ब्रह्माजी बोले- हे नारद। यह सुनकर भक्तोंके ऊपर कृपा करनेवाले महेश्वरने आपके कहनेसे उस बालकके साथ युद्ध करनेकी इच्छा की ॥ 1 ॥
भगवान् त्रिलोचन विष्णुको बुलाकर उनसे मन्त्रणाकर एक बहुत बड़ी सेनासे युक्त होकर देवताओंक सहित उस गणेशके सम्मुख उपस्थित हुए ॥ 2 ॥ उस समय सर्वप्रथम शिवकी शुभ दृष्टिसे देखे गये महाबलवान् देवता महान् उत्साहवाले शिवजीके चरण-कमलोंका ध्यान करके उसके साथ युद्धमें प्रवृत्त हुए ॥ 3 ॥
महाबलवान् एवं अत्यन्त पराक्रमशील भगवान् विष्णु उस बालकसे युद्ध करने लगे तब महादेवीके द्वारा दिये गये आयुधसे युक्त वह शिवस्वरूप वीर बालक गणेश भी श्रेष्ठ देवताओंको लाठीसे मारने लगा, शक्तिके द्वारा प्रदत्त महान् बलवाला वह सहसा विष्णुपर भी प्रहार करने लगा ll 4-5 llहे मुने। उसकी लाठी प्रहारसे विष्णुसहित
समस्त देवताओंके बल कुण्ठित हो गये और वे युद्धसे पराङ्मुख हो गये । हे मुने! शिवजी भी अपनी सेनाके सहित बहुत कालतक युद्धकर उस बालकको महाभयंकर देखकर आश्चर्यचकित हो गये ॥ 7 ॥ 'इसे छलसे ही मारा जा सकता है, अन्यथा नहीं मारा जा सकता है'-ऐसा विचारकर शिवजी सेनाओंके बीचमें स्थित हो गये ॥ 8 ॥ उस समय निर्गुण एवं सगुण रूपवाले भगवान् शंकरको तथा विष्णुको बुद्धभूमिमें उपस्थित देखकर देवता तथा शिवगण अत्यधिक हर्षित हुए और वे सब आपस में मिलकर प्रेमपूर्वक उत्सव मनाने लगे ॥ 9-10 ॥ तब महाशक्तिके पुत्र बीर गणेशने बड़ी बहादुरी के साथ सर्वप्रथम अपनी लाठीसे सबको सुख देनेवाले विष्णुकी पूजा की अर्थात् उनपर प्रहार किया ॥ 11 ॥
विष्णुने शिवजीसे कहा—' यह बालक बड़ा तामसी है और युद्धमें दुराधर्ष है, बिना छलके इसे नहीं मारा जा सकता, अतः हे विभो ! मैं इसे मोहित करता हूँ और आप इसका वध कीजिये इस प्रकारकी बुद्धि करके तथा शिवसे मन्त्रणा करके और शिवकी आज्ञा प्राप्तकर विष्णुजी [गणेशको] मोहपरायण करनेमें संलग्न हो गये ।। 12-13 ।।
हे मुने! विष्णुको वैसा देखकर वे दोनों शक्तियाँ गणेशको अपनी-अपनी शक्ति समर्पितकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं। तब उन दोनों शक्तियोंके लीन हो जानेपर महाबलवान् गणेशने, जहाँ विष्णु स्वयं स्थित थे, वहीँपर अपना परिघ फेंका ।। 14-15 ll
विष्णुने अपने प्रभु भक्तवत्सल महेश्वरका स्मरणकर यत्न करके उस परिघकी गतिको विफल कर दिया ।। 16 ।।
तब एक ओरसे उसके मुखको देखकर अत्यन्त कुपित हुए शिवजी भी अपना त्रिशूल लेकर युद्धकी इच्छासे वहाँ आ गये ॥ 17 ॥
तब वीर तथा महाबली शिवापुत्रने हाथ में त्रिशूल लेकर मारनेकी इच्छासे आये हुए महेश्वर शिवको देखा ॥ 18 ॥तब अपनी माताके चरणकमलोंका स्मरण करके
शिवाकी शक्तिसे प्रवर्धित होकर उस महावीर गणेशने शक्तिसे उनके हाथपर प्रहार किया ॥ 19 ॥ तब परमात्मा शिवके हाथसे त्रिशूल गिर पड़ा, यह देखकर उत्तम लीला करनेवाले शिवने अपना पिनाक नामक धनुष उठा लिया ॥ 20 ॥
गणेश्वरने अपने परिघसे उस धनुषको भूमिपर गिरा दिया और परियके पाँच प्रहारोंसे उनके पाँच हाथोंको घायल कर दिया। तब शंकरने त्रिशूल ग्रहण किया और लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए वे अपने मनमें कहने लगे-अहो! इस समय जब मुझे महान् क्लेश प्राप्त हुआ, तब गणोंकी क्या दशा हुई होगी ? ॥ 21-22 ।।
इसी बीच शक्तिके द्वारा दिये गये बलसे युक्त वीर गणेशने गणोंसहित देवताओंको परिघसे मारा। तब परिघके प्रहारसे आहत गणसहित सभी | देवता दसों दिशाओंमें भाग गये और अद्भुत प्रहार करनेवाले उस बालकके सामने कोई भी ठहर न सका ।। 23-24 ॥
विष्णु भी उस गणको देखकर बोले- यह धन्य, महाबलवान्, महावीर, महाशूर तथा रणप्रिय योद्धा है मैंने बहुत-से देवता, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व एवं राक्षसोंको देखा है, किंतु सम्पूर्ण त्रिलोकीमें तेज, रूप, गुण एवं शौर्यादिमें इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता ।। 25-27 ॥
विष्णु इस प्रकार कह ही रहे थे कि शिवापुत्र गणेशने अपना परिघ घुमाते हुए विष्णुपर फेंका ॥ 28 ॥ तब विष्णुने भी चक्र लेकर शिवजीके चरण कमलका ध्यान करके उस चक्रसे परिधके टुकड़े टुकड़े कर दिये ।। 29 ।।
गणेश्वरने उस परिधके टुकड़ेको लेकर विष्णुपर प्रहार किया। तब गरुड़ पक्षीने उसे पकड़कर विफल बना दिया ॥ 30 ॥ इस प्रकार बहुत समयतक विष्णु एवं गणेश्वर
दोनों ही वीर परस्पर युद्ध करते रहे ॥ 31 ॥ पुनः वीरोंमें श्रेष्ठ बलवान् शक्तिपुत्रने शिवका स्मरणकर अनुपम लाठी लेकर उससे विष्णुपर प्रहार किया ।। 32 ।।विष्णु उस प्रहारको सहन करनेमें असमर्थ होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और पुनः शीघ्रतासे उठकर उस शिवा-पुत्रसे संग्राम करने लगे ॥ 33 ॥ इसी बीच अवसर पाकर पीछेसे आकर शूलपाणि शंकरने त्रिशूलसे उसका सिर काट लिया ॥ 34 ॥ हे नारद! तब उस गणेशका सिर कट जानेपर गणोंकी
सेना तथा देवगणोंकी सेना निश्चिन्त हो गयी ॥ 35 ॥
उसके बाद आप नारदने जाकर देवीसे सब कुछ निवेदन किया और यह भी कहा – हे मानिनि ! सुनिये, आप इस समय अपना मान मत छोड़ना ॥ 36 ॥
हे नारद! इस प्रकार कहकर कलहप्रिय आप अन्तर्धान हो गये; आप विकाररहित हैं तथा शिवजीकी | इच्छाके अनुसार चलनेवाले मुनि हैं ॥ 37 ॥