उपमन्यु कहते हैं - हे श्रीकृष्ण ! अब मैं तुम्हारे समक्ष पंचावरण-मार्गसे किये जानेवाले [पूजनके अंगभूत] स्तोत्रका वर्णन करूँगा, जिससे यह योगेश्वर नामक पुण्यकर्म पूर्णरूपसे सम्पन्न होता है ॥ 1 ॥जगत्के एकमात्र रक्षक ! नित्य चिन्मयस्वभाव ! प्रकृतिमनोहर शम्भो! आपका तत्त्व कलुषराशिसे रहित निर्मल, वाणी तथा मनकी पहुँचसे भी परे है। आपकी जय हो, जय हो ॥ 2 ॥
आपका श्रीविग्रह स्वभावसे ही निर्मल है, आपकी चेष्टा परम सुन्दर है, आपकी जय हो। आपकी महाशक्ति आपके ही तुल्य है। आप विशुद्ध कल्याणमय गुणोंके महासागर हैं, आपकी जय हो ॥ 3 ॥
आप अनन्त कान्तिसे सम्पन्न हैं। आपके श्रीविग्रहकी कहीं तुलना नहीं है, आपकी जय हो। आप अतर्क्स महिमाके आधार हैं तथा शान्तिमय मंगलके निकेतन हैं। आपकी जय हो ॥ 4 ॥
निरंजन (निर्मल), आधारहित तथा विना कारणके प्रकट होनेवाले शिव! आपकी जय हो। निरन्तर परमानन्दमय ! शान्ति और सुखके कारण! आपकी जय हो ॥ 5 ॥
अतिशय उत्कृष्ट ऐश्वर्यसे सुशोभित तथा अत्यन्त करुणाके आधार! आपकी जय हो। प्रभो! आपका सब कुछ स्वतन्त्र है तथा आपके वैभवकी कहीं समता नहीं है; आपकी जय हो, जय हो ॥ 6 ॥
आपने विराट् विश्वको व्याप्त कर रखा है, किंतु आप किसीसे भी व्याप्त नहीं हैं। आपकी जय हो, जय हो आप सबसे उत्कृष्ट हैं, किंतु आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। आपकी जय हो, जय हो ॥ 7 ॥
आप अद्भुत हैं, आपकी जय हो। आप अक्षुद्र (महान्) हैं, आपकी जय हो। आप अक्षत (निर्विकार) हैं, आपकी जय हो। आप अविनाशी हैं, आपकी जय हो। अप्रमेय परमात्मन्! आपकी जय हो। मायारहित महेश्वर! आपकी जय हो। अजन्मा शिव! आपकी जय हो। निर्मल शंकर! आपकी जय हो ॥ 8 ॥
महाबाहो ! महासार! महागुण! महती कीर्तिकथासे युक्त! महाबली! महामायावी! महान् रसिक तथा महारथ! आपकी जय हो ॥ 9 ॥ आप परम आराध्यको नमस्कार है। आप परम कारणको नमस्कार है। शान्त शिवको
नमस्कार है और आप परम कल्याणमय प्रभुको नमस्कार है ॥ 10 ॥देवताओं और असुरोंसहित यह सम्पूर्ण जगत् आपके अधीन है। अतः आपकी आज्ञाका उल्लंघन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है। 11-12 हे सनातनदेव! यह सेवक एकमात्र आपके ही आश्रित है; अतः आप इसपर अनुग्रह करके इसे इसकी प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ।। 13 ll अम्बिके! जगन्मातः! आपकी जय हो ।
सर्वजगन्मयि! आपकी जय हो असीम ऐश्वर्यशालिनि । आपकी जय हो आपके श्रीविग्रहकी कहीं उपमा । नहीं है, आपकी जय हो ॥ 14 ॥
मन, वाणीसे अतीत शिवे! आपकी जय हो। अज्ञानान्धकारका भंजन करनेवाली देवि ! आपकी जय हो । जन्म और जरासे रहित उमे! आपकी जय हो । कालसे भी अतिशय उत्कृष्ट शक्तिवाली दुर्गे ! आपकी जय हो ॥ 15 ॥
अनेक प्रकारके विधानोंमें स्थित परमेश्वरि ! आपकी जय हो। विश्वनाथप्रिये! आपकी जय हो। समस्त देवताओंकी आराधनीया देवि ! आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्वका विस्तार करनेवाली जगदम्बिके ! आपकी जय हो ॥ 16 ॥
मंगलमय दिव्य अंगोंवाली देवि! आपकी जय हो मंगलको प्रकाशित करनेवाली आपकी जय हो। मंगलमय चरित्रवाली सर्वमंगले! आपकी जय हो। मंगलदायिनि ! आपकी जय हो ॥ 17 ॥
परम कल्याणमय गुणोंकी आप मूर्ति हैं, आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है, अतः आपमें ही लीन होगा ॥ 18 ॥
देवेश्वरि ! अतः आपके बिना ईश्वर भी फल देनेमें समर्थ नहीं हो सकते। यह जन जन्मकालसे ही आपकी शरण में आया हुआ है। अतः देवि! आप अपने इस भक्तका मनोरथ सिद्ध कीजिये । ll 191/2 ।।
प्रभो! आपके पाँच मुख और दस भुजाएँ हैं। आपकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकमणिके समान निर्मल है। वर्ण, ब्रह्म और कला आपके विग्रहरूप हैं। आप सकल और निष्कल देवता है। शिवमूर्ति में सदा व्याप्त रहनेवाले हैं। शान्त्यतीत पदमें विराजमान सदाशिव आप ही हैं। मैंने भक्तिभावसे आपकी अर्चना की है। आप मुझे प्रार्थित कल्याण प्रदान करें । 20-21 ॥सदाशिव के अंक में आरूढ़ इच्छाशक्तिस्वरूपा, सर्वलोकजननी शिवा मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ 22 ॥
शिव और पार्वतीके प्रिय पुत्र, शिवके समान भावज्ञानामृतका पान करके तृप्त रहनेवाले देवता गणेश और कार्तिकेय परस्पर स्नेह रखते हैं। शिवा और शिव दोनोंसे सत्कृत हैं तथा ब्रह्मा आदि देवता भी इन दोनों देवोंका सर्वथा सत्कार करते हैं। ये दोनों भाई निरन्तर सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेके लिये उद्यत रहते हैं और अपने विभिन्न अंशद्वारा अनेक बार स्वेच्छापूर्वक अवतार धारण करते हैं। वे ही ये दोनों बन्धु शिव और शिवाके पार्श्वभागमें मेरे द्वारा इस प्रकार पूजित हो उन दोनोंकी आज्ञा ले प्रतिदिन मुझे प्रार्थित वस्तु प्रदान करें । ll 23-26 ।।
जो शुद्ध स्फटिकमणिके समान निर्मल, ईशान नामसे प्रसिद्ध और सदा कल्याणस्वरूप है, परमात्मा |शिवकी मूर्धाभिमानिनी मूर्ति है; शिवार्चनमें रत, शान्त, शान्त्यतीतकला प्रतिष्ठित् आकाशमण्डलमें स्थित, शिव पंचाक्षरका अन्तिम बीजस्वरूप, पाँच कलाओंसे युक्त और प्रथम आवरणमें सबसे पहले शक्तिके साथ पूजित है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करे ।। 27-29 ॥
जो प्रातः कालके सूर्यकी भाँति अरुणप्रभासे युक्त, | पुरातन, तत्पुरुष नाम से विख्यात् परमेष्ठी शिवके पूर्ववर्ती मुखका अभिमानी, शान्तिकलास्वरूप या शान्तिकलामें प्रतिष्ठित वायुमण्डलमें स्थित, शिवचरणार्थनपरायण, शिवके बीजोंमें प्रथम और कलाओंमें चार कलाओंसे युक्त है, मैंने पूर्वदिशामें भक्तिभावसे शक्तिसहित जिसका पूजन किया है, वह पवित्र परब्रह्म शिव मेरी प्रार्थना सफल करे ।। 30-32 ॥
जो कज्जलपर्वतके समान श्याम, घोर शरीरवाला एवं अघोर नामसे प्रसिद्ध है, महादेवजीके दक्षिण मुखका अभिमानी तथा देवाधिदेव शिवके चरणोंका पूजक है, विद्याकलापर आरूढ़ और अग्निमण्डलके मध्य विराजमान है, शिवबीजों में द्वितीय तथा कलाओं में अष्टकलायुक्त एवं भगवान् शिवके दक्षिणभागमें शक्तिके साथ पूजित है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करे ।। 33-35 ll जो कुंकुमचूर्ण अथवा केसरयुक्त चन्दनके समान रक्त पीतवर्णवाला, सुन्दर वेषधारी और वामदेव नामसे प्रसिद्ध है, भगवान् शिवके उत्तरवर्ती मुखका अभिमानी है, प्रतिष्ठाकलामें प्रतिष्ठित है, जलके मण्डलमें विराजमान तथा महादेवजीकी अर्चनायें तत्पर है, | शिवबीजों में चतुर्थ तथा तेरह कलाओंसे युक्त है और महादेवजीके उत्तरभागमें शक्तिके साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परब्रह्म मेरी प्रार्थना पूर्ण करे ॥ 36-38 ॥
जो शंख, कुन्द और चन्द्रमाके समान धवल, सौम्य तथा सद्योजात नामसे विख्यात है, भगवान् शिवके पश्चिम मुखका अभिमानी एवं शिवचरणोंकी अर्चनामें रत है, निवृत्तिकलामें प्रतिष्ठित तथा पृथ्वी मण्डलमें स्थित है, शिवबीजोंमें तृतीय, आठ कलाओंसे युक्त और महादेवजीके पश्चिमभागमें शक्तिके साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु दे ॥ 39-41 ॥
शिव और शिवाकी हृदयरूपिणी मूर्तियाँ शिवभावसे भावित हो उन्हीं दोनोंकी आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ पूर्ण करें । ll 42 ।।
शिव और शिवाकी शिखारूपा मूर्तियाँ शिवके ही आश्रित रहकर उन दोनोंकी आज्ञाका आदर करके मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ 43 ॥
शिव और शिवाकी कवचरूपा मूर्तियाँ शिवभावसे भावित हो शिव-पार्वतीकी आज्ञाका सत्कार करके मेरी कामना सफल करें ॥ 44 ॥
शिव और शिवाकी नेत्ररूपा मूर्तियाँ शिवके आश्रित रह उन्हीं दोनोंकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मेरा मनोरथ प्रदान करें । ll 45 ।।
शिव और शिवाकी अस्वरूपा मूर्तियाँ नित्य उन्हीं दोनोंके अर्थनमें तत्पर रह उनकी आज्ञाका सत्कार करती हुई मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ 46 ॥
वाम, ज्येष्ठ, रुद्र, काल, विकरण, बलविकरण, बलप्रमथन तथा सर्वभूत-दमन- ये आठ शिवमूर्तियाँ तथा इनकी वैसी ही आठ शक्तियाँ-वामा, ज्येष्ठा, रुद्राणी, काली, विकरणी, बलविकरणी, बलप्रमथनी तथा सर्वभूतदमनी- ये सब शिव और शिवाके ही शासनसे मुझे प्रार्थित वस्तु प्रदान करें । 47-48 ।।अनन्त, सूक्ष्म, शिव (अथवा शिवोत्तम), एकनेत्र, एकरुद, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ और शिखण्डीये आत विद्येश्वर तथा इनकी वैसी ही आठ शक्तियाँ अनन्ता, सूक्ष्मा, शिवा (अथवा शिवोत्तमा), एकनेत्रा एकरुद्रा, त्रिमूर्ति श्रीकण्ठी और शिखण्डिनी, जिनकी द्वितीय आवरणमें पूजा हुई है, शिवा और शिवके ही शासनसे मेरी मन:कामना पूर्ण करें ।। 49-50 ।।
भव आदि आठ मूर्तियाँ और उनकी शक्तियाँ तथा शक्तियों सहित महादेव आदि ग्यारह मूर्तियाँ, जिनकी स्थिति तीसरे आवरणमें है, शिव और पार्वतीकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे अभीष्ट फल प्रदान करें ।। 51-52 ॥
जो वृषभोंके राजा महातेजस्वी, महान् मेघके समान शब्द करनेवाले, मेरु, मन्दराचल, कैलास और हिमालयके शिखरकी भाँति ऊँचे एवं उज्ज्वलवर्णवाले हैं, श्वेत बादलोंके शिखरकी भाँति ऊँचे ककुद्मे शोभित हैं, महानागराज (शेष) के शरीरकी भाँति पूँछ जिनकी शोभा बढ़ाती है, जिनके मुख, सींग और पैर भी लाल हैं, नेत्र भी प्रायः लाल ही हैं, जिनके सारे अंग मोटे और उन्नत हैं, जो अपनी मनोहर चालसे बड़ी शोभा पाते हैं, जिनमें उत्तम लक्षण विद्यमान हैं, जो चमचमाते हुए मणिमय आभूषणोंसे विभूषित हो अत्यन्त दीप्तिमान् दिखायी देते हैं, जो भगवान् शिवको प्रिय हैं और शिवमें ही अनुरक्त रहते हैं, शिव और शिवा दोनोंके ही जो ध्वज और वाहन हैं तथा उनके चरणोंके स्पर्शसे जिनका पृष्ठभाग परम पवित्र हो गया है, जो गौओंके राजपुरुष हैं, वे श्रेष्ठ और चमकीला त्रिशूल धारण करनेवाले नन्दिकेश्वर वृषभ शिव और शिवाकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे | अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ।। 53-57 ॥
जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके लिये पुत्रके तुल्य प्रिय हैं, श्रीविष्णु आदि देवताओंद्वारा नित्य पूजित एवं वन्दित हैं, भगवान् शंकरके अन्तः पुरके द्वारपर परिजनोंके साथ खड़े रहते हैं, सर्वेश्वर शिवके समान ही तेजस्वी हैं तथा समस्त असुरोंको कुचल देनेकी शक्ति रखते हैं, शिवधर्मका पालन करनेवाले सम्पूर्ण शिवभक्तोंके अध्यक्षपदपर जिनका अभिषेक हुआ है, जो भगवान्शिवके प्रिय, शिवमें ही अनुरक्त तथा तेजस्वी त्रिशूल नामक श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले हैं, भगवान् शिवके शरणागत भक्तोंपर जिनका स्नेह है तथा शिवभक्तोंका भी जिनमें अनुराग है, वे महातेजस्वी नन्दीश्वर शिव और पार्वतीकी आज्ञाको शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 58-61 ॥
दूसरे महादेवके समान महातेजस्वी महाबाहु महाकाल महादेवजीके शरणागत भक्तोंकी नित्य ही रक्षा करें ।। 62 ।।
वे भगवान् शिवके प्रिय हैं, भगवान् शिवमें उनकी आसक्ति है तथा वे सदा ही शिव तथा पार्वतीके पूजक हैं, इसलिये शिवा और शिवकी आज्ञाका आदर करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 63 ll जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्त्विक अर्थके ज्ञाता, भगवान् विष्णुके द्वितीय स्वरूप, सबके शासक तथा महामोहात्मा [कद्रू ] के पुत्र हैं, मधु, फलका गूदा और आसव जिन्हें प्रिय हैं, वे नागराज भगवान् शेष शिव और पार्वतीकी आज्ञाको सामने रखते हुए मेरी इच्छाको पूर्ण करें ॥ 64 ॥
ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री तथा प्रचण्ड पराक्रमशालिनी चामुण्डादेवी ये सर्वलोकजननी सात माताएँ परमेश्वर शिवके आदेशसे मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ॥65-66 ।।
जिनका मतवाले हाथीका सा मुख है; जो गंगा, उमा और शिवके पुत्र हैं; आकाश जिनका शरीर है, दिशाएँ भुजाएँ हैं तथा चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके तीन नेत्र हैं; ऐरावत आदि दिव्य दिग्गज जिनकी नित्य पूजा करते हैं, जिनके मस्तकसे शिवज्ञानमय मदकी धारा बहती रहती है, जो देवताओंके विघ्नका निवारण करते और असुर आदिके कार्यों में विघ्न डालते रहते हैं, वे विघ्नराज गणेश शिवसे भावित हो शिवा और शिवकी आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ प्रदान करें ।। 67-69 ॥
जिनके छः मुख हैं, भगवान् शिवसे जिनकी उत्पत्ति हुई है, जो शक्ति और वज्र धारण करनेवाले प्रभु हैं, अग्निके पुत्र तथा अपर्णा (शिवा) के बालक हैं; गंगा, गणाम्बा तथा कृत्तिकाओंके भी पुत्र हैं;विशाख, शाख और नैगमेय-इन तीनों भाइयोंसे जो सदा घिरे रहते हैं; जो इन्द्र विजयी, इन्द्रके सेनापति तथा तारकासुरको परास्त करनेवाले हैं; जिन्होंने अपनी शक्ति मे आदि पर्वतोंको छेद डाला है, जिनको अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान है, नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान सुन्दर हैं, कुमार नामसे जिनकी प्रसिद्धि है, जो सुकुमारोंके रूपके सबसे बड़े उदाहरण हैं; शिवके प्रिय, शिवमें अनुरक्त तथा शिव चरण की नित्य अर्चना करनेवाले हैं; वे स्कन्द शिव और | शिवाकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु दें ।। 70- 74 ॥
सर्वश्रेष्ठ और वरदायिनी ज्येष्ठादेवी, जो सदा भगवान् शिव और पार्वतीके पूजनमें लगी रहती हैं, उन दोनोंकी आज्ञा मानकर मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 75 ।।
त्रैलोक्यवन्दिता, साक्षात् उल्का (लुकाठी) जैसी आकृतिवाली गणाम्बिका, जो जगत्की सृष्टि बढ़ानेके लिये ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर शिवके शरीरसे पृथक हुई शिवाके दोनों भौहों के बीचसे निकली थीं, जो दाक्षायणी, सती, मेना तथा हिमवानकुमारी उमा आदिके रूपमें प्रसिद्ध हैं कौशिकी, भद्रकाली, अपर्णा और पाटलाकी जननी हैं; नित्य शिवार्चनमें तत्पर रहती हैं एवं रुद्रवल्लभा रुद्राणी कहलाती हैं, ये शिव और शिवाकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु दें ॥ 76 – 79 ।।
समस्त शिवगणोंके स्वामी चण्ड, जो भगवान् शंकरके मुखसे प्रकट हुए हैं, शिवा और शिवकी आज्ञाका आदर करके मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ 80 ॥
भगवान् शिवमें आसक्त और शिवके प्रिय गणपाल श्रीमान् पिंगल शिव और शिवाकी आज्ञासे ही मेरी मन:कामना पूर्ण करें ॥ 81 ॥
शिवकी आराधनामें तत्पर रहनेवाले भृंगीश्वर नामक गणपाल अपने स्वामीकी आज्ञा ले मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ 82 ॥
हिम, कुन्द और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल, भद्रकालीके प्रिय, सदा ही मातृगणोंकी रक्षा करनेवाले; दुरात्मा दक्ष और उसके यज्ञका सिर काटनेवाले;उपेन्द्र, इन्द्र और यम आदि देवताओंके अंगोंमें घाव कर देनेवाले, शिवके अनुचर तथा शिवकी आज्ञाके पालक, महातेजस्वी श्रीमान् वीरभद्र शिव और शिवाके आदेशसे ही मुझे मेरी मनचाही वस्तु दें । ll 83-85 ॥
महेश्वरके मुखकमलसे प्रकट हुई तथा शिव पार्वतीके पूजनमें आसक्त रहनेवाली वे सरस्वतीदेवी मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 86 ।।
भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान लक्ष्मीदेवी, जो सदा शिव और शिवाके पूजनमें लगी रहती हैं, उन शिवदम्पतीके आदेशसे ही मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ॥ 87 ॥
महादेवी पार्वतीके पादपद्मोंकी पूजामें परायण महामोटी उन्हींकी आज्ञासे मेरी मनचाही वस्तु मुझे दें ॥ 88 ॥
पार्वतीकी सबसे श्रेष्ठ पुत्री सिंहवाहिनी कौशिकी, भगवान् विष्णुकी योगनिद्रा महामाया, महामहिषमर्दिनी, महालक्ष्मी तथा मधु और फलोंके गूदे तथा रसको प्रेमपूर्वक भोग लगानेवाली निशुम्भ-शुम्भसंहारिणी महासरस्वती माता पार्वतीकी आज्ञासे मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 89-90 ।।
रुद्रदेवके समान तेजस्वी रुद्रगण, प्रख्यातपराक्रमी प्रमथगण तथा महादेवजीके समान तेजस्वी, महाबली भूतगण, जो नित्यमुक्त, उपमारहित, निर्द्वन्द्व, उपद्रवशून्य, शक्तियों और अनुचरोंके साथ रहनेवाले, सर्वलोकवन्दित, समस्त लोकोंकी सृष्टि और संहारमें समर्थ, परस्पर एक-दूसरेके अनुरक्त और भक्त, आपसमें अत्यन्त स्नेह रखनेवाले, एक-दूसरेको नमस्कार करनेवाले, शिवके नित्य प्रियतम, शिवके ही चिह्नोंसे लक्षित, सौम्य, घोर, उभय भावयुक्त, दोनोंके बीचमें रहनेवाले द्विरूप, कुरूप, सुरूप और नानारूपधारी हैं, वे शिव और शिवाकी आज्ञाका सत्कार करते हुए मेरा मनोरथ सिद्ध करें ।। 91 - 959/2 ॥
देवीकी प्रिय सखियोंका समुदाय, जो देवीके ही लक्षणोंसे लक्षित है और भगवान् शिवके तीसरे आवरणमें रुद्रकन्याओं तथा अनेक शक्तियसहित नित्य भक्तिभावसे पूजित हुआ है, वह शिव-पार्वतीकी आज्ञाका सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें ।। 96-973 ।।भगवान् सूर्य महेश्वरकी मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान् है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याणमय गुणोंसे युक्त हैं, केवल सद्गुणरूप हैं; निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं; यह सामान्य जगत् उन्होंकी सृष्टि है सृष्टि, पालन और संहारके क्रमसे उनके कर्म असाधारण हैं; इस तरह वे तीन, चार और पंच रूपों में विभक्त है; भगवान् शिवके चौथे आवरणमें | अनुचरोंसहित उनकी पूजा हुई है; वे शिबके प्रिय, शिवमें ही आसक्त तथा शिवके चरणारविन्दोंकी अर्चनामें तत्पर हैं; ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिवकी आज्ञाका सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें ॥ 98 - 1013 ॥
सूर्यदेवसे सम्बन्ध रखनेवाले छहों अंग, उनकी दीप्ता आदि आठ शक्तियाँ आदित्य, भास्कर, भानु, रवि, अर्क, ब्रह्मा, रुद्र तथा विष्णुये आठ आदित्यमूर्तियाँ और उनकी विस्तरा, सुतरा, बोधिनी, आप्यायिनी तथा उनके अतिरिक्त उषा, प्रभा, प्राज्ञा और संध्या-ये शक्तियाँ चन्द्रमासे लेकर केतुपर्यन्त शिवभावित ग्रह, बारह आदित्य, उनकी बारह शक्तियाँ तथा ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, अप्सराओंके समूह, ग्रामणी (अगुवा), यक्ष, राक्षस-ये सात-सात संख्यावाले गण, सात छन्दोमय अश्व, वालखिल्य आदि मुनि-ये सब-के सब भगवान् शिवके चरणारविन्दोंकी अर्चना करनेवाले हैं। ये लोग शिव और पार्वतीकी आज्ञाका आदर करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ।। 102 - 108 ll
ब्रह्माजी देवाधिदेव महादेवजीकी मूर्ति हैं। भूमण्डलके अधिपति हैं। चौंसठ गुणोंके ऐश्वर्यसे युक्त हैं और बुद्धितत्त्वमें प्रतिष्ठित हैं। वे निर्गुण होते हुए भी अनेक कल्याणमय गुणोंसे सम्पन्न हैं, सद्गुणसमूहरूप हैं, निर्विकार देवता हैं, उनके सामने दूसरे सब लोग साधारण हैं। सृष्टि, पालन और संहारके क्रमसे उनके सब कर्म असाधारण हैं। इस तरह वे तीन, चार एवं पाँच आवरणों या स्वरूपोंमें विभक्त हैं। भगवान् शिवके चौथे आवरणमें अनुचरोंसहित उनकी पूजा हुई है; वे शिवके प्रिय, शिवमें ही आसक्त तथा शिवके चरणारविन्दों की अर्चनामें तत्पर है; ऐसे ब्रह्मदेव शिवा और शिवकी आज्ञाका सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें। 109-11234हिरण्यगर्भ, लोकेश, विराट् कालपुरुष, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, दक्ष आदि ब्रह्मपुत्र, ग्यारह प्रजापति और उनकी पत्नियाँ, धर्म तथा संकल्प-ये सब-के-सब शिवकी अर्चनामें तत्पर रहनेवाले और शिवभक्तिपरायण हैं, अतः शिवकी आज्ञाके अधीन हो मुझे मंगल प्रदान करें ॥ 113 - 1151/2 ।।
चार वेद, इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र और वैदिक विद्याएँ- ये सब-के-सब एकमात्र शिवके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले हैं; अतः इनका तात्पर्य एक-दूसरेके विरुद्ध नहीं है। ये सब शिव और शिवाकी आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मंगल करें | ll 116-1173 ll
महादेव रुद्र शम्भुकी सबसे गरिष्ठ मूर्ति हैं। ये अग्निमण्डलके अधीश्वर हैं। समस्त पुरुषार्थों और ऐश्वर्योंसे सम्पन्न हैं, सर्वसमर्थ हैं। इनमें शिवत्वका अभिमान जाग्रत् है। ये निर्गुण होते हुए भी त्रिगुणरूप हैं। केवल सात्त्विक, राजस और तामस भी हैं। ये पहलेसे ही निर्विकार हैं। सब कुछ इन्हींकी सृष्टि है। सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण इनका कर्म असाधारण माना जाता है। ये ब्रह्माजीके भी मस्तकका छेदन करनेवाले हैं। ब्रह्माजीके पिता और पुत्र भी हैं। इसी तरह विष्णुके भी जनक और पुत्र हैं तथा उन्हें नियन्त्रणमें रखनेवाले हैं। ये उन दोनों-ब्रह्मा और विष्णुको ज्ञान देनेवाले तथा नित्य उनपर अनुग्रह रखनेवाले हैं। ये प्रभु ब्रह्माण्डके भीतर और बाहर भी व्याप्त हैं तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंके अधिपति रुद्र हैं। ये शिवके प्रिय, शिवमें ही आसक्त तथा शिवके ही चरणारविन्दोंकी अर्चनामें तत्पर हैं, अतः शिवकी आज्ञाको सामने रखते हुए मेरा मंगल करें ।। 118 - 1231/2 ॥
भगवान् शंकरके स्वरूपभूत ईशानादि ब्रह्म, हृदयादि छ: अंग, आठ विद्येश्वर, शिव आदि चार मूर्तिभेद - शिव, भव, हर और मृड- ये सब-के-सब शिवके पूजक हैं। ये लोग शिवकी आज्ञाको शिरोधार्य करके मुझे मंगल प्रदान करें ।। 124-125 ॥
भगवान् विष्णु महेश्वर शिवके ही उत्कृष्ट स्वरूप हैं। वे जलतत्त्वके अधिपति और साक्षात् अव्यक्त पदपर प्रतिष्ठित हैं। प्राकृत गुणोंसे रहित हैं।उनमें दिव्य सत्त्वगुणकी प्रधानता है तथा वे विशुद्ध गुणस्वरूप हैं। उनमें निर्विकाररूपताका अभिमान है। साधारणतया तीनों लोक उनकी कृति है। सृष्टि पालन आदि करनेके कारण उनके कर्म असाधारण हैं। वे रुदके दक्षिणांग प्रकट हुए स्वयम्भूके साथ एक समय स्पर्धा कर चुके हैं। साक्षात् आदिब्रह्माद्वारा उत्पादित होकर भी वे उनके भी उत्पादक हैं। ब्रह्माण्डके भीतर और बाहर व्याप्त हैं। इसलिये विष्णु कहलाते हैं। दोनों लोकोंके अधिपति हैं। असुरोका अन्त करनेवाले, चक्रधारी तथा इन्द्रके भी छोटे भाई है। दस अवतारविाहोंके रूपमें यहाँ प्रकट हुए हैं। भृगुके शापके बहाने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये उन्होंने स्वेच्छासे इस भूतलपर अवतार लिया है। उनका बल अप्रमेय है। वे मायावी हैं और अपनी मायाद्वारा जगत्को मोहित करते हैं। उन्होंने महाविष्णु अथवा सदाविष्णुका रूप धारण करके त्रिमूर्तिमय आसनपर वैष्णवोंद्वारा नित्य पूजा प्राप्त की है। वे शिवके प्रिय, शिवमें ही आसक्त तथा शिवके चरणोंकी अर्चनायें तत्पर हैं। वे शिवकी आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मंगल प्रदान करें ll 126-133 ॥
वासुदेव, अनिरुद्ध प्रद्युम्न तथा संकर्षण- ये श्रीहरिकी चार विख्यात मूर्तियाँ (व्यूह) हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, श्रीकृष्ण, विष्णु, हयग्रीव, चक्र, नारायणास्त्र, पांचजन्य तथा शार्ङ्गधनुष-ये सब-के-सब शिव और शिवाकी आज्ञाका सत्कार करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ।। 134 - 136 ll प्रभा, सरस्वती, गौरी तथा शिवके प्रति भक्तिभाव रखनेवाली लक्ष्मी-ये शिव और शिवाके आदेशसे मेरा मंगल करें ॥ 137 ॥
इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम, कुबेर तथा त्रिशूलधारी ईशान- ये सब के सब शिवसद्भावसे भावित होकर शिवार्चनमें तत्पर रहते हैं। ये शिव और शिवाकी आज्ञाका आदर मानकर मुझे मंगल प्रदान करें ।। 138-139 ।।
त्रिशूल, वज्र, परशु, बाण, खड्ग, पाश, अंकुश और श्रेष्ठ आयुध पिनाक ये महादेव तथा महादेवीके दिव्य आयुध शिव और शिवाकी आज्ञाका नित्य सत्कार करते हुए सदा मेरी रक्षा करें। 140-141 ।।वृषभरूपधारी देव, जो सुरभिके महाबली पुत्र हैं, बड़वानलसे भी होड़ लगाते हैं, पाँच गोमाताओंसे घिरे रहते हैं और अपनी तपस्याके प्रभावसे परमेश्वर शिव तथा परमेश्वरी शिवाके वाहन हुए हैं, उन दोनोंकी आज्ञा शिरोधार्य करके मेरी इच्छा पूर्ण करें ।। 142-143 ।।
नन्दा, सुनन्दा, सुरभि, सुशीला और सुमना-ये पाँच गोमाताएँ सदा शिवलोकमें निवास करती हैं। ये सब की सब नित्य शिवार्चनमें लगी रहती हैं और शिवभक्ति परायणा हैं, अतः शिव तथा शिवाके आदेशसे ही मेरी इच्छाकी पूर्ति करें ।। 144-145 ।।
क्षेत्रपाल महान तेजस्वी हैं, उनकी अंगकान्ति नील मेघके समान है और मुख दाढ़ोंके कारण विकराल जान पड़ता है। उनके लाल लाल ओठ फड़कते रहते हैं, जिससे उनकी शोभा बढ़ जाती है, उनके सिरके बाल भी लाल और ऊपरको उठे हुए हैं। वे तेजस्वी हैं, उनकी भौंहें तथा आँखें भी टेढ़ी ही हैं। वे लाल और गोलाकार तीन नेत्र धारण करते हैं। चन्द्रमा और सर्प उनके आभूषण हैं। वे सदा नंगे ही रहते हैं तथा उनके हाथोंमें त्रिशूल, पाश, खड्ग और कपाल उठे रहते हैं। वे भैरव हैं और भैरवों, सिद्धों तथा योगिनियोंसे घिरे रहते हैं। प्रत्येक क्षेत्रमें उनकी स्थिति है। वे वहाँ सत्पुरुषोंके रक्षक होकर रहते हैं। उनका मस्तक सदा शिवके चरणोंमें झुका रहता है, वे सदा शिवके सद्भावसे भावित हैं तथा शिवके शरणागत भक्तौकी औरस पुत्रोंकी भाँति विशेष रक्षा करते हैं। ऐसे प्रभावशाली क्षेत्रपाल शिव और शिवाकी आज्ञाका सत्कार करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ।। 146 - 150 ॥
तालगंध आदि शिवके प्रथम आवरणमें पूजित हुए हैं, वे चारों देवता शिवकी आज्ञाका आदर करके मेरी रक्षा करें ॥ 151 ॥
जो भैरव आदि तथा दूसरे लोग शिवको सब ओरसे घेरकर स्थित हैं, वे भी शिवके आदेशका गौरव मानकर मुझपर अनुग्रह करें ॥ 152 ॥नारद आदि देवपूजित दिव्य मुनि, साध्य, नाग जनलोकनिवासी देवता, विशेषाधिकारसे सम्पन्न महर्लोकनिवासी, सप्तर्षि तथा अन्य वैमानिकगण सदाशिवकी अर्चनामें तत्पर रहते हैं। ये सब शिवकी आज्ञाके अधीन हैं, अतः शिवा और शिवकी आज्ञासे मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ।। 153 - 155 ॥
गन्धवसे लेकर पिशाचपर्यन्त जो चार देवयोनियाँ हैं, जो सिद्ध, विद्याधर, अन्य आकाशचारी, असुर, राक्षस, पातालतलवासी अनन्त आदि नागराज, गरुड आदि दिव्य पक्षी, कूष्माण्ड, प्रेत, वेताल, ग्रह, भूतगण, डाकिनियाँ, योगिनियाँ, शाकिनियाँ तथा वैसी ही और स्त्रियों, क्षेत्र, आराम (बगीचे), गृह आदि तीर्थ, देवमन्दिर, द्वीप, समुद्र, नदियाँ, नद, सरोवर, सुमेरु आदि पर्वत, सब ओर फैले हुए वन, पशु, पक्षी, वृक्ष, कृमि, कीट आदि, मृग, समस्त भुवन, भुवनेश्वर, आवरणसहित ब्रह्माण्ड, बारह मास, दस दिग्गज, वर्ण, पद, मन्त्र, तत्त्व, उनके अधिपति, ब्रह्माण्डधारक रुद्र, अन्य रुद्र और उनकी शक्तियाँ तथा इस जगत्में जो कुछ भी देखा, सुना और अनुमान किया हुआ है ये सब के सब शिवा और शिवकी आज्ञासे मेरा मनोरथ पूर्ण करें ll 156 - 163 ॥
जो पंच पुरुषार्थस्वरूपा होनेसे पंचार्था कही गयी है, जिसका स्वरूप दिव्य है तथा जो पशुविद्याकी कोटिसे बाहर है, वह पशुओंको पाशसे मुक्त करनेवाली | शैवी परा विद्या, शिवधर्मशास्त्र, शैवधर्म, श्रुतिसम्मत शिवसंज्ञकपुराण, शैवागम तथा धर्मकामादि चतुर्विध | पुरुषार्थ, जिन्हें शिव और शिवाके समान ही मानकर उन्हींके समान पूजा दी गयी है, उन्हीं दोनोंकी आज्ञा | लेकर मेरे अभीष्टकी सिद्धिके लिये इस कर्मका अनुमोदन करें, इसे सफल और मुसम्पन्न घोषित करें ।। 164-167 ॥
श्वेतसे लेकर नकुलीशपर्यन्त शिष्य सहित आचार्यगण, उनकी संतानपरम्परामें उत्पन्न गुरुजन, विशेषत: मेरे गुरु, शैव, माहेश्वर, जो ज्ञान और कर्ममें तत्पर रहनेवाले हैं, मेरे इस कर्मको सफल और सुसम्पन्न मानें ॥ 168 - 169 ।।लौकिक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, वेदवेदांगोंके तत्त्वज्ञ विद्वान्, सर्वशास्त्रकुशल, सांख्यवेत्ता, वैशेषिक, योगशास्त्रके आचार्य, नैयायिक, सूर्योपासक, ब्रह्मोपासक, शैव, वैष्णव तथा अन्य सब शिष्ट और विशिष्ट पुरुष शिवकी आज्ञाके अधीन हो मेरे इस कर्मको अभीष्टसाधक मानें ॥ 170 - 172 ॥
सिद्धान्तमार्गी शैव, पाशुपत शैव, महाव्रतधारी शैव तथा अन्य कापालिक शैव-ये सब-के-सब शिवकी आज्ञाके पालक तथा मेरे भी पूज्य हैं। अतः शिवकी आज्ञासे इन सबका मुझपर अनुग्रह हो और वे इस कार्यको सफल घोषित करें ।। 173-174 ॥ जो दक्षिणाचारके ज्ञानमें परिनिष्ठ तथा दक्षिणाचारके उत्कृष्ट मार्गपर चलनेवाले हैं, वे परस्पर विरोध न रखते हुए मन्त्रका जप करें और मेरे कल्याणकामी हों ॥ 175 ॥
नास्तिक, शठ, कृतघ्न, तामस, पाखण्डी और अति पापी प्राणी मुझसे दूर ही रहें। यहाँ बहुतों की स्तुतिसे क्या लाभ? जो कोई भी आस्तिक संत हैं, वे सब मुझपर अनुग्रह करें और मेरे मंगल होनेका आशीर्वाद दें ॥ 176 -177 ॥
जो पंचावरणरूपी प्रपंचसे घिरे हुए हैं और | सबके आदि कारण हैं, उन आप पुत्रसहित साम्ब सदाशिवको मेरा नमस्कार है ॥ 178 ॥
ऐसा कहकर शिव और शिवाके उद्देश्यसे भूमिपर दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम करे और कम से-कम एक सौ आठ बार पंचाक्षरी विद्याका जप करे। इसी प्रकार शक्तिविद्या ( ॐ नमः शिवायै ) का जप करके उसका समर्पण करे और महादेवजीसे क्षमा माँगकर शेष पूजाकी समाप्ति करे ॥ 179-180 ॥ यह परम पुण्यमय स्तोत्र शिव और शिवाके हृदयको अत्यन्त प्रिय है, सम्पूर्ण मनोरथोंको देने वाला है और भोग तथा मोक्षका एकमात्र साक्षात् साधन है ॥ 189 ॥
जो एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन इसका कीर्तन अथवा श्रवण करता है, वह सारे पापोंको शीघ्र ही धो-बहाकर भगवान् शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता | है ॥ 182 ॥जो गोहत्यारा, कृतघ्न, वीरघाती, गर्भस्थ शिशुकी हत्या करनेवाला, शरणागतका वध करनेवाला और मित्रके प्रति विश्वासघाती है, दुराचार और पापाचारमें ही लगा रहता है तथा माता और पिताका भी घातक है, वह भी इस स्तोत्रके जपसे तत्काल पाप मुक्त हो जाता ॥ 183-184 ॥
दुःस्वप्न आदि महान् अनर्थसूचक भयोंके उपस्थित होनेपर यदि मनुष्य इस स्तोत्रका कीर्तन करे तो वह कदापि अनर्थका भागी नहीं हो सकता ॥ 185 ।।
आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा और जो भी मनोवांछित वस्तु है, उन सबको इस स्तोत्रके जपमें संलग्न रहनेवाला पुरुष प्राप्त कर लेता है । ll 186 ॥
शिवकी पूर्वोक्त पूजा न करके केवल स्तोत्रका पाठ करनेसे जो फल मिलता है, उसको यहाँ बताया गया है; परंतु शिवकी पूजा करके इस स्तोत्रका पाठ करनेसे जो फल मिलता है, उसका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥ 187 ॥
यह फलकी प्राप्ति अलग रहे, इस स्तोत्रका कीर्तन करनेपर इसे सुनते ही माता पार्वतीसहित महादेवजी आकाशमें आकर खड़े हो जाते हैं। अतः उस समय उमासहित देवदेव महादेवकी आकाशमें पूजा करके दोनों हाथ जोड़ खड़ा हो जाय और इस स्तोत्रका पाठ करे ।। 188-189 ।।