नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! घर आकर उस ब्राह्मणने परम हर्षसे युक्त होकर अपनी स्त्रीसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥ 1 ॥
यह सुनकर उस विप्रपत्नी शुचिष्मतीको महान् आनन्द प्राप्त हुआ और वह प्रेमयुक्त होकर अपने भाग्यकी सराहना करने लगी ॥ 2 ॥
तदनन्तर कुछ समयके बाद उस ब्राह्मणद्वारा यथाविधि गर्भाधानकर्म किये जानेपर उसकी पत्नी गर्भवती हुई ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उस विद्वान् ब्राह्मणने गृह्यसूत्रमें कथित विधिके अनुसार पुंस्त्वकी वृद्धिके लिये गर्भस्पन्दनके पहले ही भलीभाँति पुंसवन संस्कार किया ll 4 ॥तत्पश्चात् आठवाँ महीना आनेपर क्रियावेत्ता उस ब्राह्मणने सुखपूर्वक प्रसव के लिये गर्भके रूपकी वृद्धि करनेवाला सीमन्त-संस्कार कराया ll 5 ll
तदुपरान्त ताराओके अनुकूल होनेपर बृहस्पतिके केन्द्रवर्ती होनेपर और शुभ ग्रहोंका योग होनेपर शुभ लग्नमें चन्द्रमा समान सुन्दरमुखाला सूतिकागृह दीपकको अपने तेजसे शान्त अर्थात् प्रभाहीन सा करनेवाला तथा सभी अरिष्टोंका विनाश करनेवाला पुत्र उस शुचिष्मतीके गर्भसे उत्पन्न हुआ ॥ 6-7 ॥
वह बालक शिवजी ही थे, जो भूर्भुवः स्वः इन तीनों लोकोंको समग्र सुख देनेके लिये अवतीर्ण हुए। उस समय गन्धको समग्र वहन करनेवाले वायुके वाहन (मेघ) दिशारूपी वधुओंके मुखपर वस्त्रसे बन गये अर्थात् चारों ओर काली घटा उमड़ आयी। वे घनघोर बादल गन्धवाली पुष्पराशिकी वर्षा करने लगे। देवदुन्दुभियाँ बज उठीं और सारी दिशाएँ निर्मल हो गयीं। प्राणियोंके मनोंके साथ चारों ओर नदियाँ स्वच्छ हो गयीं, अन्धकार पूर्णरूपसे दूर हो गया, रजोगुण विरज अर्थात् विनष्ट हो गया। प्राणी सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो गये। [चारों ओरसे] अमृतकी वर्षा होने लगी। सभी प्राणियोंकी वाणी कल्याणकारी और प्रिय लगनेवाली हो गयी ll 8-11 ll
रम्भा आदि अप्सराएँ, विद्याधरियाँ, किन्नरियाँ, देवपत्नियाँ और गन्धर्व-उरग एवं यक्षोंकी पत्नियाँ हजारोंकी संख्यामें अपने-अपने हाथोंमें मंगल द्रव्य धारण किये हुए सुन्दर स्वरोंमें मंगल गीत गाती हुई वहाँ आ गयीं ll 12-13 ll
मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा, वसिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, विभाण्ड, माण्डवीपुत्र लोमश, रोमचरण, भरद्वाज, गौतम, भृगु, गालव, गर्ग, जातूकर्ण्य, पराशर, आपस्तम्ब, याज्ञवल्क्य, दक्ष, वाल्मीकि, मुद्गल, शातातप, लिखित, शिलाद, ठंछवृत्तिसे जीविका चलानेवाले शंख, जमदग्नि, संवर्त, मतंग, भरत, अंशुमान्, व्यास, कात्यायन, कुत्स, शौनक, सुत, शुकशुनारद, तुम्बुरु, उत्तंक, वामदेव, पवन, असित, देवल, सालंकायन, हारीत, विश्वामित्र, भार्गव, अपने पुत्र [[मार्कण्डेय]] के साथ मुकण्ड, पर्वत, दारुक, धौम्य, उपमन्यु वत्स आदि मुनिगण तथा मुनिकन्याएँ उस बालकको [अदृष्ट] शान्तिके लिये विश्वानरके प्रशंसनीय आश्रमपर आ गये । ll 14 - 20 ॥
बृहस्पतिसहित ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु नन्दी भृंगी तथा पार्वतीसहित शंकर, महेन्द्र आदि देवता, पातालवासी नागगण एवं अनेक प्रकारके रत्न लेकर नदियोंसहित समुद्र वहाँ गये और स्थावर [ पर्वत आदि] हजारोंकी संख्यामें जंगमरूप धारणकर वहाँ आये। उस महोत्सवमें अचानक असमयमें चाँदनी उत्पन्न हो गयी ॥ 21-23 ॥
उसके बाद ब्रह्माने विनम्र होकर स्वयं उसका जातकर्म संस्कार किया, फिर वेदविधिका विचार करके ग्यारहवें दिन उसके रूपको देखकर उसका नाम गृहपति रखा। उन्होंने नामकरणके समय श्रुतिके मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए चारों वेदोंके चार मन्त्रोंसे उसे आशीर्वाद देकर लौकिक रीतिका आश्रय लेकर [ रक्षामन्त्रोंसे] उसकी बालोचित रक्षा सम्पन्न की और हंसपर सवार हो सबके पितामह वे ब्रह्माजी अपने धामको चले गये। इसी प्रकार विष्णुके साथ शंकर भी अपने वाहनपर सवार हो अपने लोकको चले गये । ll 24-27 ॥
वे आपसमें विचार कर रहे थे कि अहो! कैसा इसका रूप है, इसका विलक्षण तेज कैसा है और इसके सभी अंगलक्षण कैसे हैं, देखो शुचिष्मती कैसी भाग्यवती है कि [इसके गर्भसे] साक्षात् शिवजी प्रकट हो गये अथवा शिवजीके भक्तोंमें इस प्रकारकी घटना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; जिससे उनके द्वारा अर्चित रुद्र स्वयं प्रकट हो गये ।। 28-29 ।। इस प्रकार आपसमें प्रशंसा करते हुए पुलकित रोमोंवाले सभी देवता विश्वानरसे आज्ञा ले जिस प्रकार आये थे, उसी प्रकार चले गये ॥ 30 ॥
पुत्रवान् व्यक्ति पुत्रसे लोकोंको जीतता है—यह सनातन है, इसीलिये समस्त गृहस्थ पुत्रकी कामना करते हैं ॥ 31 ॥पुत्रहीनका घर सूना है, पुत्रहीनका धन कमाना व्यर्थ है, अपुत्रका तप खण्डित है, जिसको पुत्र नहीं है, वह कभी पवित्र नहीं होता ॥ 32 ॥ पुत्रसे बढ़कर कोई परम लाभ नहीं, पुत्रसे बढ़कर कोई परम सुख नहीं और इस लोक तथा परलोकमें पुत्रसे बढ़कर कोई परम मित्र नहीं है ।। 33 ।। चौथे महीने में गृहपतिके पिता उसका गृहनिष्क्रमण-संस्कार किया। फिर छठे महीनेमें उसका विधिपूर्वक अन्नप्राशन और वर्ष पूरा होनेपर चूडाकरणसंस्कार किया ।। 34 ।।
इसके बाद उस कर्मवेत्ताने श्रवणनक्षत्रमें कर्णवेध करके उसके तेजकी अभिवृद्धिके लिये पाँच वर्षकी अवस्थामें यज्ञोपवीत संस्कार किया ।। 35 ।।
पुनः बुद्धिमान् पिताने उपाकर्मकर उसे वेदोंका अध्ययन कराया। इस प्रकार तीन वर्षमें ही उसने विधिपूर्वक अंग, पद तथा क्रमसहित समस्त वेदोंको पढ़ लिया ll 36 ॥
प्रतिभाशाली उस बालकने गुरु पिताके मुखसे समस्त विद्याएँ अपने विनय आदि गुणोंको प्रकाशित करते हुए मात्र साक्षिभावसे ग्रहण कर लिया ॥ 37 ॥ तदुपरान्त नौवें वर्ष में माता-पिताकी सेवामें निरत गृहपति तथा उसके पिता विश्वानरको देखनेके लिये नारदजी [वहाँ] आये ll 38 ll
कौतुकी देवर्षि नारदजीने विश्वानरको पालामें प्रवेशकर अर्घ्य, आसन आदि क्रमसे ग्रहणकर उनसे कुशल-मंगल पूछा और उसके बाद शिवके चरणोंका ध्यान करके उनके सामने ही उनके समग्र भाग्य तथा पुत्रधर्मका वर्णन विश्वानरसे किया ।। 39-40 ।।
नन्दीश्वर बोले [हे सनत्कुमार। तदुपरान्त] मुनि नारदजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह शोभासम्पन्न बालक माता-पिताकी आज्ञा प्राप्तकर भक्तिपूर्वक उनको नम्रतासे प्रणामकर बैठ गया ॥ 41 ॥
नारदजी बोले - हे तर! मैं तुम्हारे लक्षणोंकी परीक्षा करूंगा तुम आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ और अपना दाहिना हाथ मुझे दिखाओ। तब विद्वान् नारदजी बालकके तालु, जिड़ा आदिको देखकर शिवजी प्रेरणा विश्वानरसे कहने लगे- ll 42-43॥नारदजी बोले - हे विश्वानर ! हे मुने! मैं आपके पुत्रके सब लक्षणोंको कहता हूँ, उसे आदरपूर्वक सुनिये, आपके पुत्रके सभी अंग उत्तम लक्षणोंसे युक्त हैं, इसलिये यह अत्यन्त भाग्यशाली है। किंतु इसके सर्वगुणसम्पन्न, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे समन्वित और चन्द्रमाके समान निर्मल कलाओंसे सुशोभित होनेपर भी विधाता ही इसकी रक्षा करें। इसलिये सब तरहके उपायोंसे इस बालककी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि विधाताके विपरीत होनेपर गुण भी दोष हो जाता है। मुझे इस बातकी शंका है कि बारहवें वर्षमें इसे बिजली अथवा अग्निसे विघ्न है। ऐसा कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे देवलोकको चले गये ॥ 44-47 ॥