नन्दीश्वर बोले- हे तात! हे मुने! अब मैं परमात्मा शिवजीके परम आनन्ददायक वैश्यनाथ नामक अवतारका वर्णन कर रहा हूँ; आप सुनिये ॥ 1 ॥ पूर्व समयमै नन्दिग्राममें कोई महानन्दा नामसे प्रसिद्ध शिवभक्ता महासुन्दरी वेश्या रहती थी॥ 2 ॥ वह ऐश्वर्यसम्पन्न, धनाढ्य, परम कान्तियुक्त, अनेक प्रकारके रत्नोंसे युक्त, शृंगाररससे परिपूर्ण, सब प्रकारकी संगीत विद्याओंमें कुशल तथा मनको अत्यन्त मोहित करनेवाली थी। उसके गानसे रानियाँ तथा राजा हर्षित हो जाते थे । 3-4 ॥ वह वेश्या प्रसन्नतापूर्वक पार्वतीसहित शंकरकी
सदा पूजा करती थी और शिवनामका जप करती थी
तथा भस्म एवं रुद्राक्ष धारण करती थी ॥ 5 ॥ शिवजीका प्रतिदिन पूजनकर वह बड़ी भक्तिके साथ जगदीश्वरकी सेवा करती तथा शिवके उत्तम यशका गान करती हुई नृत्य करती थी ॥ 6 ॥
वह एक बन्दर तथा मुर्गेको रुद्राक्षोंसे विभूषित करके ताली बजा-बजाकर गायन करती हुई उन्हें नचाती थी ॥ 7 ॥ उन दोनोंको नाचते हुए देखकर शिवजीकी भक्तिमें तत्पर वह वेश्या अपनी सखियोंके सहित प्रेमपूर्वक उच्च स्वरमें हँसती थी ॥ 8 ॥
रुद्राक्षका बाजूबन्द एवं कर्णाभूषण पहनी हुई उस महानन्दाके सामने उसके सिखानेसे वानर बालककी तरह नाचता था ॥ 9 ॥
शिखामें रुद्राक्ष धारण किया हुआ नृत्यकला में विशारद वह मुर्गा देखनेवालोंको आनन्दित करता हुआ, | उस वानरके साथ सदा नृत्य किया करता था ॥ 10 ॥ इस प्रकार शिवभक्तिपरायणा वह वेश्या अत्यन्त आदरपूर्वक कौतुक करती हुई सदा आनन्दसे रहती थी ॥ 11 ॥
हे मुनिसत्तम! इस प्रकार शिवभक्ति करती हुई उस वेश्याका सुखपूर्वक बहुत समय व्यतीत हो गया ॥ 12 ॥एक बार स्वयं ही शुभस्वरूप शिवजी व्रत धारण किये हुए वैश्य बनकर उसके भावकी परीक्षा करनेके लिये उसके घर आये ।। 13 ।।
वे कृती (वैश्यरूप शिव) त्रिपुण्ड्रसे शोभायमान मस्तकवाले, रुद्राक्षके आभरणवाले, शिवनाम जपने में आसक्त, जटायुक्त तथा शैव वेश धारण किये हुए थे ॥ 14 ॥
शरीरमें भस्म लगाये तथा हाथमें उत्तम रत्नोंसे युक्त श्रेष्ठ कंकण पहने वे परम कौतुकीकी तरह शोभित हो रहे थे ll 15 ll
उन आये हुए वैश्यकी भलीभाँति पूजा करके उस सुन्दरी वेश्याने बड़े आनन्दके साथ उनको आदरसहित अपने स्थानमें बैठाया ॥ 16 ll
उनकी कलाईमें अति मनोहर सुन्दर कंकणको देखकर उसमें उसकी लालसा उत्पन्न हो गयी और वह वेश्या चकित होकर उनसे कहने लगी ॥ 17 ॥ महानन्दा बोली- आपके हाथमें स्थित यह महा रत्नजटित कंकण शीघ्र ही मेरे मनको आकर्षित कर रहा है: यह तो दिव्य स्त्रियोंके योग्य आभूषण है ll 18 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार नवीन रत्नोंसे युक्त हाथके भूषणके प्रति उसे लालसायुक्त देखकर उदार बुद्धिवाले वैश्यने मुसकराकर कहा- ॥ 19 ॥ वैश्यनाथ बोले- यदि इस रत्नोपम दिव्य कंकणमें तुम्हारा मन लुभा गया है, तो तुम ही प्रीतिसे इसको धारण करो; किंतु इसका क्या मूल्य दोगी ? ॥ 20 ॥
वेश्या बोली- हम व्यभिचारी वेश्याएँ हैं, पतिव्रताएँ नहीं हैं। व्यभिचार ही हमारे कुलका धर्म है; इसमें संशय नहीं ॥ 21 ॥
निश्चय ही इस हस्ताभूषणने मेरे चितको आकृष्ट कर लिया है, इसलिये मैं तीन दिनोंतक दिन रात आपकी पत्नी बनकर रहूँगी ॥ 22 ॥
वैश्य बोले- हे वीरवल्लभे 'बहुत अच्छा'; यदि तुम्हारा वचन सत्य है, तो मैं [यह] रत्नकंकण देता हूँ और तुम तीन राततकके लिये मेरी पत्नी बन जाओ ॥ 23 ॥
हे प्रिये! इस व्यवहारमें सूर्य तथा चन्द्रमा साक्षी हैं; यह सत्य है-ऐसा तीन बार कहकर तुम मेरे हृदयका स्पर्श करो ।। 24 ।।वेश्या बोली - हे प्रभो! तीन दिनतक दिन-रात आपकी पत्नी होकर मैं सहधर्मका पालन करूंगी, यह सत्य है-सत्य है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 25 ॥ नन्दीश्वर बोले- उस महानन्दाने तीन बार ऐसा कहकर सूर्य और चन्द्रमाको साक्षी मानकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनके हृदयका स्पर्श किया। तब वे वैश्य उसे रत्नजटित कंकण देकर [पुन:] उसके हाथमें रत्नमय शिवलिंग देकर यह कहने लगे- ॥ 26-27 ।।
वैश्यनाथ बोले- हे कान्ते यह रत्नजटित शिवलिंग मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है; तुम इसकी रक्षा करना और यत्नपूर्वक इसे छिपाकर रखना ॥ 28 ॥
नन्दीश्वर बोले- उस वेश्याने 'ऐसा ही होगा' इस प्रकार कहकर रत्नजटित लिंग लेकर और उसे नाट्यशालाके मध्य में रखकर घरमें प्रवेश किया ।। 29 ।।
तब यह वेश्या उन विधर्मी (विलासी) वैश्यके साथ रात्रिमें कोमल गोंसे शोभायमान पलंगपर सुखपूर्वक सो गयी ॥ 30 ॥
हे मुने! तब मध्य रात्रिके समय उन वैश्यपतिकी इच्छासे नृत्यमण्डपके मध्य अकस्मात् एक ध्वनि होने लगी हे तात! उसी समय तेज पवनकी सहायतासे अग्निने अत्यन्त प्रज्वलित होकर उस नाट्यशालाको चारों ओरसे आवृत कर लिया 31-32 ।। मण्डपके प्रज्वलित होनेपर उस वेश्याने सहसा व्याकुलतासे उठकर बन्दरको बन्धनमुक्त कर दिया ॥ 33 ॥ बन्धनसे मुक्त हुआ वह बन्दर उस मुर्गेके साथ बहुत से अग्निकणोंको हटा करके भयसे दूर भाग गया। खम्भेके साथ जलकर खण्ड-खण्ड हो गये उस लिंगको देखकर वह वैश्य तथा वेश्या दोनों महादुखी हो गये ।। 34-35 ।।
उस समय वैश्यपतिने प्राणोंके समान शिवलिंगको जला हुआ देखकर उस वेश्याके चित्तमें स्थित भावको जाननेके लिये मरनेका विचार किया ॥ 36 ॥
अनेक लीलाएँ करनेवाले तथा कौतुक मनुष्य शरीर धारण किये हुए महेश्वररूप वैश्यपतिने महादुखी होकर उस दुःखित वेश्यासे कहा कि अब मैं अग्निमें प्रविष्ट हो जाऊँगा॥ 37 ॥वैश्यपति बोले- मेरे प्राणोंसे भी प्रिय शिवलिंगके जलकर खण्डित हो जानेपर मैं जीनेकी इच्छा नहीं करता-यह सत्य सत्य कहता हूँ; इसमें संशय नहीं है। हे भद्रे तुम अपने श्रेष्ठ सेवकोंसे बहुत शीघ्र चिता बनवाओ में शिवमें मन लगाकर अग्निमें प्रवेश करूँगा ।। 38-39 ।।
हे भद्रे । यदि ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु आदि भी आकर मुझे रोकेंगे, तो भी इस समय मैं अग्निमें प्रवेश करूँगा और प्राणोंको त्याग दूंगा ll 40 ll
नन्दीश्वर बोले [हे मुने] उनका ऐसा दृढ़ संकल्प जानकर वह अत्यन्त दुःखित हुई और उसने अपने सेवकोंसे अपने भवनके बाहर चिता बनवायी ॥ 41 ll
तब सुन्दर कौतुक करनेवाले तथा वेश्याके संगतिभावकी परीक्षा करनेवाले वे वैश्यरूपधारी धीर शिव जलती हुई अग्निकी परिक्रमा करके मनुष्योंके देखते-देखते अग्निमें प्रवेश कर गये ।। 42 ।।
हे मुनिसत्तम। वह युवती वेश्या महानन्दा उस गतिको देखकर अत्यन्त विस्मित हो उठी और खिन्न हो गयी। इसके बाद वह दुखी वेश्या निर्मल धर्मका स्मरण करके सभी बन्धुजनोंको देखकर करुणासे युक्त वचन कहने लगी- ।। 43-44 ।।
महानन्दा बोली- मैंने इस वैश्यसे रत्नकंकण लेकर सत्य वचन कहा था कि मैं तीन दिनतक इस वैश्यकी धर्मसम्मत पत्नी रहूँगी ll 45 ll
मेरे द्वारा किये गये कर्मसे यह शिवव्रतधारी वैश्य मृत्युको प्राप्त हुआ है, अतः मैं भी इसके साथ अग्निमें प्रवेश करूँगी ॥ 46 ll
सत्य बोलनेवाले आचार्योंने '[नारी] स्वधर्मका आचरण करनेवाली हो'-ऐसा कहा है, अतः प्रसन्न होकर मेरे द्वारा ऐसा किये जानेपर मुझमें स्थित सत्य नष्ट नहीं होगा। सत्यका आश्रय ही परम धर्म है, सत्यसे परम गति होती है, सत्यसे ही स्वर्ग और मोक्ष मिलते हैं, अतः सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ll 47-48 ।।
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार दृढ संकल्पवाली उस नारीने अपने बन्धुओंद्वारा रोके जानेपर भी सत्यके लोपके भयसे प्राणोंको त्याग देनेका निश्चय कियाऔर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको अपनी सम्पत्ति देकर सदाशिवका | ध्यानकर उस अग्निकी तीन बार परिक्रमा करके वह उसमें प्रवेश करनेको उद्यत हुई । 49-50 ।।
अपने चरणोंमें समर्पित मनवाली उस वेश्याको जलती अग्निमें गिरती देखकर प्रकट हुए उन विश्वात्मा शिवजीने रोक दिया ॥ 51 ॥
सब देवताओंके भी देव, तीन नेत्रोंवाले, चन्द्रमाकी कलासे शोभित, करोड़ों चन्द्रमा सूर्य अग्निके समान प्रकाशवाले उन शिवको देखकर वह स्तब्ध तथा डरी हुईके समान उसी प्रकार खड़ी रह गयी ॥ 52 ॥
तब व्याकुल, संत्रस्त, कोपती हुई, जड़ीभूत तथा आँसू गिराती हुई उस वेश्याको आश्वस्त करके उसके हाथोंको पकड़कर शिवजी यह वचन कहने लगे - ॥ 53 ॥
शिवजी बोले- तुम्हारे सत्य, धर्म, धैर्य तथा मुझमें तुम्हारी निश्चल भक्तिकी परीक्षा करनेके निमित्त मैं वैश्य बनकर तुम्हारे पास आया था ॥ 54 ॥
मैंने अपनी मायासे अग्निको प्रदीप्तकर तुम्हारे नाट्यमण्डपको जलाया है और रत्नलिंगको दग्ध करके मैं अग्निमें प्रविष्ट हुआ हूँ ॥ 55 ॥
तुम सत्यका अनुस्मरण करके मेरे साथ अग्निमें प्रविष्ट होने लगी, अतः मैं तुम्हें देवताओंके लिये भी दुर्लभ भोगोंको प्रदान करूँगा हे सुश्रोणि तुम जो जो चाहती हो, उसे मैं तुम्हें देता हूँ; मैं तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारे लिये [मुझे] कुछ भी अदेय नहीं है ।। 56-57 नन्दीश्वर बोले [हे मुने!] इस प्रकार भक्तवत्सल गौरीपति शिवजीके कहनेपर वह महानन्दा वेश्या शंकरजीसे कहने लगी- ॥ 58 ॥
वेश्या बोली भूमि स्वर्ग तथा पातालके भोगों में मेरी इच्छा नहीं है; मैं आपके चरणकमलोंके | स्पर्शके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं चाहती हूँ ॥ 59 ॥ जो मेरे भृत्य तथा दासियाँ हैं और जो अन्य बान्धव हैं, वे सब आपके दर्शनके लिये लालायित हैं और | आपमें ही चित्तको वृत्तियों लगाये हुए हैं। मेरे सहित इन सभीको अपने परम पदकी प्राप्ति कराके पुनर्जन्मके घोर भयसे छुड़ाइये, आपको नमस्कार है ।। 60-61 ॥नन्दीश्वर बोले - [ हे मुने!] इसके उपरान्त शिवजीने उसके वचनका आदरकर उसके सहित उन सबको अपने परम पदकी प्राप्ति करायी ॥ 62 ॥
मैंने वैश्वनाथके परम अवतारका वर्णन आपसे कर दिया, जो महानन्दाको सुख देनेवाला तथा भक्तोंको सदा आनन्द देनेवाला है ॥ 63 ॥
शिवके अवताररूप वैश्यनाथका यह दिव्य चरित्र परम पवित्र, सत्पुरुषोंको शीघ्र सब कुछ देनेवाला, महानन्दाको परम सुख देनेवाला तथा अद्भुत है ॥ 64 ॥ जो भक्तिसहित सावधान होकर इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह अपने धर्मसे पतित नहीं होता, और परलोकमें [उत्तम] गति प्राप्त करता है ॥ 65 ॥