व्यासजी बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है। हे श्रेष्ठ शिवभक्त! आप धन्य हैं, जो आपने शंकरजीकी यह महादिव्य शुभ कथा सुनायी हे मुने! अब आप प्रेमपूर्वक श्रीविष्णुजीके चरित्रको सुनाइये, उन्होंने वृन्दाको मोहितकर क्या किया और वे कहाँ गये ? ll 1-2 ॥
सनत्कुमार बोले - हे महाप्राज्ञ हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ व्यासजी ! अब आप शिवचरित्रसे परिपूर्ण तथा निर्मल विष्णुचरित्रको सुनिये। जब ब्रह्मादिक देवता [स्तुतिकर] मौन हो गये, तब शरणागतवत्सल शंकर अति प्रसन्न होकर कहने लगे-॥ 3-4 ॥शम्भु बोले- हे ब्रह्मन् ! हे सभी श्रेष्ठ देवगण! मैं यह सत्य सत्य कह रहा हूँ कि यद्यपि जलन्धर मेरा ही अंश था, फिर भी मैंने आपलोगोंके लिये उसका वध किया। हे तात! हे देवतागण ! आपलोग सच सच बताइये कि आपलोगोंको सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं। सर्वदा मुझ निर्विकारकी लीला आपलोगोंके निमित्त ही हुआ करती है ॥ 5-6 ॥
सनत्कुमार बोले- तदनन्तर देवताओंके नेत्र हर्षसे खिल उठे और वे शंकरजीको प्रणामकर विष्णुका वृत्तान्त निवेदन करने लगे ॥ 7 ॥
देवता बोले- हे महादेव! हे देव! आपने शत्रुओंके भयसे हमारी रक्षा की, किंतु एक बात और हुई है, उसमें हम क्या करें ? ॥ 8 ॥
हे नाथ! विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और वह शीघ्र ही अग्निमें भस्म होकर परम गतिको प्राप्त हुई है, किंतु इस समय वृन्दाके लावण्यपर आसक्त हुए विष्णु मोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारण करते हैं, वे आपकी मायासे विमोहित हो गये हैं । ll 9-10 ll
सिद्धों, मुनियों तथा हमलोगोंने उन्हें बड़े आदरके साथ समझाया, किंतु वे हरि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण कुछ भी नहीं समझ रहे हैं ॥ 11 ॥ अतः हे महेशान! आप कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये यह प्राकृत सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके ही अधीन है ॥ 12 ॥ सनत्कुमार बोले- देवगणोंके इस वचनको सुनकर महालीला करनेवाले तथा स्वतन्त्र [भगवान् ] शंकर | हाथ जोड़े हुए उन देवगणोंसे कहने लगे - ll 13 ॥
महेश बोले- हे ब्रह्मन्! हे देवो! आपलोग श्रद्धापूर्वक मेरे वचनको सुनें सम्पूर्ण लोकोंको मोहित करनेवाली मेरी माया दुस्तर है। देवता, असुर एवं मनुष्योंके सहित सारा जगत् उसीके अधीन है। उसी मायासे मोहित होनेके कारण विष्णु कामके अधीन हो गये हैं ll 14-15 ।।
वह माया ही उमा नामसे विख्यात है, जो इन तीनों देवताओंकी जननी है। वही मूलप्रकृति तथा परम मनोहर गिरिजाके नामसे विख्यात है।हे देवताओ! आपलोग विष्णुका मोह दूर करनेके लिये शीघ्र ही शरणदायिनी, मोहिनी तथा सभी |कामनाएँ पूर्ण करनेवाली शिवा नामक मायाकी शरणमें | जाइये और उस मेरी शक्तिको सन्तुष्ट करनेवाली स्तुति | कीजिये, यदि वे प्रसन्न हो जायँगी तो [आपलोगोंका ] सारा कार्य पूर्ण करेंगी ॥ 16-18 ॥
सनत्कुमार बोले- हे व्यास! पंचमुख भगवान् शंकर हर उन देवताओंसे ऐसा कहकर अपने सभी गणोंके साथ अन्तर्धान हो गये और शंकरकी आज्ञाके अनुसार इन्द्रसहित ब्रह्मादिक देवता मनसे भक्तवत्सला मूलप्रकृतिकी स्तुति करने लगे ॥ 19-20 ॥
देवता बोले- जिस मूलप्रकृतिसे उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम ये गुण इस सृष्टिका सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और जिसकी इच्छासे इस विश्वका आविर्भाव तथा तिरोभाव होता है, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं। जो परा शक्ति शब्द आदि तेईस गुणोंसे समन्वित हो इस जगत्में व्याप्त है, जिसके रूप और कर्मको वे तीनों लोक नहीं जानते, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं । ll 21-22 ॥
जिनकी भक्तिसे युक्त पुरुष दारिद्र्य, मोह, उत्पत्ति तथा विनाश आदिको नहीं प्राप्त करते हैं, उन भक्त वत्सला मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं ॥ 23 ॥
हे महादेवि! हे परमेश्वरि! हम देवताओंका कार्य कीजिये हे शिवे विष्णुके मोहको दूर कीजिये। हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है ॥ 24 ॥
हे देवि! कैलासवासी शंकर एवं जलन्धरके युद्धमें उसका वध करनेके लिये शिवके प्रवृत्त होनेपर गौरीके आदेशसे ही विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और उसका सतीत्व नष्ट किया। तब वह अग्निमें भस्म हो गयी और उत्तम गतिको प्राप्त हुई ॥ 25-26 ॥
तब भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले शंकरने हमलोगोंपर कृपा करके जलन्धरका वध कर दिया और हम सभीको उसके भयसे मुक्त भी कर दिया है। ll 207 ll
हे देवि! हम सभी उन शंकरकी आज्ञासे आपकी शरणमें आये हैं; क्योंकि आप और शंकर दोनों ही अपने भक्तोंका उद्धार करनेमें निरत रहते हैं ॥ 28 ॥[[हे] भगवति।] वृन्दाके लावण्यसे भ्रमित हुए विष्णु इस समय ज्ञानसे भ्रष्ट तथा विमोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारणकर वहीं स्थित हैं ॥ 29 ॥ हे महेश्वरि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सिद्धों तथा देवताओंके द्वारा समझाये जानेपर भी वे विष्णु नहीं समझ रहे हैं। हे महादेवि! कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये, जिससे देवताओंका कार्य करनेवाले से विष्णु स्वस्थचित होकर अपने लोककी रक्षा करें ॥ 30-31 ll
इस प्रकारकी स्तुति करते हुए देवताओंने अपनी कान्तिसे समस्त दिशाओंको व्याप्त किये हुए एक तेजोमण्डलको आकाशमें स्थित देखा हे व्यास! इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवताओंने मनोरथोंको देनेवाली आकाशवाणी उस [तेजोमण्डल] के मध्यसे सुनी ।। 32-33 ।।
आकाशवाणी बोली- हे देवताओ! मैं ही तीन प्रकारके गुणोंके द्वारा अलग-अलग तीन रूपोंमें स्थित हूँ; रजोगुणरूपसे गौरी, सत्त्वगुणसे लक्ष्मी तथा तमोगुणसे सुराज्योतिके रूपमें स्थित हूँ । अतः आपलोग मेरी आज्ञासे उन देवियोंके समीप आदरपूर्वक जाइये, वे प्रसन्न होकर उस मोरको पूर्ण करेंगी ।। 34-35 ।।
सनत्कुमार बोले- हे मुने! विस्मयसे उत्फुल्ल नेवाले देवताओंद्वारा उस बागीको सुनते ही वह तेज अन्तर्धान हो गया। तत्पश्चात् सभी देवगण उस आकाश वाणीको सुनकर तथा उस वाक्यसे प्रेरित होकर गौरी, लक्ष्मी तथा सुरादेवीको प्रणाम करने लगे ।। 36-37 ॥
ब्रह्मादि सभी देवताओंने नतमस्तक होकर विविध स्तुतियोंसे परम भक्तिपूर्वक उन देवियोंकी स्तुति की ॥ 38 ॥
हे व्यासजी। तब वे देवियाँ अपने अद्भुत तेजसे सभी दिशाओंको प्रकाशित करती हुई शीघ्र हो उनके समक्ष प्रकट हो गयीं। तब देवताओंने उन देवियोंको देखकर अत्यन्त प्रसन्नमनसे उन्हें प्रणाम करके भक्तिसे उनकी स्तुति की और अपना कार्य निवेदित किया ।। 39-40 ।।इसके बाद भक्तवत्सला उन देवियांने प्रणाम करते हुए देवताओंको देखकर उन्हें अपना-अपना बीज दिया और आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहा— ॥ 41 ॥ देवियाँ बोली [हे] देवगणो!] जहाँ विष्णु स्थित हैं, वहाँ इन बीजोंको बो देना, इससे आपलोगोंका कार्य सिद्ध हो जायगा ॥ 42 ॥
सनत्कुमार बोले - हे मुने! इस प्रकार कहकर वे देवियाँ अन्तर्धान हो गयीं। वे ब्रह्मा, विष्णु तथा | स्वकी त्रिगुणात्मक शक्तियाँ थीं तब इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रसन्न हो गये और उन बौको लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् विष्णु स्थित थे ।। 43-44 ।।
हे मुने! उन देवताओंने वृन्दाकी चिताके नीचे भूतलपर उन बीजोंको डाल दिया और उन शिव-शक्तियोंका स्मरण करके वे वहीँपर स्थित हो गये ll 45 ll
हे मुनीश्वर उन डाले गये बीजोंसे धात्री, मालती तथा तुलसी नामक तीन वनस्पतियाँ उत्पन्न हो गर्यो। धात्रीके अंशसे धात्री, महालक्ष्मीके अंशसे मालती तथा गौरीके अंशसे तुलसी हुई, जो तम, सत्त्व तथा रजोगुणसे युक्त थीं ll 46-47 ।।
हे मुने तब स्वरूपिणी उन वनस्पतियोंको देखकर उनके प्रति विशेष रागविलासके विभ्रमसे युक्त होकर विष्णुजी उठ बैठे उन्हें देखकर मोहके कारण कामासक्त चित्तसे वे उनके प्रेमकी याचना करने लगे। तुलसी एवं धात्रीने भी रागपूर्वक उनका अवलोकन किया ।। 48-49 ।।
सर्वप्रथम लक्ष्मीने जिस बीजको मायासे देवताओंको दिया था, उससे उत्पन्न हुई स्त्री मालती उनसे ईर्ष्या करने लगी। इसलिये वह बर्बरी - इस गर्हित नामसे पृथ्वीपर विख्यात हुई और धात्री तथा तुलसी रागके कारण उन विष्णुके लिये सदा प्रीतिप्रद हुई ।। 50-51 ॥
तब विष्णुका दुःख दूर हो गया और वे सभी | देवताओंसे नमस्कृत होते हुए प्रसन्न होकर उन दोनोंके साथ वैकुण्ठ लोकको चले गये। हे विप्रेन्द्र | कार्तिकके महीने में धात्री और तुलसीको सभी देवताओंके लिये प्रिय जानना चाहिये और विशेष करके येविष्णुको अत्यन्त प्रिय हैं। हे महामुने। उन दोनोंमें भी तुलसी अत्यन्त श्रेष्ठ तथा धन्य है। यह गणेशको | छोड़कर सभी देवताओंको प्रिय है तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है ।। 52-54 ॥
इस प्रकार ब्रह्मा, इन्द्र आदि वे देवता विष्णुको वैकुण्ठमें स्थित देखकर उनको नमस्कारकर तथा उनकी स्तुतिकर अपने अपने स्थानको चले गये ।। 55 ।।
हे मुनिश्रेष्ठ मोह भंग हो जानेसे विष्णुजी ज्ञान प्राप्तकर शिवजीका स्मरण करते हुए अपने वैकुण्ठलोकमें सुखपूर्वक निवास करने लगे। यह आख्यान मनुष्योंके सभी पापको दूर करनेवाला, मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, समस्त कामविकारोंको नष्ट करनेवाला तथा सभी प्रकारके विज्ञानको बढ़ानेवाला है ।। 56-57 ॥
जो भक्तिसे युक्त होकर इस आख्यानको नित्य पढ़ता, पढ़ाता है, सुनता अथवा सुनाता है, वह परम गतिको प्राप्त करता है। जो बुद्धिमान् वीर इस अत्युत्तम आख्यानको पढ़कर संग्राममें जाता है, वह विजयी होता है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 58-59 ।।
यह [ आख्यान ] ब्राह्मणोंको ब्रह्मविद्या देनेवाला, क्षत्रियोंको जय प्रदान करनेवाला, वैश्योंको अनेक प्रकारका धन देनेवाला तथा शूद्रोंको सुख देनेवाला है ॥ 60 ॥
हे व्यासजी। यह शिवजीमें भक्ति प्रदान करनेवाला, सभीके पापोंका नाश करनेवाला और इस लोक तथा परलोकमें उत्तम गति देनेवाला है ॥ 61 ॥