ब्रह्माजी बोले- उस अवसरपर अनुकूल समय जानकर प्रसन्नतासे पूर्ण रति दीनवत्सल शंकरसे कहने लगी - ॥ 1 ॥
रति बोली [हे भगवन्!] पार्वतीको ग्रहण करके आपने परम दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया, किंतु मेरे प्राणनाथको आपने व्यर्थ ही भस्म क्यों कर दिया ? ॥ 2 ॥
अपने मनमें विचार करके मेरे पतिको जीवित कर दीजिये और समानरूपसे वियोगके हेतुभूत | सन्तापको दूर कीजिये ll 3 ॥ हे महेश्वर ! इस विवाहोत्सवमें सभी लोग सुखी हैं, केवल मैं ही अपने पतिके बिना दुखी हूँ ॥ 4 ॥ हे देव! मुझे सनाथ कीजिये। हे शंकर! अब आप प्रसन्न होइये। हे दीनबन्धो! हे परप्रभो! अपने वचनको आप सत्य कीजिये ॥ 5 ॥
इस चराचर त्रिलोकीमें आपके बिना कौन मेरा दुःख दूर करनेमें समर्थ है, ऐसा जानकर मुझपर दया कीजिये ॥ 6 ॥ हे नाथ! हे दीनोंपर कृपा करनेवाले! सभीको आनन्द देनेवाले उत्सवपूर्ण अपने इस विवाहमें मुझे भी आनन्दित कीजिये ॥ 7 ॥
मेरे पतिके जीवित होनेपर ही प्रिया पार्वतीके साथ आपका विहार पूर्ण होगा, इसमें सन्देह नहीं ॥ 8 ॥ आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, क्योंकि आप परमेश्वर हैं। हे सर्वेश! बहुत क्या कहूँ, आप मेरे पतिको शीघ्र जीवित कीजिये ॥ 9 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर रतिने अपने गाँठमें बँधी हुई कामकी भस्म उन्हें दे दी और हे नाथ! हे नाथ! ऐसा कहकर उनके सामने विलाप करने लगी ॥ 10 ॥
रतिके रुदनको सुनकर [ वहाँ उपस्थित] सरस्वती आदि सभी स्त्रियाँ रोने लगीं और अत्यन्त दीन वचन कहने लगीं ll 11 ॥
देवियाँ बोलीं- [ हे प्रभो!] आप भक्तवत्सल नामवाले, दीनबन्धु और दयानिधि हैं, आप कामको जीवित कर दीजिये तथा रतिको प्रसन्न कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ 12 ॥
ब्रह्माजी बोले- उनके इस वचनको सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये। उन करुणासागर प्रभुने शीघ्र ही [ उनपर ] कृपादृष्टि की ॥ 13 ॥
शूलधारी शिवजीकी अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही भस्मसे उसी रूप वेष-चिह्नको धारण किये हुए, सुन्दर तथा अद्भुत शरीरवाले कामदेव प्रकट हो गये ॥ 14 ॥
उसी रूप तथा उसी आकारवाले, हास्ययुक्त एवं धनुष-बाणयुक्त [अपने] पतिको देखकर रतिने उन्हें तथा महेश्वरको प्रणाम किया ।। 15 ।।वह कृतार्थ हो गयी और हाथ जोड़कर [अपने] जीवित पतिके साथ प्राणनाथ [कामदेव ] को प्रदान करनेवाले देव शंकरकी स्तुति करने लगी ॥ 16 ॥
पत्नीसहित कामकी स्तुति सुनकर भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये और करुणासे आर्द्र होकर कहने लगे- ॥ 17 ॥
शंकरजी बोले- हे काम ! स्त्रीसहित तुम्हारी स्तुतिसे मैं प्रसन्न हूँ हे स्वयम्भव ! अब तुम अभीष्ट वर माँगो, मैं उसे तुम्हें देता हूँ ॥ 18 ॥ ब्रह्माजी बोले- शिवजीका ऐसा वचन सुनकर कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हो गये और विनम्र होकर हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें बोले- ॥ 19 ॥
कामदेव बोले- हे देवदेव! हे महादेव ! हे करुणासागर! हे प्रभो! हे सर्वेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे आनन्द प्रदान कीजिये ॥ 20 ॥
हे प्रभो! मैंने पूर्व समयमें जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये। स्वजनोंमें परम प्रीति और अपने चरणोंमें भक्ति दीजिये ॥ 21 ॥
ब्रह्माजी बोले- कामदेवकी यह बात सुनकर करुणासागर परमेश्वर प्रसन्न हो 'तथास्तु' - ऐसा कहकर हँसते हुए उनसे पुनः कहने लगे - ॥ 22 ॥ ईश्वर बोले- हे काम ! हे महामते ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम भयका त्याग करो और विष्णुके समीप जाओ तथा बाहर स्थित हो जाओ ॥ 23 ॥
ब्रह्माजी बोले- यह सुनकर वह कामदेव सिर झुकाकर प्रभुको प्रणाम करके परिक्रमाकर उनकी स्तुति करते हुए बाहर जाकर विष्णु एवं अन्य देवताओंको प्रणामकर उनकी उपासना करने लगा ॥ 24 ॥
देवताओंने कामदेवसे सम्भाषणकर कल्याणकारी आशीष प्रदान किया, इसके बाद प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका हृदयमें स्मरण करके वे विष्णु आदि उनसे कहने लगे-॥ 25 ॥
देवता बोले- हे काम ! तुम धन्य हो, जो शिवजीके द्वारा दग्ध हो जानेके बाद भी उनके अनुग्रह-पात्र बने और अखिलेश्वरने सात्त्विक कृपादृष्टिसे तुम्हें जीवित कर दिया ॥ 26 ॥कोई भी किसीको सुख-दुःख देनेवाला नहीं है, पुरुष स्वयं अपने किये हुए कर्मका फल भोगता है। समयके आनेपर रक्षा, विवाह तथा जन्म होता है, उसे कौन रोक सकता है ? ॥ 27 ॥ ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर उनका सत्कार करके सफल मनोरथवाले वे सभी विष्णु आदि देवगण सुखपूर्वक वहीं स्थित हो गये ॥ 28 ॥
कामदेवने भी प्रमुदित होकर शिवजीकी आज्ञासे वहीं निवास किया। उस समय जय शब्द नमः शब्द और साधु शब्द होने लगा ॥ 29 ॥
उसके बाद शिवजीने अपने निवासगृहमें पार्वतीको बायीं ओर बैठाकर उन्हें मिष्टान्नका भोजन कराया और उन्होंने भी परम प्रसन्न होकर उन शिवजीको भोजन कराया ॥ 30 ॥
इस प्रकार लोकाचारमें लगे हुए वे शम्भु वहाँका कृत्य करके मेना तथा हिमालयसे आज्ञा लेकर जनवासमें चले गये ॥ 31 ॥
हे मुने! उस समय महोत्सव होने लगा, वेदध्वनि होने लगी तथा लोग चारों प्रकारके बाजे * बजाने लगे ॥ 32 ॥
शिवजीने अपने स्थानपर आकर मुनियोंको, मुझे तथा विष्णुको प्रणाम किया। देवता आदिने लोकाचारके कारण उनको भी प्रणाम किया ॥ 33 ॥
उस समय जय शब्द और नमः शब्दका उच्चारण होने लगा और सभी प्रकारके विघ्नोंको दूर करनेवाली मंगलदायिनी वेदध्वनि होने लगी ॥ 34 ॥ विष्णु, मैं, इन्द्र, सभी देवगण, ऋषि, सिद्ध, उपदेव एवं नाग अलग-अलग शिवजीकी स्तुति करने लगे - ॥ 35 ॥
देवता बोले- हे शंकर! हे सर्वाधार! आपकी जय हो हे महेश्वर! आपकी जय हो। हे रुद्र ! हे महादेव ! हे विश्वम्भर! हे प्रभो! आपकी जय होहे कालीपते! हे स्वामिन्! हे आनन्दप्रवर्धक ! आपकी जय हो । हे त्र्यम्बक! हे सर्वेश! आपकी जय हो । हे मायापते ! हे विभो ! आपकी जय हो ॥ 36-37 ।।
हे निर्गुण ! हे निष्काम! हे कारणातीत! हे सर्वग! आपकी जय हो। हे सम्पूर्ण लीलाओंके आधार! आपकी जय हो। हे अवतार धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है ॥ 38 ॥
अपने भक्तोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाले हे ईश ! हे करुणासागर! आपकी जय हो। हे आनन्दमय ! हे सुन्दररूपवाले ! आपकी जय हो। हे मायासे सगुण रूप धारण करनेवाले! आपकी जय हो ॥ 39 ॥
हे उग्र ! हे मृड ! हे सर्वात्मन्! हे दीनबन्धो! हे दयानिधे! आपकी जय हो। हे अविकार ! हे मायेश ! हे वाणी तथा मनसे अतीत स्वरूपवाले ! आपकी जय हो ॥ 40 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार गिरिजापति महेश्वर प्रभुकी स्तुतिकर वे विष्णु आदि देवगण परम प्रीतिसे शिवजीकी यथोचित सेवा करने लगे ॥ 41 ॥
हे नारद! तब लीलासे शरीर धारण करनेवाले महेश्वर भगवान् शम्भुने उन सबको श्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया ॥ 42 ॥
हे तात! इसके बाद वे विष्णु आदि सभी लोग | महेश्वरकी आज्ञा प्राप्त करके अत्यन्त हर्षित, प्रसन्नमुख तथा सम्मानित होकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ 43 ॥