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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 31 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 31

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यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना

ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर इसी बीच वहाँ दक्ष तथा देवता आदिको सुनाते हुए आकाशवाणीने यथार्थ बात कही ॥ 1 ॥

आकाशवाणी बोली- हे दुराचारी तथा दम्भवृत्तिमें तत्पर दक्ष हे महामूढ़! तुमने यह कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला ! ॥ 2 ॥

हे मूढ़ ! तुमने शिवभक्तराज दधीचिके कथनको भी प्रमाण नहीं माना, जो तुम्हारे लिये सब प्रकारसे आनन्ददायक और मंगलकारी था ॥ 3 ॥

वे ब्राह्मण तुमको दुस्सह शाप देकर चले गये, तब भी तुम मूढ़ने अपने मनमें कुछ भी नहीं समझा ॥ 4 ॥इसके अनन्तर तुमने अपने घरमें स्वतः आयी हुई अपनी मंगलमयी पुत्री सतीका विशेष आदर क्यों नहीं किया ? ॥ 5 ॥

हे दुर्बल तुमने सती और महादेवजी की पूजा नहीं की, यह तुमने क्या किया? मैं ब्रह्माजीका पुत्र हूँ - ऐसा समझकर विमोहमें पड़कर तुम व्यर्थ ही घमण्डमें भरे हुए हो ॥ 6 ॥

वे सती सदा आराधना करनेके योग्य, समस्त पुण्योंका फल देनेवाली, तीनों लोकोंकी माता, कल्याण स्वरूपा और शंकरके आधे अंगमें निवास करनेवाली हैं। वे माहेश्वरी सती देवी पूजित होनेपर सदा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाली और अपने भक्तोंको सब प्रकारके मंगल देनेवाली हैं। वे सती देवी ही पूजित होनेपर सदा संसारका भय दूर करनेवाली, मनोवांछित फल देनेवाली हैं और समस्त उपद्रवोंको नष्ट करनेवाली हैं ॥ 7-9 ॥

वे परमा परमेश्वरी सती ही पूजित होनेपर सदा कीर्ति, भोग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं। वे सती ही इस जगत्‌को जन्म देनेवाली माता, जगत्की रक्षा करनेवाली, अनादि शक्ति और कल्पके अन्तमें जगत्का संहार करनेवाली हैं॥ 10-11

वे सती ही जगत्की माता, भगवान् विष्णुकी माता, विलासिनी तथा ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, अग्नि एवं सूर्य आदिकी जननी मानी गयी हैं। वे सती ही तपस्या, धर्म तथा दान आदिका फल देनेवाली, शम्भुशक्ति, महादेवी, दुष्टोंका हनन करनेवाली और परात्पर शक्ति हैं ।। 12-13 ।।

ऐसी सती देवी जिनकी सदा प्रिय भार्या हैं, उन शिवको दुष्ट विचारवाले मूढ़ तुमने यज्ञ-भाग नहीं दिया। भगवान् शिव ही परमेश्वर, सबके स्वामी, परात्पर, ब्रह्मा-विष्णु आदिके द्वारा सम्यक् सेव्य हैं और सबका कल्याण करनेवाले हैं। ll 14-15 ।।

इन्हींके दर्शनकी इच्छावाले सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं और इन्हींके दर्शनकी इच्छावाले योगीजन योगसाधनामें प्रवृत्त होते हैं। अनन्त धनधान्य और यज्ञ आदिका सबसे महान फल शंकरका दर्शन ही | कहा गया है ।। 16-17 ॥शिवजी ही जगत्का धारण-पोषण करनेवाले, समस्त विद्याओंके पति सब कुछ करनेमें समर्थ, आदि विद्याके श्रेष्ठ स्वामी और समस्त मंगलोंके मंगल हैं। हे खल! तुमने उनकी शक्तिका आज सत्कार नहीं किया, इसलिये अवश्य ही इस यज्ञका विनाश हो जायगा ।। 18-19 ॥

पूजनीय व्यक्तियोंकी पूजा न करनेसे अमंगल होता है। क्या परम पूजनीया वे शिवा तुम्हारी पूजाके योग्य नहीं थीं? शेषनाग अपने हजार मस्तकोंसे प्रतिदिन जिनकी चरणरजको प्रेमपूर्वक धारण करते हैं, उन्हीं शिवकी शक्ति ये शिवा सती हैं ॥ 20-21 ॥

जिनके चरणकमलोंका आदरपूर्वक ध्यान और पूजनकर विष्णु विष्णुत्वको प्राप्त हो गये, उन्हीं शिवकी पत्नी सती हैं ॥ 22 ॥

जिनके चरणकमलोंका ध्यान एवं पूजनकर ब्रह्माजी ब्रह्मत्वको प्राप्त हो गये और जिनके चरण कमलोंका आदरपूर्वक निरन्तर ध्यान एवं पूजन करके इन्द्र आदि लोकपालोंने अपने-अपने उत्तम पदको प्राप्त किया है, उन्हीं शिवकी पत्नी सती हैं ॥ 23-24 ॥

भगवान् शिव [सम्पूर्ण] जगत्के पिता हैं और शक्तिरूपा देवी सती जगन्माता कही गयी हैं। हे मूढ़ ! तुमने उनका सत्कार नहीं किया, तुम्हारा कल्याण कैसे होगा ? तुम्हारे ऊपर दुर्भाग्यका आक्रमण हो गया है और विपत्तियाँ टूट पड़ी हैं क्योंकि तुमने भक्तिपूर्वक उन भवानी और शंकरकी आराधना नहीं की । ll 25-26 ।।

कल्याणकारी शिवजीका पूजन-अर्चन न करके मैं कल्याण प्राप्त कर लूंगा; यह कैसा गर्व है? वह तुम्हारा दुर्वार गर्व आज विनष्ट हो जायगा ॥ 27 ॥ इन देवताओंमें कौन ऐसा है, जो सर्वेश्वर शिवसे विमुख होकर तुम्हारी सहायता करेगा, मुझे तो ऐसा कोई दिखायी नहीं दे रहा है। यदि देवता इस समय तुम्हारी सहायता करेंगे तो जलती हुई आग से खेलनेवाले पतिंगोंके समान वे नाशको ही प्राप्त होंगे ll 28-29 ।।

आज तुम्हारा मुख जल जाय, तुम्हारे यज्ञका नाश हो जाय और जितने तुम्हारे सहायक हैं, वे भी आज शीघ्र ही भस्म हो जायें। जो आज इस दुरात्मा दक्षकी सहायता करेंगे; उन समस्त देवताओंके लिये शपथ है कि उनका कर्म तुझ दक्षके अमंगलके लिये हो ॥ 30-31 ॥समस्त देवता आज इस यज्ञमण्डपसे निकलकर अपने-अपने स्थानको चले जायें, अन्यथा आपलोगोंका सब प्रकारसे नाश हो जायगा। अन्य सब मुनि और नाग आदि भी इस यज्ञसे निकल जायें, अन्यथा आज आपलोगोंका सर्वथा नाश हो जायगा ।। 32-33 ।।

हे विष्णु आप इस यज्ञमण्डपसे शीघ्र निकल जायँ, अन्यथा आज आपका सर्वथा नाश हो जायगा। हे विधाता आप भी इस यज्ञमण्डपसे शीघ्र निकल जाइये, अन्यथा आज आपका सर्वथा नाश हो जायगा ।। 34-35 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] सम्पूर्ण यज्ञशाला में बैठे हुए लोगों से ऐसा कहकर सबका कल्याण करनेवाली आकाशवाणी मौन हो गयी हे तात! इस प्रकारकी आकाशवाणीको सुनकर विष्णु आदि सभी देवता तथा अन्य मुनि आदि सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये ।। 36-37 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य