View All Puran & Books

शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 1, अध्याय 25 - Sanhita 1, Adhyaya 25

Previous Page 32 of 466 Next

रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन

सूतजी बोले- हे महाप्राज्ञ! हे महामते ! शिवरूप हे शौनक ऋषे! अब मैं संक्षेपसे रुद्राक्षका माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनिये ॥ 1 ॥

रुद्राक्ष शिवको बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्षके दर्शनसे, स्पर्शसे तथा उसपर जप करनेसे वह समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला माना गया है ॥ 2 ॥

हे मुने! पूर्वकालमें परमात्मा शिवने समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये देवी पार्वतीके सामने रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन किया था ॥ 3 ॥

शिवजी बोले- हे महेश्वरि! हे शिवे! मैं आपके प्रेमवश भक्तोंके हितकी कामनासे रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन करता हूँ, सुनिये ॥ 4 ॥हे महेशानि पूर्वकालको बात है, मैं मनको संयममें रखकर हजारों दिव्य वर्षोंतक घोर तपस्यामें लगा रहा ॥ 5 ॥

हे परमेश्वरि मैं सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाला स्वतन्त्र परमेश्वर है। [एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा।] अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले ॥ 6 ॥

नेत्र खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटोंसे कुछ जलकी बूँदें गिरी। आँसूकी उन बूँदोंसे वहाँ रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गये ॥ 7 ॥

भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये वे अश्रुबिन्दु | स्थावरभावको प्राप्त हो गये। वे स्वाक्ष मैंने विष्णुभक्तोंको तथा चारों वर्णोंके लोगोंको बाँट दिये॥ 8 ॥

भूतलपर अपने प्रिय रुद्राक्षोंको मैंने गौड़ देशमें उत्पन्न किया। मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्यगिरि, काशी तथा अन्य देशोंमें भी उनके अंकुर उगाये वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहाँका भेदन करनेवाले तथा श्रुतियोंके भी प्रेरक हैं । 9-10 ॥

मेरी आज्ञासे वे रुद्राक्ष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जातिके भेदसे इस भूतलपर प्रकट हुए। रुद्राक्षोंकी ही जातिके शुभाक्ष भी हैं ॥ 11 ॥

उन ब्राह्मणादि जातिवाले रुद्राक्षोंके वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये। मनुष्योंको चाहिये कि वे क्रमशः वर्णके अनुसार अपनी जातिका ही रुद्राक्ष धारण करें ॥ 12 ॥

भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले चारों वर्णोंके लोगों और विशेषतः शिवभक्तोंको शिव पार्वतीकी प्रसन्नताके लिये रुद्राक्षके फलोंको अवश्य धारण करना चाहिये ॥ 13 ॥

आँवले के बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है। जो बेरके फलके बराबर हो, उसे मध्यम श्रेणीका कहा गया है। जो चनेके बराबर हो, उसकी गणना निम्न कोटिमें की गयी है। हे पार्वति। अब इसकी | उत्तमताको परखने की यह दूसरी प्रक्रिया भक्तोंकी हितकामनासे बतायी जाती है। अतः आप भलीभाँति प्रेमपूर्वक इस विषयको सुनिये ।। 14-15 ॥हे महेश्वरि ! जो रुद्राक्ष बेरके फलके बराबर होता है, वह उतना छोटा होनेपर भी लोकमें | फल देनेवाला तथा सुख-सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला होता है ॥ 16 ॥

जो रुद्राक्ष आँवलेके फलके बराबर होता है, • समस्त अरिष्टोंका विनाश करनेवाला होता है तथा जो गुंजाफलके समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलोंकी सिद्धि करनेवाला होता है ॥ 17 ॥ रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे-वैसे अधिक वह फल देनेवाला होता है। एक छोटे रुद्राक्षको विद्वानोंने एक बड़े रुद्राक्षसे दस गुना अधिक फल देनेवाला बताया है ॥ 18 ॥ पापोंका नाश करनेके लिये रुद्राक्षधारण आवश्यक बताया गया है। वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथोंका साधक है, अतः उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये ॥ 19 ॥

हे परमेश्वरि ! लोकमें मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देनेवाला देखा जाता है, वैसी फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखायी देती ॥ 20 ॥ हे देवि समान आकार-प्रकारवाले, चिकने, सुदृढ़, स्थूल, कण्टकयुक्त (उभरे हुए छोटे-छोटे दानोंवाले) और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थोंके दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ॥ 21 ॥

जिसे कीड़ोंने दूषित कर दिया हो, जो खण्डित हो, फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन छः प्रकारके रुद्राक्षोंको त्याग देना चाहिये ॥ 22 ॥

जिस रुद्राक्षमें अपने आप ही डोरा पिरोनेके योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य के प्रयत्नसे छेद किया गया हो, वह मध्यम श्रेणीका होता है ॥ 23 ॥

रुद्राक्षधारण बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला बताया गया है। ग्यारह सौ रुद्राक्षोंको धारण करनेवाला मनुष्य रुद्रस्वरूप ही हो जाता है ॥ 24 ॥

इस जगत् में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फलको पाता उसका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता ॥ 25 ॥भक्तिमान् पुरुष भलीभाँति साढ़े पाँच सौ रुद्राक्षके दानोंका सुन्दर मुकुट बनाये। तीन सौ साठ दानोंको लम्बे सूत्रमें पिरोकर एक हार बना ले। वैसे-वैसे तीन हार बनाकर भक्तिपरायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत तैयार करे ।। 26-27 ॥

हे महेश्वरि ! शिवभक्त मनुष्योंको शिखामें तीन, दाहिने और बाँयें दोनों कानोंमें क्रमशः छः-छः, कण्ठमैं एक सौ एक, भुजाओंमें ग्यारह ग्यारह, दोनों कुहनियों और दोनों मणिबन्धों में पुनः ग्यारह ग्यारह, यज्ञोपवीतमें तीन तथा कटिप्रदेशमें गुप्त रूपसे पाँच रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। हे परमेश्वरि ! [उपर्युक्त | कही गयी] इस संख्याके अनुसार जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है, उसका स्वरूप भगवान् शंकरके समान सभी लोगोंके लिये प्रणम्य और स्तुत्य हो जाता है ।। 28-31 ll

इस प्रकार रुद्राक्षसे युक्त होकर मनुष्य जब आसन लगाकर ध्यानपूर्वक शिवका नाम जपने लगता हैं, तो उसको देखकर पाप स्वतः छोड़कर भाग जाते हैं ॥ 32 ॥

इस तरह मैंने एक हजार एक सौ रुद्राक्षोंको धारण करनेकी विधि कह दी है। इतने रुद्राक्षोंके न प्राप्त होनेपर मैं दूसरे प्रकारकी कल्याणकारी विधि कह रहा हूँ ॥ 33 ॥

शिखामें एक, सिरपर तीस, गलेमें पचास और दोनों भुजाओंमें सोलह-सोलह रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ 34 ॥

दोनों मणिबन्धोंपर बारह, दोनों स्कन्धोंमें पाँच सौ और एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी माला बनाकर यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करना चाहिये ॥ 35 ll

इस प्रकार दृढ़ निश्चय करनेवाला जो मनुष्य एक हजार रुद्राक्षोंको धारण करता है, वह रुद्र स्वरूप है; समस्त देवगण जैसे शिवको नमस्कार करते हैं, वैसे ही उसको भी नमन करते हैं ॥ 36 ॥

शिखामें एक, मस्तकपर चालीस, कण्ठप्रदेशमें बत्तीस, वक्षःस्थलपर एक सौ आठ, प्रत्येक कानमें एक-एक, भुजबन्धोंमें छः-छः या सोलह-सोलह, दोनों हाथोंमें उनका दुगुना अथवा हे मुनीश्वर !प्रीतिपूर्वक जितनी इच्छा हो, उतने रुद्राक्षोंको धारण करना चाहिये। ऐसा जो करता है, वह शिवभक्त सभी लोगोंके लिये शिवके समान पूजनीय, वन्दनीय और बार-बार दर्शनके योग्य हो जाता है ॥ 37-39 ।। सिरपर ईशानमन्त्रसे, कानमें तत्पुरुषमन्त्रसे तथा गले और हृदयमें अघोरमन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ 40 ॥

विद्वान् पुरुष दोनों हाथोंमें अघोर बीजमन्त्रये रुद्राक्ष धारण करे और उदरपर वामदेवमन्त्रसे पन्द्रह रुद्राक्षोंद्वारा गूँथी हुई माला धारण करे ॥ 41 ॥

सद्योजात आदि पाँच ब्रह्ममन्त्रों तथा अंगमन्त्रोंके द्वारा रुद्राक्षकी तीन, पाँच या सात मालाएँ धारण करे अथवा मूलमन्त्र [ नमः शिवाय ] से ही समस्त रुद्राक्षोंको धारण करे ॥ 42 ॥

रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान पानमें मंदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा, विवराह आदिको त्याग दे ॥ 43 ॥

हे गिरिराजनन्दिनी उमे। श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणोंको ही धारण करना चाहिये। गहरे लाल रंगका रुद्राक्ष क्षत्रियोंके लिये हितकर बताया गया है। वैश्योंके लिये प्रतिदिन बार-बार पीले रुद्राक्षको धारण | करना आवश्यक है और शूद्रोंको काले रंगका रुद्राक्ष धारण करना चाहिये यह वेदोक्त मार्ग है ॥ 44 ॥

ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी सबको नियमपूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है। इसे धारण किये बिना न रहे, यह परम रहस्य है। इसे धारण करनेका सौभाग्य बड़े पुण्यसे प्राप्त होता है। इसको त्यागनेवाला व्यक्ति नरकको जाता है ॥ 45 ll

हे उमे! पहले आँवलेके बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करे। जो रोगयुक्त हों, जिनमें दाने न हों, जिन्हें कीड़ोंने खा लिया हो, जिनमें पिरोनेयोग्य छेद न हो, ऐसे रुद्राक्ष मंगलाकांक्षी पुरुषोंको नहीं धारण | करना चाहिये। रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंगविग्रह है। | वह अन्ततः चनेके बराबर लघुतर होता है। सूक्ष्म रुद्राक्षको ही सदा प्रशस्त माना गया है ॥ 46 ॥

सभी आश्रमों, समस्त वर्णों, स्त्रियों और शूद्रोंको भी भगवान् शिवकी आज्ञा के अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । यतियोंके लिये प्रणवके उच्चारणपूर्वक रुद्राक्ष धारण करनेका विधान है ll 40 llमनुष्य दिनमें [रुद्राक्ष धारण करनेसे] रात्रिमें किये गये पापोंसे और रात्रिमें [रुद्राक्ष धारण करनेसे ] दिनमें किये गये पापोंसे; प्रातः, मध्याहन और सायंकाल [ रुद्राक्ष धारण करनेसे] किये गये समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। 48 ।।

संसारमें जितने भी त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाले हैं, जटाधारी हैं और रुद्राक्ष धारण करनेवाले हैं, वे यमलोकको नहीं जाते हैं ।। 49 ।।

जिनके ललाटमें त्रिपुण्ड्र लगा हो और सभी | अंग रुद्राक्षसे विभूषित हों तथा जो पंचाक्षरमन्त्रका जप कर रहे हों, वे आप सदृश पुरुषोंके पूज्य हैं; वे हैं। वस्तुतः साधु है ॥ 50 ॥

[यम अपने गणोंको आदेश करते हैं कि] जिसके शरीरपर रुद्राक्ष नहीं है, मस्तकपर त्रिपुण्ड्र नहीं है और मुखमें 'ॐ नमः शिवाय' यह पंचाक्षर मन्त्र नहीं है, उसको यमलोक लाया जाय। [भस्म एवं रुद्राक्षके ] उस प्रभावको जानकर या न जानकर जो भस्म और रुद्राक्षको धारण करनेवाले हैं, वे सर्वदा हमारे लिये पूज्य हैं; उन्हें यमलोक नहीं लाना चाहिये ।। 51-52 ।। कालने भी इस प्रकारसे अपने गणोंको आदेश दिया, तब 'वैसा ही होगा' ऐसा कहकर आश्चर्यचकित सभी गण चुप हो गये ॥ 53 ॥

इसलिये हे महादेवि ! रुद्राक्ष भी पापोंका नाशक है। हे पार्वति ! उसको धारण करनेवाला मनुष्य पापी होनेपर भी मेरे लिये प्रिय है और शुद्ध है ॥ 54 ॥ ॥ हाथमें, भुजाओंमें और सिरपर जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त प्राणियोंसे अवध्य है और पृथ्वीपर रुद्ररूप होकर विचरण करता है ॥ 55 ॥ सभी देवों और असुरोंके लिये वह सदैव वन्दनीय एवं पूजनीय है। वह दर्शन करनेवाले प्राणीके पापोंका शिवके समान ही नाश करनेवाला है ॥ 56 ॥

ध्यान और ज्ञानसे रहित होनेपर भी जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है ॥57॥

मणि अदिकी अपेक्षा साधके द्वारा मन्त्रजप करनेसे करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है और उसको धारण | करनेसे तो दस करोड़ गुना पुण्यलाभ होता है ॥ 58 ॥हे देवि ! यह रुद्राक्ष, प्राणीके शरीरपर जबतक रहता है, तबतक स्वल्पमृत्यु उसे बाधा नहीं पहुँचाती है ॥ 59 ॥

त्रिपुण्ड्रको धारणकर तथा रुद्राक्षसे सुशोभित अंगवाला होकर मृत्युंजयका जप कर रहे [पुण्यवान् मनुष्य] को देखकर ही रुद्रदर्शनका फल प्राप्त हो जाता है ॥ 60 ॥

हे प्रिये! पंचदेवप्रिय [ अर्थात् स्मार्त और वैष्णव ] तथा सर्वदेवप्रिय सभी लोग रुद्राक्षकी मालासे समस्त मन्त्रोंका जप कर सकते हैं ॥ 61 ॥

विष्णु आदि देवताओंके भक्तोंको भी निस्सन्देह | इसे धारण करना चाहिये। रुद्रभक्तोंके लिये तो विशेष रूपसे रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है ॥ 62 ॥

हे पार्वति ! रुद्राक्ष अनेक प्रकारके बताये गये हैं। मैं उनके भेदोंका वर्णन करता हूँ। वे भेद भोग और मोक्षरूप फल देनेवाले हैं। तुम उत्तम भक्तिभावसे उनका परिचय सुनो ॥ 63 ॥

एक मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् शिवका स्वरूप है। वह भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता है। उसके दर्शनमात्रसे ही ब्रह्महत्याका पाप नष्ट हो जाता है ll 64 ॥

जहाँ रुद्राक्षकी पूजा होती है, वहाँसे लक्ष्मी दूर नहीं जातीं, उस स्थानके सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं। तथा वहाँ रहनेवाले लोगोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥ 65 ॥

दो मुखवाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंको देनेवाला है। वह विशेष रूपसे गोहत्याका पाप नष्ट करता है॥ 66 ॥

तीन मुखवाला रुद्राक्ष सदा साक्षात् साधनका फल देनेवाला है, उसके प्रभावसे सारी विद्यार प्रतिष्ठित हो जाती हैं ॥ 67 ॥

चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्माका रूप है। | और ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति देनेवाला है। उसके दर्शन और स्पर्शसे शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और भोध इन चारों पुरुषार्थोकी प्राप्ति होती है ll 6 llपाँच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्निरुद्ररूप है वह सब कुछ करनेमें समर्थ, सबको मुक्ति देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करनेवाला है। वह पंचमुख रुद्राक्ष अगम्या स्त्रीके साथ गमन और पापान्न भक्षणसे उत्पन्न समस्त पापोंको दूर कर देता है । ll 69-70 ॥

छः मुखवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है। यदि दाहिनी बाँहमें उसे धारण किया जाय, तो धारण करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 71 ॥

हे महेश्वरि ! सात मुखवाला रुद्राक्ष अनंग नामसे प्रसिद्ध है। हे देवेशि उसको धारण करनेसे दरिद्र भी ऐश्वर्यशाली हो जाता है ॥ 72 ॥

आठ मुखवाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवरूप है। उसको धारण करनेसे मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्युके पश्चात् शूलधारी शंकर हो जाता है॥ 73 ॥

नौ मुखवाले रुद्राक्षको भैरव तथा कपिलमुनिका प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली महेश्वरी दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं ॥ 74 ll

जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर अपने बायें हाथमें नवमुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ।। 75 ।।

हे महेश्वरि ! दस मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् भगवान् विष्णुका रूप है। हे देवेशि उसको धारण करनेसे मनुष्यकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ 76 ll

हे परमेश्वरि ग्यारह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह रुद्ररूप है; उसको धारण करनेसे मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है ॥ 77 ॥

बारह मुखवाले रुद्राक्षको केशप्रदेशमें धारण करे। उसको धारण करनेसे मानो मस्तकपर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं ॥78॥तेरह मुखवाला रुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप है। उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त करता है तथा सौभाग्य और मंगललाभ करता है ॥ 79 ॥

चौदह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह परमशिवरूप है। उसे भक्तिपूर्वक मस्तकपर धारण करे, इससे समस्त पापोंका नाश हो जाता है ॥ 80 ॥

हे गिरिराजकुमारी ! इस प्रकार मुखोंके भेदसे रुद्राक्षके [चौदह ] भेद बताये गये। अब तुम क्रमशः उन रुद्राक्षोंके धारण करनेके मन्त्रोंको प्रसन्नतापूर्वक सुनो

1-ॐ ह्रीं नमः । 2-ॐ नमः । 3 क्लीं नमः । 4. ॐ ह्रीं नमः 5 ॐ ह्रीं नमः 6-ॐ ह्रीं हुं नमः । 7-ॐ हुं नमः 8-ॐ हुं नमः । 9-ॐ ह्रीं हुं नमः । 10-ॐ ह्रीं नमः 11-ॐ ह्रीं हुं नमः 12-ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः । 13-ॐ ह्रीं नमः 14. ॐ नमः [ इन चौदह मन्त्रोंद्वारा क्रमशः एकसे लेकर चौदह मुखवाले रुद्राक्षको धारण करनेका विधान है।] साधकको चाहिये कि वह निद्रा और आलस्यका त्याग करके श्रद्धाभक्ति से सम्पन्न होकर सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये उक्त मन्त्रोंद्वारा उन-उन रुद्राक्षोंको धारण करे ।। 81-82 ॥

इस पृथ्वीपर जो मनुष्य मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित किये बिना ही रुद्राक्ष धारण करता है, वह क्रमशः | चौदह इन्द्रोंके कालपर्यन्त घोर नरकको जाता है॥ 83 ll

रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले पुरुषको देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं, वे सब के सब दूर भाग | जाते हैं। जो कृत्रिम अभिचार आदि कर्म प्रयुक्त होते हैं, वे सब रुद्राक्षधारीको देखकर सशंक हो दूर चले जाते हैं ।। 84-85 ।।

हे पार्वति । रुद्राक्षमालाधारी पुरुषको देखकर मैं शिव, भगवान् विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 86 ॥हे महेश्वरि ! इस प्रकार रुद्राक्षकी महिमाको जानकर धर्मकी वृद्धिके लिये भक्तिपूर्वक पूर्वोक्त मन्त्रोंद्वारा विधिवत् उसे धारण करना चाहिये ॥ 87 ॥

[हे मुनीश्वरो!] इस प्रकार परमात्मा शिवने भगवती पार्वतीके सामने भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करनेवाले भस्म तथा रुद्राक्षके माहात्म्यका वर्णन किया था ॥ 88 ॥

भस्म और रुद्राक्षको धारण करनेवाले मनुष्य भगवान् शिवको अत्यन्त प्रिय हैं। उसको धारण करनेके प्रभावसे ही भुक्ति-मुक्ति दोनों प्राप्त हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 89 ।।

भस्म और रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य शिवभक्त कहा जाता है। भस्म एवं रुद्राक्षसे युक्त होकर जो मनुष्य [शिवप्रतिमाके सामने स्थित होकर ] 'ॐ नमः शिवाय'- इस पंचाक्षर मन्त्रका जप करता है, वह पूर्ण भक्त कहलाता है ॥ 90 ॥

बिना भस्मका त्रिपुण्ड्र धारण किये और बिना रुद्राक्ष माला लिये जो महादेवकी पूजा करता है, उससे पूजित होनेपर भी महादेव अभीष्ट फल प्रदान नहीं करते हैं ॥ 91 ॥

हे मुनीश्वर! सभी कामनाओंको परिपूर्ण करनेवाले भस्म और रुद्राक्षके माहात्म्यको मैंने सुनाया। जो इस रुद्राक्ष और भस्मके माहात्म्यको भक्तिपूर्वक सुनता है, | उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। वह पुत्र-पौत्र आदिके साथ इस लोकमें सभी प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें मोक्षको प्राप्त होता है और भगवान् शिवका अतिप्रिय हो जाता है ॥ 92 - 94 ॥ हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने शिवकी आज्ञाके अनुसार उत्तम मुक्ति देनेवाली विद्येश्वरसंहिता आपके समक्ष कही ।। 95 ।।

Previous Page 32 of 466 Next

शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय
  3. [अध्याय 3] साध्य-साधन आदिका विचार
  4. [अध्याय 4] श्रवण, कीर्तन और मनन इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
  5. [अध्याय 5] भगवान् शिव लिंग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मा और विष्णुके भयंकर युद्धको देखकर देवताओंका कैलास शिखरपर गमन
  7. [अध्याय 7] भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णु के युद्धमें अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना
  9. [अध्याय 9] महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको अपने निष्कल और सकल स्वरूपका परिचय देते हुए लिंगपूजनका महत्त्व बताना
  10. [अध्याय 10] सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवलिंगकी स्थापना, उसके लक्षण और पूजनकी विधिका वर्णन तथा शिवपदकी प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मोका विवेचन
  12. [अध्याय 12] मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी
  13. [अध्याय 13] सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव- जप, गायत्री जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 14] अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन
  15. [अध्याय 15] देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार
  16. [अध्याय 16] मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, बार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन
  17. [अध्याय 17] लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (अकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता
  18. [अध्याय 18] बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण
  19. [अध्याय 19] पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य
  20. [अध्याय 20] पार्थिव शिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
  21. [अध्याय 21] कामनाभेदसे पार्थिवलिंगके पूजनका विधान
  22. [अध्याय 22] शिव- नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य
  23. [अध्याय 23] भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन
  24. [अध्याय 24] भस्म-माहात्म्यका निरूपण
  25. [अध्याय 25] रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन