नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! हे विधे! हे महाभाग ! इसके बाद फिर क्या हुआ? मैं वह सब सुनना चाहता हूँ, आप शिवाके चरित्रको कहिये ॥ 1 ब्रह्माजी बोले- हे देवर्षे सुनिये, मैं इस कथाको प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ। यह कथा पापका नाश करनेवाली तथा शिवमें भक्ति बढ़ानेवाली है ॥ 2 ॥ हे द्विज! परमात्मा हरका वचन सुनकर और उनके परमानन्दकारी रूपको देखकर पार्वतीजी परम आनन्दित हो गयीं। स्नेहके कारण उनके नेत्रकमल खिल उठे। उसके बाद वे महासाध्वी सुखी हो प्रसन्नतासे अपने समीप खड़े प्रभुसे कहने लगीं ॥। 3-4 ॥ पार्वती बोलीं- हे देवेश! आप तो मेरे नाथ हैं, क्या आप इस बातको भूल गये कि मेरे ही निमित्त आपने दक्षके यज्ञका विनाश किया था। यद्यपि आप तो वही हैं, किंतु में देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये मेनासे पुनः उत्पन्न हुई हूँ। है देवदेवेश। देवतागण तारक असुरसे इस समय अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं । ll 5-6 ।।
हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझपर कृपा करना चाहते हैं, तो हे महेशान! हे प्रभो! आप मेरे पति बनिये और मेरा वचन मानिये।इस समय आप मुझे पिताके घर जानेकी आज्ञा दें, अब आप अपना विशुद्ध और उत्कृष्ट यश जगत्में प्रसिद्ध करें ।। 7-8 ।।
हे नाथ! हे प्रभो! अनेक लीलाओंको करनेवाले आपको भिक्षु बनकर मेरे पिताके पास जाना चाहिये और उनसे मुझे माँगना चाहिये। आपको अपने यशका लोकमें विस्तार करते हुए ऐसा उपाय करना चाहिये, जिससे मेरे पिताका गृहस्थाश्रम सफल हो जाय। ऋषियोंने मेरे पिताको समझा दिया है, इसलिये बन्धुजनों एवं परिवारसे युक्त मेरे पिता आपकी बात निःसन्देह मान जायँगे ॥ 9-11 ॥
पूर्व समयमें जब मैं दक्षकी कन्या थी, उस समय भी मेरे पिताने मुझे आपको ही दिया था, किंतु उस समय आपने यथोक्त विधिसे मुझसे विवाह नहीं किया था। उस समय मेरे पिता दक्षने विधिपूर्वक ग्रहोंका पूजन नहीं किया था। उन ग्रहोंके कारण ही विवाहमें विघ्न हुआ ॥ 12-13 ॥ अतः हे प्रभो! हे महादेव! देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये आप यथोक्त रीतिसे मेरे साथ विवाह कीजिये ॥ 14 ॥
विवाहकी जो विधि है, उसे अवश्य करना चाहिये, जिससे हिमवान् जान लें कि कि मेरी पुत्रीने उत्तम तपस्या की है ।। 15 ।।
ब्रह्माजी बोले- यह वचन सुनकर सदाशिव अत्यन्त प्रसन्न हो गये और वे हँसते हुए प्रेमपूर्वक पार्वतीसे यह वचन कहने लगे- ॥ 16 ॥
शिवजी बोले- हे देवि हे महेशानि! मेरी उत्तम बात सुनो, जिससे विवाहमें किसी प्रकारकी बाधा न हो, वैसा उचित मंगल कार्य करो। हे भामिनि! इस जगत् में ब्रह्मा आदिसे लेकर जितने स्थावर तथा जंगम पदार्थ दिखायी पड़ते हैं, उन्हें अनित्य तथा नश्वर समझो ।। 17-18 ।।
यह एक निर्गुण ब्रह्म ही सगुण रूप धारणकर अनेक रूपमें परिवर्तित हो गया है, यही स्वयं अपनी सत्तासे प्रकाशित होते हुए भी पर प्रकाशसे युक्त हो गया है। हे देवि! मैं सदा स्वतन्त्र हूँ, पर तुमने मुझे परतन्त्र बना दिया है; क्योंकि सब कुछ करनेवाली | महामाया प्रकृति तुम्हीं हो । 19-20 ।।यह सम्पूर्ण जगत् मायाके द्वारा रचित है और सर्वात्मा परमात्माने अपनी श्रेष्ठ बुद्धिके द्वारा इसे धारण कर रखा है सभी पवित्र आत्माएँ, जो परमात्माके स्वरूपको प्राप्त कर चुकी हैं और सदा मेरे साथ अभेदभावसे रहती हैं, उनसे तथा अपने गुणोंसे यह संसार घिरा हुआ है । ll 21 ॥
हे देवि इस जगत्में तुम्हें छोड़कर न तो कोई ग्रह है, न तो कोई ऋतु है। हे वरवर्णिनि। तुम शिवके लिये ग्रहोंकी बात क्यों करती हो ? ॥ 22 ॥
हम दोनों भक्तोंके लिये भक्तवत्सलतावश गुण कार्यके भेदसे प्रकट हुए हैं। रज, सत्त्व तथा तमोमयी तुम सूक्ष्म प्रकृति हो, निरन्तर जगत्के कार्यमें दक्ष हो और सगुण तथा निर्गुण रूपवाली हो। ll 23-24 ।।
हे सुमध्यमे सभी प्राणियोंकी आत्मा में ही हूँ। मैं सर्वधा निर्विकार तथा निरीह होकर भी भक्तोंके लिये ही शरीर धारण करता हूँ। किंतु हे शैलपुत्रि! मैं तुम्हारे पिता हिमालयके पास नहीं जाऊँगा और न तो भिक्षुकका रूप धारणकर उनसे तुमको माँगूँगा ।। 25-26 ॥
हे गिरिजे! महान् गुणोंसे वरिष्ठ कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह 'दीजिये'- इस शब्दका उच्चारण करते ही लघुताको प्राप्त हो जाता है। है कल्याणि इस बातको जानते हुए भी तुम मुझसे इस प्रकारकी बात क्यों करती हो ? हे भद्रे! यह कार्य तो तुम्हारे आज्ञानुसार ही मुझे करना है, अत: तुम जैसा चाहती हो, वैसा करो ।। 27-28 ।।
ब्रह्माजी बोले- उनके द्वारा यह कहे जानेपर कमलके समान नेत्रोंवाली साध्वी महादेवी भक्तिपूर्वक शंकरजीको बार-बार प्रणामकर उनसे पुनः कहने लगीं- ॥ 29 ॥
पार्वती बोलीं- [हे महेश्वर!] आप आत्मा हैं और मैं प्रकृति हूँ, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। हम दोनों स्वतन्त्र एवं गुणरहित होकर भी भक्तके वशमें होकर सगुण रूप धारण करते रहते हैं ॥ 30 ॥ हे शम्भो ! हे प्रभो! आपको मेरी बात प्रयत्नपूर्वक मान लेनी चाहिये। अतः हे शंकर! आप हिमालयसे याचना कीजिये, मुझे सौभाग्य प्रदान कीजिये ॥ 31 ॥हे महेश्वर ! आप मुझपर दया करें, मैं आपकी नित्य भक्त हूँ। हे नाथ! मैं सदा जन्म-जन्मान्तरकी | आपकी पत्नी हैं। आप ब्रह्म परमात्मा, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, विकाररहित, इच्छारहित, स्वतन्त्र तथा परमेश्वर हैं, तथापि भक्तोंके उद्धारके लिये आप सगुण रूप धारण करते हैं। आप आत्मपरायण होकर भी विहार करनेवाले तथा नाना प्रकारकी लीलामें निपुण हैं। हे महादेव ! हे महेश्वर! मैं आपको सर्वथा जानती हूँ। हे सर्वज्ञ ! बहुत कहने से क्या प्रयोजन, आप मुझपर दया कीजिये ॥ 32-35॥
हे नाथ! आप अद्भुत लीलाकर संसारमें अपने यशका विस्तार कीजिये, जिसका गान करके आपके भक्त इस संसाररूपी समुद्रसे अनायास ही पार हो जायँ ॥ 36 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर गिरिजा शंकरजीको बारंबार हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करके मौन हो गयीं ॥ 37 ॥
पार्वतीने जब इस प्रकार कहा, तब लोकविडम्बनाके निमित्त शंकरजीने हँसते हुए प्रसन्न होकर ऐसा ही होगा - यह कहकर वे वैसा करनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 38 ॥
उसके बाद वे शम्भु प्रसन्न हो अन्तर्धान हो गये और कालीके विरहसे आकृष्टचित्तवाले वे कैलासको चले गये ।॥ 39 ॥
वहाँ जाकर उन महेश्वरने परमानन्दमें निमग्न हो यह सारा वृत्तान्त नन्दीश्वरादि गणोंको बताया ॥ 40 ॥ इस वृत्तान्तको सुनकर वे सम्पूर्ण भैरवादि गण भी बहुत सुखी हुए और महान् उत्सव करने लगे ॥ 41 ॥
हे नारद! उस समय वहाँ महामंगल होने लगा, सबका दुःख दूर हो गया और रुद्रको भी परम प्रसन्नता हुई ॥ 42 ॥