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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 4, अध्याय 35 - Sanhita 4, Adhyaya 35

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विष्णुप्रोक्त शिवसहस्रनामस्तोत्र

सूतजी बोले- हे मुनिवरो! आपलोग सुनें, जिससे महेश्वर सन्तुष्ट हुए थे, उस शिवसहस्रनामस्तोत्रको मैं कह रहा हूँ ॥ 1 ॥

भगवान् विष्णुने कहा – 1. शिवः - कल्याण स्वरूप, 2. हरः - भक्तोंके पाप-ताप हर लेनेवाले, 3. मृडः - सुखदाता, 4. रुद्रः दुःख दूर करनेवाले, 5. पुष्करः - आकाशस्वरूप, 6. पुष्पलोचन:पुष्पके समान खिले हुए नेत्रवाले, 7. अर्थिगम्यः प्रार्थियोंको प्राप्त होनेवाले, 8. सदाचारः - श्रेष्ठ आचरणवाले, 9. शर्वः संहारकारी, 10. शम्भु: कल्याणनिकेतन 19. महेश्वरः महान् ईश्वर ॥ 2 ॥

12. चन्द्रापीडः चन्द्रमाको शिरोभूषण के रूपमें धारण करनेवाले, 13. चन्द्रमौलिः– सिरपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले, 14. विश्वम्- सर्वस्वरूप, 15. विश्वम्भरेश्वर:- विश्वका भरण-पोषण करनेवाले श्रीविष्णुके भी ईश्वर 16. वेदान्तसारसंदोह: वेदान्तके सारतत्त्व सच्चिदानन्दमय ब्रह्मकी साकार मूर्ति, 17. कपाली - हाथमें कपाल धारण करनेवाले, 18. नीललोहितः- (गलेमें) नील और (शेष अंगोंमें) लोहित वर्णवाले ॥ 3 ॥

19. ध्यानाधारः - ध्यानके आधार, 20. अपरिच्छेद्यः - देश, काल और वस्तुकी सीमासे अविभाज्य, 21. गौरीभर्ता - गौरी अर्थात् पार्वतीजीके पति, 22. गणेश्वरः प्रमथगणक स्वामी, 23. अष्टमूर्तिः– जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा पृथ्वी और यजमान - इन आठ रूपोंवाले, 24. विश्वमूर्तिः– अखिल ब्रह्माण्डमय विराट् पुरुष, 25. त्रिवर्गस्वर्गसाधन धर्म, अर्थ, काम तथा स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले ॥ 4 ॥

26. ज्ञानगम्यः - ज्ञानसे ही अनुभवमें आनेके योग्य, 27. दृढप्रज्ञः – सुस्थिर बुद्धिवाले, 28. देव | देवः - देवताओंके भी आराध्य, 29. त्रिलोचन: सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंवाले, 30. वामदेव: लोकके विपरीत स्वभाववाले देवता, 31. महादेवः महान् देवता ब्रह्मादिकोंके भी पूजनीय, 32. पटुः - सब कुछ करनेमें समर्थ एवं कुशल, 33. परिवृढः- स्वामी, 34. दृढः - कभी विचलित न होनेवाले ॥ 5 ॥

35. विश्वरूपः – जगत्स्वरूप, 36. विरू पाक्ष:- विकट नेत्रवाले, 37. वागीशः - वाणीके अधिपति, 38. शुचिसत्तम:- पवित्र पुरुषोंमें भी सबसे श्रेष्ठ, 39. सर्वप्रमाणसंवादी सम्पूर्ण प्रमाणोंमें सामंजस्य स्थापित करनेवाले, 40. वृषाङ्कः - अपनी ध्वजामें वृषभका चिह्न धारण करनेवाले, 41. वृषवाहनः वृषभ या धर्मको वाहन बनानेवाले ॥ 6 ॥42. ईशः - स्वामी या शासक, 43. पिनाकी – पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, 45. खट्वाङ्गीखाटके पायेको आकृतिका एक आयुध धारण करनेवाले, 45. चित्रवेषः - विचित्र वेषधारी, 46. चिरंतन:- पुराण (अनादि) पुरुषोत्तम, 47. समोहर: अज्ञानान्धकारको दूर करनेवाले, 48. महायोगी – महान् योगसे सम्पन्न, 49. गोप्ता - रक्षक, 50. ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, 51. धूर्जटि:- जटाके भारसे युक्त ॥ 7 ॥

52. कालकालः – कालके भी काल, 53. कृत्तिवासाः [गजासुरके] चर्मको वस्त्रके रूपये धारण करनेवाले, 54. सुभगः - सौभाग्यशाली, 55. प्रणवात्मकः - ओंकारस्वरूप अथवा प्रणवके वाच्यार्थ, 56. उन्नध्रः — बन्धनरहित, 57. पुरुषः - अन्तर्यामी आत्मा, 58. जुष्यः – सेवन करनेयोग्य, 59. दुर्वासाः दुर्वासा' नामक मुनिके रूपमें अवतीर्ण, 60. पुरशासन:- तीन मायामय असुरपुरोंका दमन करनेवाले ॥ 8 ॥

61. दिव्यायुधः - 'पाशुपत' आदि दिव्य अस्त्र धारण करनेवाले, 62. स्कन्दगुरुः कार्तिकेयजीके पिता, 63. परमेष्ठी अपनी प्रकृष्ट महिमामें स्थित रहनेवाले, 64. परात्परः - कारणके भी कारण, 65. अनादिमध्यनिधनः- आदि, मध्य और अन्तसे रहित, 66. गिरीश :- कैलासके अधिपति, 67. गिरिजाधवः - पार्वतीके पति ॥ 9 ॥

68. कुबेरबन्धुः - कुबेरको अपना बन्धु (मित्र) माननेवाले, 69. श्रीकण्ठः- श्यामसुषमासे सुशोभित कण्ठवाले, 70. लोकवर्णोत्तमः - समस्त लोकों और वर्णोंसे श्रेष्ठ, 71. मृदुः - कोमल स्वभाववाले, 72. समाधिवेद्यः समाधि अथवा चित्तवृत्तियोंके निरोधसे अनुभवमें आनेयोग्य, 73. कोदण्डी - धनुर्धर, 74. नीलकण्ठः कण्ठमें हालाहल विषका नील चिह्न धारण करनेवाले, 75. परश्वधी परशुधारी॥ 104 ll

76. विशालाक्ष:- बड़े-बड़े नेत्रोंवाले, 77. मृगव्याधः - वनमें व्याध या किरातके रूपमें प्रकट हो शूकरके ऊपर बाण चलानेवाले, 78. सुरेशः देवताओंके स्वामी, 79. सूर्यतापनः सूर्यको भीदण्ड देनेवाले, 80. धर्म-धाम- धर्मके आश्रय, 81. क्षमाक्षेत्रम् - क्षमाके उत्पत्ति स्थान, 82. भगवान् - सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्यके आश्रय, 83. भगनेत्रभित्- भगदेवताके नेत्रका भेदन करनेवाले ॥ 11 ॥

84. उग्रः - संहारकालमें भयंकर रूप धारण करनेवाले, 85. पशुपतिः मायारूपमें बंधे हुए पाशबद्ध पशुओं (जीवों) को तत्त्वज्ञानके द्वारा मुक्त करके यथार्थरूपसे उनका पालन करनेवाले, 86. साक्ष्य: गरुड़रूप 87. प्रियभक्तः भक्तोंसे प्रेम करनेवाले, 88. परंतपः-शत्रुता रखनेवालोंको संताप देनेवाले, 89. दाता- दानी, 90. दयाकरः दयानिधान अथवा कृपा करनेवाले, 91. दक्षः कुशल, 92. कपर्दी – जटाजूटधारी, 93. काम शासन:- कामदेवका दमन करनेवाले ॥ 12 ॥

94. श्मशाननिलयः – श्मशानवासी, 95. सूक्ष्मः - इन्द्रियातीत एवं एवं सर्वव्यापी, 96. श्मशानस्थ: - श्मशानभूमिमें विश्राम करनेवाले, 97. महेश्वरः महान् ईश्वर या परमेश्वर, 98. लोककर्ता — जगत् की सृष्टि करनेवाले, 99. मृगपतिः - मृगके पालक या पशुपति, 100. महाकर्ता – विराट् ब्रह्माण्डकी सृष्टि करनेके समय महान् कर्तृत्वसे सम्पन्न, 101. महौषधिः - भवरोगका निवारण करनेके लिये महान् ओषधिरूप ॥ 13 ॥ -

102. उत्तरः - संसार सागरसे पार उतारनेवाले, 103. गोपति : – स्वर्ग, पृथ्वी, पशु, वाणी, किरण, इन्द्रिय और जलके स्वामी, 104. गोप्ता-रक्षक, 105. ज्ञानगम्यः - तत्त्वज्ञानके द्वारा ज्ञानस्वरूपसे ही जाननेयोग्य, 106. पुरातनः - सबसे पुराने, 107. 108. सुनीति:- - उत्तम नीतिः - न्यायस्वरूप, नीतिवाले, 109. शुद्धात्मा विशुद्ध आत्मस्वरूप, 110. सोमः - उमासहित, 111. सोमरत: चन्द्रमापर प्रेम रखनेवाले, 112. सुखी आत्मानन्दसे परिपूर्ण ॥ 14 ॥ 113. सोमप:- सोमपान करनेवाले अथवा सोमनाथरूपसे चन्द्रमाके पालक, 114. अमृतपः समाधिके द्वारा स्वरूपभूत अमृतका आस्वादन करनेवाले, 115. सौम्य भक्तोंके लिये सौम्यरूपधारी, महान् तेजसे सम्पन्न, 117. महाद्युतिः परमकान्तिमान् 118. तेजोमय: प्रकाशस्वरूप, 119. अमृतमयः - अमृतरूप, 120. अन्नमयः अन्नरूप, 121. सुधापतिः अमृतके 116. महातेजाः - पालक ।। 15 ।।

122. अजातशत्रुः जिनके मनमें कभी किसीके प्रति शत्रुभाव नहीं पैदा हुआ, ऐसे समदर्शी, 123. आलोकः- प्रकाशस्वरूप, 124. सम्भाव्य: सम्माननीय 125. हव्यवाहनः अग्निस्वरूप, 126. लोककर:- जगत्के स्रष्टा, 127 वेदकरः वेदोंको प्रकट करनेवाले, 128. सूत्रकारः - ढक्कानादके रूपमें चतुर्दश माहेश्वर सूत्रोंके प्रणेता 129. सनातन:- नित्यस्वरूप ॥ 16 ॥

130. महर्षिकपिलाचार्य: सांख्यशास्त्रके प्रणेता भगवान् कपिलाचार्य, 139. विश्वदीप्तिः अपनी प्रभासे सबको प्रकाशित करनेवाले, 132. त्रिलोचन: तीनों लोकोंके द्रष्टा, 133. पिनाकपाणि: हाथमें पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, 134. भूदेवः - पृथ्वीके देवता - ब्राह्मण अथवा पार्थिवलिंगरूप, 135. स्वस्तिदः - कल्याणदाता, 136. स्वस्तिकृत् — कल्याणकारी, 137. सुधीः- विशुद्ध बुद्धिवाले ॥ 17 ॥ -

138. धातृधामा विश्वका धारण-पोषण करनेमें समर्थ तेजवाले, 139. धामकरः - तेजकी सृष्टि करनेवाले, 140. सर्वगः - सर्वव्यापी, 141. सर्वगोचर:- सबमें व्याप्त, 142. ब्रह्मसृक् ब्रह्माजीके उत्पादक, 143. विश्वसृक्- जगत्के स्रष्टा, 144. सर्गः सृष्टिस्वरूप, 145. कर्णिकारप्रियः कर्णिकारके फूलको पसन्द | करनेवाले, 146. कविः - त्रिकालदर्शी ॥ 18 ॥147. शाख:- कार्तिकेयके छोटे भाई.शाखस्वरूप, 148. विशाखः - स्कन्दके छोटे भाई विशाखस्वरूप अथवा विशाख नामक ऋषि, 149. गोशाखः - वेदवाणीकी शाखाओंका विस्तार करनेवाले, 150. शिवः – मंगलमय, 151. भिषगनुत्तमः भवरोगका निवारण करनेवाले वैद्यों (ज्ञानियों) में सर्वश्रेष्ठ, | 152. गङ्गाप्लवोदक:- गंगाके प्रवाहरूप जलको सिरपर धारण करनेवाले, 153. भव्यः - कल्याणस्वरूप, 154. पुष्कलः - पूर्णतम अथवा व्यापक, 155. स्थपतिः ब्रह्माण्डरूपी भवनके निर्माता (थवई), 156. स्थिरः - अचंचल अथवा स्थाणुरूप ॥ 19 ॥

157. विजितात्मा मनको वशमें रखनेवाले, 158. विधेयात्मा - शरीर, मन और इन्द्रियोंसे अपनी इच्छाके अनुसार काम लेनेवाले, 159. भूतवाहन सारथिः - पांचभौतिक रथ (शरीर ) का संचालन करनेवाले बुद्धिरूप सारथि, 160. सगण: प्रमथगणोंके साथ रहनेवाले, 161. गणकायः - गणस्वरूप 162. सुकीर्तिः उत्तम कीर्तिवाले, 163. छिन्नसंशयः — संशयोंको काट देनेवाले ॥ 20 ॥

164. कामदेवः मनुष्योंद्वारा अभिलषित समस्त कामनाओंके अधिष्ठाता परमदेव, 165. कामपालः – सकाम भक्तोंकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, 166. भस्मोद्धूलितविग्रहः – अपने श्री अंगोंमें भस्म रमानेवाले, 167. भस्मप्रियः - भस्मके प्रेमी, 168. भस्मशायी भस्मपर शयन करनेवाले, 169. कामी अपने प्रिय भक्तोंको चाहनेवाले, 170. 170. कान्तः - परम कमनीय प्राणवल्लभरूप, 171. कृतागमः - समस्त तन्त्रशास्त्रोंके रचयिता ॥ 21 ॥

172. समावर्तः - संसारचक्रको भलीभाँति घुमाने वाले, 173. अनिवृत्तात्मा सर्वत्र विद्यमान होनेके कारण जिनका आत्मा कहींसे भी हटा नहीं है, ऐसे, 174. धर्मपुञ्जः धर्म या पुण्यकी राशि, -धर्म 175. सदाशिवः - निरन्तर कल्याणकारी, 176. अकल्मषः – पापरहित, 177. चतुर्बाहुः चार भुजाधारी, 178. दुरावासः- जिन्हें योगीजन भी बड़ी कठिनाईसे अपने हृदयमन्दिरमें बसा पाते हैं, | ऐसे, 179. दुरासदः परम दुर्जय ॥ 22 ॥180. दुर्लभः - भक्तिहीन पुरुषोंको कठिनता से प्राप्त होनेवाले, 181. दुर्गमः- जिनके निकट पहुँचना किसीके लिये भी कठिन है, ऐसे, 182. दुर्ग: पाप-तापसे रक्षा करनेके लिये दुर्गरूप अथवा दुर्ज्ञेय, 183. सर्वायुधविशारदः - सम्पूर्ण अस्त्रोंके प्रयोगकी कलामें कुशल, 184. अध्यात्मयोगनिलय: अध्यात्मयोगमें स्थित, 185. सुतन्तुः सुन्दर विस्तृत जगत् रूप तन्तुवाले 186. तन्तुवर्धन- जगत् रूप तन्तुको बढ़ानेवाले ॥ 23 ॥

187. शुभाङ्गः - सुन्दर अंगोंवाले, 188. लोकसारङ्गः- लोकसारग्राही, 189. जगदीश: जगत्के स्वामी, 190. जनार्दनः - भक्तजनोंकी याचनाके आलम्बन, 191. भस्मशुद्धिकरः - भस्मसे शुद्धिका सम्पादन करनेवाले, 192. मेरुः - सुमेरुपर्वत के समान केन्द्ररूप, 193. ओजस्वी- तेज और बलसे सम्पन्न, 114. शुद्धविग्रहः निर्मल शरीरवाले ॥ 24 ॥

195. असाध्यः — साधन- भजनसे दूर रहनेवाले लोगोंके लिये अलभ्य, 196. साधुसाध्यः - साधन भजनपरायण सत्पुरुषोंके लिये सुलभ, 197. भृत्य मर्कटरूपधृक् श्रीरामके सेवक वानर हनुमान्का रूप धारण करनेवाले, 198. हिरण्यरेताः - अग्निस्वरूप अथवा सुवर्णमय वीर्यवाले, 199. पौराणः पुराणोंद्वारा प्रतिपादित, 200. रिपुजीवहर :- शत्रुओंके प्राण हर लेनेवाले, 201. बली - बलशाली ॥ 25 ॥

202. महाहृदः - परमानन्दके महान् सरोवर, 203. महागर्तः - महान् आकाशरूप, 204. सिद्धवृन्दार वन्दितःसिद्धों और देवताओंद्वारा वन्दित, 205. व्याघ्रचर्माम्बरः व्याघ्रचर्मको वस्त्रके समान धारण करनेवाले, 206. व्याली सर्पोको आभूषणकी भाँति धारण करनेवाले, 207. महाभूतः - त्रिकालमें भी कभी नष्ट न होनेवाले महाभूतस्वरूप, 208. महानिधिः- सबके महान् निवासस्थान ॥ 26 ॥

209. अमृताश: - जिनकी आशा कभी विफल न हो, ऐसे अमोघसंकल्प 210. अमृतवपुः - जिनका कलेवर कभी नष्ट हो, ऐसे नित्यविग्रह, 211. पाञ्चजन्य:- पांचजन्य नामक शंखस्वरूप, 212. प्रभञ्जनः वायुस्वरूप अथवा संहारकारी,213. पञ्चविंशतितत्त्वस्थः - प्रकृति, महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वक्, वाक्, पाणि, पायु, पाद, उपस्थ, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन चौबीस जड तत्त्वोंसहित पचीसर्वे चेतनतत्त्व पुरुषमें व्याप्त, | 214. पारिजात:- याचकोंकी इच्छा पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षरूप, 215. परावरः कारण- कार्यरूप ॥ 27 ॥

216. सुलभ :- नित्य निरन्तर चिन्तन करनेवाले एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्तको सुगमतासे प्राप्त होनेवाले, 217. सुव्रतः — उत्तम व्रतधारी, 218. शूरः शौर्य सम्पन्न, 219. ब्रह्मवेदनिधिः – ब्रह्मा और वेदके प्रादुर्भावके स्थान, 220. निधिः – जगत्- रूपी रत्नके उत्पत्तिस्थान, 221 वर्णाश्रमगुरु: - वर्णों और आश्रमोंके गुरु (उपदेष्टा), 222. वर्णी ब्रह्मचारी, 223. शत्रुजित् - अन्धकासुर आदि शत्रुओंको जीतनेवाले, 224. शत्रुतापनः - शत्रुओंको संताप देनेवाले ॥ 28 ॥

225. आश्रमः - सबके विश्रामस्थान, 226. क्षपण: - जन्म मरणके कष्टका मूलोच्छेद करनेवाले, 227. क्षामः - प्रलयकालमें प्रजाको क्षीण करनेवाले, 228. ज्ञानवान् -ज्ञानी, 229. अचलेश्वर: पर्वतों अथवा स्थावर पदार्थोंके स्वामी, 230. प्रमाणभूतः - नित्यसिद्ध प्रमाणरूप, 231. दुर्ज्ञेयः कठिनतासे जाननेयोग्य, 232. सुपर्णः - वेदमय सुन्दर पंखवाले, गरुड़रूप, 233. वायुवाहनः - अपने भयसे वायुको प्रवाहित करनेवाले ॥ 29 ॥

234. धनुर्धरः - पिनाकधारी, 235. धनुर्वेदः - धनुर्वेदके ज्ञाता, 236. गुणराशि: अनन्त कल्याणमय गुणोंकी राशि, 237. गुणाकरः - सद्गुणोंकी खान, 238. सत्यः सत्यस्वरूप, 239. सत्यपरः - सत्य- परायण, 240. अदीनः - दीनतासे रहित - उदार, 241. धर्माङ्गः - धर्ममय विग्रहवाले, 242. धर्मसाधनः- धर्मका अनुष्ठान करनेवाले ॥ 30 ॥ 243. अनन्तदृष्टिः - असीमित दृष्टिवाले, 244. आनन्दः - परमानन्दमय, 245. दण्ड: दुष्टोंको दण्ड देनेवाले अथवा दण्डस्वरूप, 246. दमयिता — दुर्दान्त दानवोंका दमन करनेवाले,247. दमः– दमनस्वरूप, 248. अभिवाद्य: प्रणाम करनेयोग्य, 249. महा मायः - मायावियोंको भी मोहनेवाले महामायाबी, 250. विश्वकर्म विशारदः संसारको सृष्टि करनेमें कुशल ॥ 31 ॥

251. वीतरागः- पूर्णतया विरक्त 252. विनीतात्मा- मनसे विनयशील अथवा मनको वशमें रखनेवाले, 253. तपस्वी –तपस्यापरायण, 254. भूतभावनः– सम्पूर्ण भूतोंके उत्पादक एवं रक्षक, 255. उन्मत्तवेषः - पागलोंके समान वेष धारण करनेवाले, 256. प्रच्छन्नः मायाके पर्दे में छिपे हुए, 257. जितकामः कामविजयी, 258. अजितप्रियः भगवान् विष्णुके प्रेमी ॥ 32 ॥

259. कल्याणप्रकृतिः- कल्याणकारी स्वभाव वाले, 260. कल्पः - समर्थ, 261. सर्वलोकप्रजा पतिः - सम्पूर्ण लोकोंकी प्रजाके पालक, 262. तरस्वी- वेगशाली, 263. तारकः- उद्धारक, 264. धीमान्– विशुद्ध बुद्धिसे युक्त, 265. प्रधानः सबसे श्रेष्ठ, 266. प्रभुः सर्वसमर्थ, 267. अव्ययः -अविनाशी ॥ 33 ॥ - 268. लोकपालः समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाले, 269. अन्तर्हितात्मा अन्तर्यामी आत्मा अथवा अदृश्य स्वरूपवाले 270. कल्पादिः - कल्पके आदि- कारण, 271. कमलेक्षणः कमलके समान नेत्रवाले, 272. वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः - वेदों और शास्त्रोंके अर्थ एवं तत्त्वको जाननेवाले, 273. अनियमः - नियन्त्रणरहित, 274. नियताश्रयः - सबके सुनिश्चित आश्रयस्थान ॥ 34 ॥ -

275. चन्द्रः – चन्द्रमारूपसे आह्लादकारी, 276. सूर्य:- सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत सूर्य, 277. शनि: शनैश्चररूप, 278. केतुः - केतु नामक ग्रहस्वरूप, 279. वराङ्गः – सुन्दर शरीरवाले, 280. विद्रुमच्छवि: मूँगेकी- सी लाल कान्तिवाले, 281. भक्तिवश्यः - भक्तिके द्वारा भक्तके वशमें होनेवाले, 282. परब्रह्म परमात्मा, 283. मृगबाणार्पण: - मृगरूपधारी यज्ञपर बाण चलानेवाले, 284. अनघः - पापरहित ॥ 35 ll285. अद्रि:- कैलास आदि पर्वतस्वरूप, 286. अद्र्यालयः - कैलास और मन्दर आदि पर्वतोंपर निवास करनेवाले, 287, कान्तः - सबके प्रियतम, 288. परमात्मा - परब्रह्म परमेश्वर, 289. जगद्गुरुः समस्त संसारके गुरु, 290. सर्वकर्मालयः - सम्पूर्ण कर्मो के आश्रयस्थान, 291. तुष्टः सदा प्रसन्न, 292. मङ्गल्यः- मंगलकारी, 293. मङ्गलावृतः - मंगल कारिणी शक्तिसे संयुक्त ॥ 36 ll

294. महातपाः - महान् तपस्वी, 295. दीर्घ तपाः- दीर्घकालतक तप करनेवाले, 296. स्थविष्ठः - अत्यन्त स्थूल, 297. स्थविरो ध्रुवः - अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर, 298. अहः संवत्सरः दिन एवं संवत्सर आदि कालरूपसे स्थित, अंश कालस्वरूप, 299. व्याप्तिः — व्यापकतास्वरूप, 300. प्रमाणम् — प्रत्यक्षादि प्रमाणस्वरूप, 301 परमं तपः- उत्कृष्ट तपस्यास्वरूप ॥ 37 ॥

302. संवत्सरकरः- संवत्सर आदि कालविभागके उत्पादक, 303. मन्त्रप्रत्ययः - वेद आदि मन्त्रोंसे प्रतीत (प्रत्यक्ष) होनेयोग्य, 304. सर्वदर्शनः - सबके साक्षी, 305. अजः - अजन्मा, 306. सर्वेश्वरः - सबके शासक, 307. सिद्धः - सिद्धियोंके आश्रय, 308. महारेताः - श्रेष्ठ वीर्यवाले, 309. महाबलः - प्रमथ- गणोंकी महती सेनासे सम्पन्न ॥ 38 ॥

310. योगी योग्य: - सुयोग्य योगी, 311. महातेजाः - महान् तेजसे सम्पन्न, 312. सिद्धिः समस्त साधनोंके फल, 313. सर्वादिः - सब भूतोंके आदिकारण, 314 अग्रहः – इन्द्रियोंकी ग्रहणशक्तिके अविषय, 315. वसुः - सब भूतोंके वासस्थान, 316. वसुमनाः- उदार मनवाले, 317. सत्य:- सत्यस्वरूप, 318. सर्वपापहरो हरः समस्त पापोंका अपहरण करनेके कारण हर नामसे प्रसिद्ध ॥ 39 ॥

319. सुकीर्तिशोभनः — उत्तम कीर्तिसे सुशोभित होनेवाले, 320. श्रीमान् - विभूतिस्वरूपा उमासे सम्पन्न, 321. वेदाङ्गः – वेदरूप अंगोंवाले, 322. | वेद-विन्मुनिः - वेदोंका विचार करनेवाले मननशीलमुनि, 323. भ्राजिष्णुः एकरस प्रकाशस्वरूप, | 324. भोजनम् - ज्ञानियोंद्वारा भोगनेयोग्य अमृतस्वरूप, 325 भोका पुरुषरूपसे उपभोग करनेवाले, 326, लोकनाथः - भगवान् विश्वनाथ, 327. दुराधरः अजितेन्द्रिय पुरुषोंद्वारा जिनकी आराधना अत्यन्त कठिन हैं, ऐसे ॥ 40 ॥

- -सनातन अमृतस्वरूप, 328. अमृतः शाश्वतः 329. शान्तः शान्तिमय, 330. बाणहस्तः प्रताप |वान्- हाथमें बाण धारण करनेवाले प्रतापी वीर, 331. | कमण्डलुधरः - कमण्डलु धारण करनेवाले, 332. धन्वीपिनाकधारी, 333. अवाङ्मनसगोचर:.मन और वाणीके अविषय ॥ 41 ॥ 334. अतीन्द्रियो महामायः - इन्द्रियातीत एवं महामायावी, 335. सर्वावासः - सबके वासस्थान, 336. चतुष्पथः चारों पुरुषार्थोकी सिद्धिके एकमात्र मार्ग, 337, कालयोगी - प्रलयके समय सबको कालसे संयुक्त करनेवाले, 338. महानादः - गम्भीर शब्द करनेवाले अथवा अनाहत नादरूप, 339. महोत्साहो महाबलः - महान् उत्साह और वलसे सम्पन्न ॥ 42 ॥

340, महाबुद्धिः श्रेष्ठ बुद्धिवाले, 341. महावीर्यः अनन्त पराक्रमी, 342. भूतचारी भूतगणोंके साथ विचरनेवाले, 343. पुरंदरः त्रिपुरसंहारक, 344. निशाचरः- रात्रिमें विचरण करनेवाले, 345. प्रेतचारी-प्रेतोंके साथ भ्रमण करनेवाले, 346. महाशक्तिर्महा इतिः - अनन्तशक्ति - एवं श्रेष्ठ कान्तिसे सम्पन्न ॥ 43 ॥

- 1347. अनिर्देश्यवपुः - अनिर्वचनीय स्वरूपवाले, 348. श्रीमान् - ऐश्वर्यवान्, 349. सर्वाचार्यमनो गतिः - सबके लिये अविचार्य मनोगतिवाले, 350. बहुश्रुतः - बहुज्ञ अथवा सर्वज्ञ, 351. अमामायः बड़ी से बड़ी माया भी जिनपर प्रभाव नहीं डाल सकती ऐसे, 352. नियतात्मा - मनको वशमें रखनेवाले, 353. ध्रुवोऽध्रुवः - ध्रुव (नित्य कारण) और अध्रुव (अनित्य | कार्य) रूप ॥ 44 ॥

354. ओजस्तेजोद्युतिधरः - ओज (प्राण और बल), तेज (शौर्य आदि गुण) तथा ज्ञानकी दीप्तिको धारण करनेवाले, 355. जनक:- सबके उत्पादक, 356. सर्वशासन: सबके शासक,357. नृत्यप्रियः - नृत्यके प्रेमी, 358. नित्यनृत्यः प्रतिदिन ताण्डव नृत्य करनेवाले, 359. प्रकाशात्मा प्रकाशस्वरूप, 360. प्रकाशक:- सूर्य आदिको भी प्रकाश देनेवाले ॥ 45 ॥

361. स्पष्टाक्षरः - ओंकाररूप स्पष्ट अक्षरवाले, 362. बुधः - ज्ञानवान्, 363. मन्त्रः - ऋक्, साम और यजुर्वेदके मन्त्रस्वरूप, 364. समानः – सबके प्रति समान भाव रखनेवाले, 365. सारसम्प्लवः - संसारसागरसे पार होनेके लिये नौकारूप, 366. युगादि- कृद्युगावर्त: - युगादिका आरम्भ करनेवाले तथा चारों युगोंको चक्रकी तरह घुमानेवाले, 367. गम्भीरः - गाम्भीर्यसे युक्त, 368. वृषवाहनः नन्दी नामक वृषभपर सवार होनेवाले ॥ 46 ॥

369. इष्टः — परमानन्दस्वरूप होनेसे सर्वप्रिय, 370. अविशिष्टः- सम्पूर्ण विशेषणोंसे रहित, 371. शिष्टेष्ट:- शिष्ट पुरुषोंके इष्टदेव, 372. सुलभः अनन्यचित्तसे निरन्तर स्मरण करनेवाले भक्तोंके लिये सुगमतासे प्राप्त होनेयोग्य, 373. सारशोधन: - सार तत्त्वकी खोज करनेवाले, 374. तीर्थरूपः - तीर्थस्वरूप, 375. तीर्थनामा - तीर्थनामधारी अथवा जिनका नाम भवसागरसे पार लगानेवाला है, ऐसे, 376. तीर्थदृश्य: तीर्थसेवनसे अपने स्वरूपका दर्शन करानेवाले अथवा गुरु- कृपासे प्रत्यक्ष होनेवाले, 377. तीर्थदः - चरणोदक स्वरूप तीर्थको देनेवाले ॥ 47 ॥

378. अपांनिधिः – जलके निधान समुद्ररूप, 379. अधिष्ठानम्—उपादान- कारणरूपसे सब भूतोंके आश्रय अथवा जगत्- रूप प्रपंचके अधिष्ठान, 380. दुर्जयः - जिनको जीतना कठिन है, ऐसे, 381. जय कालवित्- विजयके अवसरको समझनेवाले, 382. प्रतिष्ठितः - अपनी महिमामें स्थित, 383. प्रमाणज्ञः - प्रमाणोंके ज्ञाता, 384. हिरण्यकवचः सुवर्णमय कवच धारण करनेवाले, 385. हरिः - श्रीहरिस्वरूप ॥ 48 ॥

386. विमोचनः - संसारबन्धनसे सदाके लिये छुड़ा देनेवाले, 387. सुरगणः - देवसमुदायरूप, 388. विद्येश: – सम्पूर्ण विद्याओंके स्वामी, 389. विन्दु-संश्रयः - बिन्दुरूप प्रणवके आश्रय,390. बालरूपः - बालकका रूप धारण करनेवाले, 391. अबलोन्मत्तः - बलसे उन्मत्त न होनेवाले, 392. अविकर्ता — विकाररहित, 393. गहन: दुर्बोधस्वरूप या अगम्य, 394. गुहः – मायासे अपने यथार्थ स्वरूपको छिपाये रखनेवाले ॥। 49 ।।

395. करणम् – संसारकी उत्पत्तिके सबसे बड़े साधन, 396. कारणम् – जगत्के उपादान और निमित्त कारण, 397. कर्ता-सबके रचयिता, 398. सर्वबन्धविमोचन: - सम्पूर्ण बन्धनोंसे छुड़ानेवाले, 399. व्यवसाय:- निश्चयात्मक ज्ञानस्वरूप, 400. व्यवस्थान: - सम्पूर्ण जगत्की व्यवस्था करनेवाले, 401. स्थानदः - ध्रुव आदि भक्तोंको अविचल स्थिति प्रदान कर देनेवाले, 402. जगदादिजः - हिरण्यगर्भरूपसे जगत्के आदिमें प्रकट होनेवाले ॥ 50 ॥

403. गुरुदः - श्रेष्ठ वस्तु प्रदान करनेवाले अथवा जिज्ञासुओंको गुरुकी प्राप्ति करानेवाले, 404. ललितः - सुन्दर स्वरूपवाले, 405. अभेदः भेदरहित, 406. भावात्मात्मनि संस्थितः - सत्स्वरूप, आत्मामें प्रतिष्ठित, 407. वीरेश्वरः- वीरशिरोमणि, 408. वीरभद्रः - वीरभद्र नामक गणाध्यक्ष, 409. वीरासनविधिः – वीरासनसे बैठनेवाले, 410. विराट् अखिल ब्रह्माण्ड- स्वरूप ॥ 51 ॥

411 वीरचूडामणिः - वीरोंमें श्रेष्ठ, 412. वेत्ता - विद्वान्, 413. चिदानन्दः - विज्ञानानन्दस्वरूप, 414. नदीधरः - मस्तकपर गंगाजीको धारण करनेवाले, 415. आज्ञाधारः - आज्ञाका पालन करनेवाले, 416. त्रिशूली - त्रिशूलधारी, 417. शिपिविष्टः - तेजोमयी किरणोंसे व्याप्त, 418. शिवालयः - भगवती शिवाके आश्रय ॥ 52 ॥

419. वालखिल्यः- वालखिल्य ऋषिरूप, 420. माचापः – महान् धनुर्धर, 421. तिग्मांशुः - सूर्यरूप, 422. बधिरः - लौकिक विषयोंकी चर्चा न सुननेवाले, 423. खगः - आकाशचारी, 424. अभिरामः - परम सुन्दर, 425. सुशरणः सबके लिये सुन्दर आश्रयरूप, 426. सुब्रह्मण्यः - ब्राह्मणोंके परम हितैषी, 427. सुधापतिः - अमृतकलशके रक्षक ॥ 53 ॥428. मघवान् कौशिकः - कुशिकवंशीय इन्द्र- स्वरूप, 429. गोमान् - प्रकाशकिरणोंसे युक्त, | 430, विराम:- समस्त प्राणियोंके लयके स्थान, 431 सर्व साधनः- समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाले, 432. ललाटाक्षः - ललाटमें तीसरा नेत्र धारण करनेवाले, 433. विश्वदेहः – जगत्स्वरूप, 434. सारः - सार तत्त्वरूप, 435. संसारचक्रभृत् संसारचक्रको धारण करनेवाले ॥ 54 ॥

436. अमोघदण्डः - जिनका दण्ड कभी व्यर्थ नहीं जाता है, ऐसे, 437. मध्यस्थः उदासीन, 438. हिरण्यः सुवर्ण अथवा तेजः स्वरूप, 439. ब्रह्म-वर्चसी - ब्रह्मतेजसे सम्पन्न, 440. परमार्थः – मोक्षरूप उत्कृष्ट अर्थकी प्राप्ति करानेवाले, 441 परो मायी- महामायावी, 442. शम्बरः कल्याणप्रद, 443. व्याघ्र- लोचनः - व्याघ्रके समान भयानक नेत्रोंवाले ॥ 55 ॥

444. रुचिः - दीप्तिरूप, 445. विरञ्चिः - ब्रह्मस्वरूप, 446. स्वर्बन्धुः - स्वर्लोकमें बन्धुके समान सुखद, 447. वाचस्पतिः - वाणीके अधिपति, 448. अहर्पतिः - दिनके स्वामी सूर्यरूप, 449. रविः - समस्त रसोंका शोषण करनेवाले, 450. विरोचनः - विविध प्रकारसे प्रकाश फैलानेवाले, 451. स्कन्दः - स्वामी कार्तिकेयरूप, 452. शास्ता यम ॥ 56 ॥

वैवस्वतो यमः - सबपर शासन करनेवाले सूर्यकुमार 453. युक्तिरुन्नतकीर्तिः - अष्टांगयोगस्वरूप तथा ऊर्ध्वलोकमें फैली हुई कीर्तिसे युक्त, 454. सानुरागः - भक्तजनोंपर प्रेम रखनेवाले, 455. परञ्जय: – दूसरोंपर विजय पानेवाले, 456. कैलासाधिपतिः - कैलासके स्वामी, 457. कान्तः कमनीय अथवा कान्तिमान् 458. सविता समस्त जगत्को उत्पन्न करनेवाले, 459. रविलोचन: - सूर्यरूप नेत्रवाले ॥ 57 ॥

460. विद्वत्तमः - विद्वानोंमें सर्वश्रेष्ठ, परम विद्वान्, 461. वीतभयः - सब प्रकारके भयसे रहित, 462. विश्वभर्ता - जगत्का भरण पोषण करनेवाले, 463. अनिवारितः - जिन्हें कोईरोक नहीं सकता, ऐसे, 464. नित्यः सत्यस्वरूप, 465. नियतकल्याण: सुनिश्चितरूपसे कल्याणकारी, 466. पुण्यश्रवणकीर्तनः जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूपके श्रवण तथा कीर्तन परम पावन हैं, ऐसे॥ 58 ॥

467. दूरश्रवाः – सर्वव्यापी होनेके कारण दूरकी बात भी सुन लेनेवाले, 468, विश्वसहः भक्तजनोंके सब अपराधोंको कृपापूर्वक सह लेनेवाले, ध्येयः - ध्यान करनेयोग्य, 470. 469. दुःस्वप्ननाशनः - चिन्तन करनेमात्रसे बुरे स्वप्नोंका नाश करनेवाले, 471. उत्तारण:- संसारसागरसे पार उतारनेवाले, 472. दुष्कृतिहा— पापोंका नाश करनेवाले, 473. विज्ञेयः – जाननेके योग्य, 474. दुस्सहः - जिनके वेगको सहन करना दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है ऐसे, 475. अभवः – संसारबन्धनसे रहित अथवा अजन्मा ॥ 59 ॥

476. अनादिः - जिनका कोई आदि नहीं है, ऐसे सबके कारणस्वरूप, 477 भूर्भुवो लक्ष्मी:- भूलक और भुवर्लोककी शोभा, 478. किरीटी - मुकुटधारी, 479. त्रिदशाधिपः - देवताओंके स्वामी, 480. विश्व गोप्ता जगत्के रक्षक, 481. विश्व कर्ता-संसारकी सृष्टि करनेवाले, 482. सुवीरः श्रेष्ठ वीर, 483. रुचिराङ्गदः- सुन्दर बाजूबन्द धारण करनेवाले ll 60 ॥ -

484. जननः – प्राणिमात्रको जन्म देनेवाले, 485. जनजन्मादिः - जन्म लेनेवालोंके जन्मके मूल कारण 486. प्रीतिमान् प्रसन्न, 487. नीतिमान् - सदा नीतिपरायण, 488. धवः - सबके स्वामी, 489. वसिष्ठः मन और इन्द्रियोंको अत्यन्त - - - वसमें रखनेवाले अथवा वसिष्ठ ऋषिरूप, 490. कश्यपः- द्रष्टा अथवा कश्यप मुनिरूप, 491. भानुः - प्रकाशमान अथवा सूर्यरूप, 492. भीमः दुष्टोंको भय देनेवाले, 493. भीम-पराक्रमः अतिशय भयदायक पराक्रमसे युक्त ॥ 61 ॥

494. प्रणवः - ओंकारस्वरूप, 495. सत्पथा चारः सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले, 496. महा कोश:- अन्नमयादि पाँचों कोशोंको अपने भीतर धारण करनेके कारण महाकोशरूप, 497 महाधनः अपरिमितऐश्वर्यवाले अथवा कुबेरको भी धन देनेके कारण महाधनवान्, 498. जन्माधिपः - जन्म (उत्पादन) रूपी कार्यके अध्यक्ष ब्रह्मा, 499. मह्मदेवः - सर्वोत्कृष्ट देवता, 500. सकलागमपारगः समस्त शास्त्रोंके पारंगत विद्वान् ॥ 62 ॥

501 तत्त्वम् — यथार्थ तत्त्वरूप, 502. तत्त्व वित्— यथार्थ तत्त्वको पूर्णतया जाननेवाले, 503. एकात्मा-अद्वितीय आत्मरूप 504. विभुः सर्वत्र व्यापक, 505. विश्वभूषणः - सम्पूर्ण जगत्को उत्तम गुणोंसे विभूषित करनेवाले, 506. ऋषिः - मन्त्रद्रष्टा, 507. ब्राह्मण: - ब्रह्मवेत्ता, 508. ऐश्वर्यजन्ममृत्यु-जरातिगः - ऐश्वर्य, जन्म, मृत्यु और जरासे अतीत ॥ 63 ॥

509. पञ्चयज्ञसमुत्पत्तिः - पंच महायज्ञोंकी उत्पत्तिके हेतु. 510. विश्वेशः - विश्वनाथ, 511. | विमलोदयः - निर्मल अभ्युदयकी प्राप्ति करानेवाले धर्मरूप, 512. आत्मयोनिः – स्वयम्भू, 513. अनाद्यन्तः - आदि- अन्तसे रहित, 514. वत्सलः भक्तोंके प्रति वात्सल्य स्नेहसे युक्त, 515. भक्तलोकधृक् — भक्तजनोंके आश्रय ॥ 64 ॥

516. गायत्रीवल्लभः - गायत्रीमन्त्रके प्रेमी, 517. प्रांशुः – ऊँचे शरीरवाले, 518. विश्वावासः – सम्पूर्ण जगत्के आवासस्थान, 519. प्रभाकरः – सूर्यरूप, 520. शिशुः - बालकरूप, 521. गिरिरत: - कैलासपर्वतपर रमण करनेवाले, 522. सम्राट् — देवेश्वरोंके भी ईश्वर, 523. सुषेणः सुरशत्रुहा - प्रमथगणोंकी सुन्दर सेनासे युक्त तथा देवशत्रुओंका संहार करनेवाले ॥ 65 ॥ -

524. अमोघोऽरिष्टनेमिः - अमोघ संकल्पवाले महर्षि कश्यपरूप, 525. कुमुदः - भूतलको आह्लाद प्रदान करनेवाले चन्द्रमारूप, 526. विगतज्वरः चिन्तारहित, 527. स्वयंज्योतिस्तनुज्योतिः - अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित होनेवाले सूक्ष्मज्योतिः स्वरूप, 528. आत्मज्योतिः - अपने स्वरूपभूत ज्ञानकी प्रभासे प्रकाशित, 529. अचञ्चलः - चंचलतासे रहित 66 ॥530. पिङ्गलः - पिंगलवर्णवाले, 531. कपिल श्मश्रुः - कपिल वर्णकी दाढ़ी-मूँछ रखनेवाले दुर्वासा मुनिके रूपमें अवतीर्ण, 532. भालनेत्र:- ललाटमें तृतीय नेत्र धारण करनेवाले, 533. त्रयीतनुः- तीनों लोक या तीनों वेद जिनके स्वरूप हैं, ऐसे, 534. ज्ञानस्कन्दो महानीतिः — ज्ञानप्रद और श्रेष्ठ नीतिवाले, 535. विश्वोत्पत्तिः- जगत्के उत्पादक, 536. उपप्लव: संहारकारी ॥ 67 ॥

537. भगो विवस्वानादित्यः - अदितिनन्दन भग एवं विवस्वान्, 538. योगपारः - योगविद्यामें पारंगत, 539. दिवस्पतिः - स्वर्गलोकके स्वामी, 540. कल्याणगुणनामा - कल्याणकारी गुण और नामवाले, 541. पापहा— पापनाशक, 542. पुण्यदर्शनः पुण्यजनक दर्शनवाले अथवा पुण्यसे ही जिनका दर्शन होता है, ऐसे ॥ 68 ॥

543. उदारकीर्तिः - उत्तम कीर्तिवाले, 544. उद्योगी उद्योगशील, 545. सद्योगी श्रेष्ठ योगी, 546. सदसन्मयः - सदसत्स्वरूप, 547. नक्षत्र माली-नक्षत्रोंकी मालासे अलंकृत आकाशरूप, 548. नाकेशः - स्वर्गके स्वामी, 549. स्वाधिष्ठान पदाश्रयः -स्वाधिष्ठान चक्रके आश्रय ॥ 69 ॥ 550. पवित्रः पापहारी - नित्य शुद्ध एवं पाप नाशक, 551. मणिपूर: मणिपूर नामक चक्रस्वरूप, 552. नभोगतिः आकाशचारी, 553. हृत्पुण्डरीक-मासीनः - हृदयकमलमें स्थित, 554. शक्रः - इन्द्ररूप, 555. शान्तः शान्तस्वरूप, 556. वृषाकपिः - हरिहर ॥ 70 ॥ -

557. उष्णः - हालाहल विषकी गर्मीसे उष्णतायुक्त, 558. गृहपतिः - समस्त ब्रह्माण्डरूपी गृहके स्वामी, 559. कृष्णः - सच्चिदानन्दस्वरूप, 560. समर्थः – सामर्थ्यशाली, 561. अनर्थनाशन:- अनर्थका नाश करनेवाले, 562. अधर्मशत्रुः - अधर्मनाशक, 563. अज्ञेयः बुद्धिकी पहुँचसे परे अथवा जाननेमें न आनेवाले, 564. पुरुहूतः पुरुश्रुतः- बहुत से नामोंद्वारा पुकारे | और सुने जानेवाले ॥565. ब्रह्मगर्भः - ब्रह्मा जिनके गर्भस्थ शिशुके समान हैं, ऐसे, 566. बृहद्गर्भः - विश्वब्रह्माण्ड प्रलय कालमें जिनके गर्भ में रहता है, ऐसे, 567. धर्मधेनुः - धर्मरूपी वृषभको उत्पन्न करनेके लिये धेनुस्वरूप, 568. धनागमः - धनकी प्राप्ति करानेवाले, 569. जगद्धि-तैषी - समस्त संसारका हित चाहनेवाले, 570. सुगतः - उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न अथवा बुद्धस्वरूप, 571. कुमारः - कार्तिकेयरूप, 572. कुशलागमः - कल्याणदाता ॥ 72 ॥

573. हिरण्यवर्णो ज्योतिष्मान् - सुवर्णके समान गौरवर्णवाले तथा तेजस्वी, 574. नानाभूतरतः - नाना प्रकारके भूतोंके साथ क्रीडा करनेवाले, 575. ध्वनि :- नादस्वरूप, 576. अरागः - आसक्तिशून्य, 577. नयनाध्यक्षः - नेत्रोंमें द्रष्टारूपसे विद्यमान, 578. विश्वामित्रः - सम्पूर्ण जगत्के प्रति मैत्री भावना रखनेवाले मुनिस्वरूप, 579. धनेश्वरः धनके स्वामी कुबेर ॥ 73 ॥

580. ब्रह्मज्योतिः – ज्योति: स्वरूप ब्रह्म, 581. वसुधामा - सुवर्ण और रत्नोंके तेजसे प्रकाशित अथवा वसुधास्वरूप, 582. महाज्योतिरनुत्तमः सूर्य आदि ज्योतियोंके प्रकाशक सर्वोत्तम महाज्योति: स्वरूप, 583. मातामहः – मातृकाओंके जन्मदाता होनेके कारण मातामह, 584. मातरिश्वा नभस्वान्- आकाशमें विचरनेवाले वायुदेव, 585. नागहारधृक्- सर्पमय हार धारण करनेवाले ॥ 74 ॥

586. पुलस्त्यः - पुलस्त्य नामक मुनि, 587. पुलहः - पुलह नामक ऋषि, 588. अगस्त्यः कुम्भ- जन्मा अगस्त्य ऋषि, 589. जातूकर्ण्यः इसी नाम से प्रसिद्ध मुनि, 590. पराशरः - शक्तिके पुत्र तथा व्यासजीके पिता मुनिवर पराशर, 591. निरावरण- निर्वार : - आवरणशून्य तथा अवरोधरहित, 592. वैरञ्चयः - ब्रह्माजीके पुत्र नीललोहित रुद्र, 593. विष्टरश्रवाः - विस्तृत यशवाले विष्णुस्वरूप, 594. आत्मभूः - स्वयम्भू ब्रह्मा, 595. अनिरुद्धः - अकुण्ठित गतिवाले, 596. अत्रिः - अत्रि नामक ऋषि अथवा त्रिगुणातीत, 597. ज्ञानमूर्ति: ज्ञानस्वरूप, 598. महायशाः – महायशस्वी,599. लोकवीराग्रणी :- विश्वविख्यात वीरोंमें अग्रगण्य, 600. वीरः शूरवीर, 601. चण्ड: प्रलयके समय अत्यन्त क्रोध करनेवाले, 602. सत्यपराक्रमः - सच्चे पराक्रमी ॥ 75-76 ॥

603. व्यालाकल्पः – सर्पोंके आभूषणसे शृङ्गार करनेवाले, 604. महाकल्पः- महाकल्पसंज्ञक काल स्वरूपवाले 605 कल्पवृक्षः शरणागतोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये कल्पवृक्षके समान उदार, 606. कलाधरः - चन्द्रकलाधारी, 607. अलंकरिष्णुः अलंकार धारण करने या करानेवाले, 608. अचल: विचलित न होनेवाले 609. रोचिष्णुः प्रकाशमान, 610. विक्रमोन्नतः - पराक्रममें बढ़े चढ़े 77 ॥ 611. आयुः शब्दपतिः - आयु तथा वाणीके स्वामी, 612. वेगी प्लवनः - वेगशाली तथा कूदने या तैरनेवाले, 613. शिखिसारथिः अग्निरूप सहायकवाले, 614. असंसृष्टः– निर्लेप, 615. अतिथिः प्रेमी भक्तोंके घरपर अतिथिकी भाँति उपस्थित हो उनका सत्कार ग्रहण करनेवाले, 616. शक्रप्रमाथी – इन्द्रका मान-मर्दन करनेवाले, 617. पादपासन: - वृक्षोंपर या वृक्षोंके नीचे आसन लगानेवाले ॥ 78 ॥

618. वसुश्रवाः - यशरूपी धनसे सम्पन्न, 619. हव्यवाहः – अग्निस्वरूप, 620. प्रतप्तः सूर्यरूप प्रचण्ड ताप देनेवाले 621. विश्वभोजन: प्रलयकालमें विश्व-ब्रह्माण्डको अपना ग्रास बना लेनेवाले, 622. जप्यः – जपनेयोग्य नामवाले, 623. जरादिशमन आदि दोषका निवारण करने 624. लोहितात्मा तनूनपात्-लोहितवर्णवाले अग्निरूप ॥ 79 ॥

625. बृहदश्व: विशाल अश्ववाले 626. नभो- योनिः - आकाशकी उत्पत्तिके स्थान, 627. सुप्रतीकः - सुन्दर शरीरवाले, 628. तमिस्त्रहा अनान्धकारनाशक 629. निदाघस्तपनः तपनेवाले ग्रीष्मरूप, 630. मेघः - बादलोंसे उपलक्षित वर्षारूप, 631. स्वक्षः - सुन्दर नेत्रोंवाले, 632. परपुरञ्जय: त्रिपुरकाप शत्रुनगरोपर विजय पानेवाले ॥ 80ll(633. सुखानिलः - सुखदायक वायुको प्रकट करनेवाले शरत्कालरूप, 634. सुनिष्पन्नः - जिसमें अन्नका सुन्दररूपसे परिपाक होता है, वह हेमन्तकालरूप, 635. सुरभिः शिशिरात्मकः - सुगन्धित मलयानिलसे युक्त शिशिर ऋतुरूप, 636. वसन्तो माधवः चैत्र वैशाख– इन दो मासोंसे युक्त वसन्तरूप, 637. ग्रीष्मः - ग्रीष्म ऋतुरूप, 638. नभस्यः भाद्रपदमासरूप, 639. बीज- वाहनः धान आदिके बीजोंकी प्राप्ति करानेवाला शरत्काल ॥ 81 ॥

640. अङ्गिरा गुरुः- अंगिरा नामक ऋषि तथा उनके पुत्र देवगुरु बृहस्पति, 641. आत्रेयः - अत्रिकुमार दुर्वासा, 642. विमलः - निर्मल, 643. विश्ववाहनः – सम्पूर्ण जगत्का निर्वाह करानेवाले, 644. पावन:- पवित्र करनेवाले, 645. सुमतिर्विद्वान् — उत्तम बुद्धिवाले विद्वान्, 646. त्रैविद्यः - तीनों वेदोंके विद्वान् अथवा तीनों वेदोंके द्वारा प्रतिपादित, 647. वरवाहनः - वृषभरूप श्रेष्ठ वाहनवाले ॥ 82 ॥

648. मनोबुद्धिरहंकारः - मन, बुद्धि और अहंकारस्वरूप, 649. क्षेत्रज्ञः - आत्मा, 650. क्षेत्र - पालक :- शरीररूपी क्षेत्रका पालन करनेवाले परमात्मा, 651. जमदग्नि :- जमदग्नि नामक ऋषिरूप, 652. बलनिधिः - अनन्त बलके सागर, 653. विगालः - अपनी जटासे गंगाजीके जलको टपकानेवाले, 654. विश्वगालवः - विश्वविख्यात गालव मुनि अथवा प्रलय- कालमें कालाग्निस्वरूपसे जगत्को निगल जानेवाले ॥ 83 ॥

655. अघोरः - सौम्यरूपवाले, 656. अनुत्तरः- सर्वश्रेष्ठ, 657. यज्ञः श्रेष्ठः - श्रेष्ठ यज्ञरूप, 658. निःश्रेयसप्रदः -कल्याणदाता, 659. शैलः– शिलामय लिंगरूप, 660. गगनकुन्दाभः - आकाशकुन्द- चन्द्रमाके समान गौर कान्तिवाले, 661. दानवारि:- दानव- शत्रु, 662. अरिंदमः - शत्रुओंका दमन करनेवाले ॥ 84 ॥

663. रजनीजनकश्चारुः - सुन्दर निशाकर रूप, 664. निः शल्यः - निष्कण्टक, 665. लोक | शल्यधृक्- शरणागतजनोंके शोक- शल्यको निकालकरस्वयं धारण करनेवाले, 666. चतुर्वेदः - चारों वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य, 667. चतुर्भावः - चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाले, 668. चतुरश्चतुरप्रियः - चतुर एवं चतुर पुरुषोंके प्रिय ॥ 85 ॥669. आम्नाय :- वेदस्वरूप, समाम्नाय : – अक्षरसमाम्नाय - शिवसूत्ररूप, 671. तीर्थदेव- शिवालयः - तीर्थोके देवता और शिवालयरूप, 672. बहुरूपः — अनेक रूपवाले, 673. मारूप: विराट्- रूपधारी, 674. सर्वरूपश्चराचरः - चर और अचर सम्पूर्ण रूपवाले ॥ 86 ॥675. न्यायनिर्मायको न्यायी - न्यायकर्ता तथा न्यायशील, 676. न्यायगम्यः - न्याययुक्त आचरणसे प्राप्त होनेयोग्य, 677. निरञ्जन: निर्मल, 678. सहस्रमूर्द्धा - सहस्रों सिरवाले, 679. देवेन्द्रः - देवताओंके स्वामी, सर्वशस्त्रप्रभञ्जनः - विपक्षी योद्धाओंके सम्पूर्ण शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले ॥ 87 ॥ 680.

681. मुण्ड: – मुँड़े हुए सिरवाले संन्यासी, 682. विरूपः - विविध रूपवाले, 683. विक्रान्तः - विक्रम- शील, 684. दण्डी - दण्डधारी, 685. दान्तः - मन और इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, 686. गुणोत्तमः - गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ, 687. | पिङ्गलाक्षः - पिंगल नेत्र- वाले, 688. जनाध्यक्ष: जीवमात्रके साक्षी, 689. नीलग्रीवः - नीलकण्ठ, 690. निरामयः - नीरोग ॥ 88 ॥

691. सहस्रबाहुः – सहस्रों भुजाओंसे युक्त, 692. सर्वेश: - सबके स्वामी, 693. शरण्यः शरणागत- हितैषी, 694. सर्वलोकधृक् — सम्पूर्ण लोकोंको धारण करनेवाले, 695. पद्मासन: कमलके आसन पर विराजमान, 696. परं ज्योतिः - परम प्रकाशस्वरूप, 697. पारम्पर्यफलप्रदः - परम्परागत फलकी प्राप्ति करानेवाले ॥ 89 ॥

698. पद्मगर्भः - अपनी नाभिसे कमलको प्रकट करनेवाले विष्णुरूप, 699. महागर्भः - विराट् ब्रह्माण्डको गर्भमें धारण करनेके कारण महान् गर्भवाले, 700. विश्वगर्भः - सम्पूर्ण जगत्को अपने उदरमें धारण करनेवाले, 701. विचक्षणः - चतुर,702. परावरज्ञः - कारण और कार्यके ज्ञाता, 703. वरदः - अभीष्ट वर देनेवाले, 704. वरेण्यः वरणीय अथवा श्रेष्ठ, 705 महास्वनः डमरूका गम्भीर नाद करनेवाले ॥ 90 ॥

706. देवासुरगुरुर्देवः – देवताओं तथा असुरोंके गुरुदेव एवं आराध्य, 707. देवासुरनमस्कृतः - देवताओं तथा असुरोंसे वन्दित, 708. देवासुर महामित्रः - देवता तथा असुर दोनोंके बड़े मित्र, 709. देवासुर-महेश्वरः- देवताओं और असुरोंके महान् ईश्वर ॥ 91 ॥

710. देवासुरेश्वरः – देवताओं और असुरोंके शासक, 711. दिव्यः - अलौकिक स्वरूपवाले, |712. देवासुरमहाश्रयः - देवताओं और असुरोंके महान् आश्रय, 713. देवदेवमयः - देवताओंके लिये भी देवतारूप, 714. अचिन्त्यः - चित्तकी सीमासे परे विद्यमान, 715. देवदेवात्मसम्भवः – देवाधिदेव ब्रह्माजीसे रुद्ररूपमें उत्पन्न ॥ 92 ॥

716. सद्योनिः – सत्पदार्थोकी उत्पत्तिके हेतु, 717. असुरव्याघ्रः - असुरोंका विनाश करनेके लिये व्याघ्ररूप, 718. देवसिंहः - देवताओंमें श्रेष्ठ, 719. दिवाकरः - सूर्यरूप, 720. विबुधाग्रचरश्रेष्ठः देवताओंके नायकों में सर्वश्रेष्ठ, 721. सर्वदेवोत्तमोत्तमः - सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओंके भी शिरोमणि ॥ 93 ॥

722. शिवज्ञानरतः - कल्याणमय शिवतत्त्वके विचारमें तत्पर, 723. श्रीमान्- अणिमा आदि विभूतियोंसे सम्पन्न, 724. शिखिश्रीपर्वतप्रियः | कुमार कार्तिकेयके निवासभूत श्रीशैल नामक पर्वतसे प्रेम करनेवाले, 725. वज्रहस्तः- वज्रधारी इन्द्ररूप, 726. सिद्धखड्गः - शत्रुओंको मार गिरानेमें जिनकी तलवार कभी असफल नहीं होती, ऐसे, 727. नरसिंहनिपातनः - शरभरूपसे नृसिंहको धराशायी करनेवाले ॥ 94 ॥

728. ब्रह्मचारी - भगवती उमाके प्रेमकी परीक्षा लेनेके लिये ब्रह्मचारीरूपसे प्रकट, 729. लोकचारी समस्त लोकोंमें विचरनेवाले, 730. धर्मचारी धर्मका आचरण करनेवाले, 731. धनाधिपःधनके अधिपति कुबेर, 732. नन्दी – नन्दी नामक | गण, 733. नन्दीश्वरः इसी नाम से प्रसिद्ध वृषभ, 734. अनन्तः - अन्तरहित, 735. नग्नव्रतधरः दिगम्बर रहने का व्रत धारण करनेवाले 736. शुचिः नित्यशुद्ध ॥ 95 ॥ लिङ्गाध्यक्षः - लिंगदेहके द्रष्टा, 737. अधिपति, 738. सुराध्यक्ष:- देवताओंके | 739. योगाध्यक्षः योगेश्वर, 740. युगावहः युगके निर्वाहक, 741. स्वधर्मा— आत्मविचाररूप धर्ममें स्थित अथवा स्वधर्म परायण, 742. स्वर्गतः स्वर्गलोक में स्थित 743. स्वर्गस्वरः - स्वर्गलोकमें जिनके यशका गान किया जाता है, ऐसे, 744. स्वरमयस्वनः -सात प्रकारके स्वरोंसे युक्त ध्वनिवाले ll 96 ll

745. बाणाध्यक्षः बाणासुरके स्वामी अथवा बाणलिंग नर्मदेश्वर में अधिदेवतारूपसे स्थित 746. बीजकर्ता - बीजके उत्पादक, 747. धर्मकृद्धर्म सम्भवः- धर्मके पालक और उत्पादक, 748. दम्भः - मायामयरूपधारी, 749. अलोभः लोभरहित 750 अर्धविच्छम्भुः सबके प्रयोजनको जाननेवाले कल्याण- निकेतन शिव, 751. सर्वभूतमहेश्वरः- सम्पूर्ण प्राणियोंके परमेश्वर ॥ 97 ॥

752. श्मशाननिलयः श्मशानवासी, 753. त्र्यक्षः - त्रिनेत्रधारी, 754. सेतुः - धर्ममर्यादाके पालक, 755. अप्रतिमाकृतिः - अनुपम रूपवाले, 756. लोकोत्तरस्फुटालोकः - अलौकिक एवं सुस्पष्ट प्रकाशसे युक्त, 757. त्र्यम्बकः त्रिनेत्रधारी अथवा त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग, 758. नागभूषणः - नागहारसे विभूषित ॥ 98 ॥

759. अन्धकारिः - अन्धकासुरका वध करनेवाले, 760. मखद्वेषी दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाले, 761. विष्णुकन्धरपातनः - यज्ञमय विष्णुका गला काटनेवाले 762. हीनदोषः दोषरहित, 763. अक्षय गुणः अविनाशी गुणोंसे सम्पन्न, 764. दक्षादिक्षी 765. पूषदन्तभित्— पूषा देवताके दाँत तोड़नेवाले ॥ 99 ॥766. धूर्जटि :- जटाके भारसे विभूषित, 767. खण्डपरशुः खण्डित परशुवाले, 768. सकलो निष्कलः - साकार एवं निराकार परमात्मा, 769. अनघः - पापके स्पर्शसे शून्य, 770. अकालः कालके प्रभावसे रहित, 771. सकलाधारः - सबके आधार, 772. पाण्डुराभ:- श्वेत कान्तिवाले, 773. मृडो नटः- सुखदायक एवं ताण्डवनृत्यकारी ॥ 100 ॥

774. पूर्णः - सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्मा, 775. पूरयिता - भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले, 776. पुण्यः - परम पवित्र, 777. सुकुमारः सुन्दर कुमार हैं जिनके, ऐसे अथवा मृदुतासे युक्त, 778. सुलोचनः – सुन्दर नेत्रवाले, 779. सामगेयप्रियः – सामगानके प्रेमी, 780. अक्रूरः क्रूरतारहित, 781. पुण्यकीर्तिः– पवित्र कीर्तिवाले, 782. अनामयः - रोग-शोकसे रहित ॥ 101 ॥

783. मनोजवः - मनके समान वेगशाली, 784. तीर्थकर :- तीर्थोंके निर्माता, 785. जटिल: जटाधारी, 786. जीवितेश्वरः – सबके प्राणेश्वर, 787. जीवितान्तकरः - प्रलयकालमें सबके जीवनका अन्त करनेवाले, 788. नित्यः- सनातन, 789. वसुरेताः - सुवर्णमय वीर्यवाले, 790. वसुप्रदः - धनदाता ॥ 102 ॥

791. सद्गतिः - सत्पुरुषोंके आश्रय, 792. सत्कृतिः - शुभ कर्म करनेवाले, 793. सिद्धिः - सिद्धिस्वरूप, 794. सज्जातिः - सत्पुरुषोंके जन्मदाता, 795. खलकण्टकः- दुष्टोंके लिये कण्टकरूप, 796. कलाधरः - कलाधारी, 797. महाकालभूतः - महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगस्वरूप अथवा कालके भी काल होनेसे महाकाल, 798. सत्यपरायणः - सत्यनिष्ठ ll 103 ॥

799. लोकलावण्यकर्ता-सब लोगोंको सौन्दर्य प्रदान करनेवाले, 800. लोकोत्तरसुखालयः - लोकोत्तर सुखके आश्रय, 801 चन्द्रसंजीवनः शास्ता-सोम- नाथरूपसे चन्द्रमाको जीवन प्रदान करनेवाले सर्वशासक शिव, 802. लोकगूढः समस्त संसारमें अव्यक्तरूपसे व्यापक, 803. महाधिपः - महेश्वर ॥ 104 ॥804. लोकबन्धुर्लोकनाथः - सम्पूर्ण लोकोंके बन्धु एवं र 805. कृतज्ञः उपकारको माननेवाले, 806. कीर्तिभूषणः उत्तम यशसे विभूषित, 807 अन पायोऽक्षर:- विनाशरहित-अविनाशी, 808. कान्तः - प्रजापति दक्षका अन्त करनेवाले अथवा कान्तिमय, 809. सर्वशस्त्रभृतां वरः - सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ ॥ 105 ॥

810. तेजोमयो द्युतिधरः- तेजस्वी और कान्ति- मानु 811. लोकानामग्रणी: सम्पूर्ण जगत्के लिये अग्रगण्य देवता अथवा जगत्‌को आगे बढ़ानेवाले, 812. अणुः अत्यन्त सूक्ष्म 813. शुचिस्मितः पवित्र मुसकानवाले, 814. प्रसन्नात्मा - हर्षभरे हृदयवाले, 815. दुर्जेयः - जिनपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है, ऐसे, 816. दुरतिक्रमः दुर्लघ्य ll 106 ॥

817. ज्योतिर्मयः - तेजोमय, 818. जगन्नाथः - विश्वनाथ, 819 निराकारः आकाररहित परमात्मा, 820. जलेश्वर:- जलके स्वामी, 821. तुम्बवीणः - तूंबीकी वीणा बजानेवाले, 822. महाकोपः - संहारके समय महान् क्रोध करनेवाले, 823. विशोकः - शोकरहित, 824. शोकनाशनः शोकका नाश करने वाले ॥ 107 - 825. त्रिलोकपः - तीनों लोकोंका पालन करनेवाले, 826. त्रिलोकेशः - त्रिभुवनके स्वामी, 827. सर्व-शुद्धिः - सबकी शुद्धि करनेवाले, 828. अधोक्षजः इन्द्रियों और उनके विषयोंसे अतीत, 829. अव्यक्तलक्षणो देवः - अव्यत लक्षणवाले | देवता, 830. व्यक्ता व्यक्तः - स्थूलसूक्ष्मरूप, 831 विशाम्पतिः प्रजाओंके पालक ॥ 108 ॥

832. वरशील:- श्रेष्ठ स्वभाववाले, 833. वरगुणः- उत्तम गुणोंवाले, 834. सारः - सारतत्त्व, 835. मानधनः - स्वाभिमानके धनी, 836. मयः सुखस्वरूप, 830. ब्रह्मा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा 838. विष्णुः प्रजापाल:- प्रजापालक विष्णु 839. हंसः - सूर्यस्वरूप, 840. हंसगतिः - हंसके समान चालवाले, 849. वयः गरुड़ पक्षी ॥ 109 ॥842. वेधा विधाता धाता ब्रह्मा, धाता और विधाता नामक देवतास्वरूप, 843. स्स्रष्टा सृष्टिकर्ता, 844. हर्ता-संहारकारी, 845. मुखवाले 846. चतुर्मुखः - चार कैलासशिखरावासी- कैलासके शिखरपर निवास करनेवाले, 847. सर्वावासी सर्वव्यापी, 848. सदागतिः - निरन्तर गतिशील वायुदेवता ॥ 110 ॥

- 849. हिरण्यगर्भः ब्रह्मा 850. दुहिण: ब्रह्मा, 851. भूतपालः - प्राणियोंका पालन करनेवाले, 852. भूपतिः पृथ्वीके स्वामी, 853. सद्योगी श्रेष्ठ योगी, 854. योगविद्योगी– योगविद्याके ज्ञाता योगी, 855. वरदः – वर देनेवाले, 856. ब्राह्मण प्रियः ब्राह्मणोंके प्रेमी ॥ 111 ॥

857. देवप्रियो देवनाथः देवताओंके प्रिय तथा रक्षक, 858. देवन:- देवतत्त्वके ज्ञाता, 859. देव-चिन्तक: - देवताओंका विचार करनेवाले, 860. विष माक्षः - विषम नेत्रवाले, 861. विशालाक्ष: बड़े- बड़े नेत्रवाले, 862. वृषदो वृषवर्धनः- धर्मका दान और वृद्धि करनेवाले ॥ 112 ll
निर्ममः - ममतारहित, 864. निरहङ्कारः अहंकारशून्य, 865. निर्मोहः मोहशून्य, 866. निरुप- द्रवः - उपद्रव या उत्पातसे दूर, 867. दर्पा दर्पदः दर्पका हनन और खण्डन करनेवाले, 868. दृप्तः - स्वाभिमानी, 869. सर्वर्तुपरिवर्तकः समस्त ऋतुओंको बदलते रहनेवाले ॥ 113 ॥ -

870. सहस्रजित् सहसौपर विजय पानेवाले, 871. सहस्त्रार्चिः - सहस्रों किरणोंसे प्रकाशमान सूर्यरूप, 872. स्निग्धप्रकृतिदक्षिणः - स्नेहयुक्त स्वभाववाले तथा उदार, 873. भूतभव्यभवन्नाथः भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी, 874. प्रभवः सबकी उत्पत्तिके कारण, 875. भूतिनाशन: दुष्टोंके ऐश्वर्यका नाश करनेवाले ॥ 114 ॥ 876. अर्थः – परमपुरुषार्थरूप, 877. अनर्थः प्रयोजनरहित, 878. महाकोशः अनन्त धनराशिके स्वामी, 879. परकायैकपण्डितः पराये कार्यको सिद्ध करनेकी कलाके एकमात्र विद्वान्,880. 881. निष्कण्टकः - कण्टकरहित, कृतानन्दः - नित्यसिद्ध आनन्दस्वरूप, 882. निर्व्याजो व्याजमर्दनः - स्वयं कपटरहित होकर दूसरेके कपटको नष्ट करनेवाले ॥ 115 ॥

- 883. सत्त्ववान् सत्त्वगुणसे युक्त, 884. सात्त्विकः- सत्त्वनिष्ठ, 885. सत्यकीर्तिः - सत्य कीर्तिवाले, 886. स्नेहकृतागमः - जीवोंके प्रति स्नेहके कारण विभिन्न आगमोंको प्रकाशमें लानेवाले, 887. अकम्पितः - सुस्थिर, 888. गुणग्राही-गुणोंका आदर करनेवाले, 889. नैकात्मा नैककर्मकृत् अनेकरूप होकर अनेक प्रकार के कर्म करनेवाले ll 116 ॥

890. सुप्रीतः - अत्यन्त प्रसन्न, 891. सुमुखः सुन्दर मुखवाले, 892. सूक्ष्मः स्थूलभावसे रहित, 893. सुकरः सुन्दर हावाले 894. दक्षिणानिलः - मलयानिलके समान सुखद, 895 नन्दिस्कन्धधरः- नन्दीकी पीठपर सवार होनेवाले 896. धुर्यः - उत्तरदायित्वका भार वहन करने में समर्थ, 897. प्रकटः - भक्तोंके सामने प्रकट होनेवाले अथवा ज्ञानियोंके सामने नित्य प्रकट, 898. प्रीतिवर्धनः प्रेम बढ़ानेवाले ॥ 117 ॥

899. अपराजितः - किसीसे परास्त न होनेवाले, 900. सर्वसत्त्वः - सम्पूर्ण सत्त्वगुणके आश्रय अथवा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिके हेतु, 101. गोविन्दः गोलोककी प्राप्ति करानेवाले, 202. सत्त्ववाहन: सत्त्वस्वरूप धर्ममय वृषभसे वाहनका काम लेनेवाले, 903. अधृतः आधाररहित 104. स्वभूतः - अपने आपमें ही स्थित, 905. सिद्धः - नित्यसिद्ध, 906. पूतमूर्तिः पवित्र शरीरवाले, 207 - यशोधनः - सुयशके धनी ॥ 118 ॥

908. वाराहशृङ्गभृङ्गी - वाराहको मारकर उसके दाढ़रूपी शृंगोंको धारण करनेके कारण श्रृंगी नामसे प्रसिद्ध, 909. बलवान्-शक्तिशाली, 910. एकनायकः - अद्वितीय नेता, 911 श्रुतिप्रकाश: वेदोंको प्रकाशित करनेवाले, 912. श्रुतिमान् वेदज्ञानसे सम्पन्न, 113. एकबन्धुः - सबके एकमात्र सहायक, 914. अनेक कृत्— अनेक प्रकारके | पदार्थोंकी सृष्टि करनेवाले ॥ 119 ॥915. श्रीवत्सलशिवारम्भः — श्रीवत्सधारी विष्णुके लिये मंगलकारी, 916. शान्तभद्रः - शान्त एवं मंगलरूप, 917. समः सर्वत्र समभाव रखनेवाले, 918. यश:- यशस्वरूप, 919. भूशयः - पृथ्वीपर शयन करनेवाले, 920. भूषणः - सबको विभूषित करनेवाले, 921. भूतिः - कल्याणस्वरूप, 922. भृतकृत् — प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले, 923. भूतभावनः- भूतोंके उत्पादक ॥ 120 ॥

924. अकम्पः - कम्पित न होनेवाले, 925. भक्तिकायः - भक्तिस्वरूप, 926. कालहा-काल और नाशक, 927. नीललोहितः - नील लोहितवर्णवाले, 928. सत्यव्रतमहात्यागी सत्यव्रतधारी एवं महान् त्यागी, 929. नित्यशान्तिपरायणः - निरन्तर शान्त ॥ 121 ॥

930. परार्थवृत्तिर्वरदः - परोपकारव्रती एवं अभीष्ट वरदाता, 931. विरक्त:- वैराग्यवान्, 932. विशारदः - विज्ञानवान् 933. शुभदः शुभकर्ता - शुभ देने और करनेवाले, 934. शुभनामा शुभः स्वयम् - स्वयं शुभस्वरूप होनेके कारण शुभ नामधारी 122 ॥

935. अनर्थितः – याचनारहित, 936. अगुणः - निर्गुण, 937. साक्षी अकर्ता- द्रष्टा एवं कर्तृत्व- रहित, 938. कनकप्रभः - सुवर्णके समान कान्ति- मानू, 939. स्वभावभद्रः - स्वभावतः कल्याणकारी, 940. मध्यस्थः - उदासीन, 941. शत्रुघ्नः - शत्रुनाशक, 942. विघ्ननाशनः– विघ्नोंका निवारण करनेवाले ॥ 123 ॥

943. शिखण्डी कवची शूली–मोरपंख, कवच और त्रिशूल धारण करनेवाले, 944. जटी मुण्डी च कुण्डली - जय, मुण्डमाला और कवच धारण करनेवाले, 945. अमृत्युः - मृत्युरहित, 946. सर्वदृक्सिंहः - सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ, 947. तेजोराशिर्महामणिः - तेज:पुंज महामणि कौस्तुभादिरूप ॥ 124 ॥

948. असंख्येयोऽप्रमेयात्मा – असंख्य नाम, रूप और गुणोंसे युक्त होनेके कारण किसीके द्वारा मापे न जा सकनेवाले, 949. वीर्यवान् | वीर्यकोविदः - पराक्रमी एवं पराक्रमके ज्ञाता,950. वेद्य:- जाननेयोग्य, 951. वियोगात्मा दीर्घकालतक सतीके वियोगमें अथवा विशिष्ट योगकी साधनामें संलग्न हुए मनवाले, 952 परावरमुनीश्वरः - भूत और भविष्य के ज्ञाता मुनीश्वर रूप ।। 125 ।।

953. अनुत्तमो दुराधर्षः - सर्वोत्तम एवं दुर्जय, 954 मधुरप्रियदर्शन: जिनका दर्शन मनोहर एवं प्रिय लगता है, ऐसे, 955. सुरेश :- देवताओंके ईश्वर, 956. शरणम् आश्रयदाता, 957. सर्व: सर्वस्वरूप, 958. शब्दब्रह्म सतां गतिः - प्रणवरूप तथा सत्पुरुषोंके आश्रय ॥ 126 ॥
959. कालपक्षःकाल जिनका सहायक है, ऐसे, 960. कालकाल:- कालके भी काल, 969. कङ्कणीकृतवासुकिः - वासुकि नागको अपने हाथमें कंगनके समान धारण करनेवाले, 962. महेष्वासः - महाधनुर्धर, 963. महीभर्ता पृथ्वीपालक, 964. निष्कलङ्कः- कलंकशून्य, 965. विशृङ्खलः - बन्धनरहित ॥ 127 ll

966. धुमणिस्तरणिः - आकाशमें मणिके समान प्रकाशमान तथा भक्तोंको भवसागरसे तारनेके लिये नौकारूप सूर्य, 167 धन्यः कृतकृत्य 968. सिद्धिदः सिद्धिसाधनः- सिद्धिदाता और सिद्धिके साधक, 969. विश्वतः संवृतः - सब ओरसे मायाद्वारा आवृत, 970. स्तुत्यः-स्तुतिके योग्य, 971. व्यूढोरस्क: चौड़ी छातीवाले, 972. महाभुजः- बड़ी बाँहवाले 128 -.973. सर्वयोनिः सबकी उत्पत्तिके स्थान, 974 निरातङ्कः- निर्भय, 975 नरनारायणप्रियः नर नारायणके प्रेमी अथवा प्रियतम, 976. निर्लेपो निष्प्रपञ्चात्पा दोषसम्पर्कसे रहित तथा जगत्प्रपंचसे अतीत स्वरूपवाले 177. निर्व्यङ्ग विशिष्ट अंगवाले प्राणियोंके प्राकट्य हेतु, 978. व्यङ्गनाशन: यज्ञादि कर्मोंमें होनेवाले अंग वैगुण्यका नाश करनेवाले 129

979. स्तव्यः स्तुतिके योग्य, 980. स्तव प्रियः-स्तुतिके प्रेमी, 981. स्तोता- स्तुति करनेवाले, 982. व्यासमूर्तिः व्यासस्वरूप, 983. निरङ्कुशः - अंकुशरहित स्वतन्त्र,984. निरवद्यमयोपायः - मोक्ष प्राप्तिके निर्दोष उपायरूप, 985. विद्याराशि:- विद्याओंके सागर, 986. रसप्रियः - ब्रह्मानन्दरसके प्रेमी ॥ 130 ॥

987. प्रशान्तबुद्धिः - शान्त बुद्धिवाले, 988. अक्षुण्णः - क्षोभ या नाशसे रहित, 989. संग्रही भक्तोंका संग्रह करनेवाले, 990. नित्यसुन्दरः सतत मनोहर, 999. वैयाघ्रधुर्यः - व्याघ्रचर्मधारी, 992. धात्रीशः - ब्रह्माजीके स्वामी, 993. शाकल्यः- शाकल्य ऋषिरूप, 994. शर्वरीपतिः - रात्रिके स्वामी चन्द्रमारूप ॥ 131 ॥

955. परमार्थगुरुर्दत्तः सूरिः — परमार्थ- तत्त्वका | उपदेश देनेवाले ज्ञानी गुरु दत्तात्रेयरूप, 996. आश्रित वत्सलः - शरणागतोंपर दया करनेवाले, 997. सोमः - उमासहित, 998. रसज्ञः - भक्तिरसके ज्ञाता, 999. रसदः - प्रेमरस प्रदान करनेवाले, 1000. सर्वसत्त्वावलम्बनः - समस्त प्राणियोंको सहारा देनेवाले ॥ 132 ॥

इस प्रकार विष्णुजीने सहस्र नामोंसे शिवजीकी स्तुति और प्रार्थना की तथा हजार कमलोंसे उनकी पूजा की ॥ 133 ॥

हे द्विजो ! उसके बाद लीला करनेवाले उन शिवजीने जो अत्यन्त अद्भुत तथा सुखदायक चरित्र किया, उसे आदरसे सुनिये ॥ 134 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] शौनकजीके साधनविषयक प्रश्न करनेपर सूतजीका उन्हें शिवमहापुराणकी महिमा सुनाना
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणके श्रवणसे देवराजको शिवलोककी प्राप्ति
  3. [अध्याय 3] चंचुलाका पापसे भय एवं संसारसे वैराग्य
  4. [अध्याय 4] चंचुलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चंचुलाका पार्वतीजीकी सखी होना
  5. [अध्याय 5] चंचुलाके प्रयत्नसे पार्वतीजीकी आज्ञा पाकर तुम्बुरुका विन्ध्यपर्वतपर शिवपुराणकी कथा सुनाकर बिन्दुगका पिशाचयोनिसे उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पतीका शिवधाममें सुखी होना
  6. [अध्याय 6] शिवपुराणके श्रवणकी विधि
  7. [अध्याय 7] श्रोताओंके पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय
  3. [अध्याय 3] साध्य-साधन आदिका विचार
  4. [अध्याय 4] श्रवण, कीर्तन और मनन इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
  5. [अध्याय 5] भगवान् शिव लिंग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मा और विष्णुके भयंकर युद्धको देखकर देवताओंका कैलास शिखरपर गमन
  7. [अध्याय 7] भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णु के युद्धमें अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना
  9. [अध्याय 9] महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको अपने निष्कल और सकल स्वरूपका परिचय देते हुए लिंगपूजनका महत्त्व बताना
  10. [अध्याय 10] सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवलिंगकी स्थापना, उसके लक्षण और पूजनकी विधिका वर्णन तथा शिवपदकी प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मोका विवेचन
  12. [अध्याय 12] मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी
  13. [अध्याय 13] सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव- जप, गायत्री जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 14] अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन
  15. [अध्याय 15] देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार
  16. [अध्याय 16] मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, बार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन
  17. [अध्याय 17] लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (अकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता
  18. [अध्याय 18] बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण
  19. [अध्याय 19] पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य
  20. [अध्याय 20] पार्थिव शिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
  21. [अध्याय 21] कामनाभेदसे पार्थिवलिंगके पूजनका विधान
  22. [अध्याय 22] शिव- नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य
  23. [अध्याय 23] भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन
  24. [अध्याय 24] भस्म-माहात्म्यका निरूपण
  25. [अध्याय 25] रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके प्रश्नके उत्तरमें श्रीसूतजीद्वारा नारद -ब्रह्म -संवादकी अवतारणा
  2. [अध्याय 2] नारद मुनिकी तपस्या, इन्द्रद्वारा तपस्यामें विघ्न उपस्थित करना, नारदका कामपर विजय पाना और अहंकारसे युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रसे अपने तपका कथन
  3. [अध्याय 3] मायानिर्मित नगरमें शीलनिधिकी कन्यापर मोहित हुए नारदजीका भगवान् विष्णुसे उनका रूप माँगना, भगवान्‌का अपने रूपके साथ वानरका सा मुँह देना, कन्याका भगवान्‌को वरण करना और कुपित हुए नारदका शिवगणोंको शाप देना
  4. [अध्याय 4] नारदजीका भगवान् विष्णुको क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना, फिर मायाके दूर हो जानेपर पश्चात्तापपूर्वक भगवान्‌के चरणोंमें गिरना और शुद्धिका उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णुका उन्हें समझा-बुझाकर शिवका माहात्म्य जाननेके लिये ब्रह्माजीके पास जानेका आदेश और शिवके भजनका उपदेश देना
  5. [अध्याय 5] नारदजीका शिवतीर्थोंमें भ्रमण, शिवगणोंको शापोद्धारकी बात बताना तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे शिवतत्त्वके विषयमें प्रश्न करना
  6. [अध्याय 6] महाप्रलयकालमें केवल सबाकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूत शक्ति (अम्बिका ) - का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन ) का प्रादुर्भाव, शिवके वामांगसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छासे ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीचमें अग्निस्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना
  8. [अध्याय 8] ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन
  9. [अध्याय 9] उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन
  10. [अध्याय 10] श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार देकर भगवान् शिवका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवपूजनकी विधि तथा उसका फल
  12. [अध्याय 12] भगवान् शिवकी श्रेष्ठता तथा उनके पूजनकी अनिवार्य आवश्यकताका प्रतिपादन
  13. [अध्याय 13] शिवपूजनकी सर्वोत्तम विधिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] विभिन्न पुष्पों, अन्नों तथा जलादिकी धाराओंसे शिवजीकी पूजाका माहात्म्य
  15. [अध्याय 15] सृष्टिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] ब्रह्माजीकी सन्तानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन
  17. [अध्याय 17] यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिका चरित्र
  18. [अध्याय 18] शिवमन्दिरमें दीपदानके प्रभावसे पापमुक्त होकर गुणनिधिका दूसरे जन्ममें कलिंगदेशका राजा बनना और फिर शिवभक्तिके कारण कुबेर पदकी प्राप्ति
  19. [अध्याय 19] कुबेरका काशीपुरीमें आकर तप करना, तपस्यासे प्रसन्न उमासहित भगवान् विश्वनाथका प्रकट हो उसे दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना, कुबेरद्वारा शिवमैत्री प्राप्त करना
  20. [अध्याय 20] भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार
  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा
  1. [अध्याय 1] कैलासपर भगवान् शिव एवं पार्वतीका बिहार
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवके तेजसे स्कन्दका प्रादुर्भाव और सर्वत्र महान् आनन्दोत्सवका होना
  3. [अध्याय 3] महर्षि विश्वामित्रद्वारा बालक स्कन्दका संस्कार सम्पन्न करना, बालक स्कन्दद्वारा क्रौंच पर्वतका भेदन, इन्द्रद्वारा बालकपर वज्रप्रहार, शाख-विशाख आदिका उत्पन्न होना, कार्तिकेयका षण्मुख होकर छः कृत्तिकाओंका दुग्धपान करना
  4. [अध्याय 4] पार्वतीके कहनेपर शिवद्वारा देवताओं तथा कर्मसाक्षी धर्मादिकोंसे कार्तिकेयके विषयमें जिज्ञासा करना और अपने गणोंको कृत्तिकाओंके पास भेजना, नन्दिकेश्वर तथा कार्तिकेयका वार्तालाप, कार्तिकेयका कैलासके लिये प्रस्थान
  5. [अध्याय 5] पार्वतीके द्वारा प्रेषित रथपर आरूढ़ हो कार्तिकेयका कैलासगमन, कैलासपर महान् उत्सव होना, कार्तिकेयका महाभिषेक तथा देवताओंद्वारा विविध अस्त्र-शस्त्र तथा रत्नाभूषण प्रदान करना, कार्तिकेयका ब्रह्माण्डका अधिपतित्व प्राप्त करना
  6. [अध्याय 6] कुमार कार्तिकेयकी ऐश्वर्यमयी बाललीला
  7. [अध्याय 7] तारकासुरसे सम्बद्ध देवासुर संग्राम
  8. [अध्याय 8] देवराज इन्द्र, विष्णु तथा वीरक आदिके साथ तारकासुर का युद्ध
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीका कार्तिकेयको तारकके वधके लिये प्रेरित करना, तारकासुरद्वारा विष्णु तथा इन्द्रकी भर्त्सना, पुनः इन्द्रादिके साथ तारकासुरका युद्ध
  10. [अध्याय 10] कुमार कार्तिकेय और तारकासुरका भीषण संग्राम, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध, देवताओं द्वारा दैत्यसेनापर विजय प्राप्त करना, सर्वत्र विजयोल्लास, देवताओं द्वारा शिक्षा शिव तथा कुमारकी स्तुति
  11. [अध्याय 11] कार्तिकेयद्वारा बाण तथा प्रलम्ब आदि असुरोंका वध, कार्तिकेयचरितके श्रवणका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] विष्णु आदि देवताओं तथा पर्वतोंद्वारा कार्तिकेयकी स्तुति और वरप्राप्ति, देवताओंके साथ कुमारका कैलासगमन, कुमारको देखकर शिव-पार्वतीका आनन्दित होना, देवोंद्वारा शिवस्तुति
  13. [अध्याय 13] गणेशोत्पत्तिका आख्यान, पार्वतीका अपने पुत्र गणेशको अपने द्वारपर नियुक्त करना, शिव और गणेशका वार्तालाप
  14. [अध्याय 14] द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणोंका परस्पर विवाद
  15. [अध्याय 15] गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना
  16. [अध्याय 16] विष्णु तथा गणेशका युद्ध, शिवद्वारा त्रिशूलसे गणेशका सिर काटा जाना
  17. [अध्याय 17] पुत्रके वधसे कुपित जगदम्बाका अनेक शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना
  18. [अध्याय 18] पार्वतीद्वारा गणेशको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थी व्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओंका स्वलोक गमन
  19. [अध्याय 19] स्वामिकार्तिकेय और गणेशकी बाल लीला, विवाहके विषयमें दोनोंका परस्पर विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, बुद्धिमान् गणेशजीका पृथ्वीरूप माता-पिताकी परिक्रमा और प्रसन्न शिवा-शिवद्वारा गणेशके प्रथम विवाहकी स्वीकृति
  20. [अध्याय 20] प्रजापति विश्वरूपकी सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो कन्याओंके साथ गणेशजीका विवाह तथा उनसे 'क्षेम' तथा 'लाभ' नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमार कार्तिकेयका पृथ्वी की परिक्रमाकर लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चले जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा
  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] सूतजीसे शौनकादि मुनियोंका शिवावतारविषयक प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवकी अष्टमूर्तियों का वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवका अर्धनारीश्वर अवतार एवं सतीका प्रादुर्भाव
  4. [अध्याय 4] वाराहकल्पके प्रथमसे नवम द्वापरतक हुए व्यासों एवं शिवावतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] वाराहकल्पके दसवेंसे अट्ठाईसवें द्वापरतक होनेवाले व्यासों एवं शिवावतारोंका वर्णन
  6. [अध्याय 6] नन्दीश्वरावतारवर्णन
  7. [अध्याय 7] नन्दिकेश्वरका गणेश्वराधिपति पदपर अभिषेक एवं विवाह
  8. [अध्याय 8] भैरवावतारवर्णन
  9. [अध्याय 9] भैरवावतारलीलावर्णन
  10. [अध्याय 10] नृसिंहचरित्रवर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् नृसिंह और वीरभद्रका संवाद
  12. [अध्याय 12] भगवान् शिवका शरभावतार-धारण
  13. [अध्याय 13] भगवान् शंकरके गृहपति अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] विश्वानरके पुत्ररूपमें गृहपति नामसे शिवका प्रादुर्भाव
  15. [अध्याय 15] भगवान् शिवके गृहपति नामक अग्नीश्वरलिंगका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] यक्षेश्वरावतारका वर्णन
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवके महाकाल आदि प्रमुख दस अवतारोंका वर्णन
  18. [अध्याय 18] शिवजीके एकादश रुद्रावतारोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] शिवजीके दुर्वासावतारकी कथा
  20. [अध्याय 20] शिवजीका हनुमान्के रूपमें अवतार तथा उनके चरितका वर्णन
  21. [अध्याय 21] शिवजीके महेशावतार वर्णनक्रममें अम्बिकाके शापसे भैरवका बेतालरूपये पृथ्वीपर अवतरित होना
  22. [अध्याय 22] शिवके वृषेश्वरावतार वर्णनके प्रसंगों समुद्रमन्थनकी कथा
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा भगवान् शिवके वृषभेश्वरावतारका स्तवन
  24. [अध्याय 24] भगवान् शिवके पिप्पलादावतारका वर्णन
  25. [अध्याय 25] राजा अनरण्यकी पुत्री चाके साथ पिप्पलादका विवाह एवं उनके वैवाहिक जीवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] शिवके वैश्यनाथ नामक अवतारका वर्णन
  27. [अध्याय 27] भगवान् शिवके द्विजेश्वरावतारका वर्णन
  28. [अध्याय 28] नल एवं दमयन्तीके पूर्वजन्मकी कथा तथा शिवावतार यतीश्वरका हंसरूप धारण करना
  29. [अध्याय 29] भगवान् शिवके कृष्णदर्शन नामक अवतारकी कथा
  30. [अध्याय 30] भगवान् शिवके अवधूतेश्वरावतारका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवजीके भिक्षुवर्यावतारका वर्णन
  32. [अध्याय 32] उपमन्युपर अनुग्रह करनेके लिये शिवके सुरेश्वरावतारका वर्णन
  33. [अध्याय 33] पार्वतीके मनोभावकी परीक्षा लेनेवाले ब्रह्मचारीस्वरूप शिवावतारका वर्णन
  34. [अध्याय 34] भगवान् शिवके सुनर्तक नटावतारका वर्णन
  35. [अध्याय 35] परमात्मा शिवके द्विजावतारका वर्णन
  36. [अध्याय 36] अश्वत्थामाके रूपमें शिवके अवतारका वर्ण
  37. [अध्याय 37] व्यासजीका पाण्डवोंको सान्त्वना देकर अर्जुनको इन्द्रकील पर्वतपर तपस्या करने भेजना
  38. [अध्याय 38] इन्द्रका अर्जुनको वरदान देकर शिवपूजनका उपदेश देना
  39. [अध्याय 39] भीलस्वरूप गणेश्वर एवं तपस्वी अर्जुनका संवाद
  40. [अध्याय 40] मूक नामक दैत्यके वधका वर्णन
  41. [अध्याय 41] भगवान् शिवके किरातेश्वरावतारका वर्णन
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवके द्वादश ज्योतिर्लिंगरूप अवतारोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं उनके उपलिंगोंके माहात्म्यका वर्णन
  2. [अध्याय 2] काशीस्थित तथा पूर्व दिशामें प्रकटित विशेष एवं सामान्य लिंगोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] अत्रीश्वरलिंगके प्राकट्यके प्रसंगमें अनसूया तथा अत्रिकी तपस्याका वर्णन
  4. [अध्याय 4] अनसूयाके पातिव्रतके प्रभावसे गंगाका प्राकट्य तथा अत्रीश्वरमाहात्म्यका वर्णन
  5. [अध्याय 5] रेवानदीके तटपर स्थित विविध शिवलिंग-माहात्म्य वर्णनके क्रममें द्विजदम्पतीका वृत्तान्त
  6. [अध्याय 6] नर्मदा एवं नन्दिकेश्वरके माहात्म्य-कथनके प्रसंगमें ब्राह्मणीकी स्वर्गप्राप्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] नन्दिकेश्वरलिंगका माहात्म्य- वर्णन
  8. [अध्याय 8] पश्चिम दिशाके शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें महाबलेश्वरलिंग का माहात्म्य कथन
  9. [अध्याय 9] संयोगवश हुए शिवपूजनसे चाण्डालीकी सद्गतिका वर्णन
  10. [अध्याय 10] महाबलेश्वर शिवलिंगके माहात्म्य वर्णन प्रसंगमें राजा मित्रसहकी कथा
  11. [अध्याय 11] उत्तरदिशामें विद्यमान शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें चन्द्रभाल एवं पशुपतिनाथलिंगका माहात्म्य वर्णन
  12. [अध्याय 12] हाटकेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] अन्धकेश्वरलिंगकी महिमा एवं बटुककी उत्पत्तिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] सोमनाथ ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्तिका वृत्तान्त
  15. [अध्याय 15] मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति-कथा
  16. [अध्याय 16] महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्यका वर्णन
  17. [अध्याय 17] महाकाल ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य वर्णनके क्रममें राजा चन्द्रसेन तथा श्रीकर गोपका वृत्तान्त
  18. [अध्याय 18] ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  19. [अध्याय 19] केदारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्य एवं माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य वर्णन-प्रसंग में भीमासुर के उपद्रव का वर्णन
  21. [अध्याय 21] भीमशंकर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति तथा उसके माहात्म्यका वर्णन
  22. [अध्याय 22] परब्रह्म परमात्माका शिव-शक्तिरूपमें प्राकट्य, पंचक्रोशात्मिका काशीका अवतरण, शिवद्वारा अविमुक्त लिंगकी स्थापना, काशीकी महिमा तथा काशीमें रुद्रके आगमनका वर्णन
  23. [अध्याय 23] काशीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यके प्रसंगमें काशीमें मुक्तिक्रमका वर्णन
  24. [अध्याय 24] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य प्रसँगमें गौतमऋषिकी परोपकारी प्रवृत्तिका वर्णन
  25. [अध्याय 25] मुनियोंका महर्षि गौतमके प्रति कपटपूर्ण व्यवहार
  26. [अध्याय 26] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा गौतमी गंगाके प्रादुर्भावका आख्यान
  27. [अध्याय 27] गौतमी गंगा एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगका माहात्म्यवर्णन
  28. [अध्याय 28] वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  29. [अध्याय 29] दारुकावनमें राक्षसोंके उपद्रव एवं सुप्रिय वैश्यकी शिवभक्तिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] नागेश्वर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति एवं उसके माहात्म्यका वर्णन
  31. [अध्याय 31] रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  32. [अध्याय 32] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यमें सुदेहा ब्राह्मणी एवं सुधर्मा ब्राह्मणका चरित-वर्णन
  33. [अध्याय 33] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं शिवालयके नामकरणका आख्यान
  34. [अध्याय 34] हरीश्वरलिंगका माहात्म्य और भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्र प्राप्त करनेकी कथा
  35. [अध्याय 35] विष्णुप्रोक्त शिवसहस्रनामस्तोत्र
  36. [अध्याय 36] शिवसहस्त्रनामस्तोत्रकी फल- श्रुति
  37. [अध्याय 37] शिवकी पूजा करनेवाले विविध देवताओं, ऋषियों एवं राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवान् शिवके विविध व्रतोंमें शिवरात्रिव्रतका वैशिष्ट्य
  39. [अध्याय 39] शिवरात्रिव्रतकी उद्यापन विधिका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिवरात्रिव्रतमाहात्म्यके प्रसंगमें व्याध एवं मृगपरिवारकी कथा तथा व्याधेश्वरलिंगका माहात्म्य
  41. [अध्याय 41] ब्रह्म एवं मोक्षका निरूपण
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवके सगुण और निर्गुण स्वरूपका वर्णन
  43. [अध्याय 43] ज्ञानका निरूपण तथा शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहिताके श्रवणादिका माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] पुत्रप्राप्तिके लिये कैलासपर गये हुए श्रीकृष्णका उपमन्युसे संवाद
  2. [अध्याय 2] श्रीकृष्णके प्रति उपमन्युका शिवभक्तिका उपदेश
  3. [अध्याय 3] श्रीकृष्णकी तपस्या तथा शिव पार्वतीसे वरदानकी प्राप्ति, अन्य शिवभक्तोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिवकी मायाका प्रभाव
  5. [अध्याय 5] महापातकोंका वर्णन
  6. [अध्याय 6] पापभेदनिरूपण
  7. [अध्याय 7] यमलोकका मार्ग एवं यमदूतोंके स्वरूपका वर्णन
  8. [अध्याय 8] नरक - भेद-निरूपण
  9. [अध्याय 9] नरककी यातनाओंका वर्णन
  10. [अध्याय 10] नरकविशेषमें दुःखवर्ण
  11. [अध्याय 11] दानके प्रभावसे यमपुरके दुःखका अभाव तथा अन्नदानका विशेष माहात्यवर्णन
  12. [अध्याय 12] जलदान, सत्यभाषण और तपकी महिमा
  13. [अध्याय 13] पुराणमाहात्म्यनिरूपण
  14. [अध्याय 14] दानमाहात्म्य तथा दानके भेदका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ब्रह्माण्डदानकी महिमाके प्रसंगमें पाताललोकका निरूपण
  16. [अध्याय 16] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाले नरकोंका वर्णन और शिव नाम स्मरणकी महिमा
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माण्डके वर्णन प्रसंगमें जम्बुद्वीपका निरूपण
  18. [अध्याय 18] भारतवर्ष तथा प्लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] सूर्यादि ग्रहों की स्थितिका निरूपण करके जन आदि लोकोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तपस्यासे शिवलोककी प्राप्ति, सात्त्विक आदि तपस्याके भेद, मानवजन्मकी प्रशस्तिका कथन
  21. [अध्याय 21] कर्मानुसार जन्मका वर्णनकर क्षत्रियके लिये संग्रामके फलका निरूपण
  22. [अध्याय 22] देहकी उत्पत्तिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शरीरकी अपवित्रता तथा उसके बालादि अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] नारदके प्रति पंचचूडा अप्सराके द्वारा स्त्रीके स्वभाव का वर्णन
  25. [अध्याय 25] मृत्युकाल निकट आनेके लक्षण
  26. [अध्याय 26] योगियोंद्वारा कालकी गतिको टालनेका वर्णन
  27. [अध्याय 27] अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ
  28. [अध्याय 28] छायापुरुषके दर्शनका वर्णन
  29. [अध्याय 29] ब्रह्माकी आदिसृष्टिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्माद्वारा स्वायम्भुव मनु आदिकी सृष्टिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] दैत्य, गन्धर्व, सर्प एवं राक्षसोंकी सृष्टिका वर्णन तथा दक्षद्वारा नारदके शाप- वृत्तान्तका कथन
  32. [अध्याय 32] कश्यपकी पलियोंकी सन्तानोंके नामका वर्णन
  33. [अध्याय 33] मरुतोंकी उत्पत्ति, भूतसर्गका कथन तथा उनके राजाओंका निर्धारण
  34. [अध्याय 34] चतुर्दश मन्वन्तरोंका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विवस्वान् एवं संज्ञाका वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अश्विनीकुमारों की उत्पत्तिका वर्णन
  36. [अध्याय 36] वैवस्वतमनुके नौ पुत्रोंके वंशका वर्णन
  37. [अध्याय 37] इक्ष्वाकु आदि मनुवंशीय राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] सत्यव्रत- त्रिशंकु सगर आदिके जन्मके निरूपणपूर्वक उनके चरित्रका वर्णन
  39. [अध्याय 39] सगरकी दोनों पत्नियोंके वंशविस्तारवर्णनपूर्वक वैवस्वतवंशमें उत्पन्न राजाओंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] पितृश्राद्धका प्रभाव-वर्णन
  41. [अध्याय 41] पितरोंकी महिमाके वर्णनक्रममें सप्त व्याधोंके आख्यान का प्रारम्भ
  42. [अध्याय 42] 'सप्त व्याध' सम्बन्धी श्लोक सुनकर राजा ब्रह्मदत्त और उनके मन्त्रियोंको पूर्वजन्मका स्मरण होना और योगका आश्रय लेकर उनका मुक्त होना
  43. [अध्याय 43] आचार्यपूजन एवं पुराणश्रवणके अनन्तर कर्तव्य कथन
  44. [अध्याय 44] व्यासजीकी उत्पत्तिकी कथा, उनके द्वारा तीर्थाटनके प्रसंगमें काशीमें व्यासेश्वरलिंगकी स्थापना तथा मध्यमेश्वरके अनुग्रहसे पुराणनिर्माण
  45. [अध्याय 45] भगवती जगदम्बाके चरितवर्णनक्रममें सुरथराज एवं समाधि वैश्यका वृत्तान्त तथा मधु-कैटभके वधका वर्णन
  46. [अध्याय 46] महिषासुरके अत्याचारसे पीड़ित ब्रह्मादि देवोंकी प्रार्थनासे प्रादुर्भूत महालक्ष्मीद्वारा महिषासुरका वध
  47. [अध्याय 47] शुम्भ निशुम्भसे पीड़ित देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड आदि असुरोंका वध
  48. [अध्याय 48] सरस्वतीदेवीके द्वारा सेनासहित शुम्भ निशुम्भका वध
  49. [अध्याय 49] भगवती उमाके प्रादुर्भावका वर्णन
  50. [अध्याय 50] दस महाविद्याओं की उत्पत्ति तथा देवीके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नामोंके पड़नेका कारण
  51. [अध्याय 51] भगवतीके मन्दिरनिर्माण, प्रतिमास्थापन तथा पूजनका माहात्म्य और उमासंहिताके श्रवण एवं पाठकी महिमा
  1. [अध्याय 1] व्यासजीसे शौनकादि ऋषियोंका संवाद
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवसे पार्वतीजीकी प्रणवविषयक जिज्ञासा
  3. [अध्याय 3] प्रणवमीमांसा तथा संन्यासविधिवर्णन
  4. [अध्याय 4] संन्यासदीक्षासे पूर्वकी आह्निकविधि
  5. [अध्याय 5] संन्यासदीक्षा हेतु मण्डलनिर्माणकी विधि
  6. [अध्याय 6] पूजाके अंगभूत न्यासादि कर्म
  7. [अध्याय 7] शिवजीके विविध ध्यानों तथा पूजा-विधिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] आवरणपूजा-विधि-वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रणवोपासनाकी विधि
  10. [अध्याय 10] सूतजीका काशीमें आगमन
  11. [अध्याय 11] भगवान् कार्तिकेयसे वामदेवमुनिकी प्रणवजिज्ञासा
  12. [अध्याय 12] प्रणवरूप शिवतत्त्वका वर्णन तथा संन्यासांगभूत नान्दीश्राद्ध-विधि
  13. [अध्याय 13] संन्यासकी विधि
  14. [अध्याय 14] शिवस्वरूप प्रणवका वर्णन
  15. [अध्याय 15] तिरोभावादि चक्रों तथा उनके अधिदेवताओं आदिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] शेवदर्शनके अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्वके विषयमें विशद विवेचन तथा शिवसे जीव और जगत्‌की अभिन्नताका प्रतिपादन
  17. [अध्याय 17] अद्वैत शैववाद एवं सृष्टिप्रक्रियाका प्रतिपादन
  18. [अध्याय 18] संन्यासपद्धतिमें शिष्य बनानेकी विधि
  19. [अध्याय 19] महावाक्योंके तात्पर्य तथा योगपट्टविधिका वर्णन
  20. [अध्याय 20] यतियोंके क्षौर-स्नानादिकी विधि तथा अन्य आचारोंका वर्णन
  21. [अध्याय 21] यतिके अन्त्येष्टिकर्मकी दशाहपर्यन्त विधिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] यतिके लिये एकादशाह कृत्यका वर्णन
  23. [अध्याय 23] यतिके द्वादशाह- कृत्यका वर्णन, स्कन्द और वामदेवका कैलासपर्वतपर जाना तथा सूतजीके द्वारा इस संहिताका उपसंहार
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जाकर उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो 'रुद्र' कहकर उत्तर देना
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीके द्वारा परमतत्त्वके रूपमें भगवान् शिवकी महत्ताका प्रतिपादन तथा उनकी आज्ञासे सब मुनियोंका नैमिषारण्यमें आना
  4. [अध्याय 4] नैमिषारण्यमें दीर्घसत्रके अन्तमें मुनियोंके पास वायुदेवता का आगमन
  5. [अध्याय 5] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवद्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन
  6. [अध्याय 6] महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] कालकी महिमाका वर्णन
  8. [अध्याय 8] कालका परिमाण एवं त्रिदेवोंके आयुमानका वर्णन
  9. [अध्याय 9] सृष्टिके पालन एवं प्रलयकर्तुत्वका वर्णन
  10. [अध्याय 10] ब्रह्माण्डकी स्थिति, स्वरूप आदिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] अवान्तर सर्ग और प्रतिसर्गका वर्णन
  12. [अध्याय 12] ब्रह्माजीकी मानसी सृष्टि, ब्रह्माजीकी मूर्च्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचना
  13. [अध्याय 13] कल्पभेदसे त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) के एक-दूसरेसे प्रादुर्भावका वर्णन
  14. [अध्याय 14] प्रत्येक कल्पमें ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट शिवकी ब्रह्माजीद्वारा स्तुति
  16. [अध्याय 16] महादेवजीके शरीरसे देवीका प्राकट्य और देवीके भूमध्य भाग से शक्तिका प्रादुर्भाव
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माके आधे शरीरसे शतरूपाकी उत्पत्ति तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  18. [अध्याय 18] दक्षके शिवसे द्वेषका कारण
  19. [अध्याय 19] दक्षयज्ञका उपक्रम, दधीचिका दक्षको शाप देना, वीरभद्र और भद्रकालीका प्रादुर्भाव तथा उनका यज्ञध्वंसके लिये प्रस्थान
  20. [अध्याय 20] गणोंके साथ वीरभद्रका दक्षकी यज्ञभूमिमें आगमन तथा
  21. [अध्याय 21] वीरभद्रका दक्ष यज्ञमें आये देवताओंको दण्ड देना तथा दक्षका सिर काटना
  22. [अध्याय 22] वीरभद्रके पराक्रमका वर्णन
  23. [अध्याय 23] पराजित देवोंके द्वारा की गयी स्तुतिसे प्रसन्न शिवका यज्ञकी सम्पूर्ति करना तथा देवताओंको सान्त्वना देकर अन्तर्धान होना
  24. [अध्याय 24] शिवका तपस्याके लिये मन्दराचलपर गमन, मन्दराचलका वर्णन, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यकी उत्पत्ति, ब्रह्माकी प्रार्थनासे उनके वधके लिये शिव और शिवाके विचित्र लीला प्रपंचका वर्णन
  25. [अध्याय 25] पार्वतीकी तपस्या, व्याघ्रपर उनकी कृपा, ब्रह्माजीका देवीके साथ वार्तालाप, देवीके द्वारा काली त्वचाका त्याग और उससे उत्पन्न कौशिकीके द्वारा शुम्भ निशुम्भका वध
  26. [अध्याय 26] ब्रह्माजीद्वारा दुष्कर्मी बतानेपर भी गौरीदेवीका शरणागत व्याघ्रको त्यागनेसे इनकार करना और माता पितासे मिलकर मन्दराचलको जाना
  27. [अध्याय 27] मन्दराचलपर गौरीदेवीका स्वागत, महादेवजीके द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्धका प्रकाशन तथा देवीके साथ आये हुए व्याघ्रको उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुरके द्वारपर सोमनन्दी नामसे प्रतिष्ठित करना
  28. [अध्याय 28] अग्नि और सोमके स्वरूपका विवेचन तथा जगत्‌की अग्नीषोमात्मकताका प्रतिपादन
  29. [अध्याय 29] जगत् 'वाणी और अर्थरूप' है इसका प्रतिपादन
  30. [अध्याय 30] ऋषियोंका शिवतत्त्वविषयक प्रश्न
  31. [अध्याय 31] शिवजीकी सर्वेश्वरता, सर्वनियामकता तथा मोक्षप्रदताका निरूपण
  32. [अध्याय 32] परम धर्मका प्रतिपादन, शैवागमके अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनोंका वर्णन
  33. [अध्याय 33] पाशुपत व्रतकी विधि और महिमा तथा भस्मधारणकी महत्ता
  34. [अध्याय 34] उपमन्युका गोदुग्धके लिये हठ तथा माताकी आज्ञासे शिवोपासनामें संलग्न होना
  35. [अध्याय 35] भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवका श्रीकृष्ण और उपमन्युके मिलनका प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्णको उपमन्यसे ज्ञानका और भगवान् शंकरसे पुत्रका लाभ
  2. [अध्याय 2] उपमन्युद्वारा श्रीकृष्णको पाशुपत ज्ञानका उपदेश
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवकी ब्रह्मा आदि पंचमूर्तियों, ईशानादि ब्रह्ममूर्तियों तथा पृथ्वी एवं शर्व आदि अष्टमूर्तियोंका परिचय और उनकी सर्वव्यापकताका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] परमेश्वर शिवके यथार्थ स्वरूपका विवेचन तथा उनकी शरणमें जानेसे जीवके कल्याणका कथन
  6. [अध्याय 6] शिवके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूपका तथा उनकी प्रणवरूपताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन
  8. [अध्याय 8] शिव-ज्ञान, शिवकी उपासनासे देवताओंको उनका दर्शन, सूर्यदेवमें शिवकी पूजा करके अर्घ्यदानकी विधि तथा व्यासावतारोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] शिवके अवतार योगाचार्यों तथा उनके शिष्योंकी नामावली
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवके प्रति श्रद्धा-भक्तिकी आवश्यकताका प्रतिपादन, शिवधर्मके चार पादोंका वर्णन एवं ज्ञानयोगके साधनों तथा शिवधर्मके अधिकारियोंका निरूपण, शिवपूजनके अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्तसे भजनकी महिमा
  11. [अध्याय 11] वर्णाश्रम धर्म तथा नारी-धर्मका वर्णन; शिवके भजन, चिन्तन एवं ज्ञानकी महत्ताका प्रतिपादन
  12. [अध्याय 12] पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] पंचाक्षर मन्त्रकी महिमा, उसमें समस्त वाङ्मयकी स्थिति, उसकी उपदेशपरम्परा, देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान, उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार
  14. [अध्याय 14] गुरु मन्त्र लेने तथा उसके जप करनेकी विधि, पाँच प्रकारके जप तथा उनकी महिमा, मन्त्रगणना के लिये विभिन्न प्रकारकी मालाओंका महत्त्व तथा अंगुलियोंके उपयोगका वर्णन, जपके लिये उपयोगी स्थान तथा दिशा, जपमें वर्जनीय बातें, सदाचारका महत्त्व, आस्तिकताकी प्रशंसा तथा पंचाक्षर मन्त्रकी विशेषताका वर्णन
  15. [अध्याय 15] त्रिविध दीक्षाका निरूपण, शक्तिपातकी आवश्यकता तथा उसके लक्षणोंका वर्णन, गुरुका महत्त्व, ज्ञानी गुरुसे ही मोक्षकी प्राप्ति तथा गुरुके द्वारा शिष्यकी परीक्षा
  16. [अध्याय 16] समय- संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि
  17. [अध्याय 17] पध्वशोधनका निरूपण
  18. [अध्याय 18] षडध्वशोधनकी विधि
  19. [अध्याय 19] साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] योग्य शिष्यके आचार्यपदपर अभिषेकका वर्णन तथा संस्कारके विविध प्रकारोंका निर्देश
  21. [अध्याय 21] शिवशास्त्रोक्त नित्य नैमित्तिक कर्मका वर्णन
  22. [अध्याय 22] शिवशास्त्रोक्त न्यास आदि कर्मोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधिका वर्णन
  24. [अध्याय 24] शिवपूजन विधि
  25. [अध्याय 25] शिवपूजाकी विशेष विधि तथा शिव भक्तिकी महिमा
  26. [अध्याय 26] सांगोपांगपूजाविधानका वर्णन
  27. [अध्याय 27] शिवपूजनमें अग्निकर्मका वर्णन
  28. [अध्याय 28] शिवाश्रमसेवियोंके लिये नित्य नैमित्तिक कर्मकी विधिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] काम्यकर्मका वर्णन
  30. [अध्याय 30] आवरणपूजाकी विस्तृत विधि तथा उक्त विधिसे पूजनकी महिमाका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवके पाँच आवरणोंमें स्थित सभी देवताओंकी स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगलकी कामना
  32. [अध्याय 32] ऐहिक फल देनेवाले कर्मों और उनकी विधिका वर्णन, शिव पूजनकी विधि, शान्ति-पुष्टि आदि विविध काम्य कर्मोमें विभिन्न हवनीय पदार्थोंके उपयोगका विधान
  33. [अध्याय 33] पारलौकिक फल देनेवाले कर्म- शिवलिंग महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन
  34. [अध्याय 34] मोहवश ब्रह्मा तथा विष्णुके द्वारा लिंगके आदि और अन्तको जाननेके लिये किये गये प्रयत्नका वर्णन
  35. [अध्याय 35] लिंगमें शिवका प्राकट्य तथा उनके द्वारा ब्रह्मा-विष्णुको दिये गये ज्ञानोपदेशका वर्णन
  36. [अध्याय 36] शिवलिंग एवं शिवमूर्तिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन
  37. [अध्याय 37] योगके अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगोंका विवेचनयम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशविध प्राणोंको जीतनेकी महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिका निरूपण
  38. [अध्याय 38] योगमार्गके विघ्न, सिद्धि-सूचक उपसर्ग तथा पृथ्वीसे लेकर बुद्धितत्त्वपर्यन्त ऐश्वर्यगुणों का वर्णन, शिव-शिवाके ध्यानकी महिमा
  39. [अध्याय 39] ध्यान और उसकी महिमा, योगधर्म तथा शिवयोगीका महत्त्व, शिवभक्त या शिवके लिये प्राण देने अथवा शिवक्षेत्रमें मरणसे तत्काल मोक्ष-लाभका कथन
  40. [अध्याय 40] वायुदेवका अन्तर्धान होना, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभूथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना
  41. [अध्याय 41] मेरुगिरिके स्कन्द-सरोवर के तटपर मुनियोंका सनत्कुमारजीसे मिलना, भगवान् नन्दीका वहाँ आना और दृष्टिपातमात्रसे पाशछेदन एवं ज्ञानयोगका उपदेश करके चला जाना, शिवपुराणकी महिमा तथा ग्रन्थका उपसंहार
  42. [अध्याय 42] सदाशिवके विभिन्न स्वरूपोंका ध्यान
  43. [अध्याय 43] दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रम्