नन्दीश्वर बोले- तब वृषभका रूप धारण गर्जन तथा भीषण ध्वनि करते हुए पिनाकधारी शिव उस [पातालके] विवरमें प्रवेश किया ll 1 ll
उनके निनादसे पुर और नगर सभी गिरने लग एवं सभी नगरवासियोंको कँपकँपी होने लगी ॥ 2 ॥ उसके बाद वृषभरूप धारण करनेवाले शिवजी महेश्वरकी मायासे मोहित महान् बल तथा पराक्रमवाले और संग्राम के लिये धनुष उठाये हुए विष्णुपुत्रोंके सम्मुख पहुँचे ॥ 3 ॥
हे मुनिसत्तम। तब वे वीर विष्णुपुत्र कुपित हो उठे और जोर-जोरसे गर्जन करके शिवजीके सामने दौड़े ll 4 ll
वृषरूपधारी महादेव भी [अपने सामने] आये हुए विष्णुपुत्रोंपर कुपित हो उठे और खुरों तथा श्रृंगोंसे उन्हें विदीर्ण करने लगे ॥ 5 ॥ शिवजीके द्वारा क्षत-विक्षत किये गये शरीरवाले वे सभी मूढ़ विष्णुपुत्र शीघ्र ही प्राणरहित हो विनष्ट हो गये ॥ 6 ॥
उन पुत्रोंके मारे जानेपर बलवानोंमें श्रेष्ठ विष्णु [पाताल-विवरसे] शीघ्र बाहर निकलकर जोरसे गर्जना करके शिवजीके निकट जा पहुँचे ॥ 7 ॥
पुत्रोंको मारकर जाते हुए वृषभरूपधारी शिवजीको देखकर विष्णुने बाणों तथा दिव्यास्त्रोंसे उनपर प्रहार
किया ॥ 8 ॥ तब महाबलवान् कैलासनिवासी वृषभरूपधारी शिवने क्रुद्ध होकर विष्णुके उन अस्त्रोंको निगल लिया ॥ 9 ॥ हे मुने! इसके बाद वृषभरूपधारी उन महेश्वरने अत्यन्त क्रोधकर तीनों लोकोंको कँपाते हुए महाघोर गर्जना की ll 10 ll
क्रोधमें उन्मत हुए और अज्ञानवश [शिवजीको] अपना ईश्वर न माननेवाले विष्णुको बड़े वेगसे कूद कूदकर अपने सींगों तथा खुरोंसे उन्होंने विदीर्ण कर दिया ॥ 11 ॥तब मासे विमोहित हुए विष्णु शिवजीके प्रहारको सहनेमें असमर्थ होकर शीघ्र ही शिथिल मनवाले तथा व्यथित शरीरवाले हो गये ॥ 12 ॥
विष्णुका सारा गर्व चूर हो गया, वे चेतनाशून्य होकर मूर्च्छित हो गये, तब उन्होंने वृषभरूपधारी शिवजीको जाना ॥ 13 ॥
इसके बाद वृषभरूपसे आये हुए शिवजीको पहचानकर विष्णुजी हाथ जोड़कर सिर झुकाकर गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 14 ॥
विष्णुजी बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर! हे प्रभो! हे महेशान! आपकी मायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि विकृत हो गयी थी। हे प्रभो! हे स्वामिन्! मैंने अपने स्वामी आप शिवसे जो युद्ध किया, आप मुझपर कृपा करके उस अपराधको क्षमा कीजिये ।। 15-16 ॥
नन्दीश्वर बोले- हे मुने! उन विष्णुकी दीनतापूर्ण यह बात सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकरने विष्णुसे कहा- ll 17 ॥
हे विष्णो हे महाबुद्धे आपने मुझे क्यों नहीं पहचाना? आपका सारा ज्ञान किस प्रकार विस्मृत हो गया, जिसके कारण आज आपने मेरे साथ युद्ध किया ? ।। 18 ।। आपने अपनेको मेरे अधीन पराक्रमवाला क्यों नहीं समझा ? अब आप पुनः ऐसा न कीजिये और इस कृत्यसे विरत हो जाइये ll 19 ॥
आप इन स्त्रियोंमें आसक्त होकर विहार कर रहे हैं; भला कामी पुरुषको ज्ञान किस प्रकार रह सकता है? हे देवेश! यह आपके लिये उचित नहीं है, क्योंकि आपका स्मरण तो विश्वका तारण करनेवाला है ॥ 20 ॥ शिवजीके इस विज्ञानप्रद वचनको सुनकर मन ही मन लत होते हुए विष्णु आदरपूर्वक शिवजीसे यह वचन कहने लगे- ॥ 21 ॥
विष्णुजी बोले- हे प्रभो ! यहाँ मेरा सुदर्शन चक्र है, इसे लेकर आपकी आज्ञाका आदरपूर्वक पालन करनेवाला मैं [अब] अपने लोकको जाऊँगा ॥ 22 ॥ नन्दीश्वर बोले- तब वृषभरूपधारी धर्मरक्षक महेश्वर शिवने उस वचनको सुनकर विष्णुसे पुनः कहा- ॥ 23 ॥हे हरे ! इस समय आप देर न कीजिये और मेरी आज्ञासे शीघ्र ही यहाँसे अपने लोक चले जाइये; चक्रको यहीं रहने दीजिये ॥ 24 ॥
हे विष्णो! मैं आपके कल्याणकारी वचनोंसे प्रसन्न होकर ज्योतिर्मय सान्तानिक लोकमें स्थित, इससे भिन्न एक दूसरा चक्र प्रदान करता हूँ, जो अत्यन्त भयंकर है॥ 25 ॥
[नन्दीश्वर बोले-] ऐसा कहकर शिवजीने दिव्य कालाग्निके समान देदीप्यमान, अत्यन्त प्रज्वलित एवं दुष्टोंका नाश करनेवाला चक्र प्रकट किया और दस हजार सूर्योकी-सी कान्तिवाले उस महाभयानक चक्रको सभी देवताओं एवं मुनियोंके रक्षक महात्मा विष्णुको प्रदान किया ॥ 26-27 ।।
तब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विष्णुने अत्यन्त दीप्तिमान् उस दूसरे सुदर्शनचक्रको प्राप्तकर वहाँ [स्थित ] देवगणोंसे कहा- आप सभी श्रेष्ठ देवतागण आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये और वैसा ही शीघ्र कीजिये; उसीसे आपलोगोंका कल्याण होगा ।। 28-29 ।।
पाताललोकमें स्थित उन दिव्य स्त्रियोंका वरण स्वेच्छासे आप लोग करें ॥ 30 ॥
विष्णुके उस वचनको सुनकर सभी शूर देवता उन विष्णुके साथ पातालमें प्रविष्ट होनेकी इच्छा करने लगे ॥ 31 ॥ तब भगवान् शिवने देवताओंके इस विचारको जानकर क्रोधपूर्वक अष्टविध देवयोनियोंको घोर शाप
दे दिया । ll 32 ॥ हर बोले- मेरे अंशसे उत्पन्न हुए शान्त मुनि [कपिलजी] एवं दानवोंको छोड़कर जो इस स्थानमें प्रवेश करेगा, उसी समय उसकी मृत्यु हो जायगी ।। 33 ।।
मनुष्योंके हितको बढ़ानेवाले शिवजीके इस पोर वाक्यको सुनकर तथा उनके द्वारा निषेध करनेपर देवतागण अपने-अपने स्थानको चले गये 34 ॥ हे व्यास! इस प्रकार भगवान् शिवने अपनी मायाके प्रभावसे उनमें आसक्त हुए भगवान् विष्णुको अनुशासित किया और तब विष्णु देवलोकको चले गये तथा संसार सुखी हो गया ॥ 35 ॥इस प्रकार देवताओंका कार्य करके वृषभरूपधारी भक्तवत्सल भगवान् शिव अपने स्थान कैलासपर्वतपर चले गये ॥ 36 ॥
[हे सनत्कुमार!] मैंने शिवजीके वृषेश्वरावतारका वर्णन कर दिया, जो विष्णुके अज्ञानका हरण करनेवाला, कल्याणकारक तथा तीनों लोकोंको सुख प्रदान करनेवाला है। यह आख्यान परम पवित्र, श्रेष्ठ, शत्रुबाधाको दूर करनेवाला और सज्जनोंको स्वर्ग, यश, आयु, भोग तथा मोक्ष देनेवाला है। जो भक्तिके साथ सावधान होकर इसे सुनता है अथवा सुनाता है और जो इसे पढ़ता है तथा बुद्धिमान् मनुष्योंको पढ़ाता है, वह [ इस लोकमें] समस्त सुखोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ 37-39 ॥