ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार कन्यादानकर दक्षने भगवान् शंकरको अनेक प्रकारके उपहार दिये और ब्राह्मणोंको भी बहुत सा धन दिया ॥ 1 ॥ उसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णु शम्भुके पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े होकर यह कहने लगे- ॥ 2 ॥ विष्णु बोले- हे देवदेव! हे महादेव ! हे करुणासागर! हे प्रभो! हे तात! आप सम्पूर्ण जगत्के पिता हैं और ये सती अखिल संसारकी माता हैं ॥ 3 ॥
आप दोनों सत्पुरुषोंके कल्याण तथा दुष्टोंके | दमनके लिये सदा लीलापूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं- यह सनातन श्रुति है ॥ 4 ll
हे हर ! आप चिकने नीले अंजनके समान शोभावाली सतीके साथ उसी प्रकार शोभा पा रहे हैं, जैसे मैं उसके विपरीत लक्ष्मीके साथ शोभा पा रहा है। सती नीलवर्णा और आप गौरवर्ण हैं, उसके विपरीत मैं नीलवर्ण और लक्ष्मी गौरवर्ण हैं ॥ 5 ॥
हे शम्भो ! आप इन सतीके साथ रहकर देवताओंकी और सज्जन मनुष्योंकी रक्षा कीजिये, जिससे संसारी जनोंका सदा कल्याण होता रहे ॥ 6 ॥
हे सर्वभूतेश! हे प्रभो! इन सतीको देखकर अथवा [इनके विषयमें] सुनकर जो कामनायुक्त हो, उसका आप वध कीजिये, यह मेरी प्रार्थना है ॥ 7 ॥
ब्रह्माजी बोले- भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर सर्वज्ञ परमेश्वरने मधुसूदनसे हंसकर कहा ऐसा ही होगा ॥ 8 ॥हे मुनीश्वर उसके बाद विष्णु अपने स्थानपर आकर स्थित हो गये। उन्होंने उत्सव कराया और उस चरित्रको गुप्त ही रखा ॥ 9 ॥
तत्पश्चात् मैं देवी सतीके पास आकर गृह्यसूत्रमें वर्णित विधिके अनुसार सारा अग्निकार्य विधानके साथ विस्तारपूर्वक करने लगा ॥ 10 ॥ इसके बाद शिवा और शिवने प्रसन्न होकर मुझ आचार्य और द्विजोंकी आज्ञासे विधिपूर्वक अग्निकी प्रदक्षिणा की। ll 11 ।।
हे द्विजसत्तम! उस समय वहाँ बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया और गीत एवं नृत्यके साथ वाद्य बजाया गया, जो सबके लिये सुखद था ॥ 12 ॥
हे तात! उस समय [सबकों] आश्चर्यचकित करनेवाला एक अद्भुत चरित्र यहाँ हुआ, उसे आपसे मैं कह रहा हूँ, आप सुनिये ॥ 13 ॥
शिवजीकी माया दुर्ज्ञेय है, उसने देव, असुर तथा मनुष्यों सहित इस चराचर जगत्को पूर्णरूपसे मोहित कर रखा है ॥ 14 ॥
हे तात! पूर्वकालमें मैंने जिन शिवको कपटपूर्वक मोहमें डालना चाहा था, उन्हीं शिवने अपनी लीलासे मुझे मोहित कर लिया ll 15 ll
जो दूसरेका अपकार करना चाहता है, निश्चय ही पहले उसीका अपकार हो जाता है। ऐसा समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरेका अपकार न करे ॥ 16 ॥
हे मुने! जिस समय सती अग्निकी प्रदक्षिणा कर रही थीं, उस समय उनके दोनों चरण वस्त्रसे बाहर निकल आये थे, मैंने उन्हें देख लिया ॥ 17 ॥
हे द्विजश्रेष्ठ शिवजीकी मायासे मोहित हुआ मैं कामसे व्याप्त चित्तवाला होकर सतीके दूसरे अंगोंको देखने लगा ॥ 18 ॥
मैं जैसे जैसे सीके अंगोंको उत्सुकतापूर्वक देख रहा था, वैसे-वैसे प्रसन्न हो कामार्त हो रहा था ।। 19 ।।
हे मुने! इस प्रकार पतिव्रता दक्षपुत्रीको देखकर कामविष्ट मनवाला में उनके मुखको देखनेका इच्छुक हो गया ॥ 20 ॥किंतु शिवजी के सामने लखाके कारण मैं प्रत्यक्ष सतीका मुख नहीं देख सका और वे भी लज्जासे युक्त होनेके कारण अपना मुख प्रकट नहीं कर रही थीं ॥ 21 ॥
तब सतीका मुख देखनेके लिये एक अत्यन्त सुन्दर उपाय सोचते हुए कामपीड़ित मैंने अग्निमें बहुत-सी गीली लकड़ी डालकर घोर धुआँ उत्पन्न | कर दिया और उस धूमयुक्त अग्निमें घृतकी थोड़ी थोड़ी आहुति देने लगा। तब गीली लकड़ीके संयोगसे चारों दिशाओंमें घोर धुआँ फैल गया। इस प्रकार धूमाधिक्य होनेके फलस्वरूप वेदीके चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार हो गया ।। 22-24 ॥
तब अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले प्रभु महेश्वरके नेत्र भी धूमसे व्याकुल हो उठे और उन्होंने दोनों हाथोंसे अपने नेत्रोंको बन्द कर लिया ॥ 25 ॥
तत्पश्चात् कामसे पीड़ित मैंने प्रसन्न मनसे वस्त्र | हटाकर सतीके मुखको देख लिया ॥ 26 ॥
हे पुत्र ! मैं सतीके मुखको बार-बार देखने लगा, इस प्रकार अवश होकर मैं इन्द्रियविकारसे युक्त हो गया। अपनेको असंयमित देख सशंकित हो मैं आश्चर्यसे चकित होकर मौन हो गया। भगवान् शिव अपनी दिव्य दृष्टिसे इसे जानकर क्रोधित होकर कहने लगे- ॥ 27-30 ॥
रुद्र बोले – हे पाप ! आपने ऐसा कुत्सित कर्म क्यों किया, जो कि विवाहमें रागपूर्वक मेरी स्त्रीका |मुख देखा ? ।। 31 ।।
आप समझते हैं कि शंकर इस कुत्सित कर्मको नहीं जान सकेंगे। हे विधे इस त्रिलोकीमें कोई भी बात मुझसे अज्ञात नहीं रह सकती, तो यह बात कैसे छिपी रहेगी ? ॥ 32 ॥
हे मूढ़ ! जिस प्रकार तिलके सभी अवयवोंमें तेल रहता है, उसी प्रकार तीनों लोकोंमें जो कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ हैं, उनमें मैं रहता हूँ ॥ 33 ॥
ब्रह्माजी बोले- तत्पश्चात् विष्णुके लिये प्रिय शंकरजीने मुझसे यह कहकर [ पूर्वमें कहे गये] विष्णुके वचनका स्मरणकर शूल लेकर मुझ ब्रह्माको मारना चाहा ॥ 34 ॥हे द्विजोत्तम! मुझे मारनेके लिये शिवके द्वारा त्रिशूल उठाये जानेपर [ वहाँ उपस्थित ] मरीचि आदि ऋषि हाहाकार करने लगे ॥ 35 ॥ उस समय सभी देवता तथा मुनि भयभीत होकर क्रोधसे जलते हुए शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 36 ॥ देवगण बोले- हे देवदेव! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे ईश! आप ब्रह्माकी रक्षा कीजिये। हे महेश्वर! कृपा कीजिये ॥ 37 ॥
हे महेश! आप इस संसारके पिता हैं तथा देवी सती जगत्की माता कही गयी हैं। हे सुरप्रभो! विष्णु ब्रह्मा आदि सभी [देवगण] आपके दास हैं ॥ 38 ॥ आपकी आकृति तथा लीला अद्भुत है। हे प्रभो! आपकी माया भी अद्भुत है। हे ईश्वर! उसने आपकी भक्तिसे रहित सभीको मोहित कर लिया है॥ 39 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार दुःखित देवता तथा मुनि क्रोधमें भरे हुए देवाधिदेव महादेवकी स्तुति करने लगे ॥ 40 ॥
दक्ष प्रजापतिने शंकित होकर वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ उठाकर ऐसा मत कीजिये, ऐसा मत कीजिये- ऐसा कहते हुए शिवजीके आगे जाकर उन्हें ऐसा करनेसे रोका ।। 41 ।।
तब शिवजी अपने आगे दक्षको आया हुआ देखकर भगवान् विष्णुकी प्रार्थनाका स्मरण करते हुए इस प्रकारका अप्रिय वचन कहने लगे ॥ 42 ॥
महेश्वर बोले- हे प्रजापते! मेरे महान् भक्त विष्णुने उस समय जैसा कहा था, मैंने वही करना स्वीकार भी किया था ।। 43 ।।
[विष्णुने कहा था कि] हे प्रभो! जो वासनायुक्त होकर सतीको देखे, उसका वध कीजिये। अब मैं ब्रह्माका वध करके विष्णुके वचनको सत्य करता हूँ ॥ 44 ॥
ब्रह्मने कामनायुक्त होकर सतीको क्यों देखा ? | इन्होंने अत्यन्त गर्हित कर्म किया है, इसलिये अपराधी ब्रह्माका वध में अवश्य करूँगा ।। 45 ।।
ब्रह्माजी बोले- उस समय क्रोधाविष्ट देवेश्वर महेशके ऐसा कहनेपर देवता, मुनि तथा मनुष्यों सहित सभी लोग काँपने लगे ।। 46 ।।चारों दिशाओं में हाहाकार मच गया और चारों ओर उदासी छा गयी। उनके द्वारा विमोहित किया गया मैं उस समय अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥ 47 ॥ तब महेशके अतिप्रिय, कार्य सिद्ध करनेमें प्रवीण तथा बुद्धिमान् भगवान् विष्णुने ऐसा कहनेवाले उन शिवजीकी स्तुति की ॥ 48 ॥
अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भक्तवत्सल शिवजीकी स्तुतिकर उन्हें [ ब्रह्माका वध करनेसे] रोकते हुए आगे जाकर उन्होंने इस प्रकार कहा- ॥ 49 ॥
विष्णुजी बोले- हे भूतेश! आप जगत्को उत्पन्न करनेवाले प्रभु इन ब्रह्माका वध न करें। ये आपकी शरणमें आये हैं और आप शरणमें आये हुए लोगोंसे स्नेह करनेवाले हैं ॥ 50 ॥
मैं आपका परम प्रिय हूँ, इसीलिये मुझे भक्तराज कहा गया है। मेरे इस निवेदनको हृदयमें स्वीकार करके मेरे ऊपर कृपा कीजिये ॥ 51 ॥
[इसके अतिरिक्त] हे नाथ! हेतुयुक्त मेरी दूसरी प्रार्थना भी सुनिये और हे महेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा करके उसे मानिये ॥ 52 ॥
हे शम्भो ! ये चतुरानन ब्रह्मा प्रजाकी सृष्टि करनेके लिये उत्पन्न हुए हैं। इनके मारे जानेपर प्रजाकी सृष्टि करनेवाला कोई दूसरा नहीं है ॥ 53 ॥ हे नाथ! हे शिवस्वरूप! आपकी आज्ञासे ही हम तीनों देवता सृष्टि, स्थिति और संहारका कार्य बार-बार करेंगे ॥ 54 ॥
हे शम्भो ! उनका वध कर देनेपर आपका कार्य कौन सम्पन्न करेगा? इसलिये हे लयकर्ता विभो ! आप इन सृष्टिकर्ताका वध न करें ।। 55 ll
हे विभो ! इन्होंने ही आपकी भार्या होनेके लिये शिवाको दक्षकन्या सतीके रूपमें सत्प्रयत्नसे अवतरित किया है ॥ 56 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] विष्णुके द्वारा की गयी इस प्रार्थनाको सुनकर दृढव्रत शंकरजी [ वहाँ उपस्थित] सभी लोगोंको सुनाते हुए [भगवान् विष्णुसे] इस प्रकार कहने लगे- ॥ 57 ॥ महेश बोले- हे देवदेव हे रमेश! हे विष्णो!
हे मेरे प्राणप्रिय ! हे तात! मुझको इसका वध करनेसे
मत रोकिये; क्योंकि यह दुष्ट है ॥ 58 ॥आपकी पूर्व प्रार्थनाको, जिसे मैंने स्वीकार किया था, उसे पूर्ण करूंगा। इस महापापी तथा दुष्ट चतुर्मुख ब्रह्माका वध में [अवश्य] करूँगा ॥ 59 ॥
मैं स्वयं ही सभी चराचर प्रजाओंकी सृष्टि | करूँगा। अथवा अपने तेजसे किसी दूसरे सृष्टिकर्ताको उत्पन्न करूँगा मैं अपनी की गयी प्रतिज्ञाको पूरा करते हुए इस ब्रह्माका वध करके अन्य सृष्टिकर्ताको उत्पन्न करूँगा, अतः हे लक्ष्मीपते। [इसका वध करनेसे] मुझे मत रोकिये ॥ 60-61 ।।
ब्रह्माजी बोले- शिवजीका यह वचन सुनकर मन्द मन्द मुसकराते हुए 'ऐसा मत कीजिये' इस प्रकार बोलते हुए भगवान् विष्णु पुनः कहने लगे - ॥ 62 ॥
अच्युत बोले- हे प्रभो! प्रतिज्ञाकी पूर्ति तो दूसरे पुरुषमें की जाती है। हे विनाशके ईश! आप स्वयं विचार करें, वह अपने ऊपर नहीं की जाती ॥ 63 ॥ हे शम्भो हम तीनों देवता आपकी ही आत्मा हैं, दूसरे नहीं। हमलोग एकरूप हैं, भिन्न नहीं हैं, इस बातको आप यथार्थ रूपसे विचार कीजिये ॥ 64 ॥ तब अपने अत्यन्त प्रिय विष्णुका वह वचन सुनकर शिवजी अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए उनसे कहने लगे - ॥ 65 ॥
शम्भु बोले- हे विष्णो हे सम्पूर्ण भक्तोंके ईश ! ब्रह्मा किस प्रकार मेरी आत्मा हो सकते हैं; क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष रूपसे आगे बैठे हुए मुझसे भिन्न दिखायी दे रहे हैं ? ॥ 66 ॥
ब्रह्माजी बोले- जब सबके आगे महेश्वरने ऐसा कहा, तब उन महादेवको सन्तुष्ट करते हुए विष्णु कहने लगे ॥ 67 ॥
विष्णु बोले- हे सदाशिव! न ब्रह्मा आपसे भिन्न हैं और न तो आप ही उनसे भिन्न हैं। हे परमेश्वर न मैं ही आपसे भिन्न हूँ और न तो आप ही मुझसे भिन्न हैं ॥ 68 ॥
हे सर्वज्ञ हे परमेश! हे सदाशिव! आप सब कुछ जानते हैं, किंतु आप मेरे मुखसे सारी बात सभी लोगोंको सुनवाना चाहते हैं ॥ 69 ॥हे ईश! मैं आपकी आज्ञासे शिवतत्त्वका वर्णन कर रहा हूँ, समस्त देवता, मुनिगण तथा अन्य लोग अपने मनको एकाग्र करके सुनें ॥ 70 ॥
हम तीनों देवता प्रधान- अप्रधान तथा भाग अभागरूपवाले और ज्योतिर्मयस्वरूप आप परमेश्वरके
ही अंश हैं ॥ 71 ॥ आप कौन हैं, मैं कौन हूँ और ब्रह्मा कौन हैं। आप परमात्मा ही ये तीन अंश हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण एक-दूसरेसे भिन्न प्रतीत होते हैं ॥ 72 ॥
आप स्वयं अपने स्वरूपका चिन्तन कीजिये । आपने अपनी लीलासे ही शरीर धारण किया है। आप एक, सगुण ब्रह्म हैं और हम [ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र ] तीनों आपके अंश हैं ॥ 73 ॥
हे हर ! जैसे मस्तक, ग्रीवा आदिके भेदसे एक ही शरीरके [भिन्न-भिन्न] अवयव होते हैं, उसी प्रकार हम तीनों उन्हीं आप परमेश्वरके अंग हैं ॥ 74 ॥ जो ज्योतिर्मय, आकाशस्वरूप, स्वयं ही अपना धाम, पुराण, कूटस्थ, अव्यक्त, अनन्तरूपवाला, नित्य तथा दीर्घ आदि विशेषणोंसे रहित ब्रह्म है, वह आप शिव ही हैं। आपसे ही सब कुछ प्रकट हुआ है ॥ 75 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर तत्पश्चात् उनकी यह बात सुनकर महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने मेरा वध नहीं किया ॥ 76 ॥