सनत्कुमार बोले- हे मुने! अब आप शंकरजीका एक और चरित प्रेमपूर्वक सुनिये, जिसके सुननेमात्र से शंकरजीके प्रति दृढ़ भक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥1॥एक शंखचूड नामक दानव था, जो महावीर और देवताओंके लिये कण्टक था। । शिवजीने त्रिशूलसे जिस प्रकार युद्धभूमिमें उसका वध किया, हे व्यासजी ! उस पवित्र, पापनाशक तथा दिव्य चरित्रको आप अत्यन्त प्रेमपूर्वक सुनिये, मैं आपके स्नेहसे उसको कह रहा हूँ ॥ 2-3 ॥
पूर्व समयमें ब्रह्माजीके मरीचि नामक पुत्र हुए। उन मरीचिके पुत्र जो कश्यप मुनि हुए, वे बड़े धर्मशीलसृष्टिकर्ता विद्यावान् तथा प्रजापति थे ॥ 4 ll
दक्षने उन्हें प्रेमपूर्वक अपनी तेरह कन्याएँ प्रदान को उनकी बहुत-सी सन्तानें हुई, जिन्हें विस्तारसे यहाँ कहना सम्भव नहीं है। उनसे ही सम्पूर्ण देवता तथा चराचर जगत् उत्पन्न हुआ। तीनों लोकोंमें उनको विस्तारसे कहने में कौन समर्थ है ? अब प्रस्तुत वृत्तान्तको सुनिये, जो शिवलीलासे युक्त तथा भक्तिको बहानेवाला है, मैं उसको कह रहा है, सुनिये। कश्यपकी उन स्त्रियोंमें एक दनु नामवाली थी, जो सुन्दरी, महारूपवती, साध्वी एवं पतिके सौभाग्यसे सम्पन्न थी ॥ 5-8 ॥
उस दनुके अनेक बलवान् पुत्र थे। हे मुने! विस्तारके भयसे मैं उनके नामोंको यहाँ नहीं बता रहा हूँ ॥ 9 ॥
उनमें एक विप्रचित्ति नामवाला दानव था, जो महाबली और पराक्रमी था। उसका दम्भ नामक पुत्र धार्मिक, विष्णुभक्त तथा जितेन्द्रिय हुआ। उसे कोई पुत्र नहीं था, इसलिये वह चिन्ताग्रस्त रहता था । उसने शुक्राचार्यको गुरु बनाकर उनसे कृष्णमन्त्र प्राप्त करके पुष्कर क्षेत्रमें एक लाख वर्षपर्यन्त घोर तपस्या की। उसने दृढ़तापूर्वक आसन लगाकर दीर्घकालतक कृष्णमन्त्रका जप किया ।। 10-12 ॥ तपस्या करते हुए उस दैत्यके सिरसे एक जलता हुआ दुःसह तेज निकलकर चारों ओर फैलने लगा ॥ 13 ॥
उस तेजसे सभी देवता, मुनि एवं मनुगण सन्तप्त हो उठे और इन्द्रको आगेकर ये ब्रह्माजीकी शरणमें गये। उन लोगोंने सम्पूर्ण सम्पत्तियोंकि दाता ब्रह्माजीको प्रणाम करके उनकी स्तुति की और व्याकुल होकर | अपना वृत्तान्त विशेषरूपसे निवेदन किया । ll 14-15 ।।उसे सुनकर ब्रह्मा भी उन देवताओंको साथ लेकर उसे पूर्णरूपसे विष्णुसे कहने के लिये वैकुण्ठलोक गये ॥ 16 ॥
वहाँ जाकर सबकी रक्षा करनेवाले त्रिलोकेश विष्णुको हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनम्र होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ 10 ॥
देवता बोले- हे देवदेव! हम नहीं जानते कि किस तेजसे हम सभी अत्यधिक सन्तप्त हो रहे हैं, इसमें कौन-सा कारण है, उसे आप बताइये? हे दीनबन्ध आप सन्तप्तचित्त अपने सेवकोंकी रक्षा करनेवाले हैं। हे रमानाथ आप सबको] शरण देनेवाले हैं। हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ll 18-19 ॥
सनत्कुमार बोले- ब्रह्मादि देवताओंकी यह बात सुनकर शरणागतवत्सल भगवान् विष्णुजी हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहने लगे ll 20 ll
विष्णुजी बोले- हे देवताओ! आपलोग निश्चिन्त तथा शान्त रहिये और भयभीत न होइये, प्रलयकाल अभी उपस्थित नहीं हुआ है और न तो कोई उपद्रव ही होनेवाला है। मेरा भक्त दम्भ नामक दानव तप कर रहा है, वह पुत्र चाहता है, इसलिये मैं उसे वरदान देकर शान्त कर दूँगा ll 21-22 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने। विष्णुजीके ऐसा कहनेपर ब्रह्मा आदि वे सभी देवता धैर्य धारणकर पूर्णरूपसे स्वस्थ होकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ 23 भगवान् विष्णु भी वर देनेके लिये पुष्कर क्षेत्रमें गये, जहाँ वह दम्भ नामक दानव तप कर रहा था ॥ 24 ॥ वहाँ जाकर विष्णुने अपने मन्त्रका जप करते हुए उस भक्तको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें कहा-वर माँगो। तब विष्णुका यह वचन सुनकर तथा उनको अपने सामने खड़ा देखकर उसने महाभक्तिसे उन्हें प्रणाम किया तथा बार-बार उनकी स्तुति की- ॥ 25-26 ।।
दम्भ बोला- हे देवदेव! हे कमललोचन! हे रमानाथ! हे त्रिलोकेश! आपको प्रणाम है, मेरे ऊपर कृपा कीजिये। आप मुझे महाबली, पराक्रमी, तीनों लोकोंको जीतनेवाला, वीर, देवताओंके लिये अजेय तथा -आपकी भक्तिसे युक्त पुत्र प्रदान कीजिये ॥ 27-28 ॥सनत्कुमार बोले- दानवेन्द्रके इस प्रकार कहनेपर नारायणने उसे वैसा ही वरदान दिया और हे मुने! उसे तपस्यासे विरतकर वे अन्तर्धान हो गये ॥ 29 ॥
भगवान् के अन्तर्धान हो जानेपर सिद्ध हुए | तपवाला तथा पूर्ण मनोरथवाला वह दानव उस दिशाको नमस्कार करके अपने घर चला गया ॥ 30 ॥ इसके बाद थोड़े ही समयमें उसकी भाग्यवती | पत्नीने गर्भ धारण किया और अपने तेजसे घरको | प्रकाशित करती हुई वह शोभा प्राप्त करने लगी ॥ 31 ॥
हे मुने! सुदामा नामक गोप, जो कृष्णका प्रधान पार्षद था, जिसे राधाने शाप दिया था, वही उसके | गर्भमें आया। समय आनेपर उस साध्वीने तेजस्वी पुत्रको जन्म दिया। इसके अनन्तर पिताने बहुत-से मुनियोंको बुलाकर उसका जातकर्म संस्कार कराया ॥ 32-33 ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! उसके उत्पन्न होनेपर महान् उत्सव हुआ और पिताने शुभ दिनमें उसका शंखचूड- यह नाम रखा। वह [ शंखचूड] पिताके घरमें शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान बढ़ने लगा और बाल्यावस्थामें ही विद्याका | अभ्यासकर अत्यन्त तेजस्वी हो गया ।। 34-35 ।।
वह अपनी बालक्रीडासे माता-पिताके हर्षको | नित्य बढ़ाने लगा। वह सभीको प्रिय हुआ और अपने कुटुम्बियोंको विशेष प्रिय हुआ ॥ 36 ॥