सनत्कुमार बोले - एक बार वृन्दाका पति वह वीर तथा उदार बुद्धिवाला समुद्रपुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा एवं समस्त असुरोंके साथ बैठा था ॥ 1 ॥ उसी समय अत्यन्त प्रसन्न, महातेजस्वी, मूर्तस्वरूप तेजपुंजके समान भासित होते हुए शुक्राचार्य दसों दिशाओंको प्रकाशित करते हुए वहाँ आये। उन गुरुको आते हुए देखकर प्रसन्न मनवाले उन सभी असुरों तथा जलन्धरने भी शीघ्र आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ll 2-3 ll
तब तेजोनिधि भार्गव उन्हें आशीर्वाद देकर रम्य आसनपर बैठ गये और वे [असुरगण] भी पूर्ववत् बैठ गये। उसके बाद स्थिर तथा उत्तम शासनवाला वह वीर सिन्धुपुत्र जलन्धर प्रेमसे अपनी सभाको देखकर प्रसन्न हुआ। वहाँ बैठे हुए सिरकटे राहुको देखकर उस दैत्यराज समुद्रपुत्रने शीघ्रतापूर्वक शुक्राचार्यसे यह पूछा- ॥ 4-6 ॥जलन्धर बोला- हे प्रभो। हे गुरो राहुके सिरको किसने काटा है? हे गुरो उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको मुझे ठीक ठीक बताइये ॥ 7 ॥
सनत्कुमार बोले- समुद्रपुत्र जलन्धरका यह वचन सुनकर भृगुपुत्र शुक्राचार्य शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके यथार्थरूपमें कहने लगे-॥ 8 ॥
शुक्र बोले- हे जलन्धर! हे महावीर ! हे असुरोंके सहायक ! तुम सुनो, मैं सारा वृत्तान्त तुमसे यथार्थ रूपसे कह रहा हूँ। पूर्व समयमें विरोचनका पुत्र तथा हिरण्यकशिपुका प्रपौत्र वीर बलवान् और धर्मात्मा बलि [नामक दैत्य ] हुआ था । ll 9-10 ॥
उससे पराजित हुए इन्द्रसहित सभी देवता, जो स्वार्थसाधनमें अत्यन्त निपुण थे, विष्णुकी शरण में गये और उन्होंने अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा ॥ 11 ॥
हे तात! तब छलकर्ममें निपुण उन देवताओंने उन विष्णुकी आज्ञासे अपने कार्यकी सिद्धिहेतु असुरोंके साथ सन्धि कर ली। इसके बाद विष्णुके सहायक उन सभी देवताओंने अमृतके लिये असुरोंके साथ आदरपूर्वक समुद्रमन्थन किया। तत्पश्चात् दैत्यशत्रु देवताओंने [समुद्रमन्थनसे उत्पन्न हुए] रत्न स्वयं हरण कर लिये और यत्नपूर्वक छलसे अमृत ग्रहण कर लिया तथा उसका पान भी कर लिया। तदनन्तर अमृतपानसे बलशाली हुए इन्द्रसहित उन देवताओंने विष्णुकी सहायतासे असुरोंको पराजित कर दिया। ll12 - 15 ll
इन्द्रके सर्वदा पक्षपाती उन विष्णुने देवताओंकी सभामें अमृत पीते हुए राहुका शिरश्छेदन कर दिया ॥ 16 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार शुक्राचार्यने अमृतके लिये देवताओंद्वारा कराये गये समुद्रमन्थन, राहुके शिरश्छेदन, रत्नोंके अपहरण, दैत्योंके पराभव और देवोंद्वारा किये गये अमृतपान - इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।। 17-18 ॥
तब अपने पिता [समुद्र] का मन्थन सुनकर क्रोधके कारण रक्त नेत्रोंवाला वह महावीर तथा महाप्रतापी समुद्रपुत्र जलन्धर कुपित हो उठा। इसके बाद उसने शीघ्र ही घस्मर नामक [अपने] उत्तम दूतको बुलाकर उससे सारा वृत्तान्त कहा, जिसेआत्मवान् गुरु शुक्राचार्यने बताया था। तत्पश्चात् बहुत प्रकारसे सम्मानित करके तथा अभय देकर अपने उस कुशल दूतको उसने प्रेमपूर्वक इन्द्रके समीप भेजा ।। 19-21 ।।
उस समुद्रपुत्र जलन्धरका वह बुद्धिमान् दूत घस्मर बड़ी शीघ्रतासे सभी देवगणोंसे युक्त स्वर्गलोकको गया ।॥ 22 ॥ वहाँ जाकर वह दूत शीघ्र ही सुधर्मा सभामें पहुँचकर बड़े अहंकारके साथ देवराज इन्द्रसे यह वचन कहने लगा- ॥ 23 ॥
घस्मर बोला - समुद्रपुत्र जलन्धर सभी दैत्योंका अधिपति, महाप्रतापी एवं महावीर है तथा शुक्राचार्य उसके सहायक हैं। मैं उसी वीरका घस्मर नामक दूत हूँ और वस्तुतः घस्मर (भक्षक) नहीं हूँ, उसी वीरके द्वारा भेजे जानेपर मैं आपके पास आया हूँ। सर्वत्र अप्रतिहत आज्ञावाले महान् बुद्धिमान् तथा सम्पूर्ण देवताओंको जीतनेवाले उस जलन्धरने जो कहा है, उसे आप सुनिये ll 24- 26 ॥
जलन्धर बोला- हे देवाधम! तुमने किस कारणसे पर्वतके द्वारा मेरे पिता समुद्रका मन्थन किया? और मेरे पिताके सारे रत्नोंका अपहरण किया? तुमने यह उचित नहीं किया, उन रत्नोंको अभी शीघ्र लौटा दो और विचार करके देवताओंसहित मेरी शरणमें आ जाओ। अन्यथा हे सुराधम! तुम्हारे समक्ष बहुत बड़ा भय उपस्थित होगा तथा तुम्हारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ 27-29 ॥
सनत्कुमार बोले- दूतकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र विस्मित हो गये और वे भय तथा रोषसे युक्त हो उसे (पूर्ववृत्तान्तको) याद करते हुए कहने लगे - ॥ 30 ॥
[हे] दूत!] मेरे भयसे भागे हुए पर्वतोंको तथा अन्य मेरे दानवशत्रुओंको पूर्वकालमें उस समुद्रने शरण दी थी, इसीलिये मैंने उसके सारे रत्नोंका अपहरण कर लिया है। मेरा द्रोही सुखसे नहीं रह सकता है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ।। 31-32 ॥पहले भी इसी सागरके शंख नामक मूर्ख पुत्रने मुझसे विरोध किया था, इसलिये साधुओंने उसे अपने साथ नहीं रखा। वह साधुओंका हिंसक और बड़ा पापी था, वह समुद्रमें छिपा रहता था, अतः मेरे छोटे भाई विष्णुने उसका संहार कर दिया ।। 33-34 ।।
अतः हे दूत ! तुम शीघ्र जाओ और उस समुद्रपुत्रसे सागरमन्थनका समस्त कारण ठीक ठीक कह दो ॥ 35 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार इन्द्रके द्वारा विसर्जित किया गया वह महाबुद्धिमान् दूत शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वीर जलन्धर था। उस बुद्धिमान् दूतने इन्द्रद्वारा कही गयी सभी बातोंको दैत्यराज जलन्धरसे कह दिया ।। 36-37 ।।
इन्द्रके वचनको सुनकर दैत्यके ओष्ठ क्रोधसे फड़कने लगे और वह शीघ्र ही सभी देवताओंको जीतनेकी इच्छासे उद्योग करने लगा। उस दैत्येन्द्रके उद्योग करते ही सभी दिशाओंसे तथा पातालसे करोड़ों-करोड़ दैत्य आकर उपस्थित हो गये ।। 38-39 ।।
तत्पश्चात् वह महावीर तथा प्रतापशाली समुद्रपुत्र जलन्धर शुम्भ निशुम्भ आदि करोड़ों सेनापतियोंके साथ [ देवताओंपर विजय करनेके लिये] निकल पड़ा ॥ 40 ॥
इस प्रकार अपनी सम्पूर्ण सेनाओंको साथ लेकर वह जलन्धर शीघ्र ही स्वर्गमें पहुँच गया। उसने शंख बजाया तथा सभी वीर चारों ओरसे गरजने लगे ॥ 41 ॥
इन्द्रलोक पहुँचकर उस दैत्यने सम्पूर्ण सेनाके साथ सिंहनाद करते हुए नन्दनवनमें डेरा डाल दिया ।। 42 ।।
नगरको चारों ओरसे घेरकर स्थित उसकी बड़ी सेनाको देखकर देवता कवच धारणकर युद्धके लिये अमरावतीपुरीसे निकल इसके बाद देवों और दैत्योंकी सेनाओंके बीच मूसल, परिघ, बाण, गदा, परशु एवं शक्तियोंसे युद्ध होने लगा 44 ॥वे एक दूसरेकी ओर दौड़ने लगे और एक | दूसरेपर प्रहार करने लगे, थोड़ी ही देरमें दोनों सेनाएँ रुधिरसे लथपथ हो गयीं। हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओंके गिरने तथा गिरानेसे सारी रणभूमि सन्ध्याकालीन बादलोंके समान प्रतीत होने लगी ।। 45-46 ॥
शुक्राचार्य अमृतसंजीवनी विद्याके द्वारा अभिमन्त्रित जलबिन्दुओंसे बुद्धमें मरे हुए दैत्योंको जिलाने लगे ॥ 47 ॥
अंगिरा (बृहस्पति) भी द्रोणपर्वतसे बारंबार दिव्य औषधियोंको लाकर उनके द्वारा युद्ध देवताओंको जिलाने लगे ॥ 48 ॥
तब जलन्धरने देवताओंको पुनर्जीवित होते. देखकर क्रोधमें भरकर शुक्राचार्यसे यह वचन कहा- ।। 49 ll
जलन्धर बोला- [हे गुरो!] मेरे द्वारा युद्धमें मारे गये देवता कैसे जीवित होते जा रहे हैं? मैंने तो | सुन रखा है कि संजीवनीविद्या आपके अतिरिक्त और किसीके पास है ही नहीं ll 50 ll
सनत्कुमार बोले- सिन्धुपुत्रकी यह बात | सुनकर गुरु शुक्राचार्यने प्रसन्नचित्त होकर जलन्धरसे कहा- ॥ 51॥
शुक्र बोले- हे तात! ये अंगिरा (बृहस्पति) द्रोणपर्वतसे औषधियोंको लाकर देवताओंको जीवित कर रहे हैं, मेरी बात सत्य मानो हे तात! यदि तुम विजय चाहते हो, तो मेरी हितकारी बात सुनो, तुम शीघ्र ही उस द्रोणपर्वतको अपनी भुजाओंसे उखाड़कर समुद्रमें डाल दो ॥ 52-53 ॥
सनत्कुमार बोले- गुरु शुक्राचार्यके द्वारा इस प्रकार कहा गया वह दैत्येन्द्र शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वह पर्वतराज [ द्रोण] था ॥ 54 ॥
उसने वेगपूर्वक अपनी भुजाओंसे उस द्रोण | पर्वतको लेकर शीघ्र ही समुद्रमें डाल दिया। शिवजीके तेजके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यको बात नहीं थी ॥ 55 ॥
इसके बाद वह महावीर जलन्धर विशाल सेना लेकर पुनः युद्धस्थलमें लौट आया और अनेक प्रकार के शस्त्रोंसे देवगणोंका संहार करने लगा ।॥ 56 ॥
तबदेवताओंको मरा हुआ देखकर देवपूजित देवगुरु द्रोणपर्वतपर गये, परंतु उन्होंने उस पर्वतराजको वहाँ नहीं देखा दैत्यके द्वारा पर्वतको अपहृत जानकर देवगुरु भयसे विह्वल हो उठे और आकरके व्याकुलचित्त होकर देवताओंसे वे कहने लगे- ॥ 57-58 ।।
गुरु बोले- हे देवताओ। तुमलोग भाग जाओ, महापर्वत द्रोण अब नहीं है, निश्चय ही समुद्रपुत्र जलन्धरने उसे ध्वस्त कर दिया है ॥ 59 ॥
सभी देवताओंका मर्दन करनेवाला यह महादैत्य जलन्धर जीता नहीं जा सकता है; क्योंकि यह रुद्रके अंशसे उत्पन्न है। हे देवताओ! यह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है तथा जैसा इसका प्रभाव है, उसे मैं जानता हूँ। शिवजीका अपमान करनेवाले इन्द्रकी सम्पूर्ण चेष्टाको आपलोग स्मरण कीजिये ।। 60-61 ॥
सनत्कुमार बोले- देवताओंके आचार्य बृहस्पतिके द्वारा कहे गये उस वचनको सुनकर भयसे व्याकुल हुए उन देवगणोंने विजयकी आशा त्याग दी और उस दैत्यराजके द्वारा चारों ओरसे मारे जाते हुए इन्द्रसहित सभी देवता धैर्य त्यागकर दसों दिशाओंमें भाग गये ।। 62-63 ॥
तब देवगणोंको पलायित देखकर सागरपुत्र दैत्य जलन्धरने शंख, भेरी तथा जयध्वनिके साथ अमरावतीपुरीमें प्रवेश किया। तब उस दैत्यके नगरीमें प्रविष्ट होनेपर इन्द्र आदि देवता उस दैत्यसे पीड़ित होकर सुमेरु पर्वतकी गुफामें छिप गये ।। 64-65 ।।
हे मुने! तब वह असुर इन्द्रादिकोंके सभी अधिकारोंपर श्रेष्ठ शुम्भादि दैत्योंको भलीभाँति पृथक् पृथक् नियुक्तकर स्वयं [देवताओंको खोजते हुए। मेरु पर्वतकी गुफा में जा पहुंचा ॥ 96 ॥