ब्रह्माजी बोले- इसी समय वहाँ गर्गाचार्यमे प्रेरित हो मेनासहित हिमवान् कन्यादान करने हेतु उद्यत हुए ॥ 1 ॥
उस समय वस्त्र तथा आभूषणोंसे शोभित महाभागा मेना सोनेका कलश लेकर पति हिमवान्के दाहिने भागमें बैठ गयीं। तत्पश्चात् पुरोहितके सहित हिमालयने प्रसन्न होकर पाद्य आदिसे और वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणसे उन वरका वरण किया ।। 2-3 ।।
इसके बाद हिमालयने ब्राह्मणोंसे कहा- अब [कन्या- दानका] यह समय उपस्थित हो गया है, अतः आपलोग संकल्पके लिये तिथि आदिका उच्चारण कीजिये। उनके यह कहनेपर कालके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मण निश्चिन्त होकर प्रेमपूर्वक तिथि आदिका उच्चारण करने लगे ।। 4-5 ।।
तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर शम्भुके द्वारा हृदयसे प्रेरित हुए हिमालयने हँसते हुए प्रसन्नताके साथ शिवजीसे कहा- हे शम्भो ! अब आप अपने गोत्र, प्रवर, कुल, नाम, वेद तथा शाखाको कहिये, विलम्ब मत कीजिये ।। 6-7 ॥ब्रह्माजी बोले- उन हिमालयकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर प्रसन्न होते हुए भी उदास हो गये और शोकके योग्य न होते हुए भी शोकयुक्त हो गये ॥ 8 ॥
उस समय श्रेष्ठ देवताओं, मुनियों, गन्धव यक्षों तथा सिद्धोंने जब शंकरको निरुत्तरमुख देखा, तब हे नारद! आपने सुन्दर हास्य किया। हे नारद! उस समय ब्रह्मवेत्ता तथा शिवजीमें आसक्त चित्तवाले आपने शिवजीके द्वारा मनसे प्रेरित होकर वीणा बजायी। उस समय पर्वतराज, विष्णु, मैंने देवताओं तथा सभी मुनियोंने आप बुद्धिमान्को ऐसा करनेसे हठपूर्वक रोका ॥ 9-11 ॥
किंतु जब शिवजीकी इच्छासे आप नहीं माने, तब [पुनः] हिमालयने आपसे कहा - इस समय आप वीणा मत बजाइये। हे बुद्धिमान्! हे देवर्षे ! जब उन्होंने हठपूर्वक आपको मना किया, तब आप महेश्वरका स्मरण करके हिमालयसे कहने लगे-॥ 12-13 ।।
नारदजी बोले – [हे पर्वतराज!] आप मूढ़तासे - युक्त हैं, अतः कुछ भी नहीं जानते। महेश्वरके विषयमें कथनीय बातेंसे आप सर्वथा अनभिज्ञ है ।। 14 । आपने इस समय जो इन साक्षात् महेश्वरसे गोत्र बतानेके लिये कहा है, वह वचन अत्यन्त हास्यास्पद है ॥ 15 ॥
हे पर्वत ! ब्रह्मा, विष्णु आदि भी इनका गोत्र, कुल, नाम नहीं जानते, दूसरोंकी क्या बात कही जाय ! ॥ 16 ॥
हे शैल! जिनके एक दिनमें करोड़ों ब्रह्मा लयको प्राप्त हो जाते हैं, उन शंकरका दर्शन आपने आज कालीके तपके प्रभावसे ही किया है ll 17 ll
ये प्रकृतिसे परे, परब्रह्म, अरूप, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, मायाधीश तथा परात्पर हैं ॥ 18 ॥
ये स्वतन्त्र, भक्तवत्सल और गोत्र, कुल तथा नामसे सर्वथा रहित हैं। ये अपनी इच्छासे ही सगुण, सुन्दर शरीरवाले तथा अनेक नामवाले हो जाते हैं ॥ 19 ॥
ये गोत्रहीन होते हुए भी श्रेष्ठ गोत्रवाले हैं, कुलहीन होते हुए भी उत्तम कुलवाले हैं और आज पार्वतीके तपसे आपके जामाता हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ 20 ॥उन लीलाविहारीने चराचरसहित जगत्को मोहित कर रखा है। हे गिरिसत्तम! कोई महान् ज्ञानी भी इन्हें नहीं जानता। ब्रह्माजी भी लिंगकी | आकृतिवाले महेशके मस्तकको नहीं देख सके। विष्णु भी पातालतक जाकर इन्हें नहीं प्राप्त कर पाये और आश्चर्यचकित हो गये ।। 21-22 ।।
हे गिरिश्रेष्ठ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, | शिवजीकी माया बड़ी दुस्तर है। त्रैलोक्य और विष्णु ब्रह्मा आदि भी उसी [माया] के अधीन हैं ॥ 23 ॥
इसलिये हे पार्वतीतात प्रयत्नपूर्वक भली-भाँति विचार करके आप वरके गोत्र, कुल एवं इस प्रकारके वरके सम्बन्धमें थोड़ा भी सन्देह मत कीजिये ॥ 24 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! ऐसा कहकर ज्ञानी तथा शिवकी इच्छासे कार्य करनेवाले आप पर्वतराजको [अपनी] वाणीसे हर्षित करते हुए पुनः उनसे कहने लगे- ll 25 ॥
नारदजी बोले हे तात! हे महाशैल! हे शिवाजनक ! आप मेरी बात सुनिये तथा उसे सुनकर शंकरजीको अपनी कन्या प्रदान कीजिये ॥ 26 ॥
[अपनी] लीलासे अनेक रूप धारण करनेवाले सगुण महेशका गोत्र तथा कुल केवल नाद ही जानिये ॥ 27 ॥
शिव नादमय हैं और नाद भी शिवमय है, यही सत्य है। शिव तथा नाद-इन दोनोंमें भेद नहीं है॥ 28 ॥
सृष्टिके आरम्भमें लीलासे सगुण रूप धारण करनेवाले शिवके द्वारा सर्वप्रथम नादकी उत्पत्ति होनेके कारण वह सर्वश्रेष्ठ है ।। 29 ll
इसलिये हे हिमालय अपने मनमें सर्वेश्वर शिवसे प्रेरित होकर मैंने आज वीणा बजायी है ll 30 ll
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! गिरीश्वर हिमालय आपका यह वचन सुनकर सन्तुष्ट हो गये और उनके मनका विस्मय जाता रहा ।। 31 ।।
तब विष्णु आदि वे देवता एवं मुनि विस्मयरहित हो 'साधु-साधु' - ऐसा कहने लगे ॥ 32 ॥सभी विद्वान् लोग महेश्वरके गाम्भीर्यको जानकर विस्मित होकर परम आनन्दमें निमग्न हो परस्पर कहने लगे। जिनकी आज्ञासे यह विशाल जगत् उत्पन्न हुआ है और जो परसे भी परे, निजबोधस्वरूप हैं, स्वतन्त्र गतिवाले एवं उत्कृष्ट भावसे जाननेयोग्य हैं, उन त्रिलोकपति शिवको आज हमलोगोंने भलीभाँति देखा ।। 33-34 ।।
तदनन्तर वे सुमेरु आदि सभी श्रेष्ठ पर्वत सन्देहरहित होकर एक साथ पर्वतराज हिमालयसे कहने लगे-ll 35 ll
पर्वत बोले- हे शैलराज! अब आप कन्यादान करनेके लिये समुद्यत हो जाइये। विवादसे क्या लाभ ! ऐसा करनेसे [ निश्चय ही] आपके कार्यमें बाधा होगी। हमलोग सत्य कहते हैं, अब आपको विचार नहीं करना चाहिये, अतः आप शिवको कन्या प्रदान कीजिये ll 36 ll
ब्रह्माजी बोले- उन सुहृदोंकी वह बात सुनकर विधिसे प्रेरित होकर हिमालयने शिवको अपनी कन्याका दान कर दिया ॥ 37 ॥
[उन्होंने कहा-] हे परमेश्वर ! मैं अपनी कन्या आपको दे रहा है, हे सकलेश्वर आप भायकि रूपमें इसे ग्रहण कीजिये और प्रसन्न होइये ॥ 38 ॥ इस प्रकार तीनों लोकोंको उत्पन्न करनेवाली अपनी कन्या पार्वतीको हिमालयने इस मन्त्रसे उन महान् शिवको अर्पण कर दिया ।। 39 ।।
इस प्रकार पार्वतीका हाथ शिवजीके हाथमें रखकर वे हिमालय मनमें बहुत प्रसन्न हुए, मानो उन्होंने इच्छारूपी महासागरको पार कर लिया हो ॥ 40 ll
पर्वतपर शयन करनेवाले परमेश्वरने प्रसन्न होकर अपने हाथसे वेदमन्त्रके द्वारा पार्वतीका करकमल ग्रहण किया। हे मुने! लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए पृथिवीका स्पशंकर महादेवने भी 'कोऽदात्" इस कामसम्बन्धी मन्त्रका प्रेमपूर्वक पाठ किया ।। 41-42 ॥उस समय सर्वत्र आनन्ददायक महान् उत्सव होने लगा और स्वर्ग, भूमि तथा अन्तरिक्षमें तीव्र जयध्वनि होने लगी। सभी लोगोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर 'साधु' शब्द तथा 'नमः' शब्दका उच्चारण किया, गन्धर्वगण प्रीतिपूर्वक गान करने लगे तथा अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ 43-44 ।। हिमालयके नगरके लोग भी अपने मनमें परम आनन्दका अनुभव करने लगे। [ उस समय] महान् उत्सवके साथ परम मंगल मनाया जाने लगा ॥ 45 ॥ मैं, विष्णु, इन्द्र, देवता एवं सभी मुनिगण अत्यन्त हर्षित हुए और सभीके मुखकमल खिल उठे ॥ 46 ॥
उसके बाद उन शैलराज हिमालयने अति प्रसन्न होकर कन्यादानकी यथोचित सांगता शिवको प्रदान की ll 47 ll
तत्पश्चात् उनके बन्धुजनोंने भक्तिपूर्वक भली. भाँति पार्वतीका पूजनकर शिवजीको विधि-विधानसे अनेक प्रकारके उत्तम द्रव्य प्रदान किये हे मुनीश्वर! हिमालयने भी प्रसन्नचित्त होकर पार्वती तथा शिवकी | प्रसन्नताके लिये अनेक प्रकारके द्रव्य दिये ।। 48-49 ।।
उन्होंने उपहारस्वरूप नाना प्रकारके रत्न एवं उत्तम रत्नोंसे जड़े हुए विविध पात्र प्रदान किये। हे मुने। उन्होंने एक लाख सुसज्जित गायें, सजे-सजाये सौ घोड़े, नाना रत्नोंसे विभूषित एक लाख अनुरागिणी दासियाँ दीं और एक करोड़ हाथी तथा सुवर्णजटित एवं उत्तम रत्नोंसे निर्मित रथ प्रदान किये। इस प्रकार परमेश्वर .. शिवको विधिपूर्वक अपनी पुत्री शिवा गिरिजाको प्रदान करके हिमालय कृतार्थ हो गये ॥ 50-53 ॥
तत्पश्चात् पर्वतराजने हाथ जोड़कर श्रेष्ठ वाणीमें माध्यन्दिनी शाखामें कहे गये स्तोत्रसे परमेश्वरकी स्तुति की। इसके बाद वेदज्ञ हिमालयकी आज्ञा पाकर मुनियोंने अतिप्रसन्न होकर शिवाके सिरपर अभिषेक किया और देवताओंके नामका उच्चारणकर पर्युक्षण | विधि सम्पन्न की। हे मुने! उस समय परम आनन्द | उत्पन्न करनेवाला महोत्सव हुआ ॥ 54-56 ॥