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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 8, अध्याय 4 - Sanhita 8, Adhyaya 4

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शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन

श्रीकृष्णने पूछा- भगवन् ! अमित तेजस्वी भगवान् शिवकी मूर्तियोंने इस सम्पूर्ण जगत्को जिस प्रकार व्याप्त कर रखा है, वह सब मैंने सुना । अब मुझे यह जाननेकी इच्छा है कि परमेश्वरी शिवा और परमेश्वर शिवका यथार्थ स्वरूप क्या है, उन दोनोंने स्त्री और पुरुषरूप इस जगत्‌को किस प्रकार व्याप्त कर रखा है ? ।। 1-2 ॥

उपमन्यु बोले- देवकीनन्दन ! मैं शिवा और शिवके श्रीसम्पन्न ऐश्वर्यका और उन दोनोंके यथार्थ स्वरूपका संक्षेपसे वर्णन करूँगा। विस्तारपूर्वक इस विषयका वर्णन तो भगवान् शिव भी नहीं कर सकते ॥ 3 ॥

साक्षात् महादेवी पार्वती शक्ति हैं और महादेवजी शक्तिमान्। उन दोनोंकी विभूतिका लेशमात्र ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्के रूपमें स्थित है। यहाँ कोई वस्तु जडरूप है और कोई वस्तु चेतनरूप। वे दोनों क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध तथा पर और अपर कहे गये हैं ॥ 4-5 ll

जो चिन्मण्डल जडमण्डलके साथ संयुक्त हो संसारमें भटक रहा है, वही अशुद्ध और अपर कहा गया है। उससे भिन्न जो जडके बन्धनसे मुक्त हैं, वह पर और शुद्ध कहा गया है। अपर और पर चिदचित्स्वरूप हैं, इनपर स्वभावतः शिव और शिवाका स्वामित्व है ॥ 6-7 ll

शिवा और शिवके ही वशमें यह विश्व है। विश्वके वशमें शिवा और शिव नहीं हैं। यह जगत् शिव और शिवाके शासनमें है, इसलिये वे दोनों इसके ईश्वर या विश्वेश्वर कहे गये हैं॥ 8 ॥

जैसे शिव हैं वैसी शिवादेवी हैं, तथा जैसी शिवादेवी हैं, वैसे ही शिव हैं। जिस तरह चन्द्रमा और उनकी चाँदनीमें कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार शिव और शिवामें कोई अन्तर न समझे। जैसे चन्द्रिकाके बिना ये चन्द्रमा सुशोभित नहीं होते, उसी प्रकार शिव विद्यमान होनेपर भी शक्तिके बिना सुशोभित नहीं होते ll 9-10 ।।जैसे ये सूर्यदेव कभी प्रभाके बिना नहीं रहते और प्रभा भी उन सूर्यदेवके बिना नहीं रहती, निरन्तर उनके आश्रयमें ही रहती है, उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान्को सदा एक दूसरेकी अपेक्षा होती है। न तो शिवके बिना शक्ति रह सकती है और न शक्तिके बिना शिव जिसके द्वारा शिव सदा देहधारियोंको भोग और मोक्ष देनेमें समर्थ होते हैं, वह आद्या अद्वितीया चिन्मयी पराशक्ति शिवके ही आश्रित है ll 11 - 13 ll

ज्ञानी पुरुष उसी शक्तिको सर्वेश्वर परमात्मा शिवके अनुरूप उन उन अलौकिक गुणोंके कारण उनकी समधर्मिणी कहते हैं। वह एकमात्र चिन्मयी पराशक्ति सृष्टिधर्मिणी है। वही शिवकी इच्छासे विभागपूर्वक नाना प्रकारके विश्वकी रचना करती है ।। 14-15 ll

वह शक्ति मूलप्रकृति माया और त्रिगुणा तीन प्रकारकी बतायी गयी है, उस शक्तिरूपिणी शिवाने ही इस जगत्का विस्तार किया है। व्यवहारभेदसे शक्तियोंक एक-दो सौ हजार एवं बहुसंख्यक भेद हो जाते हैं। शिवकी इच्छासे पराशक्ति शिवतत्त्वके साथ एकताको प्राप्त होती है। तदुपरान्त कल्पके आदिमें उसी प्रकार सृष्टिके प्रसंगमें शक्तिका प्रादुर्भाव होता है, जैसे तिलसे तेलका ॥ 16-18 ॥

तदनन्तर शक्तिमान्से शक्तिमें क्रियामयी शक्ति प्रकट होती है उसके विक्षुब्ध होनेपर आदिकालमें पहले नादकी उत्पत्ति हुई। फिर नादसे बिन्दुका प्राकट्य हुआ और बिन्दुसे सदाशिव देवका । उन सदाशिवसे महेश्वर प्रकट हुए और महेश्वरसे शुद्ध विद्या ।। 19-20 ।।

वह वाणीकी ईश्वरी है। इस प्रकार त्रिशूलधारी महेश्वरसे वागीश्वरी नामक शक्तिका प्रादुर्भाव हुआ जो वर्णों (अक्षरों) के रूपमें विस्तारको प्राप्त होती है और मातृका कहलाती है। तदनन्तर अनन्तके समावेशसे मायने काल, नियति, कला और विद्याकी सृष्टि की। कलासे राग तथा पुरुष हुए। फिर मायासे ही त्रिगुणात्मिका अव्यक प्रकृति हुई। उस त्रिगुणात्मक अव्यक्त तीनों गुण पृथक्-पृथक् प्रकट हुए ॥ 21-23 ॥उनके नाम हैं—सत्त्व, रज और तम इनसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। गुणोंमें क्षोभ होनेपर उनसे गुणेश नामक तीन मूर्तियाँ प्रकट हुईं। साथ ही 'महत्' आदि तत्त्वोंका क्रमशः प्रादुर्भाव हुआ। उन्हींसे शिवकी आज्ञाके अनुसार असंख्य अण्ड- पिण्ड प्रकट होते हैं, जो अनन्त आदि विद्येश्वर चक्रवर्तियोंसे अधिष्ठित हैं । ll 24-25 ।।

शरीरान्तरके भेदसे शक्तिके बहुत-से भेद कहे गये हैं। स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे उनके अनेक रूप जानने चाहिये। रुद्रकी शक्ति रौद्री विष्णुकी वैष्णवी, ब्रह्माकी ब्रह्माणी और इन्द्रकी इन्द्राणी कहलाती है ।। 26-27 ।।

यहाँ बहुत कहने से क्या लाभ - जिसे विश्व कहा गया है, वह उसी प्रकार शक्त्यात्मासे व्याप्त है, जैसे शरीर अन्तरात्मासे अतः सम्पूर्ण स्थावर जंगमरूप जगत् शक्तिमय है। यह पराशक्ति परमात्मा शिवकी कला कही गयी है। इस तरह यह पराशक्ति ईश्वरकी इच्छाके अनुसार चलकर चराचर जगत्की सृष्टि करती है, ऐसा विज्ञ पुरुषोंका निश्चय है॥ 28-30 ॥

ज्ञान, क्रिया और इच्छा- अपनी इन तीन शक्तियोंद्वारा शक्तिमान् ईश्वर सदा सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित होते हैं। यह इस प्रकार हो और यह इस प्रकार न हो इस तरह कार्योंका नियमन करनेवाली महेश्वरकी | इच्छाशक्ति नित्य है। ll 31-32 ll

उनकी जो ज्ञानशक्ति है, वह बुद्धिरूप होकर कार्य, करण, कारण और प्रयोजनका ठीक-ठीक निश्चय करती है; तथा शिवकी जो क्रियाशक्ति है, वह संकल्परूपिणी होकर उनकी इच्छा और निश्चयके अनुसार कार्यरूप सम्पूर्ण जगत्की क्षणभरमें कल्पना कर देती है । ll 33-34 ॥

इस प्रकार तीनों शक्तियोंसे जगत्‌का उत्थान होता है। प्रसव-धर्मवाली जो शक्ति है, वह पराशक्तिसे प्रेरित होकर ही सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करती है। इस तरह शक्तियों के संयोगसे शिव शक्तिमान् कहलाते हैं। शक्ति और शक्तिमान्से प्रकट होनेके कारण यह जगत् शाक्त और शैव कहा गया है। जैसे माता-पिताके बिना पुत्रका जन्म नहीं होता, उसी प्रकार भव और भवानीके बिना इस चराचर जगत्की उत्पत्ति नहीं होती ॥ 35-37 ॥स्त्री और पुरुषसे प्रकट हुआ जगत् स्त्री और पुरुष-रूप ही है; यह स्त्री और पुरुषको विभूति है, अतः स्त्री और पुरुषसे अधिष्ठित है। इनमें शक्तिमान् | पुरुषरूप शिव तो परमात्मा कहे गये हैं और स्त्रीरूपिणी शिवा उनकी पराशक्ति शिव सदाशिव कहे गये हैं। और शिवा मनोमनी शिवको महेश्वर जानना चाहिये और शिवा माया कहलाती हैं ॥ 38-39 ॥

परमेश्वर शिव पुरुष हैं और परमेश्वरी शिवा प्रकृति महेश्वर शिव रुद्र हैं और उनकी वल्लभा शिवादेवी रुद्राणी विश्वेश्वर देव विष्णु हैं और उनकी प्रिया लक्ष्मी जब सृष्टिकर्ता शिव ब्रह्मा कहलाते हैं, तब उनकी प्रियाको ब्रह्माणी कहते हैं। भगवान् शिव भास्कर हैं और भगवती शिवा प्रभा। कामनाशन शिव महेन्द्र हैं और गिरिराजनन्दिनी उमा शची महादेवजी अग्नि हैं और उनकी अर्धागिनी उमा स्वाहा । भगवान् त्रिलोचन यम हैं और गिरिराज नन्दिनी उमा यमप्रिया । भगवान् शंकर निर्ऋति हैं और पार्वती नैर्ऋती। भगवान् रुद्र वरुण हैं और पार्वती वारुणी चन्द्रशेखर शिव बायु हैं और पार्वती वायुप्रिया शिव यक्ष हैं और पार्वती ऋद्धि ।। 40-45 ।।

चन्द्रार्धशेखर शिव चन्द्रमा हैं और रुद्रवल्लभा उमा रोहिणी परमेश्वर शिव ईशान हैं और परमेश्वरी शिवा उनकी पत्नी नागराज अनन्तको वलयरूपमें धारण करनेवाले भगवान् शंकर अनन्त हैं और उनकी बल्लभा शिवा अनन्ता कालशत्रु शिव कालाग्निरुद्र हैं और [उमा] कालान्तकप्रिया काली हैं। जिनका दूसरा नाम पुरुष है, ऐसे स्वायम्भुव मनुके रूपमें साक्षात् शम्भु ही हैं और शिवप्रिया उमा शतरूपा हैं। साक्षात् महादेव दक्ष हैं और परमेश्वरी पार्वती प्रसूति । भगवान् भव रुचि हैं और भवानीको ही विद्वान् पुरुष आकृति कहते हैं। महादेवजी भृगु हैं और पार्वती ख्याति । भगवान् रुद्र मरीचि हैं और शिववल्लभा सम्भूति। भगवान् गंगाधर अंगिरा हैं और साक्षात् उमा | स्मृति । चन्द्रमौलि पुलस्त्य हैं और पार्वती प्रीति । त्रिपुरनाशक शिव पुलह हैं और पार्वती ही उनकी प्रिया [पुलहपत्नी] हैं ॥ 46-51 ॥यज्ञविध्वंसी शिव ऋतु कहे गये हैं और उनकी प्रिया पार्वती संनति । भगवान् शिव अत्रि हैं और साक्षात् उमा अनसूया कालहन्ता शिव कश्यप हैं और महेश्वरी उमा देवमाता अदिति। कामनाशन शिव वसिष्ठ हैं और साक्षात् देवी पार्वती अरुन्धती । भगवान् शंकर ही संसारके सारे पुरुष हैं और महेश्वरी शिवा ही सम्पूर्ण स्त्रियाँ अतः सभी स्त्री-पुरुष उन्होंकी विभूतियाँ हैं। ll 52-54 ll

भगवान् शिव विषयी हैं और परमेश्वरी उमा विषय। जो कुछ सुननेमें आता है वह सब उमाका रूप है और श्रोता साक्षात् भगवान् शंकर हैं। जिसके विषयमें प्रश्न या जिज्ञासा होती है, उस समस्त वस्तु समुदायका रूप शंकरवल्लभा शिवा स्वयं धारण करती हैं तथा पूछनेवाला जो पुरुष है, वह बालचन्द्रशेखर विश्वात्मा शिवरूप ही है ।। 55-56 ॥

भववल्लभा उमा ही द्रष्टव्य वस्तुओंका रूप धारण करती हैं और द्रष्टा पुरुषके रूपमें शशिखण्डमॉलि भगवान् विश्वनाथ ही सब कुछ देखते हैं। सम्पूर्ण रसकी राशि महादेवी हैं और उस रसका आस्वादन करनेवाले मंगलमय महादेव हैं। प्रेमसमूह पार्वती हैं और प्रियतम विषभोजी शिव हैं। देवी महेश्वरी सदा मन्तव्य वस्तुओंका स्वरूप धारण करती हैं और विश्वात्मा महेश्वर महादेव उन वस्तुओंके मन्ता (मनन करनेवाले) हैं। भववल्लभा पार्वती बोद्धव्य (जाननेयोग्य) वस्तुओंका स्वरूप धारण करती हैं और शिशु शशिशेखर भगवान् महादेव ही उन वस्तुओंके ज्ञाता हैं ॥ 57-60 ॥

सामर्थ्यशाली भगवान् पिनाकी सम्पूर्ण प्राणियोंकि प्राण हैं और सबके प्राणोंकी स्थिति जलरूपिणी माता पार्वती है। त्रिपुरान्तक पशुपतिकी प्राणवल्लभा पार्वती देवी जब क्षेत्रका स्वरूप धारण करती हैं, तब कालके भी काल भगवान् महाकाल क्षेत्रज्ञरूपमें स्थित होते हैं शूलधारी महादेवजी दिन हैं तो शूलपाणिप्रिया पार्वती रात्रि कल्याणकारी महादेवजी आकाश हैं। और शंकरप्रिया पार्वती पृथिवी भगवान् महेश्वर समुद्र हैं तो गिरिराज- कन्या शिवा उसकी तटभूमि हैं। वृषभध्वज महादेव वृक्ष हैं, तो विश्वेश्वरप्रिया उमा | उसपर फैलनेवाली लता हैं ॥ 61-64 ॥भगवान् त्रिपुनाशक] महादेव सम्पूर्ण पुल्लिंगरूपको स्वयं धारण करते हैं और महादेवमनोरमा देवी शिवा सारा स्त्रीलिंगरूप धारण करती हैं। शिववल्लभा शिवा समस्त शब्दजालका रूप धारण करती हैं और बालेन्दुशेखर शिव सम्पूर्ण अर्थका जिस जिस पदार्थकी जो-जो शक्ति कही गयी है, वह वह शक्ति तो विश्वेश्वरी देवी शिवा हैं और वह वह सारा पदार्थ साक्षात् महेश्वर हैं। जो सबसे परे है जो पवित्र है, जो पुण्यमय है तथा जो मंगलरूप है, उस उस वस्तुको महाभाग महात्माओंने उन्हीं दोनों शिव-पार्वती के तेजसे विस्तारको प्राप्त हुई बताया है ॥ 65—68 ॥

जैसे जलते हुए दीपककी शिखा समूचे परको प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शिव-पार्वतीका ही यह तेज व्याप्त होकर सम्पूर्ण जगत्को प्रकाश दे रहा है। तृणसे लेकर शिवकी मूर्तिपर्यन्त इस विश्वका व्यवहार उन्हीं दोनोंके सन्निकर्षके कारण चल रहा है-ऐसा परा श्रुति कहती है । 69-70 ।।

ये दोनों शिवा और शिव सर्वरूप हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं; अतः सदा ही इन दोनोंका पूजन, नमन एवं चिन्तन करना चाहिये ॥ 71 ॥

श्रीकृष्ण! आज मैंने तुम्हारे समक्ष अपनी बुद्धिके अनुसार परमेश्वर शिव और शिवाके यथार्थ स्वरूपका वर्णन किया है, परंतु इयत्तापूर्वक नहीं; अर्थात् इस वर्णनसे यह नहीं मान लेना चाहिये कि इन दोनोंके यथार्थरूपका पूर्णतः वर्णन हो गया; क्योंकि इनके स्वरूपकी इयत्ता (सीमा) नहीं है ॥ 72 ॥

जो समस्त महापुरुषोंके भी मनकी सीमासे परे है, परमेश्वर शिव और शिवाके उस यथार्थ स्वरूपका वर्णन कैसे किया जा सकता है ! ॥ 73 ॥

जिन्होंने अपने चितको महेश्वरके चरणोंमें अर्पित कर दिया है तथा जो उनके अनन्यभक्त हैं, उनके ही मनमें वे आते हैं और उन्हींकी बुद्धिमें आरूढ़ होते हैं। दूसरोंकी बुद्धिमें वे आरूढ़ नहीं होते ॥ 74 ॥

यहाँ मैंने जिस विभूतिका वर्णन किया है, वह प्राकृत है, इसलिये अपरा मानी गयी है। इससे भिन्न जो अप्राकृत एवं परा विभूति है, वह गुह्य है। उनके गुह्य रहस्यको जाननेवाले पुरुष ही उन्हें जानते हैं ॥ 75 ॥परमेश्वरकी यह अप्राकृत परा विभूति वह है, जहाँसे मन और इन्द्रियोंसहित वाणी लौट आती है। परमेश्वरकी वही विभूति यहाँ परम धाम है, वही यहाँ परमगति है और वही यहाँ पराकाष्ठा है ।। 76-77 ।।

जिस प्रकार गर्भाशयरूप निश्छिद्र कारागारमें शिशु श्वासको अवरुद्धकर स्थित होता है, वैसे ही जो अपने श्वास और इन्द्रियोंपर विजय पा चुके हैं, वे योगीजन ही उन्हें पानेका प्रयत्न करते हैं। शिवा और शिवकी यह विभूति संसाररूपी विषधर सर्पके इसनेसे मृत्युके अधीन हुए मानवोंके लिये संजीवनी ओषधि है। इसे जाननेवाला पुरुष किसीसे भी भयभीत नहीं होता ।। 78-79 ॥

जो इस परा और अपरा विभूतिको ठीक-ठीक जान लेता है, वह अपरा विभूतिको लाँघकर परा विभूतिका अनुभव करने लगता है ॥ 80 ॥

श्रीकृष्ण ! यह तुमसे परमात्मा शिव और पार्वतीके यथार्थ स्वरूपका गोपनीय होनेपर भी वर्णन किया गया है; क्योंकि तुम भगवान् शिवकी भक्तिके योग्य हो जो शिष्य न हों, शिवके उपासक न हों और भक्त भी न हों, ऐसे लोगोंको कभी शिव पार्वतीकी इस विभूतिका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह वेदकी आज्ञा है ।। 81-82 ।।

अतः अत्यन्त कल्याणमय श्रीकृष्ण! तुम दूसरोंको इसका उपदेश न देना। जो तुम्हारे जैसे योग्य पुरुष हों, उन्हींसे कहना; अन्यथा मौन ही रहना ॥ 83 ॥ जो शिवा शिवकी इस विभूतिको योग्य भक्तोंको प्रदान करता है, वह संसार सागरसे मुक्त होकर शिवसायुज्य प्राप्त करता है। इसके कीर्तनसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं; तीन-चार बार इसका अभ्यास करनेसे उससे भी अधिक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसके द्वारा विनाशकारी शत्रु नष्ट हो जाते हैं, सुहृदोंकी वृद्धि होती है, शैवी विद्या बढ़ती है, बुद्धि सत्यमें प्रवृत्त होती है और शिव-पार्वती गणों तथा उनके अनुचरोंके प्रति श्रेष्ठ भक्ति उत्पन्न होती है। व्यक्तिका जो-जो अन्य परम अभीष्ट होता है, उसे वह निःसन्देह प्राप्त कर लेता है ।। 84-87 ॥जो भीतरसे पवित्र, शिवका भक्त और विश्वासी हो, वह यदि इसका कीर्तन करे तो मनोवांछित फलका भागी होता है। यदि पहलेके प्रबल प्रति बन्धक कर्मोंद्वारा प्रथम बार फलकी प्राप्तिमें बाधा पड़ जाय, तो भी बारंबार साधनका अभ्यास करना चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुषके लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ 88 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं उनके उपलिंगोंके माहात्म्यका वर्णन
  2. [अध्याय 2] काशीस्थित तथा पूर्व दिशामें प्रकटित विशेष एवं सामान्य लिंगोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] अत्रीश्वरलिंगके प्राकट्यके प्रसंगमें अनसूया तथा अत्रिकी तपस्याका वर्णन
  4. [अध्याय 4] अनसूयाके पातिव्रतके प्रभावसे गंगाका प्राकट्य तथा अत्रीश्वरमाहात्म्यका वर्णन
  5. [अध्याय 5] रेवानदीके तटपर स्थित विविध शिवलिंग-माहात्म्य वर्णनके क्रममें द्विजदम्पतीका वृत्तान्त
  6. [अध्याय 6] नर्मदा एवं नन्दिकेश्वरके माहात्म्य-कथनके प्रसंगमें ब्राह्मणीकी स्वर्गप्राप्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] नन्दिकेश्वरलिंगका माहात्म्य- वर्णन
  8. [अध्याय 8] पश्चिम दिशाके शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें महाबलेश्वरलिंग का माहात्म्य कथन
  9. [अध्याय 9] संयोगवश हुए शिवपूजनसे चाण्डालीकी सद्गतिका वर्णन
  10. [अध्याय 10] महाबलेश्वर शिवलिंगके माहात्म्य वर्णन प्रसंगमें राजा मित्रसहकी कथा
  11. [अध्याय 11] उत्तरदिशामें विद्यमान शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें चन्द्रभाल एवं पशुपतिनाथलिंगका माहात्म्य वर्णन
  12. [अध्याय 12] हाटकेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] अन्धकेश्वरलिंगकी महिमा एवं बटुककी उत्पत्तिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] सोमनाथ ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्तिका वृत्तान्त
  15. [अध्याय 15] मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति-कथा
  16. [अध्याय 16] महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्यका वर्णन
  17. [अध्याय 17] महाकाल ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य वर्णनके क्रममें राजा चन्द्रसेन तथा श्रीकर गोपका वृत्तान्त
  18. [अध्याय 18] ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  19. [अध्याय 19] केदारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्य एवं माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य वर्णन-प्रसंग में भीमासुर के उपद्रव का वर्णन
  21. [अध्याय 21] भीमशंकर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति तथा उसके माहात्म्यका वर्णन
  22. [अध्याय 22] परब्रह्म परमात्माका शिव-शक्तिरूपमें प्राकट्य, पंचक्रोशात्मिका काशीका अवतरण, शिवद्वारा अविमुक्त लिंगकी स्थापना, काशीकी महिमा तथा काशीमें रुद्रके आगमनका वर्णन
  23. [अध्याय 23] काशीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यके प्रसंगमें काशीमें मुक्तिक्रमका वर्णन
  24. [अध्याय 24] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य प्रसँगमें गौतमऋषिकी परोपकारी प्रवृत्तिका वर्णन
  25. [अध्याय 25] मुनियोंका महर्षि गौतमके प्रति कपटपूर्ण व्यवहार
  26. [अध्याय 26] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा गौतमी गंगाके प्रादुर्भावका आख्यान
  27. [अध्याय 27] गौतमी गंगा एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगका माहात्म्यवर्णन
  28. [अध्याय 28] वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  29. [अध्याय 29] दारुकावनमें राक्षसोंके उपद्रव एवं सुप्रिय वैश्यकी शिवभक्तिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] नागेश्वर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति एवं उसके माहात्म्यका वर्णन
  31. [अध्याय 31] रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  32. [अध्याय 32] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यमें सुदेहा ब्राह्मणी एवं सुधर्मा ब्राह्मणका चरित-वर्णन
  33. [अध्याय 33] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं शिवालयके नामकरणका आख्यान
  34. [अध्याय 34] हरीश्वरलिंगका माहात्म्य और भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्र प्राप्त करनेकी कथा
  35. [अध्याय 35] विष्णुप्रोक्त शिवसहस्रनामस्तोत्र
  36. [अध्याय 36] शिवसहस्त्रनामस्तोत्रकी फल- श्रुति
  37. [अध्याय 37] शिवकी पूजा करनेवाले विविध देवताओं, ऋषियों एवं राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवान् शिवके विविध व्रतोंमें शिवरात्रिव्रतका वैशिष्ट्य
  39. [अध्याय 39] शिवरात्रिव्रतकी उद्यापन विधिका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिवरात्रिव्रतमाहात्म्यके प्रसंगमें व्याध एवं मृगपरिवारकी कथा तथा व्याधेश्वरलिंगका माहात्म्य
  41. [अध्याय 41] ब्रह्म एवं मोक्षका निरूपण
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवके सगुण और निर्गुण स्वरूपका वर्णन
  43. [अध्याय 43] ज्ञानका निरूपण तथा शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहिताके श्रवणादिका माहात्म्य