व्यासजी बोले - [ हे मुने!] भगवान् नारायणने किस उपायसे तुलसीके साथ रमण किया, उसे आप | मुझसे कहिये ll 1 llसनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] सज्जनोंकी रक्षा करनेवाले तथा देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेवाले भगवान् विष्णुने शंखचूडका रूप धारणकर उसकी स्त्रीके साथ रमण किया। जगन्माता पार्वती एवं शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले श्रीहरि विष्णुके आनन्ददायी उस चरित्रको सुनिये ll 2-3 ll
युद्धके मध्य में आकाशवाणीको सुनकर भगवान् शिवजी से प्रेरित हुए विष्णु शीघ्र अपनी मायासे ब्राह्मणका रूप धारणकर शंखचूडका कवच ग्रहण करके पुनः उस शंखचूडका रूप धारणकर तुलसीके घर गये। उन्होंने तुलसीके द्वारके पास दुन्दुभि बजायी और जयशब्दका उच्चारणकर उस सुन्दरीको जगाया ll 4-6 ll
यह सुनकर वह साध्वी बहुत प्रसन्न हुई और अत्यन्त आदरपूर्वक खिड़कीसे राजमार्गकी ओर देखने लगी ॥ 7 ॥
उसने ब्राह्मणोंको बहुत सा धन देकर मंगल कराया, तदनन्तर अपने पतिको आया जानकर शीघ्र श्रृंगार भी किया ॥ 8 ॥
शंखचूडके स्वरूपवाले तथा देवकार्य करनेवाले वे मायावी विष्णु रथसे उतरकर उस देवीके भवनमें गये ll 9 ॥ तब अपने स्वामीको सामने आया देखकर प्रसन्नतासे युक्त होकर उसने उनका चरणप्रक्षालन किया, प्रणाम किया और वह रोने लगी ॥ 10 ll
उसने उन्हें उनके सिंहासनपर बैठाया और कपूरसुवासित ताम्बूल प्रदान किया ॥ 11 ॥
'आज मेरा जन्म एवं जीवन सफल हो गया, जो कि युद्धमें गये हुए अपने स्वामीको पुनः घरमें देख रही हूँ' ऐसा कहकर वह मुसकराती हुई प्रसन्नतापूर्वक तिरछी नजरोंसे स्वामीकी ओर देखकर मधुर वाणीमें युद्धका समाचार पूछने लगी ।। 12-13 ॥
तुलसी बोली- हे प्रभो! असंख्य विश्वका संहार करनेवाले वे देवाधिदेव शंकर ही हैं, जिनकी आजका पालन ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता सर्वदा करते हैं ॥ 14 ॥
ये तीनों देवताओंको उत्पन्न करनेवाले शुक होते हुए निर्गुण तथा भक्तोंकी इच्छासे सगुण रूप धारण करनेवाले ब्रह्मा एवं विष्णुके भी प्रेरक हैं ॥ 15 ॥कैलासवासी, गणोंके स्वामी, परब्रह्म तथा सज्जनोंके रक्षक शिवजीने कुबेरकी प्रार्थनासे सगुण रूप धारण किया था ॥ 16 ॥
जिनके एक पलमात्रमें करोड़ों ब्रह्माण्डोंका क्षय हो जाता है तथा जिनके एक क्षणभर में विष्णु एवं ब्रह्मा व्यतीत हो जाते हैं। हे प्रभो! उन्हींके साथ आप युद्ध करने गये थे। आपने उन देवसहायक सदाशिव के साथ किस प्रकार संग्राम किया ? ।। 17-18 ॥
आप उन परमेश्वरको जीतकर यहाँ सकुशल लौट आये। हे प्रभो! आपकी विजय किस प्रकार हुई, उसे मुझे बताइये । तुलसीके इस प्रकारके वचनको | सुनकर शंखचूडका रूप धारण किये हुए वे रमापति हँसकर अमृतमय वचन कहने लगे- ॥ 19-20 ॥
श्रीभगवान् बोले- जब युद्धप्रिय मैं समरभूमिमें गया, उस समय महान कोलाहल होने लगा और महाभयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। विजयकी कामनावाले देवता तथा दानव दोनोंका युद्ध होने लगा, उसमें बलसे दर्पित देवताओंने दैत्योंको पराजित कर दिया ।। 21-22 ।।
उसके बाद मैंने बलवान् देवताओंके साथ युद्ध किया और वे देवता पराजित होकर शंकरकी शरणमें पहुँचे ll 23 ॥
रुद्र भी उनकी सहायताके लिये युद्धभूमिमें आये, तब मैंने भी अपने बलके घमण्डसे उनके साथ बहुत कालतक युद्ध किया हे प्रिये! इस प्रकार हम दोनोंका युद्ध वर्षपर्यन्त होता रहा, जिसमें है कामिनि। सभी असुरोंका विनाश हो गया तब स्वयं ब्रह्माजीने हम दोनोंमें प्रीति करा दी और मैंने उनके कहनेसे देवताओंका सारा अधिकार उन्हें सौंप दिया ।। 24-26 ॥
इसके बाद मैं अपने घर लौट आया और शिवजी शिवलोकको चले गये। इस प्रकार सारा उपद्रव शान्त | हो गया और सब लोग सुखी हो गये ॥ 27 ॥
सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर जगत्पति रमानाथने शयन किया और रमासे रमापतिके समान प्रसन्नतासे उस स्त्रीके साथ रमण किया। उस साध्वीने रतिकालमें सुख, भाव और आकर्षणमें भेद देखकर सारी बातें जान लीं और उसने कहा- तुम कौन हो? ॥ 28-29 ॥तुलसी बोली- तुम मुझे शीघ्र बताओ कि तुम हो कौन ? तुमने मेरे साथ कपट किया और मेरे सतीत्वको नष्ट किया है, अतः मैं तुमको शाप देती हूँ ॥ 30 ॥ सनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] तुलसीका वचन सुनकर विष्णुने शापके भयसे लीलापूर्वक अपनी अत्यन्त मनोहर मूर्ति धारण कर ली ॥ 31 ॥ उस रूपको देखकर और मिसे उन्हें विष्णु | जानकर तथा उनसे पातिव्रतभंग होनेके कारण कुपित होकर वह तुलसी उनसे कहने लगी- ॥ 32 ॥
तुलसी बोली- हे विष्णो आपमें थोड़ी-सी भी दया नहीं है, आपका मन पाषाणके समान है, मेरे पातिव्रतको भंगकर आपने मेरे स्वामीका वध कर दिया ॥ 33 ॥
आप पाषाणके समान अत्यन्त निर्दय एवं खल हैं, अतः मेरे शापसे आप इस समय पाषाण हो जाइये ॥ 34 ॥
जो लोग आपको दयासागर कहते हैं, वे भ्रममें पड़े हैं, इसमें सन्देह नहीं है। आपने बिना अपराधके दूसरेके निमित्त अपने ही भक्तका वध क्यों करवाया ? ।। 35 ।।
सनत्कुमार बोले - [ हे व्यासजी!] ऐसा कहकर शंखचूडकी प्रिय पत्नी तुलसी शोकसे विकल हो रोने लगी और बार-बार बहुत विलाप करने लगी ।। 36 ।। तब उसे रोती हुई देखकर परमेश्वर विष्णुने शिवका स्मरण किया, जिनसे संसार मोहित है ॥ 37 ॥
तब भक्तवत्सल शंकर वहाँ प्रकट हो गये। श्रीविष्णुने उन्हें प्रणाम किया और बड़े विनयके साथ उनकी स्तुति की। विष्णुको शोकाकुल तथा शंखचूडकी पत्नीको विलाप करती हुई देखकर शंकरने नीतिसें विष्णुको तथा उस दुखियाको समझाया ।। 38-39 ॥
शिवजी बोले- हे तुलसी ! मत रोओ, व्यक्तिको अपने कर्मका फल भोगना ही पड़ता है। इस कर्मसागर संसार में कोई किसीको सुख अथवा दुःख देनेवाला नहीं है। अब तुम उपस्थित इस दुःखको दूर करनेका उपाय सुनो एवं विष्णु भी इसे सुनें। जो तुमदोनोंके लिये सुखकर है, उसे मैं तुमलोगोंके सुखके लिये बहलाता हूँ ll 140-41 ॥हे भद्रे तुमने [पूर्व समयमें] तपस्या की थी, | उसी तपस्याका यह फल प्राप्त हुआ है, तुम्हें विष्णु प्राप्त हुए हैं, वह अन्यथा कैसे हो सकता है ? ॥ 42 ॥ अब तुम इस शरीरको त्यागकर दिव्य शरीर धारणकर महालक्ष्मीके समान हो जाओ और विष्णुके साथ नित्य रमण करो। तुम्हारी यह छोड़ी हुई काया एक नदीके रूपमें परिवर्तित होगी और वह भारतमें पुण्यस्वरूपिणी गण्डकी नामसे विख्यात होगी। हे महादेवि तुम मेरे वरदानसे बहुत समयतक देवपूजनके साधनके लिये प्रधानभूत तुलसी वृक्षरूपमें उत्पन्न होगी ।। 43 - 45 ।।
तुम स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल - तीनों लोकोंमें विष्णुके साथ निवास करो। हे सुन्दरि ! तुम पुष्पवृक्षोंमें उत्तम तुलसी वृक्ष बन जाओ तुम सभी वृक्षोंकी अधिष्ठात्री दिव्यरूपधारिणी देवीके रूपमें वैकुण्ठमें विष्णुके साथ एकान्तमें नित्यक्रीड़ा करोगी और भारतमें तुम गण्डकीके रूपमें रहोगी, वहाँपर भी नदियोंकी अधिष्ठात्री देवी होकर सभीको अत्यन्त पुण्य प्रदान करोगी तथा विष्णु के अंशभूत लवणसमुद्रकी पत्नी बनोगी ।। 46-48 ॥
भारतमें उसी गण्डकीके किनारे ये विष्णु भी तुम्हारे शापसे पाषाणरूपमें स्थित रहेंगे वहाँपर तीखे दाँतवाले तथा भयंकर करोड़ों कीड़े उन शिलाओंको काटकर उसके छिद्रमें विष्णुके चक्रका निर्माण करेंगे ।। 49-50 ॥
उन कीटोंके द्वारा छिद्र की गयी शालग्राम शिला अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाली होगी। चक्रोंके भेदसे उन शिलाओंके लक्ष्मीनारायण आदि नाम होंगे ॥ 51 ॥
उस शालग्रामशिलासे जो लोग तुझ तुलसीका संयोग करायेंगे, उन्हें अत्यन्त पुण्य प्राप्त होगा ॥ 52 ॥ हे भद्रे जो शालग्रामशिलासे तुलसीपत्रको अलग करेगा, दूसरे जन्ममें उसका स्त्रीसे वियोग होगा ॥ 53 ॥
जो शंख तुलसीपत्रका विच्छेद करेगा, वह सात जन्मपर्यन्त भावहीन रहेगा तथा रोगी होगा ॥ 54 ॥इस प्रकार जो महाज्ञानी शालग्रामशिला, तुलसी तथा शंखको एक स्थानपर रखेगा, वह श्रीहरिका प्रिय होगा। तुम एक मन्वन्तरपर्यन्त शंखचूडकी पत्नी रही, शंखचूडके साथ यह तुम्हारा वियोग केवल इसी समय तुम्हें दुःख देनेके लिये हुआ है ।। 55-56 ll
सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] ऐसा कहकर शंकरजीने शालग्रामशिला तथा तुलसीके महान् पुण्य देनेवाले माहात्म्यका वर्णन किया ॥ 57 ll
इस प्रकार उस तुलसी तथा श्रीविष्णुको प्रसन्न करके सज्जनोंका सदा कल्याण करनेवाले शंकरजी अन्तर्धान होकर अपने लोक चले गये। शिवजीकी यह बात सुनकर तुलसी प्रसन्न हो गयी और [उसी समय] उस शरीरको छोड़कर दिव्य देहको प्राप्त हो गयी ।। 58-59 ।।
कमलापति विष्णु भी उसीके साथ वैकुण्ठ चले गये और उसी क्षण तुलसीके द्वारा परित्यक्त उस शरीरसे गण्डकी नदीकी उत्पत्ति हुई ॥ 60 ॥
भगवान् विष्णु भी उसके तटपर मनुष्योंका कल्याण करनेवाले शालग्रामशिलारूप हो गये है मुने! उसमें कीट अनेक प्रकारके छिद्र करते हैं॥ 61 ॥
जो शिलाएं जलमें पड़ी रहती हैं, वे अत्यन्त पुण्यदायक होती हैं एवं जो स्थलमें रहती हैं, उन्हें पिंगला नामवाली जानना चाहिये, वे मनुष्योंको सन्ताप ही प्रदान करती हैं ॥ 62 ॥
[हे मुने!] मैंने आपके प्रश्नोंके अनुसार मनुष्योंकी सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले तथा पुण्य प्रदान करनेवाले सम्पूर्ण शिवचरित्रको कह दिया। विष्णुके माहात्म्यसे मिश्रित आख्यान, जिसे मैंने कहा है, वह भुक्ति-मुक्ति तथा पुण्य देनेवाला है, आगे [हे व्यास!] अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ।। 63-64 ॥