जो प्रधान (प्रकृति) और पुरुषके नियन्ता तथा सृष्टि- पालन-संहारके कारण हैं, उन पार्वतीसहित शिवजीको पार्षदों और पुत्रोंके साथ नमस्कार है ॥ 1 ॥
ऋषि बोले- हमने अनेक आख्यानोंसे समन्वित मनोहर उमासंहिता सुनी, अब आप शिवतत्त्वको बढ़ानेवाली कैलाससंहिताका वर्णन कीजिये ॥ 2 ॥
व्यासजी बोले- हे वत्स ! शिवतत्त्वसे युक्त, दिव्य तथा उत्कृष्ट कैलास नामक संहिताका वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग प्रेमपूर्वक सुनिये। पूर्वसमयमें हिमालयपर तप करनेवाले महातेजस्वी ऋषियोंने आपसमें विचारकर काशी जानेकी इच्छा की ।। 3-4 ll
उस पर्वतसे चलकर एकाग्रचित्त हो काशी पहुँचकर वे स्नान करनेकी इच्छासे मणिकर्णिकाको देखने लगे ॥ 5 ॥
वेदमें पारंगत उन मुनियोंने वहाँ स्नानकर देवता आदिका तर्पण करके पुनः गंगाजीका दर्शनकर उस [जल] में स्नान करके देवाधिदेव विश्वेश्वरको नमस्कारकर परम भक्तिसे युक्त होकर उनका पूजन करके शतरुद्रिय आदि मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ समझा और कहा कि सर्वदा शिवभक्तिपरायण हमलोग [आज] शिवकृपासे पूर्णमनोरथवाले हो गये ॥ 6-8 ॥
उसी समय पंचक्रोशको देखनेकी इच्छासे (अर्थात् पंचक्रोशी परिक्रमा करनेके लिये आये हुए सूतजीको देखकर उनके पास जाकर उन सभीने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ 9 ॥इसके बाद उन्होंने भी साक्षात् देवाधिदेव उमापति विश्वेश्वरको प्रणामकर उन सभीके साथ मुक्तिमण्डपमें प्रवेश किया। उसके अनन्तर सभी मुनियोंने अध्यदि [पूजनद्रव्यों ] से वहाँपर बैठे हुए पौराणिकोत्तम महात्मा सूतजीका पूजन किया ।। 10-11 ॥
तत्पश्चात् सूतजीने प्रसन्नचित्त होकर उत्तम व्रतवाले मुनियोंकी ओर देखकर उनका कुशलक्षेम पूछा, तब उन सभीने भी अपना कुशल बताया। इसके बाद उन मुनीश्वरोंने उन्हें प्रसन्नचित्त जानकर प्रणवका अर्थ जाननेके लिये प्रास्ताविक वचन कहना प्रारम्भ किया ।। 12-13 ।।
मुनि बोले - हे व्यासशिष्य ! हे महाभाग ! हे पौराणिकोत्तम सूतजी ! आप धन्य हैं; क्योंकि आप समस्त विज्ञानके सागर एवं शिवभक्त हैं। सम्पूर्ण संसारके गुरु भगवान् व्यासजीने आपको सभी पुराणोंके गुरूरूपमें अभिषिक्तकर सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है। अतः [समग्र] पौराणिकी विद्या आपके हृदयमें स्थित है। सभी पुराण वेदार्थका प्रतिपादन करते हैं। समग्र वेद प्रणवसे उत्पन्न हुए हैं और प्रणवका तात्पर्य [स्वयं] महेश्वर हैं, अतः महेश्वरका स्थान आपके [हृदय-] स्थलमें प्रतिष्ठित है। हमलोग आपके मुखकमलसे निकलते हुए सुन्दर मकरन्दसदृश प्रणवार्थरूप अमृतको पीकर सन्तापरहित हो जायँगे। हे महामते! आप ही हम लोगोंके विशेष गुरु हैं, कोई दूसरा नहीं, अतः आप परम कृपापूर्वक महेश्वरके श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश कीजिये ॥ 14- 19 ॥
उनके इस वचनको सुनकर व्यासजीके परम प्रिय शिष्य विद्वान् सूतजी गणेश, कार्तिकेय, साक्षात् महेश्वर, शिलादके पुत्र तथा सुयशाके पति प्रभु नन्दीश्वर, सनत्कुमार तथा व्यासजीको नमस्कारकर यह कहने लगे- ॥ 20-21 ॥
सूतजी बोले- हे पापरहित महाभाग्यशाली मुनियो आपलोग धन्य हैं, जो कि आपलोगोंकी ऐसी अत्यन्त दृढ़ मति है, वह पापियोंके लिये [सर्वथा ] दुर्लभ है ॥ 22 ॥हे महर्षियों! पूर्व समयमें पराशरपुत्र गुरुदेव व्यासजीने नैमिषारण्यनिवासी मुनियोंको जो उपदेश दिया था, उसीको मैं [आपलोगोंसे] कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्योंमें शिवभक्ति उत्पन्न हो जाती है, अब आपलोग सावधान होकर परम प्रसन्नताके साथ उसे सुनिये ॥ 23-24 ॥
पूर्वकालमें स्वारोचिष मन्वन्तरमें दृढ़ व्रतवाले ऋषिगण सभी सिद्धोंके द्वारा निषेवित नैमिषारण्यमें तप करते हुए तथा यज्ञाधिपति रुद्रको प्रसन्न करते हुए उनके परम ऐश्वर्यको जाननेकी इच्छासे दीर्घसत्र करने लगे। इस प्रकार वे सब व्यासजीके दर्शनकी इच्छावाले महर्षि शिवभक्तिपरायण हो भस्म एवं रुद्राक्ष धारण किये हुए वहाँ निवास करने लगे ॥ 25-27॥
उनकी ऐसी भावना देखकर महर्षि पराशरके तपः फलरूप सर्वात्मा भगवान् वेदव्यास वहींपर प्रकट हो गये। उन्हें देखकर प्रसन्न मुखकमल तथा नेत्रवाले मुनियोंने प्रत्युत्थान (अगवानी) आदि सभी उपचारोंसे उनका पूजन किया और सत्कार करके उन्हें सुवर्णमय उत्तम आसन प्रदान किया। तब उस सुवर्णमय आसनपर सुखपूर्वक बैठे हुए महामुनि व्यासजी गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 28-30 ॥
व्यासजी बोले- आपलोग बतायें कि इस महायज्ञमें आपलोगोंका कुशल तो है, आपलोगोंने यज्ञाधिपति शिवका पूजन अच्छी प्रकार कर तो लिया है ? आपलोगोंने इस यज्ञमें संसारसे मुक्त करनेवाले पार्वतीसहित सदाशिवका भक्तिभावसे किसलिये पूजन किया है? मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि महेश्वर शिवके परभावमें आपलोगोंकी इस प्रकारकी प्रवृत्ति एवं शुश्रूषा मोक्ष पानेके लिये ही हुई है ॥ 31-33॥ अमित तेजस्वी व्यासजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नैमिषारण्यवासी परम ओजस्वी मुनियोंने शिवके अनुरागसे प्रसन्नचित्त उन महात्मा महामुनि व्यासजीको प्रणाम करके कहा- ll 34-35 ॥
मुनि बोले- साक्षात् विष्णुजीके अंशसे अवतार 'धारण करनेवाले हे भगवन्! हे मुनिश्रेष्ठ! हे कृपानिधान ! हे महाप्राज्ञ ! हे सर्वविद्येश्वर! हे प्रभो! आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी, सृष्टिकर्ता एवं पार्वती तथा गणोंसहितइन महादेवकी कृपाके साक्षात् समुद्र हैं। आपके चरणकमलके मकरन्दके स्वादमें [आसक्त हुए] भ्रमरस्वरूप मनवाले हमलोग आज आपके चरण कमलके दर्शनसे कृतार्थ हो गये हैं। हमलोगोंने | पापीजनोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ आपके चरणकमलका दर्शन प्राप्त किया, अतः हमलोग महान् पुण्यवाले हैं ॥ 36- 39 ॥
हे महाभाग ! प्रणवके अर्थको प्रकाशित करनेकी इच्छावाले हमलोग नैमिषारण्य नामक इस महातीर्थमें महासत्र सम्पादित कर रहे हैं। महेश्वरके परम भावका चिन्तन करते हुए हमलोगोंने यह निश्चय किया है कि परमेश्वरके विषयमें सुनना चाहिये। हे प्रभो! अभीतक हमलोग उनकी महिमाको नहीं जान पाये हैं। अतः आप हम अल्पबुद्धिवालोंके उन समस्त सन्देहोंको दूर करनेकी कृपा करें। इस त्रिलोकीमें आपके अतिरिक्त कोई दूसरा इस संशयको दूर करनेवाला नहीं है। अतः हे दयानिधे! आप इस अपार तथा अथाह भ्रम- सागरमें डूबते हुए हमलोगोंको शिवज्ञानरूपी नौकासे पार कर दीजिये; हमलोग शिवकी उत्तम भक्तिके तत्त्वार्थको जाननेके लिये श्रद्धायुक्त हैं ॥ 40-44 ॥
इस प्रकार वेदोंमें पारंगत मुनियोंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर समस्त वेदार्थके ज्ञाताओंमें मुख्य शुकदेवके | पिता महामुनि व्यासजी वेदान्तके सारसर्वस्व प्रणवरूप तथा संसारसे मुक्त करनेवाले पार्वतीसहित परमेश्वरका अपने हृदयकमलमें ध्यान करके प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ 45-46 ॥