नन्दीश्वर बोले- हे प्राज्ञ। अब आप शिवजीका किरातावतार सुनिये, [[जिसमें] उन्होंने प्रसन्न होकर मूक दानवका वध किया एवं अर्जुनको वर प्रदान किया ॥ 1 ॥
[द्यूतक्रीडामें] जब श्रेष्ठ पाण्डवोंको दुर्योधनने जीत लिया, तब वे परम पतिव्रता द्रौपदीको अपने साथ | लेकर द्वैतवन चले गये। उस समय वे पाण्डव वहाँपर सूर्यके द्वारा दी गयी स्थाली (बटलोई) का आश्रय लेकर सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे ॥ 2-3 ॥
हे विप्रेन्द्र तब दुर्योधनने महामुनि दुर्वासाको छल करनेके लिये आदरपूर्वक प्रेरित किया, तदनन्तर महामुनि दुर्वासा पाण्डवोंके निकट गये ॥ 4 ॥
वहाँ जाकर अपने दस हजार शिष्योंके साथ दुर्वासाने मनोनुकूल भोजन उन पाण्डवोंसे प्रेमपूर्वक माँगा ॥ 5 ॥
पाण्डवोंने उनकी बात स्वीकार कर ली और उस समय दुसा आदि प्रमुख तपस्वी मुनियोंको स्नान करने हेतु भेज दिया ॥ 6 ॥
हे मुनीश्वर उस समय अन्नके अभाव से दुखी होकर उन सभी पाण्डवोंने प्राण त्यागनेका मनमें निश्चय किया। तब द्रौपदीने शीघ्र ही श्रीकृष्णका स्मरण किया, वे उसी समय पधारे और शाकका भोग लगाकर उन सभीको तृप्त किया ॥ 7-8 ॥
तब शिष्योंको तृप्त जानकर दुर्वासा वहाँसे चले गये। इस प्रकार श्रीकृष्णजीकी कृपासे पाण्डव उस समय दुःखसे निवृत्त हो गये ॥ 9 ॥
इसके बाद उन पाण्डवेन श्रीकृष्णसे पूछा हे प्रभो! [आगे] क्या होगा? यह [दुर्योधन] महान् वैरी उत्पन्न हुआ है, अब आप बताइये कि क्या करना चाहिये ? ॥ 10 ॥
नन्दीश्वर बोले- हे मुने। उन पाण्डवोंके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर श्रीकृष्णजीने शिवजीके चरण कमलोंका स्मरण करके पाण्डवोंसे यह कहा- ll 11 ॥श्रीकृष्णजी बोले- हे श्रेष्ठ पाण्डवो! शिवोपासनासे युक्त मेरे वृत्तान्तको सुनिये और सुनकर विशेषरूपसे | शिवोपासनारूप] कर्तव्यका अनुपालन कीजिये ।। 12 ।।
पूर्वमें मैंने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेकी | इच्छासे द्वारकामें जाकर महात्मा उपमन्युके उपदेशोंका | विचार करके बटुक नामक श्रेष्ठ पर्वतपर सात मासपर्यन्त शिवजीकी आराधना की, तब भलीभाँति | सेवाके किये जानेसे परमेश्वर शिवजी मुझपर प्रसन्न हो गये ।। 13-14 ।।
विश्वेश्वरने साक्षात् प्रकट होकर मुझे अभीष्ट वरदान दिया। उन्होंकी कृपासे मैंने सभी प्रकारका उत्तम सामर्थ्य प्राप्त कर लिया ।। 15 ।।
[हे पाण्डवो] मैं इस समय भी भोग एवं मोक्ष देनेवाले शिवजीकी सेवा करता हूँ, इसलिये आपलोग भी सब प्रकारका सुख देनेवाले उन शिवजीकी सेवा कीजिये ॥ 16 ॥
नन्दीश्वर बोले—ऐसा कहकर पाण्डवोंको आश्वासन देकर श्रीकृष्णजी अन्तर्धान हो गये और शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए शीघ्र ही द्वारका चले गये ॥ 17 ॥
इधर, उत्साहयुक्त पाण्डवोंने उस दुर्योधनके गुणोंकी परीक्षाके लिये एक भीलको भेजा। वह भी दुर्योधनके सभी गुणों और पराक्रमका भलीभाँति पता लगाकर अपने प्रभु पाण्डवोंके समीप लौट आया ।। 18-19 ।।
हे मुनीश्वर उसकी बात सुनकर पाण्डव अत्यन्त दुखी हुए और अतीव दुःखित उन पाण्डवोंने आपसमें कहा- अब हमलोगोंको क्या करना चाहिये और कहाँ जाना चाहिये ? यद्यपि हमलोग इस समय युद्ध करनेमें समर्थ हैं, किंतु सत्यपाशसे बँधे हुए हैं । ll20-21 ॥
नन्दीश्वर बोले- इसी समय मस्तकमें भस्म लगाये, रुद्राक्षको माला धारण किये, सिरपर जयरमे सुशोभित तथा शिवप्रेममें निमग्न, तेजोराशि, साक्षात् दूसरे धर्मके समान श्रीव्यासजी पंचाक्षर मन्त्रका जप | करते हुए वहाँ आये ॥ 22-23 ।।तब उन्हें देखकर वे पाण्डव प्रसन्न हो उठकर उनके आगे खड़े हो गये और कुशासे युक्त मृगचर्मका आसन उन्हें देकर उसपर बैठे हुए व्यासजीका हर्षित होकर पूजन किया, अनेक प्रकारसे उनकी स्तुति की और कहा कि हम धन्य हो गये ।। 24-25 ॥
हमने जो कठिन तप किया, अनेक प्रकारके दान दिये, वह सब सफल हो गया। हे प्रभो! हम सब आपके दर्शनसे तृप्त हो गये ll 26 ॥
हे पितामह! आपके दर्शनसे दुःख दूर हो गया, क्रूर कर्मवाले इन दुष्टोंने हमलोगोंको बड़ा दुःख दिया है ॥ 27 ॥
आप जैसे श्रीमानोंका दर्शन हो जानेपर जो दुःख कभी न गया, वह अब चला ही जायगा ऐसा हमलोगोंका विचारपूर्ण निश्चय है। सब कुछ करनेमें समर्थ आप जैसे महात्माओंक आश्रममें पधारनेपर भी यदि दुःख दूर न हुआ तो इसमें दैव ही कारण है ।। 28-29 ।।
बड़े लोगोंका स्वभाव कल्पवृक्षके समान माना गया है, उनके आनेपर दुःखका कारणभूत दारिद्र्य निश्चित रूपसे चला जाता है ॥ 30 ll
हे प्रभो महापुरुषोंके गुणोंका कथन करनेसे, उनका नामसंकीर्तनमात्र करनेसे अथवा उनका आश्रय लेनेसे व्यक्ति महत्ता या [उपेक्षा करनेसे] लघुताको प्राप्त करता है-इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये ।। 31/2 ।।
उत्तम पुरुषोंमें स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे दीनजनोंका परिपालन करते हैं ॥ 32 ॥
निर्धनताको लोकमें परम कल्याणकारी माना गया है, क्योंकि इसके सामने अर्थात् लक्ष्यके रूपमें दूसरेका उपकार और सज्जनोंकी सेवा-ये ही रहते हैं ॥ 33 ॥
उसके बाद जो भाग्य है, उसमें किसीको दोष नहीं देना चाहिये। इसलिये हे स्वामिन्! आपके दर्शनसे हमलोग अपना मंगल ही मानते हैं। आपके आगमन मात्रसे हमारा मन हर्षित हो उठा है। अब आप हमलोगोंको शीघ्र ही ऐसा उपदेश है, जिसमे हमारा दुःख दूर हो ll 34-35 ।। नन्दीश्वर बोले- पाण्डवोंका यह वचन सुनकर प्रसन्नचित्त हुए महामुनि व्यासजीने यह कहा ॥ 36 ॥
हे पाण्डवो! आपलोग दुःख मत कीजिये, आपलोग धन्य हैं और कृतकृत्य हैं, जो कि आपलोगोंने सत्यका लोप नहीं होने दिया ॥ 37 ॥
सत्पुरुषोंका ऐसा अत्युत्तम स्वभाव होता है कि वे मृत्युपर्यन्त मनोहर फल देनेवाले सत्य तथा धर्मका त्याग नहीं करते हैं ॥ 38 ॥
यद्यपि हमारे लिये आपलोग तथा वे [कौरव] दोनों ही बराबर है, फिर भी विद्वानोंके द्वारा धर्मात्माओंक प्रति पक्षपात उचित कहा गया है ॥ 39 ॥
अन्धे तथा दुष्ट धृतराष्ट्रने पहले ही धर्मका त्याग किया और लोभसे स्वयं आपलोगोंका राज्य हड़प लिया आपलोग तथा वे [कौरव] दोनों ही उनके पुत्र हैं, इसमें सन्देह नहीं है। पिता (पाण्डु). | के मर जानेपर उन महात्माके बालकोंके ऊपर उन्हें कृपा करनी चाहिये ।। 40-41 ।।
उन्होंने कभी भी अपने पुत्र [दुर्योधन] को मना नहीं किया, यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो यह अनर्थ न होता। जो होना था, वह हो चुका होनहार कभी मिथ्या नहीं होता। यह [दुर्योधन] दुष्ट है, आपलोग धर्मात्मा एवं सत्यवादी हैं ।। 42-43 ।।
इसलिये अन्तमें निश्चित रूपसे उसका ही अशुभ होगा, जो बीज यहाँ उसने बोया हैं, वह अवश्य उत्पन्न होगा ।। 44 ।।
इसलिये निश्चय ही आपलोगोंको दुखी नहीं होना चाहिये। हर प्रकारसे आपलोगोंका अवश्य ही शुभ होगा, इसमें सन्देहकी आवश्यकता नहीं है।। 45 ।।
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर महात्मा व्यासजीने उन पाण्डवोंको प्रसन्न कर लिया, तब युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंने पुनः उनसे यह वचन कहा- ।। 46 ।।
पाण्डव बोले- हे नाथ! आपने सत्य कहा, किंतु मलिन चित्तवाले ये दुष्ट हमें इस वनमें भी बार | बार निरन्तर दुःख ही दे रहे हैं ।। 47 ।।इसलिये हे विभो ! हमारे अशुभका नाश कीजिये और हमें मंगल प्रदान कीजिये इसके पूर्व श्रीकृष्णने [हमलोगोंसे] कहा था कि तुमलोगोंको सर्वदा शिवजीकी आराधना करनी चाहिये, किंतु हमलोगोंने प्रमाद किया और उनकी आज्ञाके पालनमें शिथिलता की। अब आप पुनः उस देवमार्गका उपदेश कीजिये ।। 48-49 ।।
नन्दीश्वर बोले- यह वचन सुनकर व्यासजी बहुत ही प्रसन्न हुए और शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके पाण्डवोंसे प्रेमपूर्वक कहने लगे-॥ 50 ॥
व्यासजी बोले- हे धर्मबुद्धिवाले पाण्डवो! मेरी बात सुनो। श्रीकृष्णने सत्य ही कहा था, क्योंकि मैं भी सदाशिवकी उपासना करता हूँ ॥ 51 ॥
आपलोग भी प्रेमपूर्वक उनका सेवन कीजिये, | जिससे सदा अपार सुखकी प्राप्ति होती रहे। शिवकी | सेवा न करनेके कारण ही सारा दुःख होता है ॥ 52 ॥
नन्दीश्वर बोले- उसके अनन्तर विचार करके मुनिवर व्यासजीने पाँचों पाण्डवोंमें अर्जुनको शिवपूजाके योग्य समझा और इसके बाद उन मुनिश्रेष्ठने [उनके लिये ] तपस्याका स्थान निश्चितकर धर्मनिष्ठ पाण्डवोंसे पुनः यह कहा- ॥ 53-54॥
व्यासजी बोले- हे पाण्डवो! मैं तुमलोगोंके हितकी जो बात कह रहा हूँ, उसे सुनो। तुमलोग सज्जनोंके रक्षक सर्वोत्कृष्ट परब्रह्म शिवका दर्शन प्राप्त करो ॥ 55 ॥
ब्रह्मासे लेकर त्रिपरार्धपर्यन्त जो भी जगत् दिखायी पड़ता है, वह सब शिवस्वरूप है, इसलिये वह पूजा तथा ध्यान करनेयोग्य है ॥ 56 ll
शंकरजी सभी प्रकारके दुःखोंको विनष्ट करनेवाले हैं। अतः सभी लोगोंको उनकी सेवा करनी चाहिये। थोड़े समयमें ही भक्तिसे शिव प्रसन्न हो जाते हैं, अति प्रसन्न होनेपर महेश्वर भक्तोंको सब कुछ दे देते हैं। वे इस लोकमें भोग तथा परलोकमें मुक्ति प्रदान करते हैं यह बात सुनिश्चित है ॥ 57-58 ॥
अतः भोग एवं मोक्षका फल चाहनेवाले पुरुषोंको सर्वदा शिवजीकी सेवा करनी चाहिये। शंकरजी साक्षात् पुरुषोत्तम हैं. दुष्टोंके विनाशक और सज्जनोंक रक्षक हैं। परंतु सबसे पहले स्वस्थ मनसे शक्रविद्याका जप करना चाहिये, श्रेष्ठ कहलानेवाले क्षत्रियके लिये यही विधि है ।। 59-60 ।।अतः दृढ़चित्त होकर अर्जुनको सर्वप्रथम शक्रविद्याका जप करना चाहिये । इन्द्र पहले परीक्षा करेंगे, उसके बाद सन्तुष्ट होंगे। सन्तुष्ट हो जानेपर इन्द्र सर्वदा विघ्नोंका विनाश करेंगे और शिवजीका उत्तम मन्त्र प्रदान करेंगे ।। 61-62 ॥
नन्दीश्वर बोले- व्यासजीने इस प्रकार कहकर अर्जुनको अपने पास बुलाकर उन्हें इन्द्रविद्याका उपदेश किया और तीक्ष्ण बुद्धिवाले अर्जुनने भी स्नानकर पूर्वाभिमुख हो उसे ग्रहण कर लिया ।। 63 ।। उस समय उदार बुद्धिवाले मुनिवर व्यासजीने अर्जुनको पार्थिव पूजनके विधानका भी उपदेश किया और उनसे कहा- ॥ 64 ॥
व्यासजी बोले- हे पार्थ! आप इसी समय शीघ्र ही यहाँसे अत्यन्त शोभासम्पन्न इन्द्रकील पर्वतपर जाइये और वहाँ गंगाके तटपर स्थित होकर भलीभाँति तपस्या कीजिये। यह अदृश्य विद्या सर्वदा आपका हित करती रहेगी- मुनिने उन्हें यह आशीर्वाद दिया। उसके बाद पाण्डवोंसे कहा- हे श्रेष्ठ राजाओ ! आपलोग धर्मका आश्रय लेकर यहाँ निवास करें, आपलोगोंको श्रेष्ठ सिद्धि अवश्य प्राप्त होगी, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 65- 67 ॥ नन्दीश्वर बोले- उन पाण्डवोंको यह आशीर्वाद देकर शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके मुनीश्वर व्यास क्षणभर में अन्तर्धान हो गये । ll 68 ।।