व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ हे शैवप्रवर हे सन्मते हे तात। आपने परमेश्वरकी यह अद्भुत कथा सुनायी। अब आप सर्वदेवमय परम दिव्य रथके निर्माणका वर्णन कीजिये, जिसे बुद्धिमान् विश्वकर्माने शिवजीके लिये निर्मित किया ॥ 1-2 ॥
सूतजी बोले- उन व्यासजीके इस वचनको सुनकर मुनीश्वर सनत्कुमार शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके कहने लगे-॥ 3 ॥
सनत्कुमार बोले – हे व्यास ! हे महाप्राज्ञ! हे मुने। मैं शिवजीके चरणकमलोंका ध्यानकर अपनी बुद्धिके अनुसार रथ आदिके निर्माणका वर्णन करूँगा, आप उसका श्रवण करें। विश्वकर्माने स्द्रदेवके सर्वलोकमय तथा दिव्य रथको यत्नसे आदरपूर्वक बनाया ।। 4-5 ।।
यह सर्वसम्मत तथा भूतमय रथ सुवर्णका बना हुआ था उसके दाहिने चक्रमें सूर्य एवं बाँये चक्रमें चन्द्रमा विराजमान थे हे विप्रेन्द्र दाहिने चक्रमें बारह अरे लगे हुए थे, उन अरोंमें बारहों आदित्यप्रतिष्ठित थे और बायाँ पहिया सोलह अरोंसे युक्त था। हे सुव्रत ! बायें पहियेके सोलह अरे चन्द्रमाकी सोलह कलाएँ थीं। सभी नक्षत्र उस वामभागके पहियेकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ 6-8 ॥
हे विप्रश्रेष्ठ! छहों ऋतुएँ उन दोनों पहियोंकी नेमि थीं । अन्तरिक्ष उस रथका अग्रभाग हुआ और मन्दराचल रथनीड हुआ। अस्ताचल तथा उदयाचल उसके दोनों कूबर कहे गये हैं। महामेरु उस रथका अधिष्ठान तथा अन्य पर्वत उसके केसर थे। संवत्सर उस रथका वेग था तथा दोनों अयन (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) चक्रोंके संगम थे। मुहूर्त उसके बन्धुर (बन्धन) तथा कलाएँ उसकी कीलियाँ कही गयी हैं। काष्ठा (कलाका तीसवाँ भाग) उसका घोण (जूएका अग्रभाग) और क्षण उसके अक्षदण्ड कहे गये हैं। निमेष उस रथका अनुकर्ष (नीचेका काष्ठ) और लव उसका ईषा कहा गया है ।। 9-12 ॥
लोक इस रथका वरूथ (लोहेका पर्दा) तथा स्वर्ग और मोक्ष उसकी दोनों ध्वजाएँ थीं। भ्रम और कामदुग्ध उसके जूएके दोनों सिर कहे गये हैं ॥ 13 ॥
व्यक्त उसका ईषादण्ड, वृद्धि नड्वल, अहंकार उसके कोने तथा पंचमहाभूत उस रथके बल कहे गये हैं ।॥ 14 ॥
समस्त इन्द्रियाँ ही उस रथके चारों ओरके आभूषण थे हे मुनिसत्तम। श्रद्धा ही उस रथकी गति थी ॥ 15 ॥
हे सुव्रतो ! उस समय षडंग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द तथा ज्योतिष) उसके आभूषण बने। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र उसके उपभूषण बने ।। 16 ।।
सब लक्षणोंसे युक्त वर उसके बलके स्थान कहे गये हैं। वर्णाश्रमधर्म उसके चारों चरण तथा मन्त्र घण्टा कहे गये हैं हजारों फणोंसे विभूषित अनन्त नामक सर्प उस रथके बन्धन हुए, दिशाएँ एवं उपदिशाएँ पाद बनीं पुष्करादि तीर्थ उस रथकी रत्नजटित सुवर्णमय पताकाएँ और चारों समुद्र उस रथको ढँकनेवाले वस्त्र कहे गये हैं ।। 17-19॥सभी प्रकारके आभूषणोंसे भूषित गंगा आदि सभी श्रेष्ठ नदियाँ हाथोंमें चँवर लिये हुए स्त्रीरूपमें सुशोभित होकर जगह-जगह स्थान बनाकर रथकी शोभा बढ़ाने लगीं। आवह आदि सातों वायु स्वर्णमय उत्तम सोपान बने एवं लोकालोक पर्वत उस रथके चारों ओर उपसोपान बने। मानस आदि सरोवर उस रथके बाहरी उत्तम विषम स्थान हुए ll 20-22 ॥
सभी वर्षाचल उस रथके चारों ओरके पाश और तललोकमें निवास करनेवाले सभी प्राणी उस रथके तलके भाग कहे गये हैं। भगवान् ब्रह्मा उसके सारथि और देवतागण घोडेकी रस्सी पकड़नेवाले कहे गये हैं। ब्रह्मदैवत ॐकार उन ब्रह्माका चाबुक था। अकार उसका महान् छत्र, मन्दराचल उस छत्रको धारण करनेवाला पार्श्ववर्ती दण्ड, पर्वतराज सुमेरु धनुष तथा स्वयं भुजंगराज शेषनाग उस धनुषकी डोरी बने । ll 23 - 25 ॥
श्रुतिस्वरूपा भगवती सरस्वती उस धनुषका घण्टा बनीं। महान् तेजस्वी विष्णुको बाण तथा अग्निको उस बाणका शल्य कहा गया है। हे मुने! चारों वेद उस रथके घोड़े कहे गये हैं। सभी प्रकारकी ज्योतियाँ उन अश्वोंकी परम आभूषण बनीं। समस्त विषसम्भूत पदार्थ सेना बने सभी वायु बाजा बजानेवाले कहे गये हैं। व्यास आदि ऋषिगण उसे ढोनेवाले हुए ।। 26 - 28 ।।
[सनत्कुमार बोले- ] हे मुनीश्वर ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, मैं संक्षेपमें ही बताता हूँ कि ब्रह्माण्डमें जो कुछ भी वस्तु है, वह सब उस रथमें विद्यमान कही गयी है ॥ 29 ॥
परम बुद्धिमान् विश्वकर्माने ब्रह्मा तथा विष्णुकी आज्ञासे इस प्रकारके रथ आदिसे युक्त शुभ साधनका भलीभाँति निर्माण किया था ॥ 30 ॥