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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 33 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 33

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वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा

सप्तर्षियों द्वारा हिमालयको शिवमाहात्म्य बताना

ऋषि बोले- [हे हिमालय!] शिवजी जगत्के पिता कहे गये हैं और पार्वती जगत्‌की माता मानी गयी हैं। इसलिये आप अपनी कन्या महात्मा शंकरकोप्रदान कर दीजिये। हे हिमालय! ऐसा करनेसे आपका जन्म सफल हो जायगा और आप जगद्गुरुके भी गुरु हो जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 1-2 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर ऋषियोंके इस प्रकारके वचनको सुनकर उन्हें प्रणामकर हाथ जोड़कर गिरिराज यह कहने लगे- ॥ 3 ॥

हिमालय बोले - हे महाभाग्यवान् सप्तर्षिगण ! आपलोगोंने जैसा कहा है, उसे मैंने शिवजीकी इच्छासे पहले ही स्वीकार कर लिया था। [किंतु हे प्रभो!] इसी समय एक वैष्णवधर्मी ब्राह्मणने यहाँ आकर शिवजीको लक्ष्य करके प्रेमपूर्वक उनके विपरीत वचन कहा है ।। 4-5 ।।

तभी से शिवाकी माता ज्ञानसे भ्रष्ट हो गयी हैं और अपनी पुत्रीका विवाह उन योगी रुद्रसे नहीं करना चाहती हैं। हे विप्रो ! वे अत्यन्त दुखी होकर मैले वस्त्र धारणकर बड़ा हठ करके कोपभवनमें चली गयी हैं और समझानेपर भी नहीं समझ रही हैं। मैं सत्य कह रहा हूँ कि मैं भी ज्ञानभ्रष्ट हो गया हूँ और अब मैं भिक्षुकरूपधारी महेश्वरको कन्या नहीं देना चाहता हूँ ॥ 6-8 ll

ब्रह्माजी बोले- हे मुने शिवकी मायासे मोहित शैलराज इस प्रकार कहकर चुप हो गये और मुनियोंके बीच बैठ गये ॥ 9 ॥ उसके बाद उन सभी सप्तर्षियोंने शिवमायाकी प्रशंसा करके उन मेनाके पास अरुन्धतीको भेजा 10 ॥ पतिकी आज्ञा पाकर ज्ञानदात्री अरुन्धती शीघ्र ही वहाँ गयीं, जहाँ मेना और पार्वती थीं ॥ 11 ॥

वहाँ जाकर अरुन्धतीने शोकसे मूच्छित होकर [पृथिवीपर] सोयी हुई मेनाको देखा। तब उन पतिव्रताने सावधानीपूर्वक हितकर वचन कहा- ॥ 12 ॥

अरुन्धती बोली- हे साध्वि मेनके! उठिये, मैं अरुन्धती आपके घर आयी हूँ तथा कृपालु सप्तर्षिगण भी आये हुए हैं ॥ 13 ॥

ब्रह्माजी बोले- अरुन्धतीका स्वर सुनकर शीघ्रता से | उठकर महालक्ष्मीके समान तेजयुक्त अरुन्धतीको सिर झुकाकर प्रणाम करके मेनका कहने लगीं- ॥ 14 ॥

मेना बोली- अहो! आज हम पुण्यवानोंका यह कितना बड़ा पुण्य है, जो जगत् के विधाताकी पुत्रवधू | एवं वसिष्ठकी पत्नी मेरे घर स्वयं आयी हैं ॥ 15 llहे देवि ! आप किसलिये आयी हैं, उसे मुझसे | विशेष रूपसे कहिये। पुत्री पार्वतीसहित मैं आपकी दासीके समान हूँ, आप कृपा कीजिये ॥ 16 ॥

ब्रह्माजी बोले- जब मेनाने इस प्रकार कहा, तब साध्वी अरुन्धती उन्हें बहुत समझाकर प्रेमपूर्वक वहाँ गयीं, जहाँ सप्तर्षिगण विराजमान थे। इधर, वाक्यविशारद सभी महर्षिगण भी शिवके चरणयुगलका स्मरण करके आदरके साथ गिरिराजको समझाने लगे ।। 17-18 ।।

ऋषि बोले- हे शैलराज आप हमलोगोंका शुभकारक वचन सुनें, आप पार्वतीका विवाह शिवके साथ कर दीजिये और संहारकर्ता शिवजीके श्वशुर बन जाइये तारकासुरके बचके निमित्त ब्रह्माजीने इस विवाहको करनेके लिये उन अयाचक सर्वेश्वरसे प्रयत्न पूर्वक प्रार्थना की है। यद्यपि योगियोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण सदाशिव इस दारसंग्रह - कार्यके लिये उत्सुक नहीं हैं, किंतु ब्रह्माजीके द्वारा बहुत प्रार्थना करनेपर वे आपकी इस कन्याको ग्रहण करेंगे ॥ 19-21 ॥ आपकी कन्याने भी [शिवजीको वररूपमें प्राप्त करनेहेतु] बड़ा तप किया है, इसीलिये उन्होंने उसे वर दिया है, इन्हीं दो कारणोंसे वे योगीन्द्र विवाह करेंगे ॥ 22 ॥

ब्रह्माजी बोले- ऋषियोंकी यह बात सुनकर हिमालय हँस करके फिर कुछ भयभीत होकर विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगे- ॥ 23 ॥

हिमालय बोले- मैं शिवके पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देख रहा हूँ, न उनका कोई आश्रय और ऐश्वर्य ही दिखायी पड़ रहा है और न तो कोई उनका सगा सम्बन्धी ही दिखायी पड़ता है। मैं अत्यन्त निर्लिप्त योगीको | अपनी पुत्री नहीं देना चाहता हूँ। आपलोग तो ब्रह्मदेवके पुत्र हैं, आपलोग ही निश्चित बात बतायें ॥ 24-25 ।।

यदि पिता काम, मोह, भय तथा लोभवश अपनी कन्या प्रतिकूल वरको प्रदान करता है, तो वह नष्ट होकर नरकमें जाता है ll 26 ॥

मैं स्वेच्छासे इस कन्याको शंकरको नहीं दूँगा, हे ऋषियो! अब जो उचित विधान हो, उसे आपलोग करें ॥ 27 ॥ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर ! हिमालयके इस प्रकारके वचनको सुनकर उन ऋषियोंमें वाक्यविशारद वसिष्ठजी उनसे कहने लगे- ॥ 28 ॥

वसिष्ठजी बोले- हे शैलेन्द्र ! आप मेरी बात सुनिये, जो आपके लिये सर्वथा हितकर, धर्मके अनुकूल, सत्य और इस लोक तथा परलोकमें आनन्द प्रदान करनेवाली है। हे शैल! लोक एवं वेदमें तीन प्रकारके वचन होते हैं, शास्त्रका ज्ञाता अपने निर्मल ज्ञानरूपी नेत्रसे उन सबको जानता है॥ 29-30 ॥

जो वचन सुननेमें सुन्दर लगे, पर असत्य एवं अहितकारी हो, ऐसा वचन बुद्धिमान् शत्रु बोलते हैं। ऐसा वचन किसी प्रकार हितकारी नहीं होता ॥ 31 ॥

जो वचन आरम्भमें अप्रिय लगनेवाला हो, किंतु परिणाममें मुखकारी हो, ऐसा वचन दयालु तथा धर्मशील बन्धु ही कहता है। सुननेमें अमृतके समान, सभी कालमें सुखदायक, सत्यका सारस्वरूप तथा हितकारक वचन श्रेष्ठ होता है ।। 32-33 ॥

हे शैल! इस प्रकार तीन तरहके वचन नीतिशास्त्रमें कहे गये हैं। अब आप ही बताइये कि इन तीन प्रकारके वचनोंमें हमलोग किस प्रकारका वचन बोलें, जो आपके अनुकूल हो। देवताओंके स्वामी शंकरजी ब्रह्मज्ञानसे सम्पन्न हैं। रजोगुणी सम्पत्तिसे विहीन हैं, उनका मन तत्त्वज्ञानके समुद्रमें सदा निमग्न रहता है ।। 34-35 ll

ऐसे ज्ञान तथा आनन्दके ईश्वर सदाशिवको रजोगुणी वस्तुओंकी इच्छा किस प्रकार हो सकती है, गृहस्थ अपनी कन्या राजसम्पत्तिशालीको देता है ll 36 ll

पिता यदि अपनी कन्या किसी दीन-दुखीको देता है, तो वह कन्याघाती होता है अर्थात् उसे कन्याके वधका पाप लगता है। हे हिमालय! कौन कहता है कि शंकर दुखी हैं, कुबेर जिनके दास हैं ॥ 37 ll

वे शिवजी तो अपनी भंगिमाकी लीलामात्रसे संसारका सृजन और संहार करनेमें समर्थ हैं। वे निर्गुण, परमात्मा, परमेश्वर और प्रकृतिसे [सर्वथा] परे हैं ॥ 38 ॥

सृष्टिकार्य करनेके लिये जिनकी तीन मूर्तियों ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वररूपसे जगत्की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करती हैं ॥ 39 ॥ब्रह्मा ब्रह्मलोकमें रहते हैं, विष्णु क्षीरसागर में वास करते हैं और हर कैलासमें निवास करते हैं, ये सभी शिवजीकी विभूतियाँ हैं ॥ 40 ॥


यह सारी प्रकृति शिवजीसे ही उत्पन्न हुई हैं, जो तीन प्रकारकी होकर इस जगत्‌को धारण करती है। वह प्रकृति इस जगत् में अपनी लीलासे अंशावतारों तथा कलावतारोंके रूपोंमें अनेक प्रकारकी प्रतीत होती है ॥ 41 ॥ उनकी वाणीरूप प्रकृति मुखसे उत्पन्न हुई हैं,

जो वाणीकी अधिष्ठात्री देवी हैं। उनकी लक्ष्मीरूप प्रकृति वक्षःस्थलसे आविर्भूत हुई हैं, जो सम्पूर्ण सम्पत्तिकी अधिष्ठात्री हैं ॥ 42 ॥

उनकी शिवा नामकी प्रकृति देवताओंके तेजसे प्रादुर्भूत हुई हैं, जो सभी दानवोंका वधकर देवताओंके लिये महालक्ष्मी प्रदान करती हैं ॥ 43 ॥

ये ही शिवा इसके पूर्वकल्पमें दक्षकी पत्नीके उदरसे जन्म लेकर सती नामसे विख्यात हुईं। दक्षने शंकरजीको ही दिया था, किंतु उस जन्ममें पिताके द्वारा शिवजीकी निन्दा सुनकर उन्होंने अपने शरीरको योगके द्वारा त्याग दिया। वही शिवा अब इस समय आपके द्वारा मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई हैं ।। 44-45 ।।

हे शैलराज! इस प्रकार वे शिवा प्रत्येक जन्ममें शिवजीकी पत्नी रही हैं, वे प्रतिकल्पमें बुद्धिस्वरूपा तथा ज्ञानियोंकी माता हैं ॥ 46 ॥

वही सिद्धा, सिद्धिदात्री एवं सिद्धिरूपिणी रूपसे सदा प्रादुर्भूत होती हैं। शिवजी सतीकी अस्थि तथा उनकी चिताकी भस्म उनके प्रेमके कारण स्वयं धारण करते हैं ॥ 47 ॥

इसलिये आप अपनी इच्छासे इस कल्याणी कन्याको शंकरके निमित्त प्रदान कीजिये, अन्यथा आप नहीं देंगे तो भी वह स्वयं अपने पतिके पास चली जायगी ॥ 48 ॥

वे देवेश प्रतिज्ञा करके और यह देखकर कि आपकी कन्याने असंख्य क्लेश प्राप्त किये, तब ब्राह्मणका रूप धारणकर उसके तपः स्थानपर गये थे और उसे आश्वस्त करके वर देकर अपने स्थानपर लौट आये। हे पर्वत ! उसके प्रार्थना करनेपर ही वे शिवजी आपसे शिवाको माँग रहे हैं ।। 49-50 ॥उस समय आप दोनोंने शिवभक्तिमें निरत रहनेके कारण उन्हें पार्वतीको देना स्वीकार भी कर लिया, किंतु हे गिरीश्वर ! अब आप दोनोंकी ऐसी विपरीत बुद्धि क्यों हो गयी, इसे बताइये। जब सदाशिव पार्वतीकी प्रार्थनाहेतु तुम्हारे पास आये थे और तुमने उसे अस्वीकार कर दिया, तब यहाँसे लौटकर उन्होंने हम ऋषियोंको तथा अरुन्धतीको शीघ्र ही भेजा है ।। 51-52 ॥

इसलिये हमलोग आपको उपदेश देते हैं कि आप इस पार्वतीको शीघ्रतासे रुद्रको प्रदान कीजिये। हे शैल! ऐसा करने से आपको महान् आनन्दकी प्राप्ति होगी ॥ 53 ॥

हे शैलेन्द्र ! यदि आप इस शिवाको शिवके लिये अपनी इच्छासे नहीं देंगे, तो भी भवितव्यताके बलसे यह विवाह अवश्य ही होगा ।। 54 ।।

हे तात! इन शंकरने तप करती हुई इस शिवाको वरदान दिया है, ईश्वरकी प्रतिज्ञा कभी निष्फल नहीं होती 55 ॥

जब ईश्वरके उपासक महात्माओंकी प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं होती, तो फिर सारे संसारके अधिपति इन ईश्वरकी प्रतिज्ञाकी बात ही क्या ! ।। 56 ।।

जब अकेले महेन्द्रने लीलासे ही पर्वतोंके पंख काट डाले और पार्वतीने अकेले ही मेरुका शिखर ढहा दिया, तो उन सर्वेश्वरकी प्रतिज्ञा कैसे निष्फल हो सकती है ? ॥ 57 ॥

हे शैलेन्द्र ! एकके कारण सारी सम्पत्तिका नाश नहीं करना चाहिये, यह सनातनी श्रुति है कि कुलकी रक्षाके लिये एकका त्याग कर देना चाहिये ॥ 58 ॥

[हे शैलेश्वर!] [पूर्व कालमें] अनरण्य नामक राजेश्वरने अपनी कन्या ब्राह्मणको देकर उसके शापके भयसे अपनी सम्पत्तिकी रक्षा की थी ।। 59 ।।

ब्राह्मणके शापसे भयभीत हुए उस राजाको नीतिशास्त्रके ज्ञाता गुरुजनोंने एवं श्रेष्ठ बन्धुओंने समझाया था। हे शैलराज! इसी प्रकार आप भी अपनी इस कन्याको शिवके निमित्त देकर समस्त बन्धुवर्गोंकी रक्षा कीजिये तथा देवताओंको अपने वशमें कीजिये ।। 60-61 ।।

ब्रह्माजी बोले- वसिष्ठके इस वचनको सुनकर कुछ हँस करके व्यथित हृदयसे उन्होंने राजा अनरण्यका वृत्तान्त पूछा ॥ 62 ॥हिमालय बोले- हे ब्रह्मन् ! वह अनरण्य राजा किसके वंशमें उत्पन्न हुआ था और उसने अपनी कन्याको देकर किस प्रकार सम्पूर्ण सम्पत्तिकी | रक्षा की थी ? ॥ 63 ॥ ब्रह्माजी बोले- हिमालयके इस प्रकारके वचनको सुनकर वसिष्ठजी प्रसन्नचित्त होकर राजा अनरण्यका सुखदायक वृत्तान्त उनसे कहने लगे- ॥ 64 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा