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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 17 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 17

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विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना

सनत्कुमार बोले- इसके बाद महापराक्रमी दैत्य शूल, परशु और पट्टिशोंसे भयसे व्याकुल चित्तवाले देवताओंपर प्रहार करने लगे। तब दैत्योंके आयुधोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले इन्द्रसहित सभी देवता भयसे व्याकुलचित्त हो उठे और रणसे भागने लगे। तत्पश्चात् देवताओंको भागते हुए देखकर हृषीकेश विष्णु गरुड़पर सवार होकर शीघ्र ही युद्ध करनेके लिये आ गये ॥ 1-3 ॥भक्तको अभय देनेवाले वे विष्णु चारों ओर प्रकाश फैलाते हुए सुदर्शन चक्रको हाथमें धारण करनेके कारण अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे। हे मुने! समस्त युद्धोंमें विशारद, शंख-खड्ग-गदा एवं शार्ङ्ग धनुष धारण किये हुए, कठोर अस्त्रोंसे युक्त तथा अत्यन्त कुपित उन महावीर विष्णुने शार्ङ्ग नामक धनुष चढ़ाकर उसकी टंकार की, उसके महान् नादसे त्रिलोकी व्याप्त हो गयी ॥ 4-6 ॥

क्रोधमें भरे हुए भगवान् विष्णुने धनुषसे छोड़े गये बाणोंके द्वारा करोड़ों दैत्योंके सिर काट डाले ॥ 7 ॥ उस समय अरुणके छोटे भाई गरूड़के पंखोंकी वायुके वेगसे पीड़ित हुए दैत्य आकाशमें पवनप्रेरित बादलोंके समान चक्कर काटने लगे तब दैत्योंको गरुड़के पंखोंकी आँधीसे पीड़ित देखकर देवताओंमें भय उत्पन्न करनेवाले महादैत्य जलन्धरने अत्यधिक क्रोध किया ।। 8-9 ।

उन्हें दैत्योंको मर्दित करता हुआ देखकर फड़कते हुए ओठोंवाला वह जलन्धर विष्णुसे युद्ध करनेके लिये वेगपूर्वक आ गया उस दैत्यपतिने देवताओं तथा असुरोंको भय उत्पन्न करनेवाला महानाद किया, उससे [सुननेवालोंके] कान विदीर्ण हो गये । ll 10-11 ॥

दैत्य जलन्धरके महाभयंकर नादसे सारा जगत् व्याप्त हो गया और काँप उठा ॥ 12 ॥

इसके बाद बाणोंसे आकाशको पूर्ण करते हुए विष्णु तथा उस दैत्येन्द्रमें घमासान युद्ध होने लगा ॥ 13 ll हे मुने! परस्पर उन दोनोंके उस भयंकर युद्धसे देवों, असुरों, ऋषियों तथा सिद्धोंको बड़ा आश्चर्य उत्पन्न हुआ। विष्णुने दैत्यकी छातीमें एक बाणसे प्रहार करते हुए बाणसमूहोंसे उसके ध्वज, छत्र, धनुष तथा बाणोंको काट दिया। इसी बीच उस दैत्यने भी बड़ी शीघ्रतासे हाथमें गदा लेकर उछलकर [ उस गदासे] गरुड़के सिरपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया ।। 14–16 ॥

फड़कते हुए ओठोंवाले उस दैत्यने कुपित होकर अपने चमचमाते हुए तीक्ष्ण शूलसे भगवान् विष्णुकी छातीपर भी प्रहार किया ॥ 17 ॥उसके बाद दैत्यनाशक विष्णुने हँसते हुए अपने खड्गसे उसकी गदा काट दी और शार्ङ्ग धनुषकी प्रत्यंचा चढ़ाकर तीक्ष्ण बाणोंसे उसे बेध दिया ॥ 18 ॥ इस प्रकार देवताओंके शत्रुओंका वध करनेवाले विष्णु क्रोधमें भरकर अत्यन्त तीक्ष्ण एवं भयदायक
बाणसे जलन्धर दैत्यपर शीघ्रतासे प्रहार करने लगे ॥ 19 ॥ तब महाबली दैत्यने उनके बाणको आया हुआ देखकर अपने बाणसे उसे काटकर बड़ी शीघ्रतासे विष्णुकी छातीपर प्रहार किया ॥ 20 ॥

महाबाहु वीर विष्णु भी असुरके द्वारा छोड़े गये, उस बाणको तिलके समान काटकर गर्जन करने लगे ॥ 21 ॥ फिर क्रोधसे काँपते हुए विष्णुने जब दूसरा बाण धनुषपर रखा, तभी महाबली उस दैत्यने अपने बाणसे उस बाणको काट डाला। तब वासुदेव विष्णुने क्रोधपूर्वक उस राक्षसके विनाशके लिये पुनः धनुषपर बाण चढ़ाया और सिंहकी भाँति गर्जना की। बलशाली दैत्येन्द्र जलन्धरने भी क्रोधसे अपने ओठोंको काटते हुए अपने बाणसे विष्णुके उस शार्ङ्ग नामक धनुषको काट डाला ॥ 22-24 ॥

इसके बाद देवताओंको भय देनेवाला, उग्र पराक्रमवाला तथा महावीर वह दैत्य तीक्ष्ण बाणोंसे मधुसूदनपर प्रहार करने लगा। तब कटे हुए धनुषवाले लोकरक्षक भगवान् विष्णुने जलन्धरके विनाशके लिये अपनी विशाल गदा चलायी। जलती हुई अग्निके समान विष्णुके द्वारा चलायी गयी वह अमोघ गदा बड़ी शीघ्रतासे उस राक्षसके शरीरमें लगी ।। 25-27 ॥ वह महादैत्य उसके प्रहारसे पुष्पमालासे आहत हुए मदोन्मत्त हाथीके समान कुछ भी विचलित नहीं हुआ ॥ 28 ॥

तदनन्तर देवताओंमें भय उत्पन्न करनेवाले रणदुर्मद उस जलन्धरने क्रोधमें भरकर अग्निके सदृश त्रिशूल विष्णुपर चलाया। तब विष्णुने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अपने नन्दक नामक खड्गसे शीघ्र ही बड़ी तेजीसे उस त्रिशूलको काट दिया। त्रिशूलके कट जानेपर उस दैत्यने सहसा उछलकर शीघ्रतापूर्वक आकर अपनी दृढ़ मुष्टिसे : | विष्णुकी छातीपर प्रहार किया ॥ 29-31 ॥तब उन महावीर विष्णुने भी उस व्यथाकी | चिन्ता न करके अपनी दृढ़ मुष्टिसे जलन्धरके हृदयपर प्रहार किया। तदनन्तर जानुओं, बाहुओं एवं मुष्टियोंसे पृथ्वीको शब्दायमान करते हुए उन दोनों महावीरोंका बाहुयुद्ध होने लगा। हे मुनिश्रेष्ठ। इस प्रकार उस दैत्यसे बहुत देरतक युद्ध करके विष्णु विस्मित हो गये और मनमें दुःखका अनुभव करने लगे। इसके बाद मायाविदोंमें श्रेष्ठ तथा माया करनेवाले विष्णुने प्रसन्न होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें दैत्यराजसे कहा- ॥ 32-35 ॥

विष्णुजी बोले- हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम महाप्रभु रणदुमंद तथा धन्य हो, जो इन उत्तम आयुधों से तनिक भी भयभीत नहीं हुए। मैंने इन्हीं उग्र आयुधोंसे महायुद्ध में बहुत से दुर्मद तथा वीर दैत्योंको मारा है, वे छिन्नदेह होकर मृत्युको प्राप्त हो गये। हे महादैत्य! मैं तुम्हारे युद्धसे प्रसन्न हो गया हूँ, तुम महान् हो, तुम्हारे समान वीर चराचरसहित त्रिलोकीमें आजतक दिखायी नहीं पड़ा ॥ 36-38 ॥

हे दैत्यराज तुम्हारे पराक्रमसे मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे मनमें जो भी हो, उस वरको माँगो, वह अदेय हो, तो भी तुम्हें दूंगा ॥ 39 ॥

सनत्कुमार बोले- उन महामायावी विष्णुका यह वचन सुनकर महाबुद्धिमान् दैत्यराज जलन्धरने कहा- ll 40 ll

जलन्धर बोला- हे भावुक ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे यह वरदान दीजिये कि आप मेरी बहन (महालक्ष्मी) तथा अपने गणोंके साथ मेरे घरमें निवास करेंगे ॥ 41 ॥

सनत्कुमार बोले- उस महादैत्यके इस वचनको सुनकर खिन्न मनवाले देवेश भगवान् विष्णुने-'ऐसा ही हो' यह कहा ॥ 42 ॥ उसके बाद विष्णुजी सभी देवताओं एवं महालक्ष्मी के साथ जलन्धरके नगरमें आकर निवास करने लगे ll 43 ।।

तब हर्षसे पूर्ण मनवाला वह जलन्धर भी अपने | घर आकर अपनी बहन लक्ष्मी और विष्णुके साथ निवास करने लगा ॥ 44 ॥वह जलन्धर देवताओंके अधिकारपर दानवोंको नियुक्तकर हर्षित होकर पुनः पृथ्वीपर लौट आया ।। 45 ।।

वह सागरपुत्र जलन्धर देव, गन्धर्व एवं सिद्धोंके पास जो रत्न संचित था, उसे अपने अधीन करके रहने लगा। वह महाबली पाताललोकमें महाबलवान् निशुम्भ नामक दैत्यको स्थापितकर शेषादिको पृथ्वीपर ले आया और देव, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस तथा मनुष्योंको अपने पुरमें नागरिक बनाकर तीनों लोकोंपर शासन करने लगा ॥46 – 48 ll

इस प्रकार देवगणोंको अपने वशमें करके जलन्धर धर्मपूर्वक प्रजाओंका पालन वैसे ही करने लगा, जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका पालन करता है। उसके धर्मपूर्वक राज्यका शासन करते रहनेपर कोई भी रोगी, दुखी, दुर्बल और दीन नहीं दिखायी पड़ता था । ll 49-50 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य