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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 41 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 41

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शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा

व्यासजी बोले - [ हे मुने!] भगवान् नारायणने किस उपायसे तुलसीके साथ रमण किया, उसे आप | मुझसे कहिये ll 1 llसनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] सज्जनोंकी रक्षा करनेवाले तथा देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेवाले भगवान् विष्णुने शंखचूडका रूप धारणकर उसकी स्त्रीके साथ रमण किया। जगन्माता पार्वती एवं शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले श्रीहरि विष्णुके आनन्ददायी उस चरित्रको सुनिये ll 2-3 ll

युद्धके मध्य में आकाशवाणीको सुनकर भगवान् शिवजी से प्रेरित हुए विष्णु शीघ्र अपनी मायासे ब्राह्मणका रूप धारणकर शंखचूडका कवच ग्रहण करके पुनः उस शंखचूडका रूप धारणकर तुलसीके घर गये। उन्होंने तुलसीके द्वारके पास दुन्दुभि बजायी और जयशब्दका उच्चारणकर उस सुन्दरीको जगाया ll 4-6 ll

यह सुनकर वह साध्वी बहुत प्रसन्न हुई और अत्यन्त आदरपूर्वक खिड़कीसे राजमार्गकी ओर देखने लगी ॥ 7 ॥

उसने ब्राह्मणोंको बहुत सा धन देकर मंगल कराया, तदनन्तर अपने पतिको आया जानकर शीघ्र श्रृंगार भी किया ॥ 8 ॥

शंखचूडके स्वरूपवाले तथा देवकार्य करनेवाले वे मायावी विष्णु रथसे उतरकर उस देवीके भवनमें गये ll 9 ॥ तब अपने स्वामीको सामने आया देखकर प्रसन्नतासे युक्त होकर उसने उनका चरणप्रक्षालन किया, प्रणाम किया और वह रोने लगी ॥ 10 ll

उसने उन्हें उनके सिंहासनपर बैठाया और कपूरसुवासित ताम्बूल प्रदान किया ॥ 11 ॥

'आज मेरा जन्म एवं जीवन सफल हो गया, जो कि युद्धमें गये हुए अपने स्वामीको पुनः घरमें देख रही हूँ' ऐसा कहकर वह मुसकराती हुई प्रसन्नतापूर्वक तिरछी नजरोंसे स्वामीकी ओर देखकर मधुर वाणीमें युद्धका समाचार पूछने लगी ।। 12-13 ॥

तुलसी बोली- हे प्रभो! असंख्य विश्वका संहार करनेवाले वे देवाधिदेव शंकर ही हैं, जिनकी आजका पालन ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता सर्वदा करते हैं ॥ 14 ॥

ये तीनों देवताओंको उत्पन्न करनेवाले शुक होते हुए निर्गुण तथा भक्तोंकी इच्छासे सगुण रूप धारण करनेवाले ब्रह्मा एवं विष्णुके भी प्रेरक हैं ॥ 15 ॥कैलासवासी, गणोंके स्वामी, परब्रह्म तथा सज्जनोंके रक्षक शिवजीने कुबेरकी प्रार्थनासे सगुण रूप धारण किया था ॥ 16 ॥

जिनके एक पलमात्रमें करोड़ों ब्रह्माण्डोंका क्षय हो जाता है तथा जिनके एक क्षणभर में विष्णु एवं ब्रह्मा व्यतीत हो जाते हैं। हे प्रभो! उन्हींके साथ आप युद्ध करने गये थे। आपने उन देवसहायक सदाशिव के साथ किस प्रकार संग्राम किया ? ।। 17-18 ॥

आप उन परमेश्वरको जीतकर यहाँ सकुशल लौट आये। हे प्रभो! आपकी विजय किस प्रकार हुई, उसे मुझे बताइये । तुलसीके इस प्रकारके वचनको | सुनकर शंखचूडका रूप धारण किये हुए वे रमापति हँसकर अमृतमय वचन कहने लगे- ॥ 19-20 ॥

श्रीभगवान् बोले- जब युद्धप्रिय मैं समरभूमिमें गया, उस समय महान कोलाहल होने लगा और महाभयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। विजयकी कामनावाले देवता तथा दानव दोनोंका युद्ध होने लगा, उसमें बलसे दर्पित देवताओंने दैत्योंको पराजित कर दिया ।। 21-22 ।।

उसके बाद मैंने बलवान् देवताओंके साथ युद्ध किया और वे देवता पराजित होकर शंकरकी शरणमें पहुँचे ll 23 ॥

रुद्र भी उनकी सहायताके लिये युद्धभूमिमें आये, तब मैंने भी अपने बलके घमण्डसे उनके साथ बहुत कालतक युद्ध किया हे प्रिये! इस प्रकार हम दोनोंका युद्ध वर्षपर्यन्त होता रहा, जिसमें है कामिनि। सभी असुरोंका विनाश हो गया तब स्वयं ब्रह्माजीने हम दोनोंमें प्रीति करा दी और मैंने उनके कहनेसे देवताओंका सारा अधिकार उन्हें सौंप दिया ।। 24-26 ॥

इसके बाद मैं अपने घर लौट आया और शिवजी शिवलोकको चले गये। इस प्रकार सारा उपद्रव शान्त | हो गया और सब लोग सुखी हो गये ॥ 27 ॥

सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर जगत्पति रमानाथने शयन किया और रमासे रमापतिके समान प्रसन्नतासे उस स्त्रीके साथ रमण किया। उस साध्वीने रतिकालमें सुख, भाव और आकर्षणमें भेद देखकर सारी बातें जान लीं और उसने कहा- तुम कौन हो? ॥ 28-29 ॥तुलसी बोली- तुम मुझे शीघ्र बताओ कि तुम हो कौन ? तुमने मेरे साथ कपट किया और मेरे सतीत्वको नष्ट किया है, अतः मैं तुमको शाप देती हूँ ॥ 30 ॥ सनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] तुलसीका वचन सुनकर विष्णुने शापके भयसे लीलापूर्वक अपनी अत्यन्त मनोहर मूर्ति धारण कर ली ॥ 31 ॥ उस रूपको देखकर और मिसे उन्हें विष्णु | जानकर तथा उनसे पातिव्रतभंग होनेके कारण कुपित होकर वह तुलसी उनसे कहने लगी- ॥ 32 ॥

तुलसी बोली- हे विष्णो आपमें थोड़ी-सी भी दया नहीं है, आपका मन पाषाणके समान है, मेरे पातिव्रतको भंगकर आपने मेरे स्वामीका वध कर दिया ॥ 33 ॥

आप पाषाणके समान अत्यन्त निर्दय एवं खल हैं, अतः मेरे शापसे आप इस समय पाषाण हो जाइये ॥ 34 ॥

जो लोग आपको दयासागर कहते हैं, वे भ्रममें पड़े हैं, इसमें सन्देह नहीं है। आपने बिना अपराधके दूसरेके निमित्त अपने ही भक्तका वध क्यों करवाया ? ।। 35 ।।

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यासजी!] ऐसा कहकर शंखचूडकी प्रिय पत्नी तुलसी शोकसे विकल हो रोने लगी और बार-बार बहुत विलाप करने लगी ।। 36 ।। तब उसे रोती हुई देखकर परमेश्वर विष्णुने शिवका स्मरण किया, जिनसे संसार मोहित है ॥ 37 ॥

तब भक्तवत्सल शंकर वहाँ प्रकट हो गये। श्रीविष्णुने उन्हें प्रणाम किया और बड़े विनयके साथ उनकी स्तुति की। विष्णुको शोकाकुल तथा शंखचूडकी पत्नीको विलाप करती हुई देखकर शंकरने नीतिसें विष्णुको तथा उस दुखियाको समझाया ।। 38-39 ॥

शिवजी बोले- हे तुलसी ! मत रोओ, व्यक्तिको अपने कर्मका फल भोगना ही पड़ता है। इस कर्मसागर संसार में कोई किसीको सुख अथवा दुःख देनेवाला नहीं है। अब तुम उपस्थित इस दुःखको दूर करनेका उपाय सुनो एवं विष्णु भी इसे सुनें। जो तुमदोनोंके लिये सुखकर है, उसे मैं तुमलोगोंके सुखके लिये बहलाता हूँ ll 140-41 ॥हे भद्रे तुमने [पूर्व समयमें] तपस्या की थी, | उसी तपस्याका यह फल प्राप्त हुआ है, तुम्हें विष्णु प्राप्त हुए हैं, वह अन्यथा कैसे हो सकता है ? ॥ 42 ॥ अब तुम इस शरीरको त्यागकर दिव्य शरीर धारणकर महालक्ष्मीके समान हो जाओ और विष्णुके साथ नित्य रमण करो। तुम्हारी यह छोड़ी हुई काया एक नदीके रूपमें परिवर्तित होगी और वह भारतमें पुण्यस्वरूपिणी गण्डकी नामसे विख्यात होगी। हे महादेवि तुम मेरे वरदानसे बहुत समयतक देवपूजनके साधनके लिये प्रधानभूत तुलसी वृक्षरूपमें उत्पन्न होगी ।। 43 - 45 ।।

तुम स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल - तीनों लोकोंमें विष्णुके साथ निवास करो। हे सुन्दरि ! तुम पुष्पवृक्षोंमें उत्तम तुलसी वृक्ष बन जाओ तुम सभी वृक्षोंकी अधिष्ठात्री दिव्यरूपधारिणी देवीके रूपमें वैकुण्ठमें विष्णुके साथ एकान्तमें नित्यक्रीड़ा करोगी और भारतमें तुम गण्डकीके रूपमें रहोगी, वहाँपर भी नदियोंकी अधिष्ठात्री देवी होकर सभीको अत्यन्त पुण्य प्रदान करोगी तथा विष्णु के अंशभूत लवणसमुद्रकी पत्नी बनोगी ।। 46-48 ॥

भारतमें उसी गण्डकीके किनारे ये विष्णु भी तुम्हारे शापसे पाषाणरूपमें स्थित रहेंगे वहाँपर तीखे दाँतवाले तथा भयंकर करोड़ों कीड़े उन शिलाओंको काटकर उसके छिद्रमें विष्णुके चक्रका निर्माण करेंगे ।। 49-50 ॥

उन कीटोंके द्वारा छिद्र की गयी शालग्राम शिला अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाली होगी। चक्रोंके भेदसे उन शिलाओंके लक्ष्मीनारायण आदि नाम होंगे ॥ 51 ॥

उस शालग्रामशिलासे जो लोग तुझ तुलसीका संयोग करायेंगे, उन्हें अत्यन्त पुण्य प्राप्त होगा ॥ 52 ॥ हे भद्रे जो शालग्रामशिलासे तुलसीपत्रको अलग करेगा, दूसरे जन्ममें उसका स्त्रीसे वियोग होगा ॥ 53 ॥

जो शंख तुलसीपत्रका विच्छेद करेगा, वह सात जन्मपर्यन्त भावहीन रहेगा तथा रोगी होगा ॥ 54 ॥इस प्रकार जो महाज्ञानी शालग्रामशिला, तुलसी तथा शंखको एक स्थानपर रखेगा, वह श्रीहरिका प्रिय होगा। तुम एक मन्वन्तरपर्यन्त शंखचूडकी पत्नी रही, शंखचूडके साथ यह तुम्हारा वियोग केवल इसी समय तुम्हें दुःख देनेके लिये हुआ है ।। 55-56 ll

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] ऐसा कहकर शंकरजीने शालग्रामशिला तथा तुलसीके महान् पुण्य देनेवाले माहात्म्यका वर्णन किया ॥ 57 ll

इस प्रकार उस तुलसी तथा श्रीविष्णुको प्रसन्न करके सज्जनोंका सदा कल्याण करनेवाले शंकरजी अन्तर्धान होकर अपने लोक चले गये। शिवजीकी यह बात सुनकर तुलसी प्रसन्न हो गयी और [उसी समय] उस शरीरको छोड़कर दिव्य देहको प्राप्त हो गयी ।। 58-59 ।।

कमलापति विष्णु भी उसीके साथ वैकुण्ठ चले गये और उसी क्षण तुलसीके द्वारा परित्यक्त उस शरीरसे गण्डकी नदीकी उत्पत्ति हुई ॥ 60 ॥

भगवान् विष्णु भी उसके तटपर मनुष्योंका कल्याण करनेवाले शालग्रामशिलारूप हो गये है मुने! उसमें कीट अनेक प्रकारके छिद्र करते हैं॥ 61 ॥

जो शिलाएं जलमें पड़ी रहती हैं, वे अत्यन्त पुण्यदायक होती हैं एवं जो स्थलमें रहती हैं, उन्हें पिंगला नामवाली जानना चाहिये, वे मनुष्योंको सन्ताप ही प्रदान करती हैं ॥ 62 ॥

[हे मुने!] मैंने आपके प्रश्नोंके अनुसार मनुष्योंकी सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले तथा पुण्य प्रदान करनेवाले सम्पूर्ण शिवचरित्रको कह दिया। विष्णुके माहात्म्यसे मिश्रित आख्यान, जिसे मैंने कहा है, वह भुक्ति-मुक्ति तथा पुण्य देनेवाला है, आगे [हे व्यास!] अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ।। 63-64 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य