ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] दक्षकन्या सती उस स्थानपर गर्यो, जहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदिके कौतूहलपूर्ण कार्यसे युक्त महान् यज्ञ हो रहा था ॥ 1 ॥ सतीने वहाँ अपने पिताके भवनको देखा, जो नाना प्रकारके आश्चर्यजनक भावोंसे युक्त, कान्तिमान्, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियोंके समुदायसे भरा हुआ था ॥ 2 ॥ देवी सती भवनके द्वारपर जाकर खड़ी हुई और अपने वाहन नन्दीसे उतरकर अकेली ही शीघ्रतापूर्वक यज्ञस्थलके भीतर गयीं ॥ 3 ॥
सतीको आया देख उनकी यशस्विनी माता असिक्नी (वीरिणी) और बहनोंने उनका यथोचित सत्कार किया ॥ 4 ॥
परंतु दक्षने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उनके भयसे शिवकी मायासे मोहित हुए अन्य लोगोंने भी उनका आदर नहीं किया ॥ 5 ॥
हे मुने! सब लोगोंके द्वारा तिरस्कार प्राप्त होनेपर भी सती देवीने अत्यन्त विस्मित हो माता पिताको प्रणाम किया ॥ 6 ॥
उस यज्ञमें सतीने भगवान् विष्णु आदि देवताओंक भागको देखा, परंतु शिवजीका भाग कहीं भी दिखायी नहीं दिया, तब उन्होंने असह्य क्रोध प्रकट किया। अपमानित होकर भी रोषसे भरकर सब लोगोंकी ओर क्रूर दृष्टिसे देखकर दक्षको भस्म करती हुई-सी वे कहने लगीं ॥ 7-8 ll
सती बोलीं- आपने परम मंगलकारी शिवको [ इस यज्ञमें] क्यों नहीं बुलाया, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है। जो यज्ञस्वरूप, यज्ञवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, यज्ञके अंग, यज्ञकी दक्षिणा और यज्ञकर्ता हैं, उन शिवके बिना यह यज्ञ कैसे पूर्ण हो सकता है ? ।। 9-10 ॥
अहो। जिनके स्मरणमात्रसे सब कुछ पवित्र हो जाता है, उनके बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा ॥ 11 ॥द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्यये सब जिनके स्वरूप हैं, उन शिवके बिना यज्ञका आरम्भ कैसे किया गया ? ।। 12 ।।
क्या आपने शिवजीको सामान्य देवता समझकर उनका अनादर किया है? हे अधम पिता! अवश्य ही आपकी बुद्धि आज भ्रष्ट हो गयी है ॥ 13 ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता महेश्वरकी सेवा करके अपनी पदवीपर अधिष्ठित हैं। निश्चय ही आप अभीतक उन शिवको नहीं जानते हैं ॥ 14 ॥ ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिवके बिना इस यज्ञमें कैसे चले आये ? ॥ 15 ॥ ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर शिवस्वरूपिणी परमेश्वरी विष्णु आदि सब देवताओंको अलग-अलग फटकारती हुई कहने लगीं - ॥ 16 ॥
सती बोलीं- हे विष्णो! श्रुतियाँ जिन्हें सगुण एवं निर्गुणरूपसे प्रतिपादित करती हैं, क्या आप उन शिवजीको यथार्थ रूपसे नहीं जानते हैं ? ॥ 17 ॥
[हे] विष्णो] यद्यपि पूर्वकालमें शिवजीने शाल्वादि रूपोंके द्वारा आपके सिरपर हाथ रखकर कई बार शिक्षा दी है, फिर भी हे दुर्बुद्धे आपके ह्रदयमें ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ और आपने अपने स्वामी शंकरके बिना ही इस यज्ञमें भाग ग्रहण कर लिया ! ।। 18-19 ॥
[हे ब्रह्मन्!] आप पूर्वकालमें जब पाँच मुखवाले होकर सदाशिवके प्रति गर्वित हो गये थे, तब उन्होंने आपको चार मुखवाला कर दिया था, आप उन्हें भूल गये-यह तो आश्चर्य है ! ॥ 20 हे इन्द्र ! क्या आप शंकरके पराक्रमको नहीं जानते ? कठिन कर्म करनेवाले शिवजीने ही आपके वज्रको भस्म कर दिया था ॥ 21 ॥ हे देवताओ! क्या आपलोग महादेवका पराक्रम नहीं जानते हे अत्रे हे वसिष्ठ हे मुनियो आपलोगोंने यह क्या कर डाला ? ॥ 22 ॥
जब शिवजी दारुवनमें भिक्षाटन कर रहे थे और आप सभी मुनियोंने उन भिक्षुक रुद्रको शाप दे दिया था, तब शापित होकर उन्होंने जो किया था, उसे आपलोग कैसे भूल गये ? उनके लिंगसे चराचरसहित समस्त भुवन दग्ध होने लगा था ।। 23-24 ।।[ ऐसा लग रहा है कि] ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता तथा अन्य मुनिगण मूर्ख हो गये हैं, जो | कि भगवान् शिवके बिना ही इस यज्ञमें आ गये ।। 25 ।।
अंगों सहित सभी वेद, शास्त्र एवं वाणी जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन वेदान्तवेद्य भगवान् शंकरको जाननेमें कोई पार नहीं पा सकता है॥ 26 ॥ ब्रह्माजी बोले- [नारद] इस प्रकार क्रोधसे भरी हुई जगदम्बा सतीने वहाँ व्यथितहृदयसे अनेक प्रकारकी बातें कहीं ॥ 27 ॥ श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, उनकी बात सुनकर चुप रह गये और भयसे व्याकुलचित हो गये ॥ 28 ॥
तब दक्ष अपनी पुत्रीके उस प्रकारके वचनको सुनकर उन सतीको क्रूर दृष्टिसे देखकर क्रोधित होकर कहने लगे- ॥ 29 ॥ दक्ष बोले- हे भद्रे ! तुम्हारे बहुत कहने से क्या
लाभ! इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम चली जाओ या ठहरो, तुम यहाँ किसलिये आयी हो ? ॥ 30 ॥ सभी विद्वान् जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव मंगलरहित, अकुलीन तथा वेदसे बहिष्कृत हैं और भूत प्रेतोंक स्वामी हैं। इसलिये हे पुत्र मुझ बुद्धिमान्ने ऐसा जानकर कुवेषधारी शिवको देवताओं और ऋषियोंकी इस सभामें नहीं बुलाया ।। 31-32 ॥
मुझ पापी दुर्बद्धने ब्रह्माजीके द्वारा प्रेरित किये जानेपर शास्त्रके अर्थको न जाननेवाले, उद्दण्ड तथा दुरात्मा रुद्रको तुम्हें प्रदान कर दिया था ॥ 33 ॥ इसलिये हे शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ और यदि इस यज्ञमें तुम आ ही गयी हो तो अपना भाग ग्रहण करो ॥ 34 ॥
ब्रह्माजी बोले- दशके इस प्रकार कहनेपर त्रिभुवनपूजिता दक्षपुत्री सती निन्दायुक्त अपने पिताकी ओर देखकर अत्यन्त क्रोधित हो गयीं ॥ 35 ॥
वे सोचने लगीं कि अब मैं शंकरजीके पास कैसे जाऊँ? मैं तो शंकरको देखना चाहती हूँ, किंतु उनके पूछनेपर मैं क्या उत्तर दूँगी ? ॥ 36 ॥
तदनन्तर तीनों लोकोंकी जननी वे सती क्रोधसे युक्त हो लम्बी श्वास लेती हुई दूषित मनवाले अपने पितासे कहने लगीं ॥ 37 ॥सती बोलीं- जो महादेवजीकी निन्दा करता
है अथवा जो उनकी हो रही निन्दाको सुनता है, वे
दोनों तबतक नरकमें पड़े रहते हैं, जबतक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं॥ 38 ॥ अतः हे तात! मैं अग्निमें प्रवेश करूँगी और [अपने] शरीरको त्याग दूँगी, अपने स्वामीका अनादर सुनकर अब मुझे जीवनसे क्या प्रयोजन ? ॥ 39 ॥
[शिवनिन्दा सुननेवाला व्यक्ति] यदि समर्थ हो तो वह स्वयं विशेष यत्न करके शम्भुकी निन्दा करनेवालेकी जीभको बलपूर्वक काट डाले, तभी वह [शिवनिन्दा श्रवणके पापसे] शुद्ध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि मनुष्य [ कुछ प्रतिकार कर सकनेमें] असमर्थ हो, तो बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह दोनों कान बंद करके वहाँसे चला जाय, तब वह पापसे शुद्ध हो सकता है-ऐसा श्रेष्ठ विद्वान् कहते हैं ।। 40-41 ।।
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार धर्मनीति कहकर वे सती पश्चात्ताप करने लगीं और उन्होंने व्यथितचित्तसे
भगवान् शंकरके वचनका स्मरण किया ।। 42 ।। तदनन्तर सतीने अत्यन्त कुपित हो दक्ष तथा उन विष्णु आदि समस्त देवताओं और मुनियोंसे भी निडर | होकर कहा- 43 ॥
सती बोलीं- हे तात! आप शंकरके निन्दक हैं, अतः आपको पश्चात्ताप करना पड़ेगा, इस लोकमें | महान् दुःख भोगकर अन्तमें आपको यातना भोगनी पड़ेगी ll 44 ll
इस लोकमें जिन परमात्माका न कोई प्रिय है, न अप्रिय है, उन द्वेपरहित शिवके साथ आपके अतिरिक्त दूसरा कौन वैर कर सकता है ? ।। 45 ।।
जो दुष्ट लोग हैं, वे सदा ईर्ष्यापूर्वक यदि महापुरुषोंकी निन्दा करें तो उनके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, परंतु जो महात्माओंके चरणोंकी रजसे अपने अज्ञानान्धकारको दूर कर चुके हैं, उन्हें महापुरुषोंकी निन्दा शोभा नहीं देती ॥ 46 ll
'जिनका 'शिव' यह दो अक्षरोंका नाम कभी बातचीत के प्रसंगसे मनुष्योंकी वाणीद्वारा एक बार उच्चरित हो जाय, तो वह सम्पूर्ण पापराशिको शीघ्र हीनष्ट कर देता है, अहो, खलस्वरूप आप शिवसे विपरीत होकर उन पवित्र कीर्तिवाले, निर्मल, अलंघ्य शासनवाले सर्वेश्वर शिवसे विद्वेष करते हैं ।। 47-48 ॥
महापुरुषोंके मनरूपी मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके सर्वार्थदायक चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जो | शिव संसारके लोगों पर शीघ्र ही आदरपूर्वक मनोरथोंकी वर्षा करते हैं, सबके बन्धु उन्हीं महादेवसे आप मूर्खतावश द्रोह करते हैं ।। 49-50 ।।
जिन शिवको आप अशिव बताते हैं, उन्हें क्या | आपके सिवा दूसरे विद्वान् नहीं जानते ब्रह्मा आदि देवता, सनक आदि मुनि तथा अन्य ज्ञानी क्या उनके स्वरूपको नहीं समझते ॥ 51 ॥
उदारबुद्धि भगवान् शिव जटा फैलाये, कपाल धारण किये श्मशानमें भूतोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं तथा भस्म एवं नरमुण्डोंकी माला धारण करते हैं ॥ 52 ॥
इस बातको जानकर भी जो मुनि और देवता उनके चरणोंसे गिरे निर्माल्यको बड़े आदरके साथ अपने मस्तकपर चढ़ाते हैं, इसका क्या कारण है? यही कि वे भगवान् शिव ही साक्षात् परमेश्वर हैं ॥ 53 ॥
वेदोंमें प्रवृत्त तथा निवृत्त- ये दो प्रकारके कर्म बताये गये हैं, जिनका विद्वानोंको विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये। ये दोनों ही कर्म परस्पर विरुद्ध गतिवाले हैं, अतः एक कर्ताके द्वारा इनका साथ-साथ अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। भगवान् शिव तो साक्षात् परब्रह्म हैं, अतः उनमें इन दोनों ही कर्मोंकी गति नहीं है। (अतः वे इन दोनों ही कर्मोंसे परतन्त्र नहीं हैं) ।। 54-55 ।।
हे पितः जो योगैश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि सिद्धियाँ हमें सर्वदा प्राप्त हैं, वे आपको प्राप्त नहीं हैं आपकी यज्ञशालाओंमें आयोजित होनेवाले तथा धूमार्गको प्रदान करनेवाले प्रवृत्तिमार्गीय कमौका हम त्याग कर चुके हैं। हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है तथा ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंके द्वारा निरन्तर सेवित है। हे तात! आप विपरीत बुद्धिवाले हैं, अतः आपको अभिमान नहीं करना चाहिये ।। 56-57 ।।अधिक कहनेसे क्या लाभ? आप दुष्टहृदय हैं और आपकी बुद्धि सर्वथा दूषित हो चुकी है, अतः आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरसे भी मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा, उस दुष्ट व्यक्तिके जन्मको धिक्कार है, जो महापुरुषोंके प्रति अपराध करनेवाला है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि ऐसे सम्बन्धका विशेष रूपसे त्याग कर दे ।। 58-59 ॥
जिस समय भगवान् शिव आपके गोत्रका उच्चारण करते हुए मुझे दाक्षायणी कहेंगे, उस समय मेरा मन सहसा अत्यन्त दुखी हो जायगा ॥ 60 ॥
इसलिये आपके अंगसे उत्पन्न हुए शवतुल्य घृणित इस शरीरको इस समय मैं अवश्य ही त्याग दूँगी और ऐसा करके सुखी हो जाऊँगी 61 ॥
हे देवताओ और मुनियो ! आप सब लोग मेरी बात सुनें, दूषित मनवाले आपलोगोंका यह कर्म सर्वथा अनुचित है। आप सब लोग मूढ़ हैं; क्योंकि शिवजीकी निन्दा और कलह आपलोगोंको प्रिय है। अतः भगवान् हरसे सभीको इस कुकर्मका निश्चय ही पूरा-पूरा दण्ड मिलेगा ।। 62-63 ।। ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] उस यज्ञमें दक्षसे तथा देवताओंसे ऐसा कहकर सती देवी चुप हो गय और मन ही मन अपने प्राणवल्लभ शम्भुका स्मरण करने लगीं ।। 64 ।।