ऋषिगण बोले- हे महामुने! हे प्रभो! आप हमारे लिये क्रमशः षड्लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य तथा शिवभक्तके पूजनकी विधि बताइये ॥ 1 ॥ सूतजीने कहा- महर्षियो! आपलोग तपस्याके धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है। किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं। तथापि भगवान् शिवकी | कृपासे ही मैं इस विषयका वर्णन करूँगा। वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगोंकी रक्षाका महान् भार बारम्बार स्वयं ही ग्रहण करें ॥ 2-3 ॥
'प्र' नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसाररूपी महासागरका। 'प्रणव' इसे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है। इसलिये विद्वान् इस ओंकारको 'प्रणव' की संज्ञा देते हैं। [ ॐकार अपने जप करनेवालेसाधकोंसे कहता है ] 'प्र-प्रपंच, न नहीं है, व: तुमलोगोंके लिये।' अतः इस भावको लेकर भी ज्ञानी पुरुष'ओम्' को 'प्रणव' नामसे जानते हैं। इसका दूसरा भाव यह है—'प्र-प्रकर्षेण, न-नयेत्, वः- युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः। अर्थात् यह तुम सब उपासकोंको बलपूर्वक मोक्षतक पहुँचा देगा।' इस अभिप्रायसे भी | इसे ऋषि-मुनि 'प्रणव' कहते हैं॥ 4-5 ॥
अपना जप करनेवाले योगियोंके तथा अपने मन्त्रकी पूजा करनेवाले उपासकके समस्त कर्मोंका नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव है उन मायारहित महेश्वरको ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्टरूपसे नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये 'प्रणव' कहलाते हैं। प्रणव साधकको नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है। इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे 'प्रणव' कहते हैं। अथवा प्रकृष्टरूपसे नव-दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव कहा गया है ।। 6-71/2 ।।
प्रणवके दो भेद बताये गये हैं-स्थूल और सूक्ष्म एक अक्षररूप जो 'ओम्' है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और 'नमः शिवाय' इस पाँच अक्षरवाले मन्त्रको स्थूल प्रणव समझना चाहिये। जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूपसे व्यक्त है, वह स्थूल है। जीवन्मुक्त पुरुषके लिये सूक्ष्म प्रणवके जपका विधान है। वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है। (यद्यपि जीवन्मुक्तके लिये किसी साधनको आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरोंकी दृष्टिमें जबतक उसका शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा प्रणव जपकी सहज साधना स्वतः होती रहती है।) वह अपनी देहका विलय होनेतक सूक्ष्म प्रणव मन्त्रका जप और उसके अर्थभूत परमात्म | तत्त्वका अनुसंधान करता रहता है। जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिवको प्राप्त कर लेता है-यह सुनिश्चित है ॥ 8-109/2 ॥ जो केवल मन्त्रका जप करता है, उसे निश्चय ही योगकी प्राप्ति होती है। जिसने छत्तीस करोड़ मन्त्रका जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है। सूक्ष्म प्रणवके भी हस्व और दीर्घके भेदसे दो रूपजानने चाहिये। अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला-इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे 'दीर्घ प्रणव' कहते हैं। वह योगियोंके ही हृदयमें स्थित होता है। मकारपर्यन्त जो ओम है, वह अ उ म्-इन तीन तत्त्वोंसे युक्त है। इसीको 'ह्रस्व प्रणव' कहते हैं। 'अ' शिव है, 'उ' शक्ति है और मकार इन दोनोंकी एकता है; वह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणवका जप करना चाहिये। जो अपने समस्त पापोंका क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस हस्व प्रणवका जप अत्यन्त आवश्यक है | ll 11 - 15 ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय- ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्योंकी कामनाके विषय हैं। | इनकी आशा मनमें लेकर जो कर्मोंके अनुष्ठानमें संलग्न होते हैं, वे दस प्रकारके पुरुष प्रवृत्त अथवा प्रवृत्तिमार्गी | कहलाते हैं तथा जो निष्कामभावसे शास्त्रविहित कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त अथवा निवृत्तिमार्गी कहे गये हैं। प्रवृत्त पुरुषोंको ह्रस्व प्रणवका ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषोंको दीर्घ प्रणवका। व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रोंके आदिमें इच्छानुसार शब्द और कलासे युक्त प्रणवका उच्चारण करना चाहिये। वेदके आदिमें और दोनों संध्याओंकी उपासनाके समय भी ओंकारका उच्चारण करना चाहिये ।। 16-171/3 ।।
प्रणवका नौ करोड़ जप करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है। पुनः नौ करोड़का जप करनेसे वह पृथ्वीतत्त्वपर विजय पा लेता है। तत्पश्चात् पुनः नौ करोड़का जप करके वह जल तत्त्वको जीत लेता है। पुनः नौ करोड़ जपसे वह अग्नितत्त्वपर विजय पाता है। तदनन्तर फिर है नौ करोड़का जप करके वह वायु तत्त्वपर विजयी होता है और फिर नौ करोड़ के जपसे आकाशको अपने अधिकारमें कर लेता है। इसी प्रकार नौ-नौ करोड़का जप करके वह क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्दपर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़का जप करके अहंकारको भी जीत लेता है । ll18 - 21 ॥
हे द्विजो मनुष्य एक हजार मन्त्रोंके जप करनेसे नित्य शुद्ध होता है, इसके अनन्तर अपनी | सिद्धिके लिये जप किया जाता है ॥ 22 ॥इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणवका जप करके उत्कृष्ट बोधको प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग प्राप्त कर लेता है। शुद्ध योगसे युक्त होनेपर वह जीवन्मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। सदा प्रणवका जप और प्रणवरूपी शिवका ध्यान करते करते समाधिमें स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है; इसमें संशय नहीं है। पहले अपने शरीरमें प्रणवके ऋषि, छन्द और देवता आदिका न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये। अकारादि मातृकावर्णोंसे युक्त प्रणवका अपने अंगोंमें न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है। मन्त्रोंके दशविध * संस्कार, मातृकान्यास | तथा षडध्वशोधन' आदिके साथ सम्पूर्ण न्यासका फल उसे प्राप्त हो जाता है। प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्तिसे मिश्रित भाववाले पुरुषोंके लिये स्थूल प्रणवका जप | ही अभीष्टका साधक होता है । ll23 - 261/2 ॥क्रिया, तप और आपके योगसे शिवयोगी तीन प्रकारके होते हैं- [वे क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं।] जो धन आदि वैभवोंसे पूजा सामग्रीका संचय करके हाथ आदि अंगोंसे नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेवकी पूजामें लगा रहता है, वह क्रियायोगी' कहलाता है। पूजामें संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता हुआ बाह्य इन्द्रियोंको जीतकर वशमें किये रहता है और मनको भी वशमें करके परद्रोह आदिसे दूर रहता है, वह 'तपोयोगी' कहलाता है। इन सभी सद्गुणोंसे युक्त होकर जो सदा शुद्धभावसे रहता तथा समस्त काम आदि दोषोंसे रहित हो शान्तचित्तसे निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष 'जपयोगी' मानते हैं। जो मनुष्य सोलह प्रकारके उपचारोंसे शिवयोगी महात्माओंकी पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्तिको प्राप्त कर लेता है । ll 27-31 ॥
हे द्विजो ! अब मैं जपयोगका वर्णन करता हूँ, आप सब लोग ध्यान देकर सुनें। तपस्या करनेवालेके लिये जपका उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप ) कर लेता है। हे ब्राह्मणो! पहले 'नमः' पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्तिमें 'शिव' शब्द हो, तो पंचतत्त्वात्मक 'नमः शिवाय' मन्त्र होता है। इसे शिव पंचाक्षर कहते हैं। यह स्थूल प्रणवरूप है। इस पंचाक्षरके जपसे ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है। पंचाक्षरमन्त्रके आदिमें ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये। हे द्विजो! गुरुके मुखसे पंचाक्षरमन्त्रका उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीनेके पूर्वपक्ष (शुक्ल) में प्रतिपदासे आरम्भ करके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीतक निरन्तर जप करता रहे। माघ और भादोंके महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। यह समय सब समयोंसे उत्तमोत्तम माना गया है । ll32-353॥साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियोंको वशमें रखे अपने स्वामी एवं माता-पिताकी नित्य सेवा करे। इस नियमसे रहकर जप करनेवाला पुरुष एक हजार जपसे ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है। भगवा निरन्तर चिन्तन करते हुए पंचाक्षर मन्त्रका पाँच लाख जप करे। [ जपकालमें इस प्रकार ध्यान करे] कल्याणदाता भगवान् शिव कमलके आसनपर विराजमान हैं, उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमाकी कलासे सुशोभित है, उनकी बाय जोधपर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं, वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं, महादेवजी अपने चार हाथोंमें मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभयकी मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिवका बार-बार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डलमें पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक पंचाक्षरी विद्याका जप करे उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे। जपकी समाप्तिके दिन कृष्णपक्षको चतुर्दशीको प्रातः काल नित्यकर्म सम्पन्न करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थानमें [ शौच संतोषादि] नियमोंसे युक्त होकर शुद्ध हृदयसे पंचाक्षर मन्त्रका बारह हजार जप करे ।। 36-42 ॥
तत्पश्चात् सपत्नीक पाँच ब्राह्मणोंका, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे। इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यका भी वरण करे और उसे साम्बसदाशिवका स्वरूप समझे। ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा | सद्योजात- इन पाँचोंके प्रतीकस्वरूप श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणोंका वरण करनेके पश्चात् पूजन सामग्रीको | एकत्र करके भगवान् शिवका पूजन आरम्भ करे। विधिपूर्वक शिवकी पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ | करे। अपने गृह्यसूत्रके अनुसार मुखान्त कर्म करनेके [अर्थात् परिसमूहन उपलेपन, उल्लेखन, मृद् उद्धरण (अभ्युक्षण- इन पंच भू-संस्कारोंके पश्चात् वेदी पर स्वाभिमुख अग्निको स्थापित करके कुशकण्डिका करनेके अनन्तर प्रज्वलित अग्निमें आज्यभागान्त | आहुति देकर] पश्चात् होमका कार्य आरम्भ करें।कपिला गायके घीसे ग्यारह एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान् पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणोंसे एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये ॥ 43-47 ॥
होमकर्म समाप्त होनेपर गुरुको दक्षिणाके रूपमें एक गाय और बैल देने चाहिये। ईशान आदिके प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणोंका वरण किया गया हो, उनको ईशान आदिका ही स्वरूप समझे तथा आचार्यको साम्बसदाशिवका स्वरूप माने। इसी भावनाके साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदकसे अपने मस्तकको सींचे। ऐसा करनेसे वह साधक छत्तीस करोड़ तीर्थोंमें स्नान करनेका फल तत्काल प्राप्त कर लेता है उन ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक दशांग अन्न देना चाहिये। गुरुपत्नीको पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे। ईशानादि क्रमसे उन सभी ब्राह्मणोंका उत्तम अन्नसे पूजन करके अपने वैभव- विस्तारके अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पूआ आदि अर्पित करे। तदनन्तर दिक्पालादिको बलि देकर ब्राह्मणोंको भरपूर भोजन कराये। इसके बाद देवेश्वर शिवसे प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे। इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है। फिर पाँच लाख जप करनेसे उसके समस्त पापोंका नाश हो जाता है। तदनन्तर पुनः पाँच लाख जप करनेपर मनुष्य अतलसे | लेकर सत्यलोकतकके लोकोंका ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है ।। 48-54 ॥
यदि अनुष्ठान पूर्ण होनेके पहले बीचमें ही साधककी मृत्यु हो जाय तो वह परलोकमें उत्तम भोग भोगनेके पश्चात् पुनः पृथ्वीपर जन्म लेकर पंचाक्षर मन्त्रके जपका अनुष्ठान करता है। [समस्त लोकोंका ऐश्वर्य पानेके पश्चात् मन्त्रको सिद्ध करनेवाला] वह पुरुष यदि पुनः पाँच लाख जप करे तो उसे ब्रह्माजीका सामीप्य प्राप्त होता है। पुनः पाँच लाख | जप करनेसे उसे सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है। सौ लाख जप करनेसे वह साक्षात् ब्रह्माके समान हो जाता है। इस तरह कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) कासायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्माका प्रलय होनेतक उस लोकमें यथेष्ट भोग भोगता है। फिर दूसरे कल्पका आरम्भ होनेपर वह ब्रह्माजीका पुत्र होता है। उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेजसे प्रकाशित होकर वह क्रमशः मुक्त हो जाता है ।। 55-58 ॥
पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतोंद्वारा पातालये लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजीके चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं। सत्यलोकसे ऊपर क्षमालोकतक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णुके लोक हैं। उस क्षमालोक वाले श्रेष्ठ वैकुण्ठमें महाभोगी कार्यविष्णु कार्यलक्ष्मीसहित सबकी रक्षा करते हुए विराजमान रहते हैं। क्षमालोकसे ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अट्ठाईस भुवन स्थित हैं। शुचिलोकके अन्तर्गत कैलासमें प्राणियोंका संहार करनेवाले रुद्रदेव विराजमान हैं। शुचिलोकसे ऊपर अहिंसालोकपर्यन्त उप्पन भुवनोंकी स्थिति है। अहिंसालोकका आश्रय लेकर जो ज्ञान कैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं। अहिंसालोकके अन्तमें कालचक्रकी स्थिति है। तदनन्तर कालातीत स्थित है; जहाँ कालचक्रेश्वर नामक शिव माहिष धर्मका आश्रय लेकर सबको कालसे संयुक्त किये रहते हैं ।। 59-649/2 ।।
असत्य, अशुचि, हिंसा, निर्दयताये असत्य आदि चार पाद कामरूप धारण करनेवाले शिवके अंश हैं नास्तिकतायुक्त लक्ष्मी, दुःसंग, वेदबा शब्द, क्रोधका संग, कृष्ण वर्ण-ये महामहिषके रूपवाले हैं यहाँतक महेश्वर के विराट स्वरूपका वर्णन किया गया। वहींतक लोकोंका तिरोधान अथवा लय होता है। उससे नीचे कर्मोंका भोग है और उससे ऊपर ज्ञानका भोग, उसके नीचे कर्ममाया है और उसके ऊपर ज्ञानमाया ॥ 65- 68 ॥
[ अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमायाका तात्पर्य बता रहा हूँ-] 'मा' का अर्थ है लक्ष्मी; उससे कर्मभोग यात प्राप्त होता है, इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है। इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मी भोग यात अर्थात् प्राप्त होता है, इसलियेउसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है। उपर्युक्त सीमासे नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग उससे T नीचे ही तिरोधान अथवा लय है, ऊपर तिरोधान नहीं है। वहाँसे नीचे ही कर्ममय पाशोंद्वारा बन्धन होता है। ऊपर बन्धनका सदा अभाव है। उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मोंका अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियोंमें चक्कर काटते हैं। उससे ऊपरके लोकोंमें निष्काम कर्मका ही भोग बताया गया है । ll 69-792 ll
बिन्दुजा तत्पर रहनेवाले उपासक बहाँसे नीचेके लोकोंमें ही घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्कामभावसे शिवलिंगकी पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं। उसके नीचे शिवके अतिरिक्त अन्य देवताओंकी पूजा करनेवाले घूमते रहते हैं। जो एकमात्र शिवकी ही उपासनामें तत्पर हैं, वे उससे ऊपरके लोकोंमें जाते हैं वहाँसे नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि ll 72-74 ll
नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त लोग। प्राकृत द्रव्योंसे पूजा करनेवाले उसके नीचे रहते हैं और पौरुष द्रव्योंसे पूजा करने वाले उससे ऊपर जाते हैं। 1 उसके नीचे शक्तिलिंग है और उसके ऊपर शिवलिंग। उसके नीचे सगुण लिंग है और उसके ऊपर निर्गुण लिंग। उसके नीचे कल्पित लिंग है और उसके ऊपर कल्पित नहीं है। उसके नीचे आधिभौतिक लिंग और उसके ऊपर आध्यात्मिक लिंग है। उसके नीचे एक सौ बारह शक्ति लोक हैं। उसके नीचे बिन्दुरूप और उसके ऊपर नादरूप है। उसके नीचे कर्मलोक है और उसके ऊपर ज्ञानलोक ।। 75- 79 ।।
इसी प्रकार उसके ऊपर मद और अहंकारका नाश करनेवाली नम्रता है, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है। उसका निवारण किये बिना वहाँ किसीका प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार तिरोधानका निवारण करनेसे वहाँ ज्ञानशब्दका अर्थ ही प्रकाशित होता है। आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचेके लोकोंमें ही चक्कर काटते हैं जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही उससे ऊपरको जाते हैं।इस प्रकार वहाँतक महालोकरूपी आत्मलिंगमें विभागको जानना चाहिये और प्रकृति आदि (प्रकृति) महत्, अहंकार, पंच तन्मात्राएँ) आठ बन्धोंको भी जाने। इस प्रकार सब लौकिक तथा वैदिक स्वरूपको जानना चाहिये ॥ 80 - 83 ॥
जो सत्य-अहिंसा आदि धर्मोंसे युक्त होकर भगवान् शिव पूजनमें तत्पर रहते हैं, वे अधर्मरूप भैंसेपर आरूढ कालचक्रको पार कर जाते हैं। कालचक्रेश्वरकी सीमातक जो विराट् महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभके आकारमें धर्मकी स्थिति है। वह ब्रह्मचर्यका मूर्तिमान् रूप हैं। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया ये चार पाद हैं। वह शिवलोकके आगे स्थित है। क्षमा उसके सींग हैं, राम कान हैं, वे वेदध्वनिरूपी शब्दमे विभूषित हैं। आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, निःश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है। क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदिमें सर्वदा स्थित हैं- ऐसा जानना चाहिये। उस क्रियारूप वृषभाकार धर्मपर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं । ll 84-87 ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरकी जो अपनी-अपनी आयु है, उसीको दिन कहते हैं। जहाँ धर्मरूपी वृषभकी स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है, न रात्रि और वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं है। फिर कारणस्वरूप ब्रह्माके भी कारण सत्यलोकपर्यन्त चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गन्ध आदिसे परे हैं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है ।। 88-891/2 ॥
इसके ऊपर कारणरूप विष्णुके चौदह लोक स्थित हैं। उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्रके अट्ठाईस लोकोंकी स्थिति मानी गयी है। फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिवके छप्पन लोक विद्यमान हैं। तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहाँ पाँच आवरणोंसे युक्त ज्ञानमय कैलास है; वहाँपर पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्तिसे संयुक्त अदिलिंग प्रतिष्ठित है। उसे परमात्मा शिवका शिवालय | कहा गया है। वहीं पराशक्तिसे युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पाँचों कृत्योंमें प्रवीण हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है । ll90-95 ॥वे सदा ध्यानरूपी धर्ममें ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं। वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसनपर आसीन हो सुशोभित होते हैं। कर्म एवं ध्यान आदिका अनुष्ठान करनेसे क्रमशः साधनपथमें आगे बढ़नेपर उनका दर्शन साध्य होता है। नित्य नैमित्तिक आदि कमद्वारा देवताओंका | यजन करनेसे भगवान् शिवके समाराधन कर्ममें मन लगता है। क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे। जिन्होंने शिवतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिनपर शिवकी कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं; इसमें संशय नहीं है ।। 96-98 ॥
आत्मस्वरूपसे जो स्थिति है, वही मुक्ति है। एकमात्र अपने आत्मामें रमण या आनन्दका अनुभव करना ही मुक्तिका स्वरूप है। जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरूपी धर्मो में भलीभाँति स्थित है, वह शिवका साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वस्वरूप मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है। जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे अशुद्धिको दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करनेमें कुशल भगवान् शिव अपने भक्के अज्ञानको मिटा देते हैं। अज्ञानको निवृत्ति हो जानेपर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है। शिवज्ञानसे अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्वकी सम्यक् सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ 99 - 102 ॥
(शिव मन्त्रका) सौ लाख जप करनेसे ब्रह्मपदकी प्राप्ति होती है और फिर सौ लाख जप करनेसे विष्णुपद प्राप्त होता है ll 103 ll
पुनः सौ लाख (शिवमन्त्रका) जप करनेसे रुद्रका पद प्राप्त होता है। उसके बाद फिर सौ लाख जप करनेपर ऐश्वर्यमय पदकी प्राप्ति हो जाती है ll 104 ll
फिर इसी प्रकार सम्यक् रूपसे जप करनेपर शिवलोकके आदिभूत अर्थात् शिवलोकके आधारभूत निर्माता कालचक्रको प्राप्त किया जा सकता है ॥ 105 ॥यह कालचक्र पंचचक्रोंसे युक्त है, जो एकके | पश्चात् एकमें स्थित हैं। सृष्टि और मोहसे युक्त ब्रह्मचक्र भोग तथा मोहसे युक्त वैष्णवचक्र, कोप एवं मोहसे युक्त रौद्रचक्र, भ्रमणसे युक्त ईश्वरचक्र और ज्ञान तथा मोहसे युक्त शिवचक्र है। ऐसा इन पाँच चक्रोंके विषयमें बुद्धिमानोंका कहना है ॥ 106-107 ॥ पुनः दस करोड़ (शिवमन्त्रका) जप करनेपर कारणब्रह्मका पद प्राप्त होता है। तदनन्तर दस करोड़ जप करनेसे ऐश्वर्ययुक्त पदकी प्राप्ति होती है ॥ 108 ॥ इस प्रकार क्रमशः जप करता हुआ प्राणी ओजस्वी विष्णुके पदको प्राप्तकर पुनः उसी क्रमसे जपता हुआ महात्माओंके उस ऐश्वर्यपदको प्राप्त करता है ॥ 109 ॥
बिना असावधानी किये ll 105 ll करोड मन्त्रोंका जप करनेके पश्चात् वह प्राणी पाँच आवरणों (पशु, पाश, माया, शक्ति, रोध) से बाहर स्थित शिवलोक प्राप्त करता है ॥ 110 ॥
वहाँ (उस शिवलोकमें) राजसमण्डप है, नन्दीश्वरका उत्तम निवास है। तपस्यारूपी वृषभ वहींपर दिखायी देता है ॥ 111 ॥ वहीं पर पाँचों आवरणोंसे बाहर सद्योजात (अर्थात् तत्काल आवरणरहित हुए भगवान् शिव) का स्थान है। पुनः चतुर्थ आवरणमें वामदेवका स्थान है ॥ 112 ॥ उसके पश्चात् तृतीयावरणमें अघोर शिवका दूसरे आवरणमें साम्बशिवका मंगलमय तथा प्रथमावरणमें ईशान शिवका निवासस्थान है। उसके पश्चात् पंचम मण्डप है, जहाँ ध्यान और धर्मका निवास रहता है । ll 113-114 ।।
तदनन्तर चतुर्थ मण्डप है, वहाँपर चन्द्रशेखरकी मूर्तिसे बुक भगवान् बलिनाथका वासस्थान है, जो पूर्ण अमृतको प्रदान करनेवाला है। ll 115 ॥
तृतीय मण्डपमें सोमस्कन्दका परम निवासस्थान है। उसके पश्चात् द्वितीय मण्डप है, आस्तिक लोग जिसे नृत्यमण्डप कहते हैं ॥ 116 ॥
प्रथम मण्डपमें मूलमायाका स्थान है, वहाँपर अत्यन्त शोभा वास करती है। उसके परे गर्भगृह है, जहाँपर शिवका लिंगस्थान है ॥ 117 ॥नन्दीस्थानके पश्चात् शिवके वैभवको कोई नहीं जान सकता है। नन्दीश्वर (गर्भगृहसे) बाहर रहकर शिवके पंचाक्षर मन्त्रकी उपासना करते हैं ॥ 118 ॥
इस प्रकार गुरुपरम्परासे नन्दीश्वर और सनत्कुमारके संवादकी जानकारी मुझे हुई है। | उसके पश्चात्का परम रहस्य स्वसंवेद्य है, जिसका अनुभव स्वयं शिव करते हैं ।। 119 ।।
आस्तिकजनोंका कहना है कि साक्षात् शिवकी कृपासे ही शिवलोकके ऐश्वर्यको लोग जान सकते हैं, अन्यथा असम्भव है ॥ 120 ॥
इस प्रकारसे शिवका साक्षात्कार प्राप्तकर जितेन्द्रिय ब्राह्मण मुक्त हो जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं। अब मैं अन्य क्षत्रियादि वर्णोंके विषयमें कहूँगा। उसे आदरपूर्वक आप सब सुनें ॥ 121 ॥
यदि ब्राह्मणको आयु प्राप्त करनेकी इच्छा है तो उसे गुरुके द्वारा बताये गये उपदेशके अनुसार इस शिवके पंचाक्षरमन्त्रका विधिपूर्वक पाँच लाख जप करना चाहिये ॥ 122 ॥
यदि स्त्री स्त्रीत्व अर्थात् स्त्रीयोनिसे मुक्त होना से चाहती है तो वह भी पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्रोंका जप करे उन मन्त्रोंके प्रभावसे पुरुषका जन्म लेकर वह क्रमशः मुक्त हो जाती है ।। 123 ।।
क्षत्रिय पाँच लाख मन्त्रोंका जप करके क्षत्रियत्वको दूर कर लेता है अर्थात् क्षत्रियवर्णमें रहनेवाले गुणोंसे वह मुक्त हो जाता है। तदनन्तर पुनः पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेपर वह ब्राह्मण हो जाता है। फिर उतनेही मन्त्रोंके जपसे मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है और तत्पश्चात् उसी क्रमसे पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेपर वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। वैश्य पंचलक्ष मन्त्रोंका जप करनेसे अपने वैश्यत्व (गुण) -का परित्याग कर देता है। पुनः पंचलक्ष मन्त्रका जप करनेपर वह मन्त्र-क्षत्रिय कहलानेका अधिकारी हो जाता है। उसके बाद पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेसे क्षत्रियत्वको दूर कर देता है। तदनन्तर पुनः पंचलक्ष मन्त्रका जप करके मन्त्र- ब्राह्मण कहलानेका अधिकारी हो जाता है। इसी प्रकार शूद्र भी मन्त्रके अन्तमें नमःशब्द लगाकर यदि 25 लाख मन्त्रोंका जप करता है तो वह शूद्र मन्त्रविप्रत्वको प्राप्त द्विज (ब्राह्मण) हो जाता है। चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, ब्राह्मण हो या अन्य ही कोई वर्ण हो, पंचाक्षर मन्त्रका जप करनेसे सभी शुद्ध हो जाते हैं । ll 124 - 128 ॥
जो कामनापूर्ति के लिये आतुर है, उसे चाहिये कि वह नमः को आदि-अन्तमें लगाकर शिवमन्त्रका सदैव जप करता रहे। स्त्रियों तथा शूद्रोंके लिये मन्त्रजपका जैसा स्वरूप कहा गया है, उसीके अनुसार गुरुको भी चाहिये कि वह उन्हें निर्देश दे ॥ 129 ॥
साधकको चाहिये कि वह पाँच लाख जप करनेके पश्चात् भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तोंका पूजन करे ॥ 130 ॥
शिवभक्तकी पूजासे भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव और उनके भक्तमें कोई भेद नहीं है। | वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है ॥ 131 ॥
शिवस्वरूप मन्त्रको धारण करके वह शिव ही हो जाता है, शिवभक्तका शरीर शिवरूप ही है। अतः उसकी सेवामें तत्पर रहना चाहिये ।। 132 ॥
जो शिवके भक्त हैं, वे लोक और वेदकी सारी क्रियाओंको जानते हैं। जो क्रमशः जितना जितना शिवमन्त्रका जप कर लेता है, उसके शरीरको उतना ही उतना शिवका सामीप्य प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। शिवभक्त स्त्रीका रूप देवी पार्वतीका ही स्वरूप है। वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवीका सांनिध्य प्राप्त होता जाता है ।। 133-1349/2 ।।
बुद्धिमान् व्यक्तिको शिवका पूजन करना चाहिये, इससे वह साक्षात् मन्त्ररूप हो जाता है। साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्तिका पूजन करे। शक्ति, वेर (मूर्ति) तथा लिंगका चित्र बनाकर | अथवा मिट्टी आदिसे इनकी आकृतिका निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भावसे इनका पूजन करे ।। 135-136 ।।शिवलिंगको शिव मानकर अपनेको शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंगको देवी और अपनेको शिवरूप समझकर शिवलिंगको नादरूप तथा शक्तिको बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंगके प्रति उपप्रधान और प्रधानकी भावना रखते हुए जो शिव और शक्तिका पूजन करता है, वह मूलरूपी भावना करनेके कारण शिवरूप ही है। शिवभक्त शिवमन्त्ररूप होनेके कारण शिवके ही स्वरूप हैं ।। 137-139 ॥
जो सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। जो शिवलिंगोपासक शिवभक्तको सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता हैं, उस विद्वान्पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं। पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तोंको बुलाकर भोजन आदिके द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे। धनमें, देहमें और मन्त्रमें शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्तिका स्वरूप जानकर निष्कपटभावसे उनकी पूजा करे। ऐसा करनेवाला पुरुष शिवशक्तिस्वरूप होकर इस भूतलपर फिर जन्म नहीं लेता है । ll 140 - 142 1/2 ॥
शिवभक्तकी नाभिके नीचेका भाग ब्रह्मभाग तथा नाभिसे ऊपर कण्ठपर्यन्त तकका भाग विष्णुभाग और मुख शिवलिंगस्वरूप कहा गया है। मृत्युके पश्चात् (जिनका ) दाहादि संस्कार हुआ हो अथवा जो दाहादि संस्कारसे रहित हों, उन पितरोंके उद्देश्य से शिवको ही आदिपितर मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। पुनः आदिमाता शिवकी शक्तिकी पूजाकर शिवभक्तोंका पूजन करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष मरनेके पश्चात् क्रमशः पितृलोकको प्राप्त करता है तदनन्तर उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। दस क्रियावान् पुरुषोंसे युक्त योगियोंकी अपेक्षा एक तपोयुक्त प्राणी श्रेष्ठ है ॥ 143 -146 ॥
सौ तपोयुक्तों (तपस्वियों) की अपेक्षा एक जपयुक्त जापक विशिष्ट है। सहस्र जपयुक्त जापकोंकी अपेक्षा एक शिवज्ञानीका विशेष महत्व है ॥ 147 ॥
एक लाख शिवज्ञानियोंसे शिवका ध्यान करनेवाला एक ध्यानी श्रेष्ठ है और करोड़ ध्यानियोंकी अपेक्षा शिवके लिये एक समाधिस्थ श्रेष्ठ है ll 148 llइस प्रकार उत्तरोत्तर वैशिष्ट्य-क्रमसे की जानेवाली पूजासे प्राप्त फलमें भी विशिष्टता आ जाती है, जिसको जानना विद्वानोंके लिये भी कठिन है। इस कारणसे शिवभक्तकी महिमाको कौन मनुष्य जान सकता है। जो मनुष्य शिवशक्ति और शिवभक्तकी पूजा भक्तिपूर्वक करता है, वह शिवस्वरूप होकर सदैव कल्याणको प्राप्त करता है। जो ब्राह्मण इस वेदसम्मत अध्यायको अर्थसहित पढ़ता है, वह शिवज्ञानी होकर शिवके साथ आनन्द प्राप्त करता है। हे मुनीश्वरो ! विद्वान् पुरुषको चाहिये कि यह अध्याय वह शिवभक्तोंको सुनाये ॥ 149 - 152 ॥
हे बुधजनो! ऐसा करनेसे भगवान् शिवकी कृपासे उनका अनुग्रह प्राप्त हो जाता है ॥ 153॥