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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 36 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 36

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युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत

ब्रह्माजी बोले- उस समय [शिवतत्त्वरूपी ] आत्मवादमें रत विष्णुपर हँसते हुए इन्द्र हाथमें गदा धारणकर देवताओंको साथ लेकर [वीरभद्रसे] युद्ध करनेके लिये तत्पर हो गये ॥ 1 ॥

उस समय इन्द्र हाथीपर सवार हो गये, अग्नि भेंड़पर सवार हो गये, यम भैंसेपर चढ़ गये और निर्ऋति प्रेतपर सवार हो गये ll 2 ll

वरुण मकरपर, वायु मृगपर और कुबेर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो आलस्यरहित होकर [ युद्धके लिये] तैयार हो गये। इसी प्रकार प्रतापी अन्य देवसमूह, यक्ष, चारण तथा गुह्यक भी अपने अपने वाहनोंपर आरूढ़ होकर तैयार हो गये ।। 3-4 ।।उन देवताओंके उद्योगको देखकर रक्तसे सने हुए मुखवाले वे दक्ष अपनी पत्नीके साथ उनके पास जाकर कहने लगे- ॥5॥

'दक्ष बोले- [हे देवगणो!] मैंने आपलोगों के ही बलसे इस यज्ञको प्रारम्भ किया है; क्योंकि महातेजस्वी आपलोग ही सत्कर्मकी सिद्धिके लिये प्रमाण हैं ॥ 6 ॥

ब्रह्माजी बोले- दक्षके उस वचनको सुनकर इन्द्र आदि सभी देवगण युद्ध करनेके लिये तैयार हो निकल पड़े। तदनन्तर समस्त देवगण तथा इन्द्र आदि लोकपाल शिवजीकी मायासे मोहित होकर अपनी अपनी सेनाओंको साथ लेकर युद्ध करने लगे ।। 7-8॥

उस समय देवताओं तथा शिवगणोंमें महान् युद्ध होने लगा। वे तीखे तोमर तथा बाणोंसे परस्पर युद्ध करने लगे। उस युद्धमहोत्सवमें शंख तथा भेरियाँ बजने लगीं और बड़ी-बड़ी दुन्दुभियाँ, नगाड़े तथा डिण्डिम आदि बजने लगे ।। 9-10 ll

उस महान् शब्दसे उत्साहमें भरे हुए समस्त देवगण लोकपालोंको साथ लेकर उन शिवगणोंको मारने लगे। हे मुनिश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि देवताओं एवं लोकपालाने भृगुके मन्त्रबलके प्रभावसे शिवजी के गणोंको पराङ्मुख कर दिया ।। 11-12 ।।

उस समय याज्ञिक भृगुजीने दीक्षा ग्रहण किये हुए दक्षके तथा देवताओंके सन्तोषहेतु और यज्ञको निर्विघ्न समाप्तिके लिये उन शिवगणोंका उच्चाटन कर दिया ।। 13 ।।

इस प्रकार अपने गणोंको पराजित देखकर वीरभद्र क्रोधमें भर उठे और भूत, प्रेत तथा पिशाचोंको पीछे करके वे महाबली वीरभद्र बैलपर सवार सभी शिवगणोंको आगे करके स्वयं त्रिशूल लेकर देवताओंको गिराने लगे ।। 14-15 ।।

सभी शिवगणने भी त्रिशूलके प्रहारोंसे शीघ्रतापूर्वक देवताओं, यक्षों, साध्यगणों, गुह्यकों तथा चारणोंको मार डाला। गणोंने तलवारोंसे कुछ देवताओंके दो टुकड़े कर दिये, कुछको मुद्गरोंसे पीट डाला और कुछको घायल कर दिया ।। 16-17 ।।इस प्रकार सभी देवता पराजित होकर भाग चले और एक-दूसरेको रणभूमिमें छोड़कर देवलोकको चले गये। उस अत्यन्त भयानक युद्धमें महाबली इन्द्र आदि लोकपाल ही धैर्य धारण करके उत्साहित होकर खड़े रहे ॥ 18-19 ॥

उस समय इन्द्र आदि समस्त देवता एकत्र होकर विनयभावसे युक्त हो उस युद्धस्थलमें बृहस्पतिजीसे पूछने लगे- ॥ 20 ॥

लोकपाल बोले- हे गुरो! हे बृहस्पते हे तात! हे महाप्राज्ञ! हे दयानिधे! शीघ्र बताइये, हमलोग यह पूछते हैं कि हमारी विजय किस प्रकार होगी ? ॥ 21 ॥

ब्रह्माजी बोले- उनकी यह बात सुनकर उपायोंको जाननेवाले बृहस्पति शम्भुका स्मरण करके ज्ञानदुर्बल महेन्द्रसे कहने लगे - ॥ 22 ॥

बृहस्पति बोले - हे इन्द्र ! भगवान् विष्णुने पहले जो कहा था, वह सब आज घटित हो गया, मँ उसी बातको कह रहा हूँ, सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ 23 ll

समस्त कर्मोंका फल देनेवाले जो कोई ईश्वर हैं, वे भी अपने कर्ता शिवका भजन करते हैं। वे अपने कर्ता प्रभु नहीं हैं ll 24 ll

न मन्त्र, न औषधियाँ, न समस्त आभिचारिक कर्म, न लौकिक पुरुष, न कर्म, न वेद, न पूर्वमीमांसा, न उत्तरमीमांसा तथा न अनेक वेदोंसे युक्त अन्यान्य शास्त्र ही ईश्वरको जाननेमें समर्थ होते हैं, ऐसा प्राचीन विद्वान् कहते हैं ।। 25-26 ll

अनन्यशरण भक्तोंको छोड़कर दूसरे लोग सम्पूर्ण वेदोंका दस हजार बार स्वाध्याय करके भी महेश्वरको | भलीभाँति नहीं जान सकते—यह महाश्रुति है। भगवान् सदाशिवके अनुग्रहसे ही सर्वथा शान्त, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टिसे उनको जाना जा सकता है ।। 27-28 ॥

तब भी हे सुरेश्वर उचित-अनुचित कार्यके निर्णयमें सबके कल्याणके लिये सिद्धिके उत्तम अंशका प्रतिपादन करूंगा, आप उसे सुनिये। हे इन्द्र! आप लोकपालोंके साथ नादान बनकर इस समय दक्षयज्ञमें आ गये, किंतु आप कौन-सा पराक्रम करेंगे ? ।। 29-30 ।।भगवान् रुद्रके सहायक ये गण अत्यन्त कुपित होकर यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये आये हैं, ये अवश्य ही उसे करेंगे ॥ 31 ॥ मैं यह सत्य सत्य कह रहा कि इस यज्ञमें | विघ्ननिवारण के लिये वस्तुतः किसीके भी पास सर्वथा कोई उपाय नहीं है ॥ 32 ॥

ब्रह्माजी बोले- बृहस्पतिकी इस बातको सुनकर स्वर्गमें रहनेवाले इन्द्रसहित वे समस्त लोकपाल चिन्तामें पड़ गये। तब महावीर गणोंसे घिरे हुए वीरभद्र मन ही मन भगवान् शंकरका स्मरण करके उन इन्द्र आदि लोकपालोंसे कहने लगे- ॥ 33.34 ।।

वीरभद्र बोले- आपलोग मूर्खताके कारण ही [ इस यज्ञमें] अपना-अपना भाग लेनेके लिये आये हैं। अतः मेरे समीप आइये, मैं आपलोगोंको यज्ञका फल देता हूँ ॥ 35 ॥

हे शक्र ! हे अग्ने ! हे सूर्य ! हे चन्द्र ! हे कुबेर ! हे यम! हे वरुण ! हे वायो! हे निर्ऋते! हे शेष! हे बुद्धिमान् देव तथा राक्षसगण आपलोग इधर आइये, मैं आपलोगोंको तृप्त करनेके लिये इसका फल प्रदान करूँगा ।। 36-37 ।।

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर गणोंमें श्रेष्ठ वीरभद्रने क्रोधमें भरकर तीक्ष्ण बाणोंसे उन सभी देवताओंको शीघ्र ही घायल कर दिया। उन बाणोंसे घायल होकर इन्द्र आदि वे समस्त सुरेश्वर भागकर दसों दिशाओंमें चले गये। लोकपालोंके चले जानेपर और देवताओंके भाग जानेपर वीरभद्र गणोंके साथ यज्ञशालाके समीप पहुँचे ।। 38-39ll

उस समय वहाँ उपस्थित समस्त ऋषि अत्यन्त भयभीत होकर रमापति श्रीहरिसे [रक्षाकी] प्रार्थना करनेके लिये सहसा विनम्र हो शीघ्र कहने लगे - ll 40 ॥

ऋषिगण बोले – हे देवदेव! हे रमानाथ! हे सर्वेश्वर! हे महाप्रभो! दक्षके यज्ञकी रक्षा कीजिये, आप यज्ञस्वरूप हैं, इसमें संशय नहीं है। आप ही यज्ञ करनेवाले, यज्ञरूप, यज्ञके अंग और यज्ञके रक्षक हैं, अतः यहकी रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये, आपके अतिरिक्त कोई दूसरा रक्षक नहीं है ll 41-42 llब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] उन ऋषियोंके इस वचनको सुनकर भगवान् विष्णु वीरभद्रके साथ युद्ध करनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 43 ॥

महाबली चतुर्भुज भगवान् विष्णु हाथोंमें चक्र आदि आयुध धारणकर सम्यक् सावधान होकर देवताओंके साथ यज्ञमण्डपसे बाहर निकले। अनेक गणोंसे समन्वित तथा हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए वीरभद्रने महाप्रभु विष्णुको युद्धके लिये तैयार देखा ।। 44-45 ।।

उन्हें देखते ही वीरभद्र टेढ़ी भाँहोंसे युक्त मुखमण्डलवाले हो गये, जैसे पापीको देखकर यमराज और हाथीको देखकर सिंह हो जाता है ll 46 ॥

उस प्रकार श्रीहरिको [ युद्धके लिये उद्यत ] देखकर वीरगणोंसे घिरे हुए शत्रुनाशक वीरभद्र कुपित होकर शीघ्रतासे कहने लगे- ॥ 47 ll

वीरभद्र बोले- हे हरे! आपने आज शिवजीके शपथकी अवहेलना क्यों की? और आपके मनमें घमण्ड क्यों हो गया है? क्या आपमें शिवजीके शपथका उल्लंघन करनेकी शक्ति है? आप कौन हैं ? तीनों लोकोंमें आपका रक्षक कौन है ? ।। 48-49 ।।

यहाँ किसलिये आये हैं, इसे हम नहीं जान पा रहे हैं। आप दक्षके यज्ञरक्षक क्यों बन गये हैं, इसे बताइये। [इस यज्ञमें] सतीने जो किया, उसे क्या आपने नहीं देखा और दधीचिने जो कहा, उसे क्या आपने नहीं सुना ? ।। 50-51 ll

आप दक्षके इस यज्ञमें अवदान (यज्ञभाग) प्राप्त करनेके लिये आये हुए हैं। हे महाबाहो ! मैं [शीघ्र ही] आपको अवदान देता हूँ। हे हरे! मैं त्रिशूलसे आपका वक्षःस्थल विदीर्ण करूंगा। आपका कौन रक्षक है, वह मेरे समक्ष आये ।। 52-53 ॥

मैं आपको पृथिवीपर धराशायी करूँगा, अग्निसे जला दूँगा और पुनः दग्ध हुए आपको पीस डालूँगा ॥ 54 ॥

हे हरे हे दुराचारी हे महेशमुख हे अधम ! क्या आप शिवजीके पावन माहात्म्यको नहीं जानते ? ॥ 55 ॥फिर भी हे महाबाहो ! आप युद्धकी कामना से आगे स्थित हैं। यदि आप [ इस युद्धभूमिमें] खड़े रह गये तो मैं आपको उस स्थानपर भेज दूँगा, जहाँसे पुनः लौटना सम्भव नहीं है ॥ 56 ॥

ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] उन वीरभद्रकी इस बातको सुनकर बुद्धिमान् सुरेश्वर विष्णु प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहने लगे - ॥ 57 ॥ विष्णु बोले- हे वीरभद्र ! आज आपके सामने मैं जो कह रहा हूँ, उसको सुनिये आप मुझ शंकरके सेवकको रुद्रविमुख मत कहिये ॥ 58 ॥

कर्ममें निष्ठा रखनेवाले अज्ञानी इन दक्षने मूर्खतावश पहले मुझसे यज्ञके लिये बार-बार प्रार्थना की थी ॥ 59 ॥

मैं भक्तके अधीन हूँ और वे भगवान् महेश्वर भी भक्तके अधीन हैं। हे तात! दक्ष मेरे भक्त हैं, इसलिये मैं यज्ञमें आया हूँ ॥ 60 ॥

रुद्रके कोपसे उत्पन्न होनेवाले हे वीर! हे महान् प्रतापके आलय ! हे प्रभो! आप रुद्रतेजस्वरूप हैं, आप मेरी प्रतिज्ञा सुनिये ॥ 61 ॥

मैं [ यज्ञकी रक्षाके लिये) आपसे युद्ध करूंगा और आप भी [ इस यज्ञके विध्वंसके लिये] मुझसे युद्ध कीजिये। जो होनहार होगा, वह होगा, मैं अवश्य ही पराक्रम प्रकट करूँगा ll 62 ll

ब्रह्माजी बोले- विष्णुके इस प्रकार कहने पर महाबाहु वीरभद्रने हँसते हुए कहा- [हे विष्णो!] मैं आपको अपने प्रभु शिवका प्रिय जानकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तदनन्तर गणोंमें श्रेष्ठ वीरभद्रने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए बड़े विनयसे भगवान् विष्णुसे कहा ॥ 63-64 ॥

वीरभद्र बोले- हे महाप्रभो! मैंने आपके | भावकी परीक्षाके लिये ही ऐसा वचन कहा था, अब मैं यथार्थ बात कह रहा हूँ, उसको आप सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ 65 ॥

हे हरे। जैसे शिव हैं, वैसे आप हैं और जैसे आप हैं, वैसे शिव हैं। शिवके आदेशसे वेद ऐसा हो | कहते हैं ।। 66 ।।हे रमानाथ! भगवान् शिवकी आज्ञाके अनुसार हम सब लोग उनके सेवक ही हैं, तथापि मैंने जो बात कही है, वह इस वाद-विवादके अवसरके अनुकूल ही है। आप प्रत्येक बातको आदरपूर्वक ही समझें ॥ 67 ॥

ब्रह्माजी बोले- उन वीरभद्रका यह वचन सुनकर भगवान् विष्णु हँसकर और उनके लिये हितकर यह वचन कहने लगे- ॥ 68 ॥

विष्णु बोले- हे महावीर ! आप नि:शंक होकर मेरे साथ युद्ध कीजिये, आपके अस्त्रोंसे शरीरके भर जानेपर ही मैं अपने आश्रमको जाऊँगा ॥ 69 ॥

ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर वे विष्णु चुप होकर युद्धके लिये तैयार हो गये और महाबली वीरभद्र भी अपने गणोंके साथ युद्धके लिये उद्यत हो गये ॥ 70 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य