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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 26 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 26

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विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान

व्यासजी बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है। हे श्रेष्ठ शिवभक्त! आप धन्य हैं, जो आपने शंकरजीकी यह महादिव्य शुभ कथा सुनायी हे मुने! अब आप प्रेमपूर्वक श्रीविष्णुजीके चरित्रको सुनाइये, उन्होंने वृन्दाको मोहितकर क्या किया और वे कहाँ गये ? ll 1-2 ॥

सनत्कुमार बोले - हे महाप्राज्ञ हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ व्यासजी ! अब आप शिवचरित्रसे परिपूर्ण तथा निर्मल विष्णुचरित्रको सुनिये। जब ब्रह्मादिक देवता [स्तुतिकर] मौन हो गये, तब शरणागतवत्सल शंकर अति प्रसन्न होकर कहने लगे-॥ 3-4 ॥शम्भु बोले- हे ब्रह्मन् ! हे सभी श्रेष्ठ देवगण! मैं यह सत्य सत्य कह रहा हूँ कि यद्यपि जलन्धर मेरा ही अंश था, फिर भी मैंने आपलोगोंके लिये उसका वध किया। हे तात! हे देवतागण ! आपलोग सच सच बताइये कि आपलोगोंको सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं। सर्वदा मुझ निर्विकारकी लीला आपलोगोंके निमित्त ही हुआ करती है ॥ 5-6 ॥

सनत्कुमार बोले- तदनन्तर देवताओंके नेत्र हर्षसे खिल उठे और वे शंकरजीको प्रणामकर विष्णुका वृत्तान्त निवेदन करने लगे ॥ 7 ॥

देवता बोले- हे महादेव! हे देव! आपने शत्रुओंके भयसे हमारी रक्षा की, किंतु एक बात और हुई है, उसमें हम क्या करें ? ॥ 8 ॥

हे नाथ! विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और वह शीघ्र ही अग्निमें भस्म होकर परम गतिको प्राप्त हुई है, किंतु इस समय वृन्दाके लावण्यपर आसक्त हुए विष्णु मोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारण करते हैं, वे आपकी मायासे विमोहित हो गये हैं । ll 9-10 ll

सिद्धों, मुनियों तथा हमलोगोंने उन्हें बड़े आदरके साथ समझाया, किंतु वे हरि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण कुछ भी नहीं समझ रहे हैं ॥ 11 ॥ अतः हे महेशान! आप कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये यह प्राकृत सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके ही अधीन है ॥ 12 ॥ सनत्कुमार बोले- देवगणोंके इस वचनको सुनकर महालीला करनेवाले तथा स्वतन्त्र [भगवान् ] शंकर | हाथ जोड़े हुए उन देवगणोंसे कहने लगे - ll 13 ॥

महेश बोले- हे ब्रह्मन्! हे देवो! आपलोग श्रद्धापूर्वक मेरे वचनको सुनें सम्पूर्ण लोकोंको मोहित करनेवाली मेरी माया दुस्तर है। देवता, असुर एवं मनुष्योंके सहित सारा जगत् उसीके अधीन है। उसी मायासे मोहित होनेके कारण विष्णु कामके अधीन हो गये हैं ll 14-15 ।।

वह माया ही उमा नामसे विख्यात है, जो इन तीनों देवताओंकी जननी है। वही मूलप्रकृति तथा परम मनोहर गिरिजाके नामसे विख्यात है।हे देवताओ! आपलोग विष्णुका मोह दूर करनेके लिये शीघ्र ही शरणदायिनी, मोहिनी तथा सभी |कामनाएँ पूर्ण करनेवाली शिवा नामक मायाकी शरणमें | जाइये और उस मेरी शक्तिको सन्तुष्ट करनेवाली स्तुति | कीजिये, यदि वे प्रसन्न हो जायँगी तो [आपलोगोंका ] सारा कार्य पूर्ण करेंगी ॥ 16-18 ॥

सनत्कुमार बोले- हे व्यास! पंचमुख भगवान् शंकर हर उन देवताओंसे ऐसा कहकर अपने सभी गणोंके साथ अन्तर्धान हो गये और शंकरकी आज्ञाके अनुसार इन्द्रसहित ब्रह्मादिक देवता मनसे भक्तवत्सला मूलप्रकृतिकी स्तुति करने लगे ॥ 19-20 ॥

देवता बोले- जिस मूलप्रकृतिसे उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम ये गुण इस सृष्टिका सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और जिसकी इच्छासे इस विश्वका आविर्भाव तथा तिरोभाव होता है, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं। जो परा शक्ति शब्द आदि तेईस गुणोंसे समन्वित हो इस जगत्‌में व्याप्त है, जिसके रूप और कर्मको वे तीनों लोक नहीं जानते, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं । ll 21-22 ॥

जिनकी भक्तिसे युक्त पुरुष दारिद्र्य, मोह, उत्पत्ति तथा विनाश आदिको नहीं प्राप्त करते हैं, उन भक्त वत्सला मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं ॥ 23 ॥

हे महादेवि! हे परमेश्वरि! हम देवताओंका कार्य कीजिये हे शिवे विष्णुके मोहको दूर कीजिये। हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है ॥ 24 ॥

हे देवि! कैलासवासी शंकर एवं जलन्धरके युद्धमें उसका वध करनेके लिये शिवके प्रवृत्त होनेपर गौरीके आदेशसे ही विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और उसका सतीत्व नष्ट किया। तब वह अग्निमें भस्म हो गयी और उत्तम गतिको प्राप्त हुई ॥ 25-26 ॥

तब भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले शंकरने हमलोगोंपर कृपा करके जलन्धरका वध कर दिया और हम सभीको उसके भयसे मुक्त भी कर दिया है। ll 207 ll

हे देवि! हम सभी उन शंकरकी आज्ञासे आपकी शरणमें आये हैं; क्योंकि आप और शंकर दोनों ही अपने भक्तोंका उद्धार करनेमें निरत रहते हैं ॥ 28 ॥[[हे] भगवति।] वृन्दाके लावण्यसे भ्रमित हुए विष्णु इस समय ज्ञानसे भ्रष्ट तथा विमोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारणकर वहीं स्थित हैं ॥ 29 ॥ हे महेश्वरि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सिद्धों तथा देवताओंके द्वारा समझाये जानेपर भी वे विष्णु नहीं समझ रहे हैं। हे महादेवि! कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये, जिससे देवताओंका कार्य करनेवाले से विष्णु स्वस्थचित होकर अपने लोककी रक्षा करें ॥ 30-31 ll

इस प्रकारकी स्तुति करते हुए देवताओंने अपनी कान्तिसे समस्त दिशाओंको व्याप्त किये हुए एक तेजोमण्डलको आकाशमें स्थित देखा हे व्यास! इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवताओंने मनोरथोंको देनेवाली आकाशवाणी उस [तेजोमण्डल] के मध्यसे सुनी ।। 32-33 ।।

आकाशवाणी बोली- हे देवताओ! मैं ही तीन प्रकारके गुणोंके द्वारा अलग-अलग तीन रूपोंमें स्थित हूँ; रजोगुणरूपसे गौरी, सत्त्वगुणसे लक्ष्मी तथा तमोगुणसे सुराज्योतिके रूपमें स्थित हूँ । अतः आपलोग मेरी आज्ञासे उन देवियोंके समीप आदरपूर्वक जाइये, वे प्रसन्न होकर उस मोरको पूर्ण करेंगी ।। 34-35 ।।

सनत्कुमार बोले- हे मुने! विस्मयसे उत्फुल्ल नेवाले देवताओंद्वारा उस बागीको सुनते ही वह तेज अन्तर्धान हो गया। तत्पश्चात् सभी देवगण उस आकाश वाणीको सुनकर तथा उस वाक्यसे प्रेरित होकर गौरी, लक्ष्मी तथा सुरादेवीको प्रणाम करने लगे ।। 36-37 ॥

ब्रह्मादि सभी देवताओंने नतमस्तक होकर विविध स्तुतियोंसे परम भक्तिपूर्वक उन देवियोंकी स्तुति की ॥ 38 ॥

हे व्यासजी। तब वे देवियाँ अपने अद्भुत तेजसे सभी दिशाओंको प्रकाशित करती हुई शीघ्र हो उनके समक्ष प्रकट हो गयीं। तब देवताओंने उन देवियोंको देखकर अत्यन्त प्रसन्नमनसे उन्हें प्रणाम करके भक्तिसे उनकी स्तुति की और अपना कार्य निवेदित किया ।। 39-40 ।।इसके बाद भक्तवत्सला उन देवियांने प्रणाम करते हुए देवताओंको देखकर उन्हें अपना-अपना बीज दिया और आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहा— ॥ 41 ॥ देवियाँ बोली [हे] देवगणो!] जहाँ विष्णु स्थित हैं, वहाँ इन बीजोंको बो देना, इससे आपलोगोंका कार्य सिद्ध हो जायगा ॥ 42 ॥

सनत्कुमार बोले - हे मुने! इस प्रकार कहकर वे देवियाँ अन्तर्धान हो गयीं। वे ब्रह्मा, विष्णु तथा | स्वकी त्रिगुणात्मक शक्तियाँ थीं तब इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रसन्न हो गये और उन बौको लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् विष्णु स्थित थे ।। 43-44 ।।

हे मुने! उन देवताओंने वृन्दाकी चिताके नीचे भूतलपर उन बीजोंको डाल दिया और उन शिव-शक्तियोंका स्मरण करके वे वहीँपर स्थित हो गये ll 45 ll

हे मुनीश्वर उन डाले गये बीजोंसे धात्री, मालती तथा तुलसी नामक तीन वनस्पतियाँ उत्पन्न हो गर्यो। धात्रीके अंशसे धात्री, महालक्ष्मीके अंशसे मालती तथा गौरीके अंशसे तुलसी हुई, जो तम, सत्त्व तथा रजोगुणसे युक्त थीं ll 46-47 ।।

हे मुने तब स्वरूपिणी उन वनस्पतियोंको देखकर उनके प्रति विशेष रागविलासके विभ्रमसे युक्त होकर विष्णुजी उठ बैठे उन्हें देखकर मोहके कारण कामासक्त चित्तसे वे उनके प्रेमकी याचना करने लगे। तुलसी एवं धात्रीने भी रागपूर्वक उनका अवलोकन किया ।। 48-49 ।।

सर्वप्रथम लक्ष्मीने जिस बीजको मायासे देवताओंको दिया था, उससे उत्पन्न हुई स्त्री मालती उनसे ईर्ष्या करने लगी। इसलिये वह बर्बरी - इस गर्हित नामसे पृथ्वीपर विख्यात हुई और धात्री तथा तुलसी रागके कारण उन विष्णुके लिये सदा प्रीतिप्रद हुई ।। 50-51 ॥

तब विष्णुका दुःख दूर हो गया और वे सभी | देवताओंसे नमस्कृत होते हुए प्रसन्न होकर उन दोनोंके साथ वैकुण्ठ लोकको चले गये। हे विप्रेन्द्र | कार्तिकके महीने में धात्री और तुलसीको सभी देवताओंके लिये प्रिय जानना चाहिये और विशेष करके येविष्णुको अत्यन्त प्रिय हैं। हे महामुने। उन दोनोंमें भी तुलसी अत्यन्त श्रेष्ठ तथा धन्य है। यह गणेशको | छोड़कर सभी देवताओंको प्रिय है तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है ।। 52-54 ॥

इस प्रकार ब्रह्मा, इन्द्र आदि वे देवता विष्णुको वैकुण्ठमें स्थित देखकर उनको नमस्कारकर तथा उनकी स्तुतिकर अपने अपने स्थानको चले गये ।। 55 ।।

हे मुनिश्रेष्ठ मोह भंग हो जानेसे विष्णुजी ज्ञान प्राप्तकर शिवजीका स्मरण करते हुए अपने वैकुण्ठलोकमें सुखपूर्वक निवास करने लगे। यह आख्यान मनुष्योंके सभी पापको दूर करनेवाला, मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, समस्त कामविकारोंको नष्ट करनेवाला तथा सभी प्रकारके विज्ञानको बढ़ानेवाला है ।। 56-57 ॥

जो भक्तिसे युक्त होकर इस आख्यानको नित्य पढ़ता, पढ़ाता है, सुनता अथवा सुनाता है, वह परम गतिको प्राप्त करता है। जो बुद्धिमान् वीर इस अत्युत्तम आख्यानको पढ़कर संग्राममें जाता है, वह विजयी होता है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 58-59 ।।

यह [ आख्यान ] ब्राह्मणोंको ब्रह्मविद्या देनेवाला, क्षत्रियोंको जय प्रदान करनेवाला, वैश्योंको अनेक प्रकारका धन देनेवाला तथा शूद्रोंको सुख देनेवाला है ॥ 60 ॥

हे व्यासजी। यह शिवजीमें भक्ति प्रदान करनेवाला, सभीके पापोंका नाश करनेवाला और इस लोक तथा परलोकमें उत्तम गति देनेवाला है ॥ 61 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य