सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] वहाँ स्थित होकर उस दानवेन्द्रने अत्यन्त बुद्धिमान् एक महान् दैत्येश्वरको दूत बनाकर शिवजीके समीप भेजा ॥ 1 ॥ उस दूतने वहाँ जाकर वटवृक्षके नीचे बैठे हुए, करोड़ों सूर्यके समान महातेजस्वी, योगासन लगाये हुए ध्यानमुद्रायुक्त, मन्द मन्द मुसकराते हुए, शुद्ध स्फटिकके समान परमोज्ज्वल, ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान,त्रिशूल पट्टिश धारण किये हुए, व्याघ्रचर्म ओढ़े हुए भक्तोंकी मृत्यु दूर करनेवाले, शान्त, तपस्याका फल देनेवाले, सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, प्रसन्नमुख, भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले, विश्व बीज, विश्वरूप, विश्वको उत्पन्न करनेवाले, विश्वेश्वर, विश्वकर्ता, विश्वसंहारके कारण, कारणोंके भी कारण, नरकसमुद्रसे पार उतारनेवाले, ज्ञानदाता, ज्ञानबीज तथा ज्ञानमें ही आनन्दित रहनेवाले, तीन नेत्रवाले, सनातन उमापति विश्वनाथको देखा ॥ 27॥
उस दानवेश्वरके दूतने रथसे उतरकर कुमारसहित शंकरजी को देखकर सिर झुकाकर प्रणाम किया। उनके बायीं ओर विराजमान भद्रकाली तथा उनके आगे स्थित स्कन्दको भी प्रणाम किया। उसके बाद काली, शंकर एवं स्कन्दने लोकरीति से उसे आशीर्वाद दिया ॥ 8-9 ll
इसके बाद सकल शास्त्रोंका ज्ञाता शंखचूडका वह दूत हाथ जोड़कर शिवको प्रणाम करके उत्तम वचन कहने लगा- ॥ 10 ॥
दूत बोला- हे महेश्वर में शंखचूडका दूत यहाँ आपके पास आया हूँ, आपकी क्या इच्छा है? उसे आप कहिये ॥ 11 ॥ सनत्कुमार बोले- शंखचूडके दूतकी बात सुनकर प्रसन्नचित्त भगवान् महादेवने उससे कहा- ॥ 12 ॥ महादेवजी बोले- हे महाबुद्धिमान् दूत तुम मेरे सुखदायक वचनको सुनो और विचार करके मेरे वचनको निर्विवाद रूपसे उनसे कह देना ॥ 13 ॥ समस्त धर्मोके ज्ञाता तथा जगत्के निर्माता ब्रह्मा धर्मके भी पिता हैं, उनके पुत्र मरीचि तथा उनके पुत्र कश्यप कहे गये हैं॥ 14 ॥
दक्षने उन कश्यपको अपनी तेरह कन्याएँ प्रसन्नताके साथ प्रदान कीं। उनमें एक दनु नामवाली थी। साधु स्वभाववाली वह उनके सौभाग्यको बढ़ानेवाली थी॥ 15 ll उस दनुके परम तेजस्वी चार दानव पुत्र हुए। उनमें
एक विप्रचित्ति था, जो महाबलवान् एवं पराक्रमी था ॥ 16 ॥
उस विप्रचितिका धार्मिक तथा महाबुद्धिमान् दानवराज दम्भ नामक पुत्र हुआ। तुम उसीके श्रेष्ठ, धर्मात्मा पुत्र तथा दानवोंके राजा हो ॥ 10॥तुम पूर्वजन्ममें श्रीकृष्णके पार्षद, परम धार्मिक एवं सभी गोपोंमें मुख्य थे, किंतु इस समय तुम राधिकाके शापसे दानवेन्द्र हो गये हो। यद्यपि तुम | दानवयोनिमें आ गये हो, किंतु वास्तवम दानव नहीं हो। इस प्रकार अपने पुराने जन्मका वृत्तान्त जानकर देवताओंके साथ वैर त्याग दो ॥ 18-19 ॥
तुम अपने पदपर स्थित रहकर राज्यका | आदरपूर्वक सुखोपभोग करो, देवगणोंसे अधिक द्वेष मत करो एवं विचारपूर्वक राज्य करो ॥ 20 ॥
हे दानव देवगणोंका राज्य लौटा दो और मेरी प्रीतिकी रक्षा करो। तुम अपने राज्यपर स्थित रहो और देवता भी अपने पदपर स्थित रहें ॥ 21 ॥
सामान्य प्राणियोंके साथ भी विद्वेष करना बुरा होता है, फिर देवताओंसे विरोधका तो कहना ही क्या? वे सब कुलीन, शुद्ध कर्म करनेवाले तथा कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुए हैं ॥ 22 ॥
ब्रह्महत्यादि जो कोई भी पाप हैं, वे जाति द्रोहजनित पापकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते ।। 23 ।।
सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] इस प्रकार शंकरने उत्तम ज्ञानका बोध कराते हुए श्रुति एवं स्मृतिसे सम्बन्धित शुभ बातें उससे कहीं ॥ 24 ॥
तब शंखचूडके द्वारा शिक्षित तथा तर्कविद् वह दूत होनहारसे मोहित होकर विनम्रतापूर्वक इस प्रकार यह वचन कहने लगा- ॥ 25 ॥
दूत बोला- हे देव! आपने जो वचन कहा है, वह अन्यथा नहीं है, किंतु मेरा कुछ तथ्यपूर्ण एवं यथार्थ निवेदन सुनिये ॥ 26 ॥
आपने अभी जो कहा है कि जातिद्रोह महापाप है। हे ईश क्या यह असुरोंके लिये ही है, देवोंके लिये नहीं? हे प्रभो! इसे बताइये ॥ 27 ॥
यदि वह सबके लिये है, तो मैं विचारकर आपसे कुछ कह रहा हूँ, आप ही उसका निर्णय कीजिये और मेरा सन्देह दूर कीजिये। हे महेश्वर! चक्रधारी विष्णुने | प्रलयके समय समुद्रमें दैत्यश्रेष्ठ मधु एवं कैटभका | शिरश्छेद क्यों किया? हे गिरिश! यह तो प्रसिद्ध हैं कि देवताओंके पक्षधर आपने युद्धमें त्रिपुरको भस्म किया, तो ऐसा आपने क्यों किया ? ॥ 28-30॥विष्णुने बलिका सर्वस्व लेकर उसे पाताल लोकमें क्यों भेज दिया? सुतल आदि लोकका उद्धार करनेके लिये उसके द्वारपर गदा धारणकर क्यों स्थित हैं ? ॥ 31 ll
इन देवताओंने भाईसहित हिरण्याक्षको क्यों मारा और इन्हीं देवताओंने शुम्भादि असुरोंको क्यों मारा ? ।। 32 ।।
पूर्वकालमें समुद्रमन्थन किये जानेपर देवगणों ही अमृतका पान किया। हम सभीको क्लेश प्राप्त हुआ, किंतु इसका [अमृतपानरूप] फल देवताओंने भोगा ।। 33 ।।
यह जगत् भगवान् कालका क्रीडापात्र है, वे जिस समय जिसे ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, उस समय वह ऐश्वर्यवान् हो जाता है। देवताओं एवं दैत्योंका वैर सदा किसी-न-किसी निमित्त होता आया है। क्रमशः जीत और हार कालके अधीन है ।। 34-35 ।। इन दोनोंके विरोधमें आपका आ जाना निष्फल प्रतीत हो रहा है। यह विरोध तो समान सम्बन्धियोंका ही अच्छा लगता है, आप सदृश ईश्वरका नहीं ॥ 36 ll
आप तो देवता तथा असुर सभीके स्वामी हैं, अतः इस समय आप महात्माकी केवल हमलोगोंसे यह स्पर्धा निर्लज्जताकी बात है। विजय होनेपर अधिक कीर्ति तथा पराजय होनेपर हानि-ये दोनों ही आपके लिये सर्वथा विपरीत हैं, इसे मनसे विचार कीजिये ।। 37-38 ।।
सनत्कुमार बोले- यह वचन सुनकर शिवजी हँसकर दानवराजसे यथोचित मधुर वचन कहने लगे - ॥ 39 ॥
महेश बोले-हम अपने भक्तोंके अधीन हैं, स्वतन्त्र कभी नहीं हैं, हम उनकी इच्छासे ही कर्म करते हैं और किसीके भी पक्षपाती नहीं हैं ॥ 40 पूर्वकालमें ब्रह्माकी प्रार्थना ही प्रताव विष्णु तथा दैत्यश्रेष्ठ मधु-कैटभका युद्ध हुआ था ॥ 41 ॥ भक्तोंका कल्याण करनेवाले उन्हीं विष्णुने पूर्वकालमें देवताओंकी प्रार्थनासे प्रह्लादको रक्षाके निमित्त हिरण्यकशिपुका वध किया था ll 42 ॥देवगणोंकी प्रार्थनासे मैंने भी त्रिपुरोंके साथ युद्ध किया तथा उन्हें भस्म किया—यह बात सब लोग जानते हैं। पूर्वकालमें देवताओंकी प्रार्थनासे सबकी स्वामिनी तथा सबकी माताने शुम्भादिके साथ युद्ध किया और उन्होंने उनका वध भी किया ।। 43-44 ।।
आज भी सभी देवता ब्रह्माकी शरणमें गये और देवताओं सहित विष्णु-ब्रह्मा मेरी शरणमें आये। हे दूत ! देवताओंका स्वामी मैं भी ब्रह्मा तथा विष्णुकी प्रार्थनाके कारण युद्धके लिये आया हूँ ।। 45-46 ॥ [हे दूत ! शंखचूडसे कहना कि] तुम महात्मा श्रीकृष्णके श्रेष्ठ पार्षद हो। पहले जो-जो दैत्य मारे गये, उनमें कोई भी तुम्हारे समान नहीं था ॥ 47 ॥ हे राजन्! देवताओंका कार्य करनेके लिये तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें मुझे कौन-सी बड़ी लज्जा है। देवताओंके कार्यके लिये मैं ईश्वर विनयपूर्वक भेजा गया हूँ ॥ 48 ॥
[ अतः हे दूत!] तुम जाओ और शंखचूडसे मेरा वचन कह देना कि मैं तो देवकार्य अवश्य करूँगा, उसे जो उचित हो, वैसा करे ॥ 49 ॥
ऐसा कहकर महेश्वर चुप हो गये और शंखचूडका दूत उठा और उसके पास चला गया ॥ 50 ॥