सूतजी बोले- महर्षि कश्यपसे दक्षपुत्री [अदिति] में विवस्वान् उत्पन्न हुए उनकी पत्नी त्वष्टापुत्री देवी संज्ञा हुई, जो सुरेणुका नामसे भी विख्यात हैं ॥ 1 ॥ रूपयौवनसे समन्वित वह [संज्ञा] अपने पतिके असहिष्णु तथा दुःसह तेजसे सन्तुष्ट नहीं हुई॥2॥ तब अत्यन्त तेजस्वी सूर्यके उस तेजको सहनेमें असमर्थ यह सुन्दरी जलती हुई [अत्यन्त] उद्विग्न हो गयी ll 3 ॥
हे ऋये आदित्यने इस संज्ञासे तीन सन्तानें उत्पन्न कीं। सर्वप्रथम श्राद्धदेव प्रजापति मनु हुए, उसके अनन्तर यम और यमुना-ये दोनों जुड़वें पैदा हुए। इस प्रकार सूर्यसे संज्ञामें तीन सन्तानें उत्पन्न हुईं ॥ 4-5 ॥
उसके बाद सूर्यके उस संवर्तुल अर्थात् उत्पीडक रूपको देखकर उसे सहन न करती हुई उस संज्ञाने अपनी सुन्दर छायाका निर्माण किया ॥ 6 ॥
तब उस मायामयी छायाने संज्ञासे भक्तिपूर्वक कहा- हे शुभे! हे शुचिस्मिते। मैं यहाँ आपका कौन-सा कार्य करूँ, बताओ ? ॥ 7 ॥
संज्ञा बोली- तुम्हारा कल्याण हो, मैं अपने पिताके घर जा रही हूँ, तुम इस भवनमें निर्विकार भावसे निवास करो। यदि तुम मेरा हित चाहती हो, तो मेरे इन दोनों साधुस्वभाव पुत्रोंका और इस सुन्दरी कन्याका सुखपूर्वक पालन करना ॥ 8-9 ॥ छाया बोली- हे देवि! मैं अपना केश पकड़े। जातक अत्याचार सहन करूँगी और तबतक आपका रहस्य सूर्यसे नहीं कहूँगी, आप सुखपूर्वक जाइये ॥ 10॥
सूतजी बोले- ऐसा कहे जानेपर वह संज्ञ लज्जित हो अपने पिताके पास चली गयी। वहाँपर पिताने उसे बहुत फटकारा और वहाँ जानेके लिये उसे | बारंबार विवश किया। तब वह अपने स्वरूपको छिपाकर घोड़ीका रूप धारण करके उत्तर कुरुदेशमें जाकर तृणोंके बीच [गुप्त रूपसे] विचरण करने लगी ।। 11-12 ।।उसके बाद सूर्यने छायाको ही संज्ञा समझकर उससे सावर्णि मनु नामक सुन्दर पुत्रको उत्पन्न किया ॥ 13 ॥
संज्ञाद्वारा प्रार्थना किये जानेपर भी वह छाया अपने पुत्र सावर्णिसे अधिक स्नेह करती थी, किंतु संज्ञापुत्रोंसे उतना स्नेह नहीं करती थी ॥ 14 ॥
श्राद्धदेव मनुने तो इसे सह लिया, किंतु यमको यह सहन नहीं हुआ। इसलिये जब बचपनेके कारण तथा भवितव्यताके वश हो क्रोधित होकर उन वैवस्वत यमने छायाको पैर उठाकर धमकाया, तब पापिनी छायाने क्रोधपूर्वक उसे शाप दे दिया कि तुम्हारा यह चरण पृथ्वीपर गिर जाय। उसके बाद यमने हाथ जोड़कर सारा समाचार अपने पितासे निवेदन किया। शापके भयसे अत्यन्त व्याकुल एवं संज्ञाके वचनोंसे प्रेरित हुए यमने कहा कि माताको चाहिये कि वह अपने सभी पुत्रोंमें स्नेहपूर्वक समताका व्यवहार करे। किंतु वह छाया तो हमलोगोंसे स्नेह हटाकर केवल छोटे भाईका लालन पालन करती है, इसीलिये मैंने उसे मारनेके लिये पैर उठाया, इसे आप क्षमा कीजिये। हे देवेश! हे तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ ! हे गोपते ! माताने मुझे शाप दिया है, अतः आपकी कृपासे मेरा चरण न गिरे ॥ 15 - 20॥
सविता बोले- हे पुत्र ! इसमें निःसन्देह कोई कारण होगा, जिससे तुम्हारे जैसे धर्मज्ञ तथा सत्यवादीको क्रोध उत्पन्न हुआ। तुम्हारी माताका वचन तो मिथ्या नहीं किया जा सकता है। कीड़े तुम्हारे चरणोंका मांस लेकर पृथ्वीमें चले जायँगे। इससे उसकी बात भी सत्य हो जायगी और तुम्हारी रक्षा भी हो जायगी। हे तात! हे प्रभो! अपने मनको आश्वस्त कर लो और सन्देह मत करो ॥ 21 - 23 ॥
सूतजी बोले- हे मुनीश्वर ! यम नामक पुत्रसे ऐसा कहकर आदित्य सूर्यने क्रोधित हो उस छायासे कहा- ॥ 24 ॥
सूर्य बोले - हे प्रिये ! हे कुमते! हे चण्डि ! तुमने यह क्या किया? तुम अपने पुत्रोंमें न्यूनाधिक स्नेह क्यों करती हो, इसे मुझको बताओ ॥ 25 ॥सूतजी बोले- अपनी इच्छासे प्रज्वलित हुए सूर्यदेवके द्वारा जलायी जाती हुई छायाने उनका कथन सुनकर तथ्यपूर्ण उत्तर दिया, तब सूर्यदेवने उसे सान्त्वना प्रदान की। उसकी बात सुनकर सूर्य त्वष्टाके पास गये और उन्होंने उनसे पूछा कि संज्ञा कहाँ है ? तब त्वष्टाने सूर्यसे कहा- ॥ 26-27 ॥
त्वष्टा बोले- आपके अत्यन्त तेजसे जलती रहनेके कारण उसे आपका यह रूप अच्छा नहीं लगता है, अतः उसे सहन न करती हुई वह तृणोंसे भरे वनमें निवास करती है। हे गोपते! योगबलसे युक्त तथा योगका आश्रय लेकर स्थित वह संज्ञा प्रशंसनीय है। हे देवेश! अपनी बात कहकर आप | अनुकूल हो जाइये। अब मैं आपके रूपको मनोहर बना देता हूँ ॥ 28- 293 ॥
सूतजी बोले- यह सुनकर विवस्वान् सूर्यका क्रोध दूर हो गया। तब त्वष्टा मुनिने सानपर स्थापितकर उनके तेजको छील दिया। इसके बाद तेजके छील दिये जानेसे उनका रूप मनोहारी हो गया। जब त्वष्टाने उनके रूपको अत्यधिक सुन्दर बना दिया, तब वे अति शोभित होने लगे। इस प्रकार सूर्यदेवने योगमें स्थित होकर अपने नियम और तेजके कारण सम्पूर्ण प्राणियोंद्वारा अपराजेय अपनी भार्याको देखा। तब अश्वका रूप धारणकर सूर्य संगकी | इच्छासे वहाँ पहुँचे। हे मुने! तब संगके लिये चेष्टा करते हुए सूर्यको देखकर परपुरुषकी शंकासे युक्त संज्ञाने उनका शुक्र मुखसे लेकर नासिकामें धारण कर लिया ॥ 30-34 ॥
उससे वैद्योंमें श्रेष्ठ युगल अश्विनीकुमार देवता उत्पन्न हुए। वे दोनों अश्विनीकुमार नासत्य अथवा दस्र कहे गये हैं ॥ 35 ॥
उसके बाद सूर्यने उसको अपने मनोहर रूपका दर्शन कराया। तब आत्मस्वरूप अपने पतिदेवको आदरपूर्वक देखकर वह (संज्ञा) प्रसन्न हो गयी। इसके बाद प्रसन्नमुखवाली वह सती पतिके साथ अपने घर चली गयी। इस प्रकार दोनों स्त्री पुरुष प्रीतिसे युक्त हो पहलेसे अधिक प्रसन्न हो गये ।। 36-37 ।।[माताके तिरस्काररूप] उस कर्मसे अत्यन्त व्यथित धर्मराज यम धर्मपूर्वक प्रजाओंको प्रसन्न करने लगे। उस कर्मसे महातेजस्वी धर्मराजको पितरोंका आधिपत्य तथा लोकपालका पद प्राप्त हुआ ।। 38-39 ॥
तपोधन सावर्णिको भी प्रजापति मनुका पद प्राप्त हुआ। वे अपने उस कर्मसे वैवस्वत मनुके बाद सावर्णि मन्वन्तरके मनु होंगे ॥ 40 ॥
वे प्रभु आज भी सुमेरुपर्वतपर घोर तप कर रहे हैं। लोकमें उन्हें मनु कहा जाता है और सावर्णि भी कहा जाता है। उन दोनोंसे छोटी जो यशस्विनी कन्या यमी थी, वह नदियोंमें श्रेष्ठ लोकपावनी यमुना हुई ॥ 41-42॥
जो देवगणोंके जन्मके इस आख्यानका श्रवण करता है अथवा स्मरण करता है, वह आपद्ग्रस्त | होनेपर भी उससे मुक्त हो जाता है और महान् यश प्राप्त करता है ॥ 43 ॥