व्यासजी बोले- हे महाप्राज्ञ! भद्रकालीके वचनको सुनकर शिवजीने क्या कहा और क्या किया ? उसे आप तत्त्वतः कहिये, मुझे सुननेको बड़ी ही उत्सुकता है ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- कालीके द्वारा कहे गये वचनको सुनकर महान् लीला करनेवाले कल्याणकारी परमेश्वर शम्भु उन कालीको आश्वस्त करते हुए हँसने लगे ॥ 2 ॥
तत्त्वज्ञानविशारद शिवजी आकाशवाणीको सुनकर अपने गणोंको साथ लेकर स्वयं युद्धस्थलमें गये ॥ 3 ॥वीरभद्रादि गणों एवं अपने समान भैरवों तथा क्षेत्रपालोंको साथ लिये हुए महावृषभपर आरूढ़ होकर महेश्वर वीररूप धारणकर युद्धभूमिमें पहुँचे। उस समय वे रुद्र मूर्तिमान् काल ही प्रतीत हो रहे थे ।। 4-5 ।।
शंखचूडने शिवजीको देखकर विमानसे उतरकर परमभक्तिपूर्वक भूमिमें गिरकर सिरसे उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। उन्हें प्रणाम करके वह योगमार्गसे पुनः विमानपर जा चढ़ा और शीघ्र ही उसने कवच धारणकर धनुष-बाण उठा लिया ।। 6-7 ॥
उसके बाद शिव तथा उन दानवोंका सौ वर्षपर्यन्त घनघोर युद्ध होता रहा, जिसमें निरन्तर वर्षा करते हुए मेघोंके समान बाणोंकी वर्षा हो रही थी। महावीर शंखचूड शिवजीपर दारुण बाण छोड़ रहा था, किंतु शंकरजी अपने बाणोंसे उन्हें छिन्न-भिन्न कर देते थे । ll 8-9 ॥
दुष्टोंको दण्ड देनेवाले तथा सज्जनोंके रक्षक विरूपाक्ष महारुद्रने अत्यन्त क्रोधपूर्वक अपने शस्त्रसमूहाँसे उसके अंगोंपर प्रहार किया। उस दानवने भी वेगयुक्त होकर अपनी तीक्ष्ण तलवार एवं ढाल लेकर शिवजीके श्रेष्ठ वाहन वृषभके सिरपर प्रहार किया ।। 10-11 वृषभपर प्रहार किये जानेपर शंकरजीने तीक्ष्ण धारवाले छूरेसे लीलापूर्वक शीघ्र ही उसके खड्ग एवं अति उज्ज्वल ढालको काट दिया ॥ 12 ॥ तब ढालके कट जानेपर उस दानवने शक्ति चलायी, किंतु शिवजीने अपने बाणसे सामने आयी हुई उस शक्तिके दो टुकड़े कर दिये ॥ 13 ॥
तब क्रोधसे व्याकुल दानव शंखचूडने चक्रसे प्रहार किया, किंतु शिवजीने सहसा अपनी मुष्टिके प्रहारसे उसे भी चूर्ण कर दिया। इसके बाद उसने शिवजीपर बड़े वेग से गदासे प्रहार किया, किंतु शिवजीने उसे भी छिन्न-भिन्न करके भस्म कर दिया ।। 14-15 ।।
तब क्रोधसे व्याकुल दानवेश्वर शंखचूड हाथमें | परशु लेकर वेगसे शिवजीकी ओर दौड़ा। शंकरने बड़ी शीघ्रतासे लीलापूर्वक अपने बाणसमूहों से हाथमें | परशु लिये हुए उस असुरको आहतकर पृथ्वीपर गिरा दिया ।। 16-17।।तत्पश्चात् थोड़ी ही देरमें वह सचेत हो रथपर आरूढ़ होकर दिव्य आयुध एवं बाण धारणकर समस्त आकाशमण्डलको व्याप्तकर शोभित होने लगा ॥ 18 ॥
उसे अपनी ओर आता हुआ देखकर शिवजीने आदरपूर्वक डमरू बजाया और धनुषकी प्रत्यंचाकी दुःसह ध्वनि भी की। प्रभु गिरीशने श्रृंगनादके द्वारा सारी दिशाएँ पूरित कर दी और स्वयं असुरोको भयभीत करते हुए गर्जना करने लगे । ll 19-20 ।।
नन्दीश्वरने हाथीके महागर्वको छुड़ा देनेवाले महानादोंसे सहसा पृथ्वी, आकाश तथा आठों दिशाओंको पूर्ण कर दिया। महाकालने बड़ी तेजी से दौड़कर अपने दोनों हाथोंको पृथ्वी एवं आकाशपर पटक दिया, जिससे पहलेके शब्द तिरोहित हो गये । ll 21-22 ।। इसी प्रकार उस महायुद्धमें क्षेत्रपालने अशुभसूचक अट्टहास किया तथा भैरवने भी नाद किया ॥ 23 ॥ युद्धस्थलमें महान कोलाहल होने लगा और गणोंके मध्यमें चारों ओर सिंहगर्जना होने लगी ॥ 24 ॥
उन भयदायक एवं कर्कश शब्दोंसे सभी दानव व्याकुल हो उठे। महाबलवान् दानवेन्द्र उसे सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। जब शिवजीने कहा-रे दुष्ट! खड़ा रह, खड़ा रह, उसी समय देवताओं एवं गणोंने भी शीघ्र जय-जयकार की। इसके बाद महाप्रतापी दम्भपुत्रने आकर ज्वाला मालाके समान अत्यन्त भीषण शक्ति शिवजीपर चलायी ।। 25-27 ॥
क्षेत्रपालने अग्निज्वालाके समान आती हुई उस | शक्तिको बड़ी शीघ्रतासे युद्धमें आगे बढ़कर अपने मुखसे उत्पन्न उल्कासे नष्ट कर दिया। उसके अनन्तर पुन: शिवजी एवं उस दानवका महाभयंकर युद्ध होने लगा, जिससे पर्वत, समुद्र एवं जलाशयोंके सहित पृथ्वी एवं द्युलोक कम्पित हो उठे। दम्भपुत्र शंखचूडके द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणोंको शिवजी अपने उम्र बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर रहे थे तथा शिवजीके द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणोंको वह भी अपने उग्र बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर देता था ॥ 28-30 ॥
तब शिवजीने अत्यधिक क्रोधित हो अपने त्रिशूलसे दानवपर प्रहार किया, उसके प्रहारको सहनेमें असमर्थ वह मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ 31 ॥इसके बाद क्षणमात्रमें ही चेतना प्राप्तकर वह असुर धनुष लेकर बाणोंसे शिवजीपर प्रहार करने लगा ॥ 32 ॥
उस प्रतापी दानवराज शंखचूडने दस हजार भुजाओंका निर्माणकर दस हजार चक्रोंसे शंकरजीको ढक दिया। तदनन्तर कठिन दुर्गतिके नाशकर्ता दुर्गापति शंकरजीने कुपित होकर अपने श्रेष्ठ बाणोंसे शीघ्र ही उन चक्रोंको काट दिया। तब बहुत सारी सेनासे घिरा हुआ वह दानव बड़े वेग से सहसा गदा उठाकर शंकरजीको मारनेके लिये दौड़ा ॥ 33-35 ॥
दुष्टोंके गर्वको नष्ट करनेवाले शिवजीने क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाली तलवारसे शीघ्र ही उसकी गदा भी काट दी। तब अपनी गदाके छिन्न-भिन्न हो जानेपर उस दानवको बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और उस तेजस्वीने शत्रुओंके लिये असह्य अपना प्रचलित त्रिशूल धारण किया। शिवजीने हाथमें त्रिशूल लेकर आते हुए उस सुदर्शन दनुजेश्वरके हृदयमें बड़े वेग से अपने त्रिशूलसे प्रहार किया ॥ 36-38 ॥
तब त्रिशूलसे विदीर्ण शंखचूडके हृदयसे एक पराक्रमी श्रेष्ठ पुरुष निकला और 'खड़े रहो, खड़े रहो'- इस प्रकार कहने लगा ॥ 39 ॥
उसके निकलते ही शिवजीने हँसकर शीघ्र अपने खड्गसे उसके शब्द करनेवाले भयंकर सिरको काट दिया, जिससे वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। इधर कालीने अपना उग्र मुख फैलाकर बड़े क्रोधसे अपने दाँतोंसे उन असुरोंके सिरोंको पीस पीसकर चबाना प्रारम्भ कर दिया । ll 40-41 ।।
इसी प्रकार क्षेत्रपाल भी क्रोधमें भरकर अनेक असुरोंको खाने लगे और जो अन्य शेष बचे, वे भैरवके अस्वसे छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गये ।। 42 ।।
वीरभद्रने क्रोधपूर्वक दूसरे बहुत-से वीरोंको नष्ट कर दिया एवं नन्दीश्वरने अन्य बहुत-से देवशत्रु असुरोंको मार डाला। इसी प्रकार उस समय शिवजीके बहुत-से गणोंने देवताओंको कष्ट देनेवाले अनेक दैत्यों तथा असुरोंको नष्ट कर दिया ।। 43-44 ।।इस प्रकार उसकी बहुत-सी सेना नष्ट हो गयी और भयसे व्याकुल हुए अनेक दूसरे वीर भाग गये ॥ 45 ॥