सूतजी बोले- हे ऋषियों! इसके बाद मैं रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग पूर्व समयमें जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसका वर्णन करता हूँ, आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ 1 ॥
हे ब्राह्मणो ! पूर्व समयमें सज्जनोंके प्रिय भगवान् विष्णु पृथ्वीपर [ रामके रूपमें] अवतरित हुए। उस समय महामायावी रावणने उनकी पत्नी सीताका हरण कर लिया और उन जनकपुत्रीको अपने घर लंकापुरीमें पहुँचा दिया 2-3 ॥
सीताको खोजते हुए राम किष्किन्धा नामक नगरीमें गये और उन्होंने सुग्रीवसे मित्रताकर बालीका वध किया ॥ 4 ॥
कुछ समयतक वहाँ रहकर सीताको खोजनेमें तत्पर वे लक्ष्मण, सुग्रीव आदिके साथ विचार-विमर्श करते रहे। इसके बाद राजकुमार रामने उन्हें खोजने के लिये हनुमान् आदि प्रमुख वानरोंको चारों दिशाओंमें भेजा ।। 5-6 ॥
उसके बाद वानरश्रेष्ठ हनुमान्जीके मुखसे सीताको लंकामें स्थित जानकर तथा उनकी चूडामणि प्राप्तकर वे रामचन्द्रजी बहुत प्रसन्न हुए ॥ 7 ॥
हे द्विजो ! इसके अनन्तर वे श्रीरामचन्द्रजी हनुमान्, लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदि पुण्यवान् तथा अति बलवान् अठारह पद्म वानरोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचे। दक्षिण सागरमें जो लवणसमुद्र दिखायी देता है, वहाँ आकर वे शिवप्रिय राम लक्ष्मण तथा वानरोंसे सेवित होते हुए उसके तटपर स्थित हुए ॥ 8-10 ॥हाय, जानकी कहाँ चली गयी, वह कब मिलेगी ? यह समुद्र अगाध है और वानरीसेना इसे पार करनेमें सर्वथा असमर्थ है। कैलासको भी उठानेवाला राक्षस रावण महाबली है, लंका भी अगम्य दुर्ग है, उसका पुत्र मेघनाद तो इन्द्रको भी जीतनेवाला है-इस प्रकार लक्ष्मणसहित श्रीराम जब विचार कर रहे थे, तब अंगदादि वानर अनुचरोंने उन्हें समझाते हुए धीरज बँधाया ॥ 11-13 ॥
इसी अवसरपर महाशिवभक्त श्रीरामचन्द्रजीको प्यास लगी और उन्होंने अपने भाई लक्ष्मणसे प्रीतिपूर्वक कहा- ॥ 14 ॥
श्रीरामजी बोले- हे वीरेश्वर भाई लक्ष्मण ! मैं प्यासा हूँ, मुझे जलकी आवश्यकता है। अत: तुम कुछ वानरोंको भेजकर शीघ्र जल मँगाओ ॥ 15 ॥ सूतजी बोले- यह सुनकर वानरगण [जल लेनेके लिये] दसों दिशाओंमें गये और जल लाकर आगे खड़े हो प्रणामकर उन सबने कहा- ॥ 16 ॥
बानर बोले- हे स्वामिन्! हमलोग आपकी आज्ञासे शीतल, स्वादिष्ट, प्राणोंको तृप्त करनेवाला तथा अत्यन्त उत्तम जल लाये हैं, इसे आप ग्रहण कीजिये ॥ 17 ॥
सूतजी बोले – वानरोंकी बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनकी ओर कृपादृष्टिसे देखकर स्वयं वह जल ग्रहण किया ॥ 18 ॥
उन शिवभक्त [राम] ने ज्यों ही जल लेकर पीना प्रारम्भ किया, उसी समय शिवकी इच्छासे उन्हें यह स्मरण हुआ कि मैंने सम्पूर्ण आनन्द देनेवाले अपने स्वामी परमेश्वर सदाशिवका दर्शन नहीं किया है, फिर इस जलको किस प्रकार ग्रहण करूँ ? ।। 19-20 ।।
ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने पार्थिवपूजा सम्पन्न की और तदुपरान्त उन रघुनन्दनने जलका पान किया। उन्होंने आवाहन आदि सोलह उपचारोंको समर्पित करके विधिपूर्वक प्रेमसे शिवजीका पूजन किया। इसके बाद प्रणाम तथा दिव्य स्तोत्रोंसे यत्नपूर्वक शिवको सन्तुष्टकर वे श्रीराम उत्तम भक्तिसे प्रसन्नतापूर्वक शंकरजीसे प्रार्थना करने लगे- ॥ 21-23॥श्रीराम बोले- हे स्वामिन्! हे शम्भो ! हे महादेव ! हे भक्तवत्सल ! शरणमें आये हुए तथा दुखी चित्तवाले मुझ अपने भक्तकी रक्षा कीजिये 24 ॥ हे संसाररूपी समुद्रसे पार उतारनेवाले। इस समुद्रका यह जल अगाध है और रावण नामक राक्षस महापराक्रमी तथा अति बलवान् है ॥ 25 ॥
मेरे पास युद्धका साधन केवल वानरोंकी चंचल सेना है, अतः अपनी प्रियाकी प्राप्तिहेतु मेरा यह कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा ? ।। 26 ।।
हे देव! हे सुव्रत! इस कार्यमें आप मेरी सहायता करें। हे नाथ! आपकी सहायताके बिना मेरा कार्य पूर्ण होना दुर्लभ है। यह रावण भी आपका परम भक्त है और यह सभी लोगोंसे सर्वथा अजेय है, आपके द्वारा प्रदत्त वरसे गर्वित होकर यह महान् वीर तथा तीनों लोकोंका विजेता हो गया है। हे सदाशिव ! मैं भी आपका दास और सर्वथा आपके अधीन हूँ- ऐसा विचारकर आपको मेरा पक्षपात करना चाहिये ।। 27 - 29 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार उन्होंने शिवकी प्रार्थना करके और बारंबार उन्हें नमस्कारकर हे शंकर! आपकी जय हो, आपकी जय हो - इस प्रकार ऊँचे स्वरमें इन उद्घोषोंसे जयकार की। इस प्रकार स्तुतिकर मन्त्रार्थकी भावना करते हुए उन्होंने शिवजीकी पुनः पूजा करके उन स्वामीके आगे किया ।। 30-31 ॥ नृत्य जब वे प्रेमार्द्रहृदय होकर गाल बजाने लगे, तब भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो उठे ॥ 32 ॥
वे ज्योतिर्मय महेश्वर वामांगभूता पार्वतीजी तथा पार्षदगणोंके साथ शास्त्रोक्त निर्मल रूप धारणकर तत्काल वहाँ प्रकट हो गये। इसके बाद रामकी भक्तिसे प्रसन्नचित्त होकर उन महेश्वरने कहा- हे राम ! तुम्हारा कल्याण हो, वर माँगो ॥ 33-34 ॥
उस समय उनके रूपको देखकर सभी लोग पवित्र हो गये और स्वयं शिवधर्मपरायण श्रीरामने शिवकी पूजा की। उन्होंने अनेक प्रकारकी स्तुतिकर प्रसन्नतापूर्वक शिवको प्रणाम करके रावणके साथ युद्धमें अपनी विजयके लिये प्रार्थना की ॥ 35-36 ॥इसके बाद श्रीरामकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर उन महेश्वरने पुनः कहा- हे महाराज! आपकी विजय हो। तब शिवजीके द्वारा विजयका वरदान पाकर और उनकी आज्ञा प्राप्तकर वे मस्तक झुकाकर तथा हाथ जोड़कर पुनः प्रार्थना करने लगे- ।। 37-38 ।।
श्रीराम बोले- हे स्वामिन्! हे शंकर! यदि आप प्रसन्न हैं, तो संसारको पवित्र करनेके लिये तथा दूसरोंका उपकार करनेके लिये आप यहीं निवास करें ।। 39 ॥ सूतजी बोले- उनके ऐसा कहनेपर शिवजी वहीं पर लिंगरूपमें स्थित हो गये और रामेश्वर नामसे पृथ्वीपर प्रसिद्ध हुए ll 40 ॥
उसके बाद उन्हींके प्रभावसे श्रीरामने शीघ्र ही समुद्रको अनायास पारकर रावण आदि राक्षसोंको मारकर अपनी उन प्रिया सीताको प्राप्त किया ॥ 41 ॥ पृथ्वीतलपर रामेश्वरकी महिमा अद्भुत एवं असीम है। यह लिंग भोग- मोक्ष देनेवाला तथा सदा भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाला है ॥ 42 ॥
जो दिव्य गंगाजलके द्वारा उत्तम भक्तिभावसे श्रीरामेश्वर नामक शिवलिंगको स्नान करायेगा, वह जीवन्मुक्त हो जायगा और इस लोकमें देवताओंके लिये भी दुर्लभ सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करके निश्चित रूपसे कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त कर लेगा ।। 43-44 ॥
[हे ऋषियो!] इस प्रकार मैंने शिवजीके रामेश्वर नामक दिव्य ज्योतिर्लिंगका वर्णन आपलोगोंसे कर दिया, यह माहात्म्य सुननेवालोंके पापको नष्ट कर देनेवाला है ॥ 45 ॥