ब्रह्माजी बोले- तदनन्तर वरांगीने आदरपूर्वक गर्भ धारण किया। वह बहुत वर्षोंतक परम तेजसे भीतर ही बढ़ता रहा। तत्पश्चात् समय पूरा होनेपर वरांगीने विशालकाय, महाबलवान् तथा अपने तेजसे दसों दिशाओंको दीप्त करनेवाले पुत्रको उत्पन्न किया ।। 1 -2 ।।
देवताओंको दुःख देनेवाले उस वरांगीपुत्रके उत्पन्न होनेपर दुःखके हेतु महान् उत्पात होने लगे। हे तात! उस समय स्वर्ग, भूमि तथा आकाशमें सभी लोकोंको भयभीत करनेवाले अनर्थसूचक तीन प्रकारके उत्पात हुए, मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ 3-4 ॥
[आकाशसे] महान् शब्द करते हुए भयंकर उल्कायुक्त वज्र गिरने लगे और जगत्को दुःख देनेवाले अनेक सुतीक्ष्ण केतु उदय हो गये। पर्वतसहित पृथ्वी चलायमान हो गयी, सभी दिशाएँ प्रज्वलित हो गयीं, सभी नदियाँ एवं विशेषकर समुद्र क्षुब्ध होने लगे ॥ 5-6 ll
भयंकर हू-हू शब्द करते हुए तीक्ष्ण स्पर्शवाली हवा बहने लगी और धूल उड़ाती एवं वृक्षोंको उखाड़ती हुई आँधी चलने लगी हे विप्रेन्द्र राहुसहित सूर्य और चन्द्रमाके ऊपर बार-बार मण्डल पड़ने लगे, जो महाभयके सूचक तथा सुखका नाश करनेवाले थे ।। 7-8 ।।
उस समय पर्वतोंकी गुफाओंसे रथकी नेमिके समान घर्घर एवं भयसूचक महान् शब्द होने लगे। सियार एवं उल्लू अपने मुखसे भयानक टंकारयुक्त शब्द करते हुए अग्नि उगलने लगे और सिवारिनें गाँवोंके भीतर घुसकर अत्यन्त अमंगल तथा महाभयानक शब्द करने लगीं ॥ 9-10 ॥
कुत्ते जहाँ-तहाँ गर्दन उठाकर संगीतके समान और रुदनके समान अनेक प्रकारके शब्द करने लगे ॥ 11 ॥
हे तात! गधे रैंकनेके भयानक शब्दसे मत्त होकर अपने खुरोंसे पृथिवीको खोदते हुए झुण्डके झुण्ड इधर-उधर दौड़ने लगे ॥ 12 ॥पक्षी घोसलोंसे उड़ने लगे। गदहे भयभीत हो गये और व्याकुलचित्त होकर भयानक शब्द करने लगे। उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिल रही थी ॥ 13 ॥
पशुताड़ित हुएके समान अपने गोष्टमें और अरण्यमें भयभीत होकर बारंबार मल-मूत्रका त्याग करने लगे और जहाँ-तहाँ इधरसे उधर भागने लगे। वे एक जगह ठहरते नहीं थे। गायें भयसे आक्रान्त हो उठीं, उनके स्तनोंसे रुधिर निकलने लगा, नेत्रोंसे अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी और वे व्याकुल हो गयीं। बादल भी भय उत्पन्न करते हुए पीवकी वर्षा करने लगे ।। 14-15 ।।
देवताओंकी प्रतिमाएँ उछलकर रोने लगीं, बिना आँधीके वृक्ष गिरने लगे और आकाशमें ग्रहोंका युद्ध होने लगा। हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार अनेक उत्पात होने लगे। अज्ञानी लोग उस समय यह समझ बैठे कि विश्वप्रलय हो | रहा है। तदनन्तर प्रजापति कश्यपने विचार करके उस महातेजस्वी असुरका नाम तारक रखा ll 16-18 ।।
वह महावीर सहसा अपने पौरुषको प्रकट करता हुआ वज्रतुल्य शरीरसे पर्वतराजके समान बढ़ने लगा ॥ 19 ॥
तत्पश्चात् उस महाबली, महापराक्रमी तथा मनस्वी तारक दैत्यने तपस्या करनेके लिये मातासे आजा माँगी। मायावियोंको भी मोहित करनेवाले उस महामायावी दैत्यने अपनी मातासे आज्ञा प्राप्तकर सभी देवताओंपर विजय प्राप्त करनेके लिये अपने मनमें तप करनेका विचार किया ll 20-21 ॥
गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाला वह दैत्य मधुवनमें जाकर ब्रह्माजीको लक्ष्य करके विधिपूर्वक अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगा ॥ 22 ॥
उस दुत दैत्यने चित्तको स्थिरकर नेत्रद्वारा सूर्यको देखते हुए अपनी भुजाओंको ऊपर उठाकर एक पैरपर खड़े होकर सौ वर्षपर्यन्त तपस्या की ॥ 23 ॥
तदनन्तर पैरके अँगूठेसे भूमिको टेककर दृढचित्तवाले तथा ऐश्वर्यशाली महान् असुरराज तारकने उसी प्रकार सौ वर्षतक तपस्या की ॥ 24 ॥
सौ वर्षतक जल पीकर सौ वर्षतक वायु पीकर, सौ वर्षतक जलमें खड़ा रहकर और सौ वर्षतक स्थण्डिलपर रहकर उसने तपस्या की ॥ 25 ॥सौ वर्ष अग्नि बीचमें सौ वर्षतक न ओर मुख करके और सौ वर्षतक हथेली पृथ्वीपर स्थित होकर वह तपस्या करता रहा। है मुने! यह सौ वर्षतक वृक्षको शाखाको दोनों पैरों पकड़कर नीचे की ओर मुख करके पवित्र धूमका पान करता रहा ।। 26-27।।
इस प्रकार उस असुरराजने अपने मनोरथको लक्ष्य करके सुननेवालोंको भी सर्वथा दुःसह जान | पड़नेवाला अत्यन्त कठिन तथा कष्टकर तप किया ॥ 28 ॥
हे मुने! इस प्रकार तप करते हुए उसके सिरसे | चारों दिशाओंमें फैलनेवाला एक महान् उपद्रवकारी महातेज निकला ॥ 29 ॥
हे मुने! उस तेजसे सभी देवलोक प्रायः जलने | लगे और चारों ओर समस्त देवता तथा ऋषिगण बड़े दुखी हुए ॥ 30 ॥
उस समय देवराज इन्द्र अधिक भयभीत हुए कि निश्चय ही इस समय कोई तप कर रहा है, वह मेरे पदको भी छीन लेगा 31 ॥
वह ऐश्वर्यशाली तो असमयमें ही ब्रह्माण्डका संहार कर डालेगा इस प्रकार सन्देहमें पड़े हुए [देवता] लोग कुछ भी निश्चय नहीं कर पा रहे थे ॥ 32 ॥
तदनन्तर सभी देवता एवं ऋषि परस्पर विचार करके भयभीत एवं दीन होकर मेरे लोकमें पहुँचे और मेरे सामने उपस्थित हुए॥ 33 ॥
व्यथित चित्तवाले उन सभीने प्रणामकर मेरी स्तुति करके हाथ जोड़कर सारा वृत्तान्त मुझसे कहा ॥ 34 ॥ मैं भी सद्बुद्धिसे [उनकी व्यग्रताका] समस्त कारण जानकर जिस स्थानपर असुर तप कर रहा था, उस स्थानपर उसे वर देनेके लिये गया ।। 35 ।।
हे मुने! मैंने उससे कहा- [ हे दैत्य !] तुमने घोर उपस्या की है, अतः वर माँगो, मुझे कोई भी वस्तु तुम्हारे लिये अदेय नहीं है। तब मेरा वचन सुनकर उस महान् असुर तारकने मुझे प्रणाम करके तथा मेरी स्तुतिकर अत्यन्त कठिन वर माँगा ॥ 36-37 ll
तारक बोला- हे पितामह! वर देनेवाले आपके प्रसन्न हो जानेपर मेरे लिये क्या असाध्य हो सकता है, अतः मैं आपसे वर माँगता हूँ, उसे मुझसे सुनिये ll 38 llहे देवेश। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं, तो मेरे ऊपर कृपा करके मुझे दो वर दीजिये ।। 39 ।।
हे महाप्रभो! आपके बनाये हुए इस समस्त लोकमें कोई भी पुरुष मेरे समान बलवान् न हो और शिवजीके वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र देवताओंका सेनापति बनकर जब मेरे ऊपर शस्त्र प्रहार करे, तब मेरी मृत्यु हो । ll 40-41 ॥
हे मुनीश्वर ! जब उस दैत्यने मुझसे इस प्रकार कहा, तब मैं उसे उसी प्रकारका वर देकर शीघ्रतापूर्वक अपने स्थानको चला गया ॥ 42 ॥
वह दैत्य भी मनोवांछित उत्तम वर प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्न होकर शोणित नामक पुरको चला गया ॥ 43 ॥ उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्यने मेरी आज्ञासे असुरकि साथ जाकर त्रिलोकीके राज्यपर उस महान् असुरका अभिषेक किया। तब वह महादैत्य त्रैलोक्याधिपति हो गया और चराचरको पीड़ित करता हुआ अपनी आज्ञा चलाने लगा। इस प्रकार वह तारक विधिपूर्वक त्रैलोक्यक राज्य करने लगा और देवता आदिको पीड़ा पहुँचाता
हुआ प्रजापालन करने लगा ।। 44-46 ।। तदनन्तर उस तारकासुरने इन्द्र आदि लोकपालोंके रत्नोंको ग्रहण कर लिया, उन्होंने उसके भयसे [रत्न] स्वयं प्रदान किये ll 47ll
इन्द्रने उसके भयसे उसे ऐरावत हाथी समर्पित कर दिया और कुबेरने नौ निधियाँ दे दीं। वरुणने श्वेतवर्णके घोड़े, ऋषियोंने कामधेनु और इन्द्रने उच्चैःश्रवा नामक दिव्य घोड़ा भयके कारण उसे समर्पित कर दिया ।। 48-49 ।।
उस असुरने जहाँ जहाँ अच्छी वस्तुएँ देखीं, उन्हें बलपूर्वक हरण कर लिया। इस प्रकार त्रिलोकी सर्वथा निःसार हो गयी ॥ 50 ॥
हे मुने! समुद्रोंने भी भयसे उसे समस्त रत्न प्रदान कर दिये, बिना जोते- बोये ही पृथिवी अन्न प्रदान करने लगी और सभी प्रजाओंके मनोरथ पूर्ण हो गये॥ 51 ॥
सूर्य उतना ही तपते थे, जिससे किसीको कष्ट न हो, चन्द्रमा उजाला करते रहते और वायु सबके अनुकूल ही चलता था ll52 llउस दुरात्मा असुरने देवताओं, पितरों तथा अन्यका जो भी द्रव्य था, वह सब हरण कर लिया ॥ 53 ॥
इस प्रकार वह तीनों लोकोंको अपने अधीनकर स्वयं इन्द्र बन बैठा। वह इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला अद्वितीय राजा हुआ और अद्भुत प्रकारसे राज्य करने लगा ॥ 54 ॥
उसने समस्त देवताओंको हटाकर उनकी जगह दैत्योंको नियुक्त कर दिया और देवताओंको अपने | कर्ममें नियुक्त किया । हे मुने! तदनन्तर उससे पीड़ित हुए इन्द्र आदि समस्त देवगण अनाथ तथा अत्यन्त | व्याकुल होकर मेरी शरणमें आये ॥ 55-56 ॥