नारदजी बोले - हे विधे भगवान् हरके [तृतीय]] नेत्रसे निकली हुई वह अग्निकी ज्वाला कहाँ गयी ? आप चन्द्रशेखरके उस चरित्रको कहिये ॥ 1 ॥ ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] जब भगवान् रुद्रके तीसरे नेत्रसे प्रकट हुई अग्निने कामदेवको शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया, उसके अनन्तर वह बिना किसी प्रयोजनके ही सब ओर फैलने लगी ॥ 2 ॥ चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंमें महान् हाहाकार मच गया। हे तात! तब सम्पूर्ण देवता और ऋषि शीघ्र ही मेरी शरणमें आये ॥ 3 ॥उन सबने व्याकुल होकर मस्तक झुकाकर दोनों | हाथ जोड़कर मुझे प्रणामकर विधिवत् मेरी स्तुति करके अपना दुःख निवेदन किया ॥ 4 ॥
उसको सुनकर शिवका स्मरणकर और उसके हेतुका भलीभांति विचारकर तीनों लोकोंकी करनेके लिये मैं विनीत भावसे वहाँ पहुँचा ॥5॥ वह अग्निज्वालामाला अत्यन्त उदीप्त हो जगत्को जला देनेके लिये उद्यत थी, परंतु भगवान् शिवकी कृपासे प्राप्त हुए उत्तम तेजके द्वारा मैंने उसे तत्काल स्तम्भित कर दिया ॥ 6 ॥ हे मुने! मैंने त्रिलोकीको दग्ध करनेकी इच्छा | रखनेवाली उस क्रोधमय अग्निको सौम्य ज्वालामुखवाले घोड़ेके रूपमें परिवर्तित कर दिया ॥ 7 ॥
भगवान् शिवकी इच्छासे उस वाडव शरीरवाली | अग्निको लेकर जगत्पति मैं लोकहितके लिये समुद्रके पास गया ॥ 8 ॥
हे मुने मुझे आया हुआ देखकर समुद्र एक दिव्य पुरुषका रूप धारण करके हाथ जोड़कर मेरे पास आया ॥ 9 ॥
मुझ सम्पूर्ण लोकोंके पितामहकी भी स्तुति करके वह सिन्धु मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा- ॥ 10॥
सागर बोला- हे ब्रह्मन् ! हे सर्वेश्वर ! आप यहाँ किसलिये आये हैं? मुझे अपना सेवक समझकर आप प्रीतिपूर्वक उसे कहिये ।। 11 ll
सागरकी बात सुनकर शंकरका स्मरण करके लोकहितका ध्यान रखते हुए मैं उससे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा- ॥ 12 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! हे महाबुद्धिमान् ! सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी! हे सिन्धो! मैं शिवकी | इच्छासे प्रेरित हो हृदयसे प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ, सुनो ॥ 13 ॥
यह महेश्वरका क्रोध है, जो महान् शक्तिशाली अश्यके रूपमें यहाँ उपस्थित है। यह कामदेवको दग्ध करके शीघ्र सम्पूर्ण जगत्को जला डालनेके लिये उद्यत हो गया था ॥ 14 ॥हे तात! तब पीड़ित हुए देवताओंने शंकरकी इच्छासे मेरी प्रार्थना की और मैंने शीघ्र वहाँ आकर अग्निको स्तम्भित किया। फिर इसने घोड़ेका रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया। हे जलाधार! [ जगत्पर] दया करनेवाला मैं तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ ।। 15-16 ॥ महेश्वरके इस क्रोधको, जो घोड़ेका रूप धारण करके मुखसे ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है, तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो ॥ 17 ॥
हे सरित्पते ! जब मैं यहाँ आकर निवास करूँगा, तब तुम शंकरके इस अद्भुत क्रोधको छोड़ देना ॥ 18 ॥ तुम्हारा जल ही इसका प्रतिदिनका भोजन होगा। तुम यत्नपूर्वक इसे धारण किये रहना, जिससे यह अन्यत्र न जा सके ॥ 19 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार मेरे कहनेपर समुद्रने [ रुद्रके क्रोधाग्निरूप] वडवानलको धारण करना स्वीकार किया, जो दूसरेके लिये असम्भव था ॥ 20 ॥
उसके अनन्तर वाडव शरीरवाली वह अग्नि समुद्रमें प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओंसे प्रदीप्त हो उस सागरकी जलराशिका दहन करने लगी ॥ 21 ॥ हे मुने! तदनन्तर सन्तुष्टचित्त होकर मैं अपने धामको चला आया और दिव्य रूपधारी वह समुद्र मुझे प्रणाम करके अन्तर्धान हो गया। महामुने! रुद्रकी उस क्रोधाग्निके भयसे छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थताका अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनिगण सुखी हो गये ।। 22-23 ॥