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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 15 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 15

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राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना

सनत्कुमार बोले - एक बार वृन्दाका पति वह वीर तथा उदार बुद्धिवाला समुद्रपुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा एवं समस्त असुरोंके साथ बैठा था ॥ 1 ॥ उसी समय अत्यन्त प्रसन्न, महातेजस्वी, मूर्तस्वरूप तेजपुंजके समान भासित होते हुए शुक्राचार्य दसों दिशाओंको प्रकाशित करते हुए वहाँ आये। उन गुरुको आते हुए देखकर प्रसन्न मनवाले उन सभी असुरों तथा जलन्धरने भी शीघ्र आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ll 2-3 ll

तब तेजोनिधि भार्गव उन्हें आशीर्वाद देकर रम्य आसनपर बैठ गये और वे [असुरगण] भी पूर्ववत् बैठ गये। उसके बाद स्थिर तथा उत्तम शासनवाला वह वीर सिन्धुपुत्र जलन्धर प्रेमसे अपनी सभाको देखकर प्रसन्न हुआ। वहाँ बैठे हुए सिरकटे राहुको देखकर उस दैत्यराज समुद्रपुत्रने शीघ्रतापूर्वक शुक्राचार्यसे यह पूछा- ॥ 4-6 ॥जलन्धर बोला- हे प्रभो। हे गुरो राहुके सिरको किसने काटा है? हे गुरो उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको मुझे ठीक ठीक बताइये ॥ 7 ॥

सनत्कुमार बोले- समुद्रपुत्र जलन्धरका यह वचन सुनकर भृगुपुत्र शुक्राचार्य शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके यथार्थरूपमें कहने लगे-॥ 8 ॥

शुक्र बोले- हे जलन्धर! हे महावीर ! हे असुरोंके सहायक ! तुम सुनो, मैं सारा वृत्तान्त तुमसे यथार्थ रूपसे कह रहा हूँ। पूर्व समयमें विरोचनका पुत्र तथा हिरण्यकशिपुका प्रपौत्र वीर बलवान् और धर्मात्मा बलि [नामक दैत्य ] हुआ था । ll 9-10 ॥

उससे पराजित हुए इन्द्रसहित सभी देवता, जो स्वार्थसाधनमें अत्यन्त निपुण थे, विष्णुकी शरण में गये और उन्होंने अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा ॥ 11 ॥

हे तात! तब छलकर्ममें निपुण उन देवताओंने उन विष्णुकी आज्ञासे अपने कार्यकी सिद्धिहेतु असुरोंके साथ सन्धि कर ली। इसके बाद विष्णुके सहायक उन सभी देवताओंने अमृतके लिये असुरोंके साथ आदरपूर्वक समुद्रमन्थन किया। तत्पश्चात् दैत्यशत्रु देवताओंने [समुद्रमन्थनसे उत्पन्न हुए] रत्न स्वयं हरण कर लिये और यत्नपूर्वक छलसे अमृत ग्रहण कर लिया तथा उसका पान भी कर लिया। तदनन्तर अमृतपानसे बलशाली हुए इन्द्रसहित उन देवताओंने विष्णुकी सहायतासे असुरोंको पराजित कर दिया। ll12 - 15 ll

इन्द्रके सर्वदा पक्षपाती उन विष्णुने देवताओंकी सभामें अमृत पीते हुए राहुका शिरश्छेदन कर दिया ॥ 16 ॥

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार शुक्राचार्यने अमृतके लिये देवताओंद्वारा कराये गये समुद्रमन्थन, राहुके शिरश्छेदन, रत्नोंके अपहरण, दैत्योंके पराभव और देवोंद्वारा किये गये अमृतपान - इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।। 17-18 ॥

तब अपने पिता [समुद्र] का मन्थन सुनकर क्रोधके कारण रक्त नेत्रोंवाला वह महावीर तथा महाप्रतापी समुद्रपुत्र जलन्धर कुपित हो उठा। इसके बाद उसने शीघ्र ही घस्मर नामक [अपने] उत्तम दूतको बुलाकर उससे सारा वृत्तान्त कहा, जिसेआत्मवान् गुरु शुक्राचार्यने बताया था। तत्पश्चात् बहुत प्रकारसे सम्मानित करके तथा अभय देकर अपने उस कुशल दूतको उसने प्रेमपूर्वक इन्द्रके समीप भेजा ।। 19-21 ।।

उस समुद्रपुत्र जलन्धरका वह बुद्धिमान् दूत घस्मर बड़ी शीघ्रतासे सभी देवगणोंसे युक्त स्वर्गलोकको गया ।॥ 22 ॥ वहाँ जाकर वह दूत शीघ्र ही सुधर्मा सभामें पहुँचकर बड़े अहंकारके साथ देवराज इन्द्रसे यह वचन कहने लगा- ॥ 23 ॥

घस्मर बोला - समुद्रपुत्र जलन्धर सभी दैत्योंका अधिपति, महाप्रतापी एवं महावीर है तथा शुक्राचार्य उसके सहायक हैं। मैं उसी वीरका घस्मर नामक दूत हूँ और वस्तुतः घस्मर (भक्षक) नहीं हूँ, उसी वीरके द्वारा भेजे जानेपर मैं आपके पास आया हूँ। सर्वत्र अप्रतिहत आज्ञावाले महान् बुद्धिमान् तथा सम्पूर्ण देवताओंको जीतनेवाले उस जलन्धरने जो कहा है, उसे आप सुनिये ll 24- 26 ॥

जलन्धर बोला- हे देवाधम! तुमने किस कारणसे पर्वतके द्वारा मेरे पिता समुद्रका मन्थन किया? और मेरे पिताके सारे रत्नोंका अपहरण किया? तुमने यह उचित नहीं किया, उन रत्नोंको अभी शीघ्र लौटा दो और विचार करके देवताओंसहित मेरी शरणमें आ जाओ। अन्यथा हे सुराधम! तुम्हारे समक्ष बहुत बड़ा भय उपस्थित होगा तथा तुम्हारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ 27-29 ॥

सनत्कुमार बोले- दूतकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र विस्मित हो गये और वे भय तथा रोषसे युक्त हो उसे (पूर्ववृत्तान्तको) याद करते हुए कहने लगे - ॥ 30 ॥

[हे] दूत!] मेरे भयसे भागे हुए पर्वतोंको तथा अन्य मेरे दानवशत्रुओंको पूर्वकालमें उस समुद्रने शरण दी थी, इसीलिये मैंने उसके सारे रत्नोंका अपहरण कर लिया है। मेरा द्रोही सुखसे नहीं रह सकता है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ।। 31-32 ॥पहले भी इसी सागरके शंख नामक मूर्ख पुत्रने मुझसे विरोध किया था, इसलिये साधुओंने उसे अपने साथ नहीं रखा। वह साधुओंका हिंसक और बड़ा पापी था, वह समुद्रमें छिपा रहता था, अतः मेरे छोटे भाई विष्णुने उसका संहार कर दिया ।। 33-34 ।।

अतः हे दूत ! तुम शीघ्र जाओ और उस समुद्रपुत्रसे सागरमन्थनका समस्त कारण ठीक ठीक कह दो ॥ 35 ॥

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार इन्द्रके द्वारा विसर्जित किया गया वह महाबुद्धिमान् दूत शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वीर जलन्धर था। उस बुद्धिमान् दूतने इन्द्रद्वारा कही गयी सभी बातोंको दैत्यराज जलन्धरसे कह दिया ।। 36-37 ।।

इन्द्रके वचनको सुनकर दैत्यके ओष्ठ क्रोधसे फड़कने लगे और वह शीघ्र ही सभी देवताओंको जीतनेकी इच्छासे उद्योग करने लगा। उस दैत्येन्द्रके उद्योग करते ही सभी दिशाओंसे तथा पातालसे करोड़ों-करोड़ दैत्य आकर उपस्थित हो गये ।। 38-39 ।।

तत्पश्चात् वह महावीर तथा प्रतापशाली समुद्रपुत्र जलन्धर शुम्भ निशुम्भ आदि करोड़ों सेनापतियोंके साथ [ देवताओंपर विजय करनेके लिये] निकल पड़ा ॥ 40 ॥

इस प्रकार अपनी सम्पूर्ण सेनाओंको साथ लेकर वह जलन्धर शीघ्र ही स्वर्गमें पहुँच गया। उसने शंख बजाया तथा सभी वीर चारों ओरसे गरजने लगे ॥ 41 ॥

इन्द्रलोक पहुँचकर उस दैत्यने सम्पूर्ण सेनाके साथ सिंहनाद करते हुए नन्दनवनमें डेरा डाल दिया ।। 42 ।।

नगरको चारों ओरसे घेरकर स्थित उसकी बड़ी सेनाको देखकर देवता कवच धारणकर युद्धके लिये अमरावतीपुरीसे निकल इसके बाद देवों और दैत्योंकी सेनाओंके बीच मूसल, परिघ, बाण, गदा, परशु एवं शक्तियोंसे युद्ध होने लगा 44 ॥वे एक दूसरेकी ओर दौड़ने लगे और एक | दूसरेपर प्रहार करने लगे, थोड़ी ही देरमें दोनों सेनाएँ रुधिरसे लथपथ हो गयीं। हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओंके गिरने तथा गिरानेसे सारी रणभूमि सन्ध्याकालीन बादलोंके समान प्रतीत होने लगी ।। 45-46 ॥

शुक्राचार्य अमृतसंजीवनी विद्याके द्वारा अभिमन्त्रित जलबिन्दुओंसे बुद्धमें मरे हुए दैत्योंको जिलाने लगे ॥ 47 ॥

अंगिरा (बृहस्पति) भी द्रोणपर्वतसे बारंबार दिव्य औषधियोंको लाकर उनके द्वारा युद्ध देवताओंको जिलाने लगे ॥ 48 ॥

तब जलन्धरने देवताओंको पुनर्जीवित होते. देखकर क्रोधमें भरकर शुक्राचार्यसे यह वचन कहा- ।। 49 ll

जलन्धर बोला- [हे गुरो!] मेरे द्वारा युद्धमें मारे गये देवता कैसे जीवित होते जा रहे हैं? मैंने तो | सुन रखा है कि संजीवनीविद्या आपके अतिरिक्त और किसीके पास है ही नहीं ll 50 ll

सनत्कुमार बोले- सिन्धुपुत्रकी यह बात | सुनकर गुरु शुक्राचार्यने प्रसन्नचित्त होकर जलन्धरसे कहा- ॥ 51॥

शुक्र बोले- हे तात! ये अंगिरा (बृहस्पति) द्रोणपर्वतसे औषधियोंको लाकर देवताओंको जीवित कर रहे हैं, मेरी बात सत्य मानो हे तात! यदि तुम विजय चाहते हो, तो मेरी हितकारी बात सुनो, तुम शीघ्र ही उस द्रोणपर्वतको अपनी भुजाओंसे उखाड़कर समुद्रमें डाल दो ॥ 52-53 ॥

सनत्कुमार बोले- गुरु शुक्राचार्यके द्वारा इस प्रकार कहा गया वह दैत्येन्द्र शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वह पर्वतराज [ द्रोण] था ॥ 54 ॥

उसने वेगपूर्वक अपनी भुजाओंसे उस द्रोण | पर्वतको लेकर शीघ्र ही समुद्रमें डाल दिया। शिवजीके तेजके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यको बात नहीं थी ॥ 55 ॥

इसके बाद वह महावीर जलन्धर विशाल सेना लेकर पुनः युद्धस्थलमें लौट आया और अनेक प्रकार के शस्त्रोंसे देवगणोंका संहार करने लगा ।॥ 56 ॥
तबदेवताओंको मरा हुआ देखकर देवपूजित देवगुरु द्रोणपर्वतपर गये, परंतु उन्होंने उस पर्वतराजको वहाँ नहीं देखा दैत्यके द्वारा पर्वतको अपहृत जानकर देवगुरु भयसे विह्वल हो उठे और आकरके व्याकुलचित्त होकर देवताओंसे वे कहने लगे- ॥ 57-58 ।।

गुरु बोले- हे देवताओ। तुमलोग भाग जाओ, महापर्वत द्रोण अब नहीं है, निश्चय ही समुद्रपुत्र जलन्धरने उसे ध्वस्त कर दिया है ॥ 59 ॥

सभी देवताओंका मर्दन करनेवाला यह महादैत्य जलन्धर जीता नहीं जा सकता है; क्योंकि यह रुद्रके अंशसे उत्पन्न है। हे देवताओ! यह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है तथा जैसा इसका प्रभाव है, उसे मैं जानता हूँ। शिवजीका अपमान करनेवाले इन्द्रकी सम्पूर्ण चेष्टाको आपलोग स्मरण कीजिये ।। 60-61 ॥

सनत्कुमार बोले- देवताओंके आचार्य बृहस्पतिके द्वारा कहे गये उस वचनको सुनकर भयसे व्याकुल हुए उन देवगणोंने विजयकी आशा त्याग दी और उस दैत्यराजके द्वारा चारों ओरसे मारे जाते हुए इन्द्रसहित सभी देवता धैर्य त्यागकर दसों दिशाओंमें भाग गये ।। 62-63 ॥

तब देवगणोंको पलायित देखकर सागरपुत्र दैत्य जलन्धरने शंख, भेरी तथा जयध्वनिके साथ अमरावतीपुरीमें प्रवेश किया। तब उस दैत्यके नगरीमें प्रविष्ट होनेपर इन्द्र आदि देवता उस दैत्यसे पीड़ित होकर सुमेरु पर्वतकी गुफामें छिप गये ।। 64-65 ।।

हे मुने! तब वह असुर इन्द्रादिकोंके सभी अधिकारोंपर श्रेष्ठ शुम्भादि दैत्योंको भलीभाँति पृथक् पृथक् नियुक्तकर स्वयं [देवताओंको खोजते हुए। मेरु पर्वतकी गुफा में जा पहुंचा ॥ 96 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य