सूतजी बोले - [ हे महर्षियो!] बादमें वैवस्वत मनुके नौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो उन्हींके समान विशालकाय, धैर्यशाली एवं क्षत्रिय धर्ममें तत्पर थे ॥ 1 ॥ [वे मनु पुत्र] इक्ष्वाकु, शिबि, नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग [ नाभागारिष्ट], करूष और प्रियव्रत नामवाले थे ॥ 2 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! [किसी समय] पुत्रकी कामनावाले प्रजापति मनुने यज्ञ किया, किंतु उस यज्ञमें पुत्र उत्पन्न नहीं हुए अपितु दिव्य वस्त्र धारण की हुई, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित तथा दिव्य अंगोंवाली इला [इडा] नामक कन्या उत्पन्न हुई ॥ 3-4॥
तब दण्डधारी मनुने उससे कहा- हे इडा ! तुम मेरा अनुसरण करो, इसपर इडाने पुत्रकी कामनावाले उन प्रजापति मनुसे यह धर्मसम्मत बात कही - ॥ 53 ॥
इडा बोली- हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! मैं मित्रावरुणके अंशसे मैं उत्पन्न हुई हूँ। मैं उन्हीं दोनोंके पास जाऊँगी मेरी रुचि इस प्रकार के अधर्ममें नहीं है। ऐसा कहकर उस सुन्दरी सतीने मित्रावरुणके पास जाकर हाथ जोड़कर यह वचन कहा- हे महामुनियो ! मैं मनुके यज्ञमें आप दोनोंके अंशसे उत्पन्न हुई है। अब मैं आप दोनोंके समीप आयी हूँ। बताइये कि मैं क्या करूँ? [इडाने मनुझे भी कहा कि] हे विभो। आपलोग अन्य पुत्रको उत्पन्न कीजिये, उन्हींसे आपका वंश चलेगा ॥ 6-9 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहनेवाली, मनुके वहमें उत्पन्न हुई उस साध्वी इडासे मित्रावरुण नामवाले दोनों मुनियोंने आदरपूर्वक कहा- ॥ 10 ॥
मित्रावरुण बोले हे धर्मजे हे सुश्रोणि! हे सुन्दरि ! हम दोनों तुम्हारे इस विनय, नियम तथा सत्यसे प्रसन्न हैं ॥ 11 ॥
हे महाभागे ! तुम हम दोनोंकी ख्याति प्राप्त करोगी और तुम्हीं मनुका वंश बढ़ानेवाला पुत्र होओगी, जो सुद्युम्न नामसे तीनों लोकोंमें विख्यात होगा और संसारका प्रिय, धर्मपरायण तथा मनुवंशको बढ़ानेवाला होगा ।। 12-13 ।।
सूतजी बोले- ऐसा सुनकर वह लौट करके अपने पिताके पास जाने लगी, तभी अवसर पाकर बुधने उसे संगके लिये आमन्त्रित किया ॥ 14 ॥
उसके पश्चात् चन्द्रमापुत्र बुधसे उस इडामें राजा पुरूरवाकी उत्पत्ति हुई, वह पुत्र अत्यन्त सुन्दर, बुद्धिमान् और उन्नत था, जो आगे चलकर उर्वशीका पति हुआ। इस प्रकार प्रेमपूर्वक पुरूरवा नामक पुत्रको जन्म देकर वह शिवजीकी कृपासे पुनः सुद्युम्न हो गयी ।। 15-16 ॥
सुद्युम्नके तीन परम धार्मिक पुत्र हुए उत्कल, गय तथा पराक्रमी विनताश्व हे विप्रो ! | उत्कलकी राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई, विनताश्वको पश्चिम दिशाका राज्य मिला और हे मुनिश्रेष्ठ! गयकी राजधानी पूर्वदिशामें गया नामकी पुरी कही गयी ।। 17-18 ॥
हे तात! मनुके दिवाकरके शरीरमें प्रविष्ट होनेपर इस पृथ्वीको [इक्ष्वाकुने] दस भागों में विभक्त किया । ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकुने मध्यदेश प्राप्त किया। वसिष्ठके वचनके अनुसार उन महात्मा [सुद्युम्न] का प्रतिष्ठानपुर राज्य हुआ। महायशस्वी सुद्युम्नने भी प्रतिष्ठानका राज्य प्राप्तकर उसमें धर्मराज्यकी प्रतिष्ठा की और वह प्रतिष्ठान नामक नगर पुरुरवाको दे दिया है मुनिश्रेष्ठो! इस प्रकार जो मनुपुत्र सुद्युम्न थे, वे स्त्री- पुरुषके लक्षणसे युक्त राजा हुए। नरिष्यन्तके पुत्र शक हुए नभग (नाभाग) के पुत्र अम्बरीष हुए उन्हें बाहक देश प्राप्त हुआ। शर्यातिने युग्म सन्तानको उत्पन्न किया, जिसमें पुत्र आनर्त नामसे प्रसिद्ध हुआ तथा कन्याका नाम सुकन्या हुआ, जो च्यवनकी पत्नी बनी। आनर्तके पुत्रका नाम रैभ्य था, जो रैवत नामसे प्रसिद्ध हुए और जिनकी कुशस्थली नामक पुरी आनर्त देशमें थी, जो परम दिव्य तथा सप्त महापुरियोंमें क्रममें सातवीं मानी गयी है । 19 - 25॥
उन रैवतके सौ पुत्र हुए, जिनमें ककुद्मी ज्येष्ठ थे, वे उत्तम, तेजस्वी, महाबली, पारगामी, धर्मपरायण और ब्राह्मणोंके पालनकर्ता थे। ककुद्मीसे रेवती नामक कन्या हुई, जो परम सौन्दर्ययुक्त तथा दूसरी लक्ष्मीके समान दिव्य थी ॥ 26-27 ॥
किसी समय सबके स्वामी राजा ककुद्मी अपनी कन्याको साथ लेकर उसके लिये ब्रह्माजीसे वर पूछनेहेतु ब्रह्मलोकमें गये 28 ॥
उस समय वहाँ गायन हो रहा था, अवसर पाकर वे भी क्षणमात्र ब्रह्मदेवके पास रुककर गान नृत्य सुनने देखने लगे हे मुनियो। उस मुहर्तमात्रमें बहुत से युग बीत गये, किंतु उन ककुद्मी राजाको इसका कुछ भी पता न लगा ॥ 29-30 ॥
इसके बाद उन्होंने ब्रह्माजीको नमस्कारकर हाथ जोड़ करके विनीतभावसे परमात्मा ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय निवेदन किया ॥ 31 ॥
उनका अभिप्राय सुनकर वे प्रजापति कुशल मंगल पूछकर महाराज ककुद्मीसे हँसकर कहने लगे - ॥ 32 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे राजन्! हे रैभ्यपुत्र! हे ककुद्मिन्! हे पृथ्वीपते ! मेरी बात प्रेमपूर्वक सुनिये। मैं पूर्णतः सत्य कह रहा हूँ ॥ 33 ॥
आप जिन वरोंको हृदयसे चाहते हैं, उन्हें कालने हरण कर लिया है। अब वहाँ उनके गोत्रमें भी कोई नहीं रहा, क्योंकि काल सबका भक्षक है ॥ 34 ॥
हे राजन् ! पुण्यजनों एवं राक्षसोंने आपकी पुरोको भी नष्ट कर दिया है, इस समय चल रहे अट्ठाईसवें द्वापरमें श्रीकृष्णने पुनः उसका निर्माण कराया है। अनेक द्वारोंवाली उस मनोरम पुरीका नाम द्वारावती है, वह वासुदेव आदि भोज, वृष्णि तथा अन्धकवंशियोंसे सुरक्षित है ॥ 35-36 ॥
हे राजन् ! अब आप प्रसन्नचित्त होकर वहीं चले जाइये और अपनी इस कन्याको वसुदेवपुत्र बलदेवको प्रदान कर दीजिये ॥ 37 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार आज्ञा प्राप्तकर वे राजा ककुद्मी उन्हें नमस्कारकर कन्याके साथ उस पुरीको गये और बहुत से युगोंको बीता हुआ जानकर परम विस्मयको प्राप्त हुए। इसके बाद उन्होंने अपनी रेवती नामक युवती कन्याको शीघ्र ही विधिपूर्वक श्रीकृष्णके ज्येष्ठ भ्राता बलरामको अर्पित कर दिया ।। 38-39 ॥
तत्पश्चात् वे महाप्रभु राजा मेरुके दिव्य शिखरपर चले गये और तपस्यामें निरत होकर शिवाराधन करने लगे ॥ 40
ऋषि बोले- [हे सूतजी!] वे ककुद्मी बहुत युगोंतक ब्रह्मलोकमें स्थित रहे, किंतु युवा रहकर ही मृत्युलोकको लौटे, हमलोगोंको यह महान् संशय है ।। 41 ।।
सूतजी बोले- हे मुनियो वहाँपर ब्रह्माजीके समीप किसीको भी जरा, क्षुधा, प्यास आदि विकार एवं अकालमृत्यु आदि कुछ नहीं होता है ॥ 42 ॥
अतः वे राजा तथा वह कन्या जरा एवं मृत्युको प्राप्त नहीं हुए और वे अपनी कन्याके लिये वरहेतु परामर्श करके युवा ही लौट आये। इसके बाद उन्होंने श्रीकृष्णद्वारा निर्मित दिव्य द्वारकापुरीमें जाकर अपनी कन्याका विवाह बलरामके साथ कराया ॥ 43-44
तदनन्तर उन धर्मनिष्ठ महाप्रभु बलरामके सौ पुत्र हुए और श्रीकृष्णके भी अनेक स्त्रियोंसे बहुत से पुत्र हुए। उन दोनों ही महात्माओंका पर्याप्त वंशविस्तार हुआ और [ उनके वंशज ] धर्मात्मा क्षत्रिय प्रसन्न होकर सभी दिशाओंको फैल गये ।। 45-46 ।।
हे द्विजो! इस प्रकार शर्यातिके वंशका वर्णन किया, अब अन्य मनुपुत्रोंके वंशका वर्णन संक्षेपमें करता हूँ, आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ 47 ॥
नाभागारिष्टका जो पुत्र हुआ, उसने ब्राह्मणत्वको प्राप्त किया, वह अपने क्षत्रिय वंशकी स्थापना करके ब्राह्मणकर्मोंसे युक्त हुआ। धृष्टसे धाष्ट उत्पन्न हुए, वे भी क्षत्रिय थे, किंतु पृथ्वीपर ब्राह्मणत्वके आधिक्यसे युक्त हुए। करूषके पुत्र कारूष क्षत्रिय हुए, जो युद्धके मदसे उन्मत्त रहते थे । 48-49 ॥
मनुके ही एक पुत्र नृग हुए, जो विशेष रूपसे महादानी थे, वे ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारकी सम्पत्तियों तथा गौओंका दान करते थे ॥ 50 ॥
वे गोदानविधिमें गड़बड़ी होनेसे, अपनी कुबुद्धिसे तथा अपने पापसे गिरगिटकी योनिको प्राप्त हुए, बादमें श्रीकृष्णने उनका उद्धार किया। उन्हें प्रयाति नामक एक पुत्र हुआ, जो धर्मात्मा था। इस प्रकार मैंने व्यासजीसे जो सुना था, उसे संक्षेपमें कह दिया ।। 51-52 ॥
गुरुने मनुके पुत्र वृषघ्न (पृषध्र) को गोपालनमें नियुक्त किया, वे वीरासनमें स्थित होकर सावधानीपूर्वक रात्रिमें गायोंकी रक्षा करने लगे। किसी समय गायोंका क्रन्दन सुनकर वे जग गये और गायोंकी हिंसा करनेके लिये गोशालामें आये हुए व्याघ्रको मारनेके लिये वे बलशाली वृषघ्न हाथ में तलवार लेकर दौड़े ॥ 53-54 ॥
उन्होंने शेरके भ्रममें किसी बछड़ेका सिर काट दिया और वह व्याघ्र खड्ग धारण किये हुए उन राजाको देखकर भयभीत हो भाग गया ॥ 55 ॥
उस रात्रिमें वर्षा तथा आँधीसे बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण वे भ्रममें पड़ गये थे, अतएव वे | व्याघ्रको मरा जानकर अपने स्थानको लौट गये ॥ 56 ॥
रात्रिके व्यतीत हो जानेपर वे प्रातः काल उठकर गोशाला में गये। वहाँ उन्होंने व्याघ्रके स्थानपर बछड़ेको मरा हुआ देखा, तब वे बड़े दुखी हुए ॥ 57 ॥
इस बातको सुनकर गुरुने बिना कारण जाने और बिना विचार किये उन अपराधी पृषधको शाप दिया कि अब तुम क्षत्रिय न रहकर शूद्र हो जाओ ॥ 58 ॥
इस प्रकार क्रोधपूर्वक कुलाचार्य गुरुके द्वारा शापित वे पृषध्र वहाँसे निकल गये और घोर वनमें चले गये। वे उस कष्टसे इतना दुखी हुए कि विरक्त होकर उन्होंने योगका आश्रय लिया और वनकी अग्निमें अपना शरीर जलाकर परम गतिको प्राप्त हुए ।। 59-60 ॥
मनुके एक अन्य पुत्र कवि शिवका अनुग्रह प्राप्तकर महाबुद्धिमान् हुए। उन्होंने इस लोकमें दिव्य सुख भोगकर परम दुर्लभ मुक्ति प्राप्त की ॥ 61 ॥