दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना, कुबेरद्वारा शिवमैत्री प्राप्त करना
  20. [अध्याय 20] भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार