व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब आप बताइये कि विष्णुने वहाँ जाकर क्या किया और उस [स्त्री] ने अपने धर्मको कैसे छोड़ा ? ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- दैत्य जलन्धरके नगरमें जाकर विष्णु वृन्दाके पातिव्रतधर्मको नष्ट करनेका विचार करने लगे। मायावियोंमें श्रेष्ठ उन्होंने वृन्दाकोस्वप्न दिखाया और स्वयं अद्भुत रूप धारण करके उसके नगरके उद्यानमें स्थित हो गये। तब उसकी पतिव्रता पत्नी देवी वृन्दाने विष्णुकी मायाके प्रभावसे रात्रिमें दुःस्वप्न देखा ॥ 2-4 ॥
उसने विष्णुकी मायासे स्वप्नमें देखा कि उसका पति पैसेपर आरूढ़ होकर शरीरमें तेल लगाये हुए नग्न होकर काले पुष्पोंसे विभूषित हो राक्षसोंके साथ दक्षिण दिशाकी और जा रहा है, उसका सिर मुँड़ा हुआ है और वह अन्धकारसे ढका हुआ है ।। 5-6 ॥ इसी तरह उसने अपनेको और अपने नगरको समुद्रमें डूबते हुए देखा। इस प्रकार उसने रात्रिके शेष भागमें बहुत प्रकारके दुःस्वप्नोंको देखा ॥ 7 ॥
इसके बाद वह बाला जगकर देखे गये अपने स्वप्नोंपर विचार कर हो रही थी कि उसने उदित होते हुए सूर्यको छिद्रयुक्त और निष्प्रभ देखा ॥ 8 ॥
इन घटनाओंको अनिष्टकारी जानकर वह भयसे विह्वल हो गयी और रोने लगी, उसे द्वार, अट्टालिका आदि कहीं भी शान्ति नहीं मिली ॥ 9 ॥
तदनन्तर वह अपनी दो सखियोंके साथ नगरके बगीचे में आयी, परंतु उस बालाको वहाँ भी कुछ शान्ति नहीं मिली 10 ॥
इसके बाद यह जलन्धरकी स्त्री दुःखित होकर वराती हुई एक बनसे दूसरे वनमें गयी, किंतु वह अपने विषयमें कुछ नहीं समझ पायी ॥ 11 ॥
घूमती हुई उस बालाने सिंहके समान मुखवाले, चमकते हुए दाढ़ और दाँतवाले भयंकर दो राक्षसोंको देखा ॥ 12 ॥ उन दोनोंको देखकर भयसे विह्वल वह ज्यों ही भागने लगी, त्यों ही उसने शिष्य के साथ मौन बैठे हुए शान्त एक तपस्वीको देखा ॥ 13 ॥
तदनन्तर भयभीत उसने उन तपस्वीके गलेमें भुजारूपी लताको डालकर कहा-हे मुने मेरी रक्षा कीजिये, मैं आपकी शरण में आयी हूँ॥ 14 ॥
दो राक्षसोंद्वारा पीछा की जाती हुई तथा भयसे विह्वल उसको देखकर मुनिने 'हूँ' शब्दसे ही उन दोनों राक्षसोंको शीघ्र भगा दिया ॥ 15 ॥हे मुने। उनके हुंकारमात्रसे भयभीत होकर भागते हुए उन दोनों राक्षसोंको देखकर वह दैत्येन्द्रपत्नी वृन्दा अपने मनमें बहुत अधिक विस्मित हो गयी ॥ 16 ॥ तदनन्तर भयमुक्त वृन्दाने उन मुनिनाथको हाथ जोड़कर दण्डवत् भूमिपर प्रणामकर यह वचन कहा- ॥ 17 ॥
वृन्दा बोली- हे दके सागर हे मुनिनाथ! हे दूसरोंकी पीड़ाको दूर करनेवाले! इन दुष्टोंके घोर भयसे आपने मेरी रक्षा की है ॥ 18 ॥
हे कृपाके सागर! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, सर्वथा समर्थ हैं, तथापि मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हूँ, कृपया आप उसे सुनें ॥ 19 ॥
हे प्रभो ! मेरे स्वामी जलन्धर रुद्रसे युद्ध करनेके लिये गये हैं। वे वहाँ युद्धमें कैसे हैं? हे सुव्रत! आप उसे मुझसे कहिये ॥ 20 ॥
सनत्कुमार बोले- उसके वाक्यको सुनकर कपट करके मौन बैठा हुआ तथा स्वार्थको सिद्ध करनेमें कुशल वह मुनि कृपा करके ऊपरकी ओर | देखने लगा ॥ 21 ॥
उसी समय दो बन्दर आये और उसको प्रणामकर सामने खड़े हो गये। इसके बाद उनकी भाँहोंके इशारेसे नियुक्त होकर वे आकाशकी ओर चले गये ॥ 22 ॥
हे मुनीश्वर! आधे क्षणमें ही लौटकर जलन्धरके मस्तक, धड़ और दोनों हाथोंको लेकर वे उसके सामने खड़े हो गये ॥ 23 ॥
वह वृन्दा सिन्धुनन्दन जलन्धरके सिर, धड़ और दोनों हाथोंको देखकर पतिके दुःखसे दुखित तथा मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी [ और विलाप करने लगी] ll 24 ॥
वृन्दा बोली- हे प्रभो जो आप पहले सुखकी बात सुनाकर मुझे प्रसन्न किया करते थे, वही आज आप अपनी निरपराध पत्नीसे बोलते क्यों नहीं है ? ।। 25 ।।
अहो जिन्होंने पहले गन्धवोंके साथ विष्णु और देवताओंको भी पराजित कर दिया था, वे ही त्रैलोक्यविजयी आज एक तपस्वीसे कैसे मारे गये हैं ? ll 26 ॥
हे दैत्यश्रेष्ठ! मैंने आपसे पूर्वमें कहा था कि शिव परब्रह्म हैं, परंतु आपने रुद्रके तत्त्वत्को न जानकर मेरे उस वाक्यको स्वीकार नहीं किया ॥ 27 ॥आपकी सेवाके प्रभावसे मैंने जान लिया था कि | आप कुसंगके वशीभूत होकर गर्वके कारण मेरी बात नहीं मान रहे हैं ॥ 28 ॥
अपने धर्ममें परायण जलन्धरकी पत्नी इस प्रकार कह कहकर दुखित हृदयसे अनेक प्रकारसे विलाप करने लगी ॥ 29 ॥
तदनन्तर दुःखसे उच्छ्वास छोड़ती हुई तथा धैर्य धारणकर वह वृन्दा उन मुनिश्रेष्ठको प्रणामकर हाथ जोड़कर बोली- ॥ 30 ॥
हे कृपानिधे! हे मुनिश्रेष्ठ ! दूसरेका उपकार करने में ही आपका आदर है। इसलिये मुझपर कृपा करके हे साधो ! मेरे इस स्वामीको आप जीवित कर दें ॥ 31 ॥
हे मुनीश्वर! मैं समझती हूँ कि आप पुनः इनको जीवित करनेमें समर्थ हैं, इसलिये मेरे प्राणनाथको आप जीवित कर दें ॥ 32 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार कहकर पातिव्रतधर्ममें तत्पर वह दैत्यपत्नी दुःखसे श्वास छोड़ती हुई उनके पैरोंपर गिर पड़ी ॥ 33 ॥
मुनि बोले- यह बुद्धमें रुद्रके द्वारा मारा गया है, इसलिये इसको जिलानेमें में समर्थ नहीं है क्योंकि रुद्रके द्वारा युद्धमें मारा गया व्यक्ति कभी जीवित नहीं होता ll 34 ll
तथापि शरणागतकी रक्षा करनी चाहिये, इस शाश्वत धर्मको जानता हुआ मैं कृपासे युक्त होकर इसे जीवित कर देता हूँ॥ 35 ॥
सनत्कुमार बोले - हे मुने! सभी मायावियों में श्रेष्ठ वे मुनिरूपी विष्णु ऐसा कहकर उसके पतिको जीवित करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ 36 ll
उनके द्वारा जीवित समुद्रपुत्र जलन्धर भी शीघ्र उठकर प्रसन्नमनसे वृन्दाका आलिंगनकर उसके मुखका स्पर्श करने लगा ॥ 37 ॥
पतिको देखकर वृन्दाने हर्षित मनसे सभी प्रकारके शोकका परित्याग कर दिया और इस घटनाको स्वप्नके समान समझा ॥ 38 ॥
वह प्रसन्नचित्तसे कामका उदय होनेपर उस बनके मध्यमें ही उसके साथ बहुत दिनोंतक बिहार करती रही ।। 39 ।।एक बार सहवासके अन्तमें उसको विष्णुके रूपमें जानकर क्रोधसे युक्त होकर फटकारती हुई वृन्दा यह वचन बोली- ॥ 40 ॥
वृन्दा बोली- अरे परस्त्रीगामी हरि! तुम्हारे इस प्रकारके चरित्रको धिक्कार है। मैंने तुमको अच्छी प्रकारसे जान लिया है। तुमने ही मायाका आश्रय लेकर तपस्वीका वेष धारण किया था ll 41 ll
सनत्कुमार बोले- हे व्यास! पातिव्रतपरायण उस वृन्दाने ऐसा कहकर क्रोधयुक्त होकर अपने तेजको दिखाते हुए विष्णुको शाप दे दिया ।। 42 ।। रे महाधम ! दैत्यशत्रु ! तुम दूसरेके धर्मको दूषित करनेवाले हो, इसलिये अरे शठ सभी प्रकारके विषोंसे तीव्र मेरे द्वारा दिये गये शापको ग्रहण करो ।। 43 ।।
तुमने अपनी मायासे जिन दो पुरुषोंको दिखाया था, वे ही दोनों राक्षस बनकर तुम्हारी पत्नीका हरण करेंगे ।। 44 ।।
तुम भी पत्नीके दुःखसे दुखित होकर वानरोंकी सहायता लेकर वनमें भटकते हुए भूमो और यह जो सर्पोका स्वामी ( शेषनाग) तुम्हारा शिष्य बना था, यह भी तुम्हारे साथ भ्रमण करे ।। 45 ।।
ऐसा कहकर वह वृन्दा उस समय विष्णुके द्वारा रोके जानेपर भी अपने पति जलन्धरका मनमें ध्यान करते हुए अग्निमें प्रवेश कर गयी 46 हे मुने। उस समय उसकी उत्तम गतिको देखनेकी इच्छावाले ब्रह्मा आदि सभी देवता अपनी भार्याओंके साथ आकाशमण्डलमें स्थित हो गये ll 47 ll
उस समय दैत्येन्द्रपत्नीकी वह परम ज्योति देवताओंके देखते-देखते ही शीघ्र अदृष्ट हो गयी और शिवा पार्वतीके शरीरमें उस वृन्दाका तेज विलीन हो गया। उस समय आकाशमें स्थित देवताओंने जय जयकी ध्वनि की ll 48-49 ।।
हे मुने! इस प्रकार कालनेमिकी श्रेष्ठ पुत्री महारानी वृन्दाने पातिव्रतके प्रभावसे परा मुक्तिको प्राप्त किया ॥ 50 llउस समय हरिने उसका स्मरणकर उसकी | चिताकी भस्मधूलिको धारण कर लिया, देवता और | सिद्धों के ज्ञान देनेपर भी उनको कुछ शान्ति नहीं मिली | और वे वहींपर स्थित हो गये ॥ 51 ॥