सूतजी बोले- किसी समय अभिमानी तथा मानपरायण राक्षसश्रेष्ठ रावण पर्वतोंमें उत्तम कैलासपर भक्तिपूर्वक शिवजीकी आराधना करने लगा ॥ 1 ॥
जब कुछ समयतक आराधना किये जानेपर भी शिवजी प्रसन्न न हुए, तब शिवजीको प्रसन्न करनेके लिये उसने दूसरे प्रकारका तप करना प्रारम्भ किया ॥ 2 ॥
हे द्विजो! पुलस्त्यकुलमें जन्म ग्रहण करनेवाला ऐश्वर्यसम्पन्न वह रावण सिद्धिके स्थानभूत हिमालय पर्वतके दक्षिणमें वृक्षोंसे भरी हुई भूमिमें एक उत्तम गर्त बनाकर उसमें अग्नि स्थापित करके उसके समीपमें शिवजीकी स्थापनाकर हवन करने लगा ।। 3-4 ॥
वह ग्रीष्मकालमें पंचाग्निके मध्यमें बैठकर, वर्षाकालमें [खुले] चबूतरेपर बैठकर और शीतकाल में जलके भीतर रहकर इस तरह तीन प्रकारसे तप करने लगा ॥ 5 ll
इस प्रकार उसने घोर तप किया, तब भी दुष्टात्माओंके लिये दुराराध्य परमात्मा सदाशिव प्रसन्न नहीं हुए ॥ 6 ॥
उसके बाद दैत्यपति महात्मा रावणने अपने सिर काटकर शिवका पूजन प्रारम्भ किया ॥ 7 ॥ उसने शिवपूजनमें विधिपूर्वक एक-एक सिर काट डाला, इस प्रकार जब उसने क्रमशः अपने नौ सिर काट डाले, तब एक सिरके शेष रहनेपर शंकरजी प्रसन्न हो गये और वे भक्तवत्सल सदाशिव सन्तुष्ट होकर वहीं प्रकट हो गये ॥ 8-9 ॥
प्रभु सदाशिवने उसके सिरोंको पूर्ववत् स्वस्थ करके उसको मनोवांछित फल तथा अतुल बल प्रदान किया ॥ 10 ॥
तब उनकी प्रसन्नता प्राप्तकर उस राक्षस रावणने हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर कल्याणकारी शिवजीसे कहा- ॥ 11 ॥
रावण बोला- हे देवेश! आप मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको लंकापुरी से चलता हूँ, मेरी इस इच्छाको पूर्ण कीजिये, मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ 12 ॥सूतजी बोले- तब उस रावणके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे शिवजी परम संकटमें पड़ गये और खिन्नमनस्क होकर उन्होंने कहा- ॥ 13 ॥ शिवजी बोले- हे राक्षस श्रेष्ठ! तुम मेरी महत्त्वपूर्ण बात सुनो, तुम उत्तम भक्तिसे युक्त होकर मेरे इस श्रेष्ठ शिवलिंगको अपने घर ले जाओ। किंतु तुम इस लिंगको भूमिपर जहाँ भी रख दोगे, यह वहीं पर स्थित हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं अब जैसा चाहो, वैसा करो ।। 14-15 ।।
सूतजी बोले- उन शिवजीके इस प्रकार कहनेपर रामेश्वर रावण 'ठीक है' ऐसा कहकर उसे लेकर अपने घर चला ॥ 16 ॥
इसके बाद शिवकी मायासे मार्गमें ही उसे लघुशंकाकी इच्छा हुई। जब पुलस्त्यका पौत्र वह सामर्थ्यशाली रावण मूत्रके वेगको रोकने में समर्थ नहीं हुआ, तब उसने वहाँ एक गोपको देखकर उससे प्रार्थनाकर उस शिवलिंगको उसीको दे दिया। एक मुहूर्त बीतनेपर वह गोप शिवलिंगके भारसे पीड़ित होकर व्याकुल हो उठा और उसे पृथ्वीपर रख दिया। इस प्रकार वज्रसारसे उत्पन्न हुआ वह लिंग वहींपर स्थित हो गया, जो दर्शनमात्रसे पापको दूर करनेवाला तथा समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ।। 17-19 ll
हे मुने वह लिंग तीनों लोकोंमें वैद्यनाथेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह सत्पुरुषोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है॥ 20 ॥
यह दिव्य, उत्तम एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग दर्शन एवं पूजनसे सारे पापोंको दूर करनेवाला है और मुक्ति प्रदान करनेवाला है ॥ 21 ॥
सारे लोकोंका कल्याण करनेके लिये उस लिंगके वहाँ स्थित हो जानेपर रावण श्रेष्ठ वर प्राप्तकर अपने घर चला गया और उस महान् असुरने अपनी पत्नीसे अत्यन्त हर्षपूर्वक सारा वृत्तान्त बताया ॥ 22 ॥
इस [वृतान्त] को सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता तथा निष्याप मुनिगण आपसमें विचारकर वैद्यनाथेश्वरमें आसक्त बुद्धिवाले हो गये ॥ 23 ॥हे मुने! उस समय ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवगण वहाँ आये और उन्होंने विशेष विधिसे अतिशय प्रीतिपूर्वक शिवजीका पूजन किया॥ 24 ॥
यहाँ भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन करके देवताओंने उस (वज्रसारमय) शिवलिंगकी विधिवत् स्थापना की और उसका वैद्यनाथ नाम रखकर उसकी वन्दना और स्तवन करके वे स्वर्गलोकको चले गये ।। 25 ।।
ऋषि बोले- हे तात! उस लिंगके वहाँ स्थित हो जानेपर तथा रावणके घर चले जानेपर क्या घटना हुई, उसे विस्तारसे कहिये ॥ 26 ॥ सूतजी बोले- अति उत्तम वर प्राप्तकर घर जा करके महान् असुर रावणने सारा वृत्तान्त अपनी पत्नीसे कहा और वह बहुत आनन्दित हुआ ।। 27 ।। हे मुनीश्वरो वह सारा वृतान्त सुनकर वे इन्द्र आदि देवता तथा मुनिगण अत्यन्त व्याकुल होकर आपसमें कहने लगे ॥ 28 ॥
देवता बोले- यह दुरात्मा रावण देवद्रोही, खल तथा दुर्बुद्धि है, शिवजीसे वरदान पाकर यह हमलोगोंको बहुत अधिक दुःखित करेगा ।। 29 ।।
हमलोग क्या करें? कहाँ जायँ ? अब फिर क्या होगा ? एक तो वह स्वयं दुष्ट है, दूसरे अब वरदान प्राप्तकर और भी उद्धत हो गया है, अतः हमलोगोंका कौन-सा अपकार नहीं करेगा ll 30 ॥
तब इस प्रकार दुखी हो इन्द्रादि देवता एवं मुनिगण नारदजीको बुलाकर व्याकुल हो करके पूछने लगे ॥ 31 ॥
देवगण बोले- हे मुनिसत्तम! आप सभी कार्य करनेमें समर्थ हैं, अतः हे देवर्षे! देवगणोंके दुःखनाशका कोई उपाय कीजिये ॥ 32 ॥
यह महाखल रावण क्या- क्या नहीं कर डालेगा ! | हमलोग इस दुष्टसे सर्वथा पीड़ित हैं, अतः अब | हमलोग कहाँ जायें ? ll 33 ॥
नारदजी बोले - हे देवताओ! आपलोग दुखी मत होइये, मैं जा रहा हूँ और कोई उपाय करके शंकरकी कृपासे देवताओंका कार्य अवश्य करूँगा ।। 34 ।।सूतजी बोले- ऐसा कहकर वे देवर्षि [नारद] रावण के घर गये और उससे सत्कृत होकर प्रीति उन्होंने वह सब कहा- ॥ 35 ॥
नारदजी बोले हे राक्षसोत्तम! तुम धन्य हो और श्रेष्ठ शिवभक्त हो हे तपोधन। हे रावण तुम्हें | देखकर मेरा मन आज बहुत अधिक प्रसन्न हुआ। अब तुम शिवाराधन सम्बन्धी अपने सम्पूर्ण कहो । तब उनके इस प्रकार पूछने पर रावणने यह वचन कहा- ॥ 36-37 ॥
रावण बोला- हे महामुने! तप करनेके लिये कैलासपर्वतपर जाकर मैंने वहाँ बहुत समयतक अत्यन्त कठोर तप किया ॥ 38 ॥
हे मुने! जब शिवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वहाँसे आकर मैं पुनः वृक्षसमूहके समीप दूसरे प्रकारसे तपस्या करने लगा। ग्रीष्मऋतुमें पंचाग्निके मध्य रहकर, वर्षामें स्थण्डिलशायी होकर और शीतकालमें जलके मध्यमें रहकर तीन प्रकारसे मैंने तप किया ।। 39-40 ॥
हे मुनीश्वर। इस प्रकार मैंने वहाँ अति कठोर तप किया, फिर भी जब मेरे ऊपर थोड़ा भी शिवजी प्रसन्न न हुए, तब मुझे बड़ा क्रोध हुआ और मैंने भूमिमें गड्ढा खोदकर उसमें अग्नि स्थापित करके तथा पार्थिव शिवलिंग बनाकर गन्ध, चन्दन, धूप, विविध नैवेद्य तथा आरती आदिले विधिपूर्वक शिवजीका पूजन किया। प्रणिपात, पुण्यप्रद स्तुति, गीत, नृत्य, वाद्य तथा मुखांगुलि- समर्पणके द्वारा मैंने शंकरजीको सन्तुष्ट किया। हे मुने! इन उपायों तथा अन्य बहुत से उपायोंक द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे मैंने भगवान् शिवका पूजन किया ll 41-45 ।।
जब भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर प्रकट नहीं हुए, तब मैं अपने तपका उत्तम फल न प्राप्तकर दुखी हुआ। मेरे शरीर तथा बलको धिक्कार है। मेरे तपको भी धिक्कार है, ऐसा कहकर मैंने वहाँ स्थापित अग्निमें बहुत हवन किया ॥ 46-47 ॥ इसके बाद यह विचार करके कि अब मैं इस अग्निमें अपने शरीरकी ही आहुति दूंगा, मैं उस प्रज्वलित अग्निकी सन्निधिमें अपने सिरोंको काटने लगा ॥ 48 ॥मैंने एक-एक करके नौ सिर भलीभाँति काटकर उन्हें पूर्णतः शुद्ध करके शिवजीको समर्पित कर दिये। हे ऋषिश्रेष्ठ! जब मैंने दसवाँ सिर काटना प्रारम्भ किया, उसी समय ज्योतिःस्वरूप शिवजी स्वयं प्रकट हो गये ।। 49-50 ।।
उन भक्तवत्सलने शीघ्र ही प्रेमपूर्वक कहा- ऐसा मत करो, ऐसा मत करो। मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हें मनोवांछित वर दूँगा। तब उनके ऐसा कहनेपर मैंने महेश्वरका दर्शन किया और हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ॥ 51-52॥
तदनन्तर मैंने उनसे यह वर माँगा- मुझे अतुल बल दीजिये। हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मेरे लिये क्या दुर्लभ हो सकता है ! ॥ 53 ॥ सन्तुष्ट हुए कृपालु शिवने 'तथास्तु' यह वचन कहकर मेरा सारा मनोवांछित पूर्ण कर दिया ॥ 54 ॥ उन परमात्मा शिवने अपनी अमोघ दृष्टिसे देखकर वैद्यके समान मेरे सिरोंको पुनः यथास्थान जोड़ दिया ॥ 55 ॥
उनके ऐसा करनेपर मेरा शरीर पहलेके समान हो गया और उनकी कृपासे मुझे सारा फल प्राप्त हो गया। इसके बाद मेरे द्वारा प्रार्थना किये जानेपर वे वृषभध्वज वहींपर स्थित हो गये और वैद्यनाथेश्वर नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो गये ॥ 56-57 ॥
दर्शन एवं पूजन करनेसे ज्योतिर्लिंगस्वरूप महेश्वर भुक्ति मुक्ति देनेवाले तथा लोकमें सबका हित.करनेवाले हैं ॥ 58 ॥ [हे देवर्षे] मैं उस ज्योतिर्लिंगका विशेषरूपसे पूजन करके और उसे प्रणामकर तीनों लोकोंको जीतने के लिये यहाँ आया हूँ ॥ 59 ॥
सूतजी बोले- उसका वह वचन सुनकर आश्चर्यचकित हुए देवर्षि नारदजी मन-ही-मन हँस करके रावणसे कहने लगे- ॥60॥
नारदजी बोले - हे राक्षस श्रेष्ठ! सुनो, अब मैं तुम्हारे हितकी बात कहता है; जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही तुम करो, मेरा कथन कभी भी असत्य नहीं होता। तुमने जो कहा कि शिवजीने इस समय मेरा सारा हित कर दिया है, उसे तुम कदापि मत मानना ॥ 61-62 ॥ये शिव तो विकारग्रस्त हैं, वे क्या नहीं कह देते हैं, जबतक उनकी बात सत्य नहीं होती, तबतक कैसे मान लिया जाय; तुम मेरे प्रिय हो, [अतः तुम्हें में उपाय बताता हूँ ।] ॥ 63 ॥
अब तुम पुनः जाकर उनके अहितके लिये। कार्य करो तुम कैलासको उखाड़नेका प्रय करो ।। 64 ।।
यदि तुम इस कैलासको उखाड़ दोगे, तब सब कुछ सफल हो जायगा, इसमें कुछ संशय नहीं है ॥ 65 ॥
इसके बाद उसे पूर्वकी भाँति स्थापितकर पुनः सुखपूर्वक लौट आना, अब निश्चयपूर्वक समझ बूझकर तुम जैसा चाहो, वैसा करो ॥ 66 ॥
सूतजी बोले- उनके इस प्रकार कहने पर प्रारब्धवश मोहित उस रावणने इसमें अपना हित समझा और मुनिकी बातको सत्य मानकर कैलासकी ओर चल पड़ा। उसने वहाँ जाकर कैलासपर्वतको उखाड़ना प्रारम्भ किया, जिससे उसपर स्थित सब कुछ [सभी प्राणि पदार्थ] परस्पर टकराकर गिरने लगे ।। 67-68 ।।
तब शिवजी भी यह देखकर कहने लगे यह क्या हुआ ? तब पार्वतीने हँसकर उन शंकरसे कहा- ।। 69 ।।
पार्वती बोलीं- आपने शान्तात्मा महावीरको जो अतुल बल दिया था, उसे उत्तम शिष्य बनानेका यह फल प्राप्त हो गया, यह सब उसी शिष्यसे हुआ है ।। 70 ।।
सूतजी बोले- पार्वतीके इस व्यंग्य वचनको | सुनकर महेश्वरने रावणको कृतघ्न तथा बलसे गर्वित समझकर उसे शाप दे दिया ॥ 71 ॥
महादेवजी बोले- हे दुर्भक्त रावण! हे दुर्मते ! तुम घमण्ड मत करो, अब शीघ्र ही तुम्हारे हाथोंके घमण्डको दूर करनेवाला यहाँ कोई उत्पन्न होगा ॥ 72 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार वहाँ जो घटना घटी, उसे नारदजीने भी सुन लिया और रावण भी प्रसन्नचित्त होकर जैसे आया था, वैसे ही वहाँसे अपने स्थानको चला गया ॥ 73 ॥उसके बाद बली तथा शत्रुओंके अभिमानको चूर करनेवाले रावणने शिवजीके वरदानको सत्य मानकर अपने बलसे विमोहित हो सारे जगत्को अपने वशमें कर लिया। शिवजीकी आज्ञासे प्राप्त महातेजस्वी दिव्यास्त्रसे युक्त उस रावणकी बराबरी करनेवाला कोई भी शत्रु उस समय नहीं रहा ॥ 74-75 ॥
[हे ऋषिगणो!] इस प्रकार मैंने वैद्यनाथेश्वरके माहात्म्यका वर्णन किया, जिसे सुननेवाले मनुष्योंका पाप विनष्ट हो जाता है ॥ 76 ॥