सनत्कुमार बोले- इसके बाद उस शंखचूडने जैगीषव्य महर्षिके उपदेशसे ब्रह्माजीके पुष्कर क्षेत्रमें प्रीतिपूर्वक बहुत कालपर्यन्त तप किया। उसने एकाग्रमन होकर इन्द्रियों तथा उनके विषयोंको जीतकर गुरुके द्वारा दी गयी ब्रह्मविद्याका जप करना प्रारम्भ किया ॥ 1-2 ॥इस प्रकार पुष्करमें तप करते हुए उस शंखचूड दानवको वर देनेके लिये लोकगुरु विभु ब्रह्मा शीघ्र वहाँ गये ॥ 3 ॥
ब्रह्माने जब उस दानवेन्द्रसे कहा-'वर माँगो' तब वह उन्हें देखकर अत्यधिक विनम्र होकर श्रेष्ठ वाणीसे उनकी स्तुति करने लगा। उसके बाद उसने ब्रह्मासे वर माँगा कि देवगण मुझे जीत न सकें। तब ब्रह्माजीने प्रसन्न मनसे उससे कहा कि ऐसा ही होगा ।। 4-5 ।।
उन्होंने उस शंखचूडको जगत्के मंगलको भी मंगल बनानेवाला ('जगन्मंगलमंगल' नामक) और सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला दिव्य श्रीकृष्णकवच प्रदान किया ॥ 6 ॥
'तुम बदरिकाश्रम चले जाओ और वहाँ तुलसीके साथ विवाह करो। वह पतिकी कामनासे वहींपर तप कर रही है। वह धर्मध्वजकी कन्या है'- इस प्रकार ब्रह्माजीने उससे कहा और उसके देखते-देखते शीघ्र ही उसी क्षण अन्तर्धान हो गये ।। 7-8 ll
तदनन्तर तपस्यासे सिद्धि प्राप्तकर उस शंखचूडने वहीं पुष्करमें ही जगत्के परम कल्याणकारी उस कवचको गलेमें बाँध लिया। इसके बाद तपस्यासे सिद्ध मनोरथवाला प्रसन्नमुख वह शंखचूड ब्रह्माकी आज्ञासे शीघ्र ही बदरिकाश्रममें आया ll 9-10 ॥
वह दानव शंखचूड अपनी इच्छासे घूमते हुए यहाँ आ गया, जहाँ धर्मध्वजकी कन्या तुलसी तप कर रही थी। सुन्दर रूपवाली, मन्द मन्द मुसकानवाली, सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली तथा शुभ भूषणोंसे भूषित उसने उस श्रेष्ठ पुरुषको कटाक्षपूर्ण दृष्टिसे देखा ll 11-12 ॥
तब शंखचूड भी उस मनोहर, रम्य, सुशील, सुन्दरी एवं सतीको देखकर उसके समीप स्थित हो गया और मधुर वाणीमें उससे कहने लगा- ॥ 13 ॥
शंखचूड बोला- [हे देवि !] तुम कौन हो, किसकी कन्या हो, तुम यहाँ क्या कर रही हो और मौन होकर यहाँ क्यों बैठी हो? तुम मुझे अपना दास समझकर सम्भाषण करो ॥ 14 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकारका वचन सुनकर उस तुलसीने सकामभावसे उससे कहा- ॥ 15 ॥तुलसी बोली- मैं धर्मध्वजकी कन्या है और इस तपोवनमें तपस्या करती हूँ। तुम कौन हो ? | सुखपूर्वक हाँसे चले जाओ ॥ 16 ॥
नारीजाति ब्रह्मा आदिको भी मोह लेनेवाली | विषके समान, निन्दनीय, दूषित करनेवाली, मायारूपिणी तथा ज्ञानियोंके लिये श्रृंखलाके समान होती है ॥ 17 ॥ सनत्कुमार बोले- इस प्रकार उससे मधुर वचन बोलकर तुलसी चुप हो गयी। तब मन्द मन्द मुसकानवाली उस तुलसीकी ओर देखकर वह भी कहने लगा- ॥ 18 ॥
शंखचूड बोला- हे देवि तुमने जो कहा है. वह सब झूठ नहीं है, उसमें कुछ सत्य है और कुछ झूठ भी है, अब कुछ मुझसे सुनो ॥ 19 ॥
संसारमें जितनी भी पतिव्रता स्त्रियाँ हैं, उनमें तुम अग्रगण्य हो। मैं पापदृष्टिवाला और कामी नहीं हूँ, उसी प्रकार तुम भी वैसी नहीं हो, मेरी तो ऐसी ही बुद्धि है॥ 20 ॥
हे शोभने ! मैं इस समय ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्व विवाहके द्वारा तुम्हें ग्रहण करूँगा। हे देवि ! मैं देवताओंको भगा देनेवाला | शंखचूड नामक दैत्य हूँ। हे भद्रे क्या तुम मुझे नहीं जानती और क्या तुमने मेरा नाम कभी नहीं सुना है ? ।। 21-22 ।।
मैं विशेष करके दनुके वंशमें उत्पन्न हुआ हूँ और दम्भका पुत्र शंखचूड नामक दानव हूँ। मैं पूर्व समयमें श्रीकृष्णका पार्षद सुदामा नामक गोप था ॥ 23 ॥
राधिकाके शापसे मैं इस समय दैत्यराज हैं। मुझे अपने पूर्वजन्मका स्मरण है, मैं श्रीकृष्ण के प्रभावसे सब कुछ जानता हूँ ॥ 24 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार कहकर शंखचूड चुप हो गया। तब दानवेन्द्रके द्वारा आदरपूर्वक सत्य वचन कहे जानेपर वह तुलसी सन्तुष्ट हो गयी और मन्द मन्द मुसकराती हुई कहने लगी ।। 25 ll
तुलसी बोली- आपने अपने सात्त्विक विचारसे | इस समय मुझे पराजित कर दिया है। संसारमें वह पुरुष धन्य है, जो स्त्रीसे पराजित नहीं होता ॥ 26 ॥जिस पुरुषको स्त्रीने जीत लिया, वह सत्कर्ममें निरत होनेपर भी नित्य अपवित्र है, देवता, पितर तथा मनुष्य सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं॥ 27 ॥
जनन एवं मरणके सूतकमें ब्राह्मण दस दिनमें शुद्ध होता है, क्षत्रिय बारह दिनमें वैश्य पन्द्रह दिनमें और शूद्र एक महीने में शुद्ध होता है-ऐसी वेदकी आज्ञा है, परंतु स्त्रीके द्वारा विजित पुरुष बिना चितादाह हुए कभी भी शुद्ध नहीं होता ॥ 28-29 ॥
उसके तर्पणका जल एवं पिण्ड भी पितरलोग इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते और देवता उसके द्वारा दिये गये पुष्प, फल आदिको ग्रहण नहीं करते हैं। उसके ज्ञान, श्रेष्ठ तप, जप, होम, पूजन, विद्या एवं दानसे क्या लाभ है, जिसके मनको स्त्रियोंने हर लिया हो ? ।। 30-31 ll
मैंने आपकी विद्याका प्रभाव जाननेके लिये ही आपकी परीक्षा ली है; क्योंकि स्वामीकी परीक्षा करके ही स्त्रीको अपने पतिका वरण करना चाहिये ॥ 32 ॥ सनत्कुमार बोले- अभी तुलसी इस प्रकार कह ही रही थी कि जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी वहाँ आ गये और यह वचन कहने लगे - ॥ 33 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे शंखचूड! तुम इसके साथ क्या संवाद कर रहे हो? गान्धर्वविवाहके द्वारा तुम इसको ग्रहण करो ॥ 34 ॥
तुम पुरुषोंमें रत्न हो और यह सती भी स्त्रियों में रत्न है। चतुरोंके साथ चतुरका संगम गुणयुक्त होता है ।। 35 ।।
हे राजन् ! यदि विरोधके बिना ही दुर्लभ सुख प्राप्त होता हो तो ऐसा कौन है, जो उसका त्याग करेगा? जो निर्विरोध सुखका त्याग करनेवाला है, वह पशु है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 36 ॥
हे सति। तुम देवताओं, असुरों तथा दानवोंका मर्दन करनेवाले इस प्रकारके गुणवान् पतिकी परीक्षा क्यों करती हो? ॥ 37॥
हे सुन्दरि ! तुम इसके साथ सभी लोकों में स्थान-स्थानपर चिरकालतक सर्वदा अपनी इच्छाके अनुसार विहार करो। ll 38 llअन्तमें वह गोलोकमें श्रीकृष्णको पुनः प्राप्त करेगा और उसके मर जानेपर तुम भी वैकुण्ठ में चतुर्भुज श्रीकृष्णको प्राप्त करोगी ॥ 39 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार यह आशीर्वाद देकर ब्रह्मा अपने लोकको चले गये और उस दानवने गान्धर्वविवाहके द्वारा उसे ग्रहण किया ॥ 40 ॥ इस प्रकार तुलसीसे विवाहकर वह अपने पिताके घर चला गया और अपने मनोहर भवनमें उस सुन्दरीके साथ रमण करने लगा ॥ 41 ॥