सुब्रह्मण्य बोले – हे वामदेव ! हे महामुने! अब मैं क्षौर तथा स्नानविधि कहता हूँ, जिसके करनेसे यतिकी तत्क्षण परम शुद्धि होती है ॥ 1 ॥ हे मुनीश्वर ! योगपट्टकी विधि प्राप्तकर शिष्य पूर्ण व्रती हो और तब क्षौर कर्मके लिये उद्यत हो जाय ॥ 2 ॥तदनन्तर गुरुको विशेषरूपसे नमस्कारकर उनसे आज्ञा लेकर सिर प्रक्षालन करके आचमन करे और वस्त्र पहने हुए ही क्षौरकर्म कराये ॥ 3 ॥
[[नापितके द्वारा] वस्त्रप्रक्षालन कराये, उसका क्षुरा मिट्टी और जलसे शुद्ध करवा ले। उस नापितके हाथमें मिट्टी देकर कहे कि इस मिट्टीसे हाथ शुद्ध करो ॥ 4 ॥
प्रक्षालित सुरेको शिव शिव कहते हुए किसी पत्रपर स्थापित करे, फिर अनामिका एवं अँगूठेको अभिमन्त्रितकर उन दोनों अँगुलियोंसे नेत्र बन्द करे। अस्त्र मन्त्रसे नेत्रोंको खोलकर क्षौरके साधनभूत क्षुरेको देखे। बारह बार अभिमन्त्रितकर अस्त्रमन्त्रसे क्षुरेको पुनः प्रक्षालित करे ।। 5-6 ।।
प्रणवका उच्चारणकर यति नापितके हाथमें क्षुरा देकर दाहिनी ओरसे और क्रिया कराये। उस समय आगे कुछ बालोंको कटवाकर पुनः समस्त बालोंका वपन करवा ले ॥ 7 ॥
एक पत्ता भूमिपर रखकर उसीके ऊपर बालोंको रखे, उन्हें पृथ्वीपर नहीं रखना चाहिये। मूँछ और हाथ पैरके नाखून भी कटवा लेना चाहिये ॥ 8 ॥
इसके बाद बेल, पीपल, तुलसी आदि वृक्षोंके स्थानकी मिट्टीका संग्रह करे। बारह बार जलमें डुबकी लगा किनारेपर जाकर बैठे। किसी शुद्ध स्थानपर उस मृत्तिकाको रख करके उसके तीन भाग करके पुनः एकके तीन भाग करे एवं अस्त्रमन्त्रद्वारा उसका प्रोक्षण तथा अभिमन्त्रण करे ।। 9-10 ॥
उसमेंसे एक भाग मृत्तिका लेकर दूसरे हाथमें भी उसे रखकर बारह बार हाथोंमें लेपकर प्रत्येक बार जलसे दोनों हाथोंको धो डाले ॥ 11 ॥
एक भागको दोनों पैरोंमें और शेष एक भागको मुखमें तथा हाथमें क्रमसे लगाकर जलसे धोकर पुनः जलमें प्रवेश करे ॥ 12 ॥
इसके बाद मिट्टीके दूसरे भागको लेकर बारह बार क्रमश: सिरसे मुखपर्यन्त लेपकर बार-बार गोता लगाये और तटपर जाकर सोलह बार कुल्ला करके दो बार आचमन करे। पुनः ॐ कारपूर्वक सोलह प्राणायाम करे ।। 13-14॥इसके पश्चात् अन्य मृत्तिकाका लेकर उसके तीन भाग करके उनमेंसे एक भागक द्वारा कटिशीच | और पादशौच करके दो बार आचमन करे और मौन हो प्रणवमन्त्रसे सोलह बार प्राणायाम करें। फिर दूसरे भागको लेकर उसे ऊरुदेशपर रखकर प्रणवसे तीन भाग करे। पुनः प्रोक्षणकर उसे सात बार अभिमन्त्रित करे। एक एकके क्रमसे तीन बार दोनों हाथोंके तलवोंमें उसे लगाकर सबको पवित्र करनेवाली सूर्यमूर्तिका दर्शन करे । 15–17 ॥
बुद्धिमान् शिष्य स्वस्थचित्त होकर मिट्टी लेकर दाहिने हाथसे बायीं काँख तथा बायें हाथसे दाहिनी काँखमें उसे लगाये। तत्पश्चात् गुरुभक्त शिष्य दूसरी शुद्ध मिट्टीको लेकर सूर्यको देखता हुआ सिरसे पैरतक उस मिट्टीको लगाये और उठ करके पृथ्वीपर स्थित | दण्ड लेकर अपने मन्त्रदाता गुरुका भक्तिपूर्वक तत्त्वबुद्धिसे स्मरण करे। इसके बाद वह शिष्य भक्तिपूर्वक सर्वैश्वर्यपति, चन्द्रमाको धारण करनेवाले, पार्वतीसहित कल्याणमय महेश्वर शंकरजीका स्मरण करे ॥ 18-21 ॥ इसके बाद प्रेमपूर्वक तीन बार गुरु तथा शिवको साष्टांग प्रणाम करे, फिर उठकर उन्हें एक बार पंचांग प्रणाम करे ॥ 22 ॥
इसके बाद जलमें प्रवेशकर बार- बार डुबकी लगानेके बाद कन्धेपर [ तीर्थकी] मृत्तिका रखकर पहले बतायी गयी विधिसे शरीरमें लेप करे। अवशिष्ट मिट्टीको लेकर जलमें प्रविष्ट हो उसे मल करके अच्छी तरह सभी अंगोंमें लगाकर तीन बार ॐकारका उच्चारणकर संसारसागर से पार करनेवाले शिवके चरणकमलका स्मरण करते हुए स्नान करे, बाद विरजा भस्ममिश्रित | जलसे शरीरके अंगोंका उपमार्जनकर भलीभाँति भस्मसे स्नान करे ।। 23-26 ॥ उसके बाद शास्त्रविधिके अनुसार उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करके हे मुने! सावधानीसे यथोक्त सभी अंगोंमें भस्म लगाये ॥ 27 ॥
इसके पश्चात् शुद्धचित्त होकर मध्याह्नकी क्रियाएँ सम्पादित करे। तदनन्तर महेश्वर, गुरुजनों तथा तीर्थों आदिको नमस्कारकर हे मुने! परम भक्तिपूर्वक ज्ञानदाता, त्रैलोक्यरक्षक साम्ब सदाशिवका पूजन करे ।। 28-29 ॥तत्पश्चात् स्वस्थचित्त हो उस शुद्ध यतिको अपने धर्ममें स्थित होकर ब्राह्मणों अथवा साधुओंके बीच भिक्षाके लिये जाना चाहिये। [शास्त्रकारोंके आदेशानुसार] वह शुद्धात्मा पाँच घरोंसे भिक्षा ग्रहण करे, किंतु दूषित अन्न कभी ग्रहण न करे ॥ 30-31 ॥
भिक्षुके चार कर्म हैं-शौच, स्नान, भिक्षा तथा एकान्तवास; इसके अतिरिक्त पाँचवाँ कर्म नहीं है। लौकीका पात्र, वेणुका पात्र, लकड़ीका पात्र तथा | मिट्टीका पात्र- ये चार प्रकारके पात्र भिक्षुकको ग्राह्य हैं, पाँचवाँ कोई अन्य नहीं ॥ 32-33 ॥
ताम्बूल, स्वर्णादि धातुका पात्र, वीर्यसेचन, श्वेत वस्त्रधारण, दिनमें शयन तथा रात्रिमें भोजन - ये छ: कर्म यतियोंके लिये सर्वथा वर्जित हैं ॥ 34 ॥
विपरीत आचरण करनेवाले साक्षर भी राक्षस कहे गये हैं, इसलिये यतिको विपरीत आचरण कभी नहीं करना चाहिये । यतिको शुद्धिके लिये शुद्ध सनातन शिवतत्त्वका स्मरण करते हुए यत्नपूर्वक क्षौर एवं स्नान करना चाहिये। हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार आपके स्नेहके कारण मैंने क्षौरस्नानकी सम्पूर्ण विधि कह दी, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? ॥ 35-37 ॥